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नहीं, अतं द्रव्य की दृष्टि से अभिन्न भी।
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परिणाम माना जा सकता है, परन्तु परिणाम में वृद्धि नहीं माना जा सकती । यदि बीज अंकुर रूप से परिणत होता है तो दूध के परिणाम दही की तरह अंकुर को बीजमात्र ही होना चाहिये बड़ा नहीं। कहा भी है- यदि बीज अंकुरत्व को प्राप्त होता है तो छोटे बीज से बड़ा अंकुर कैसे बन सकेगा? यदि पार्थिव और जलीय रस से अंकुर की वृद्धि कही जाती है तो कहना होगा कि वह बीज का परिणाम नहीं होगा। पार्थिव और जलीय तथा अन्य रस द्रव्यों के संचय से वृद्धि की कल्पना भी ठीक नहीं है । जैसे लाख के लपेटने से भी काष्ठ मोटा अवश्य हो जाता है और रस बढ़ते हैं तो फिर बीज क्या करते हैं। इस बीज वृद्धि का समाधान यह है कि जैसे मनुष्यायु और नामकर्म के उदय से उत्पन्न बालक बाह्यसूर्यप्रकाश और माँ के दूध आदि को अपनी भीतरी पाचनशक्ति से पचाता हुआ आहारादि द्वारा बढ़ता है, उसी प्रकार वनस्पति भी आयु कर्म और नामकर्म के उदय से बीचाश्रित जीव अंकुररूप से उत्पन्न होकर भी पार्थिव और जलीय रसभाग को खींचता हुआ बाह्यसूर्यप्रकाश और आंतरिक पाचनशक्ति के अनुसार उन्हें जीर्ण करता हुआ अपने खाद के अनुसार बढ़ता है ।
परिणमन संबन्धी वृद्धिदोष भी एकान्तवादियों में आता है । अनेकान्तवाद अंकुरादि सभी द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं, परन्तु पर्यायदृष्टि से अनित्य । १
यहाँ एक प्रश्न और उठता है कि जब परिणमन और वर्तना दोनों ही परिवर्तन को ही सूचित करते हैं तो उन्हें अलग-अलग मानने की क्या तुक है? इसका समाधान वर्तना और परिणाम में अन्तर को स्पष्ट कर के दिया जा सकता है।
वर्तना और परिणाम में भेद :
१. स्थूलता एवं सूक्ष्मता - वर्तना और परिणाम यद्यपि परिवर्तन को ही सूचित करते हैं फिर भी इनमें सूक्ष्मता और स्थूलता का अंतर है । वर्तना सूक्ष्मता को इंगित करती है और परिणमन स्थूलता को, जैसे बालक से युवक ।
८०. त. रा. वा. ५.२२.११.४७८
८१. त. रा. वा. ५.२२.१५.१६.४७९.८०
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