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________________ करने में समय तो लगता ही है। जैनदर्शन में वर्णित समय इससे भी असंख्यात गुणा अधिक सूक्ष्म है। इस प्रकार काल संबन्धी चर्चा के निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि जैनदर्शनिकों में काल के संबन्ध में दो मत प्रचलित हैं-एक मत काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाला है और दूसरा काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानने वाला, फिर भी ये दोनों विरोधी नहीं हैं। भगवतीसूत्र,२३ उत्तराध्ययनसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र२५ आदि में काल संबन्धी ये दोनों मान्यताएं स्वीकृत हैं। आचार्य उमास्वाति,२६ जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरि२८ आदि ने भी दोनों ही मत स्वीकार किये हैं। . उपरोक्त दोनों मत परस्पर अविरोधी हैं; क्योंकि सापेक्ष हैं । निश्चय नय से उसे जीव और अजीव की पर्याय मात्र मानने से ही सभी व्यवहार संपन्न हो सकते हैं। व्यवहार दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र और पृथक् द्रव्य माना जा सकता है। पुगलस्तिकाय :____ अब हम चौथे अध्याय के अंतिम शीर्षक पुद्गलास्तिकाय में पुद्गल क्या है और उसका स्वरूप क्या है? इसका विस्तृत विवेचन करने का प्रयास करेंगे। __षद्रव्यों में से एक पुद्गल ही ऐसा है जो रूपी या मूर्त है । संसारभ्रमण का मुख्य कारण शुद्धस्वरूपी आत्मा की पुद्गल से संगति होना है चाहे वह संगति कर्मबन्ध के रूप में हो या शरीर और आत्मा के एकक्षेत्रावगाह के रूप में हो। संसारभ्रमण से मुक्त होने पर इन दोनों संगतियों का उच्छेद हो जाता है। - इस लोक में मुख्य दो ही पदार्थ हैं जिनके द्वारा यह सृष्टि निर्मित है-जीव और पद्गल । अवशिष्ट चारों द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल सहयोगमात्र देने वाले उदासीन उपकारक होते हैं। २३. भगवती २५.४.७३४ २४. उत्तराध्ययन २८.७.८ २५. प्रज्ञापना १.३ २६. तत्त्वार्थसूत्र ५.३८,३९ पर सिद्धसेन की भाष्य व्याख्या २७. विशेषावश्यकभाष्य ९२६ एवं २०६८ २८. धर्मसंग्रहणी गाथा ३२ की मलयगिरि टीका २१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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