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________________ जो जीव अपने शरीर का भिन्न अस्तित्व रखें, उसे प्रत्येक वनस्पतिकाय कहते हैं।२७० साधारण वनस्पति अर्थात् निगोद के जीव । वे इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु से अग्राह्य हैं। इनके एक दो तीन संख्यात व असंख्यात जीवों का पिण्ड नहीं दिखता, अपितु अनन्तजीवों का पिण्ड ही देखा जा सकता है ।२७१ . जैनागमों में निरूपित सूक्ष्म स्थावर जीवों की तुलना वायरस और बैक्टीरिया से की जा सकती है। वायरस के बारे में वैज्ञानिकों का कथन है कि ये इतने छोटे हैं कि सूक्ष्म यन्त्रों से भी इनका पता लगाना कठिन है। संसार में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ ये न हों । बहुत से कीटाणु तो प्रत्येक तापक्रम पर रह सकते हैं ।२७२ ये वायरस और बैक्टीरिया अनेक प्रकार की आकृतिवाले हैं। इनमें से सूक्ष्म गोलाकार आकृति के कीटाणु, जिन्हें कोकाई कहते हैं तथा चक्करदार आकृति के कीटाणु, जिन्हें स्पाइरल कहते हैं,२७३ सूक्ष्म या निगोद वनस्पतिकाय में गर्भित किये जा सकते हैं। प्राणी मात्र में आहारसंज्ञा, निद्रासंज्ञा, भयसंज्ञा और मैथुनसंज्ञा होती है ।२७४ सब प्राणियों में वनस्पति भी आ जाती है । वनस्पति कब ज्यादा-कम आहार करती है, इसका भगवतीसूत्र में इस प्रकार उल्लेख आता है-वर्षा ऋतु में वनस्पति अधिक आहार करती है। तदनन्तर अनुक्रम से शरद, हेमन्त, वसन्त व ग्रीष्म ऋतु में अल्प से अल्प आहार करती है ।२७५ पृथ्वी, जल और वनस्पति में कृष्ण, नील, कापोतं और तेजस्ये चार लेश्याएँ पायी जाती हैं।२७६ इस प्रकार हम पाते हैं कि वनस्पति की प्रत्येक क्रिया, जो शताब्दियों पूर्व घोषित की गई थी, वह प्रयोगशाला में प्रमाणित हो चुकी है। इन स्थावर जीवों २७०. पनवणा १.५६ २७१. सुहमा आणागिजा....णिगोअजीवाणंताणं-पन्नवणा १.गा. १०३ पृ. ६३ २७२. कृषिशास्त्र पृ. १२५ २७३. कृषिशास्त्र पृ. १२६४ २७४. ठाणांग ४.२३ २७५. भगवती ७.३.१ २७६: “एगिदियाणं.....वणस्सइकाइयाववि" पन्नवणा १७.२- १५९-६१ ११६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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