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दर्शनमोहनीय ही वह कर्मप्रकति है, जो सम्यग्दर्शन नहीं होने देती। . ___मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । कषाय
और नो कषाय के भेद से चारित्र मोहनीय दो प्रकार का एवं दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है।३५६ दर्शन मोहनीय के तीन भेद ये हैं१. सम्यक्त्व २. मिथ्यात्व और ३. सम्यग्मिथ्यात्व। ___ चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का है- १. अकषायमोहनीय और २.कषायमोहनीय । किंचित् अर्थात् अत्यल्प मात्रा में कषाय के उदय को अकषाय चारित्र मोहनीय कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसंकवेद, इस प्रकार अकषायमोहनीय के नौ भेद हैं । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, और संज्वलन भेद विकल्प वाले क्रोध, मान, माया, लोभ-ये १६ कषाय भेद कषायमोहनीय के हैं ।३५७ चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का चारित्र गुण प्रकट नहीं होता। १. सम्यक्त्व:- जब 'मिथ्यात्व' शुभ परिणामों के कारण अपने विपाक को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। २. मिथ्यात्व :- जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धान करने में निरुत्सुक एवं हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। ३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व :- जिसका उदय मिले परिणामों के होने में निमित्त है, जो न केवल सम्यक्त्व रूप कहे जा सकते हैं और न केवल मिथ्यात्व रूप, किन्तु उभयरूप होते हैं, वह मिश्रमोहनीय कर्म है। इसके लिए उदाहरण जल से धोने आदि के कारण अर्धशुद्ध मन्दशक्ति वाले कोदों का दिया जाता है ।३५८.
यहाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय:५९ मूल प्रकृति के आठ भेदों के स्वरूप को संक्षिप में प्रस्तुत किया ३५६. उत्तराध्ययन ३८.८.१० ३५७. त.सू. ८.९ व उत्तराध्ययन ३३.११ ३५८. स.सि. ८.९.७४९ ३५९. त.सू. ८.४ व ठाणांग ८.५ तथा उत्तराध्ययन ३३.२.३
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