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अर्थपर्याय के रूप में भिन्न-भिन्न (बाल,युवा आदि) दिखता है । ४४
व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय का अल्प विवेचन आचार्य शुभचन्द्र ने भी किया है। उनके अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अर्थपर्याय एवं जीव और पुद्गल में अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार की पर्याय उपलब्ध होती हैं । ५
जैन दर्शन का यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त 'सत्' सिद्धान्त 'परिणामी नित्यत्ववाद' कहलाता है। इस सिद्धान्त की तुलना रासायनिक विज्ञान' के 'द्रव्याक्षरतत्ववाद' से की जा सकती है। इस सिद्धान्त की स्थापना Lawoisier नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने की थी। इसके अनुसार विश्व में द्रव्य का परिणमन सदा होता है, परन्तु न्यूनाधिकता नहीं होती। साधारण दृष्टि से जिसे द्रव्य का नाश समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमन मात्र है। जैसे-कोयला जल कर राख हो जाता है, साधारण रूप से इसे नाश होना कहते हैं, परन्तु वास्तव में तो वह वायुमण्डल के ऑक्सीजन अंश के साथ मिलकर कार्बानिक एसिड गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
, इसी प्रकार शक्कर या नमक भी पानी में घुलकर नष्ट नहीं होते, परन्तु वे ठोस से द्रव में रूपान्तरित हो जाते हैं । वस्तुतः नवीव वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, मात्र रूपान्तर होता है।
प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय आकर्षण आदि का ह्रास नहीं होता, वे तो एक दूसरे में मात्र परिवर्तित होते हैं।६
क्षण-क्षण में परिवर्तनशील पदार्थ यदि समाप्त होते तो आज सृष्टि का यह स्वरूप नहीं होता । परिवर्तन के अभाव में मात्र उत्पाद से सृष्टि का यह स्वरूप संभव नहीं था। ___‘सन्मति तर्क' में इस उत्पाद-व्यय रूप परिणमन को प्रयत्नजन्य और अप्रयत्नजन्य, दो प्रकार का कहा है। प्रयत्नजन्य वह है जो कि अपरिशुद्ध है। इसे
४४. वंजणपजायस्स..... अत्थपजाओ-स. त. १.३४. ४५. का. प्रे. टीका १०.२२० ४६. मुनि नथमलजी-जैन धर्म और दर्शन पृ. ३३० . ४७. उत्पादध्रुवविनाशैः.....दृश्यते द्रव्यानु. - त. ९.२.
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