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________________ प्रतर और अणुचरण । उत्करः- करोंत से लकड़ी आदि को जो चीरा जाता है, वह उत्कर है। चूर्ण :- जौ, गेहूँ आदि का सत्तु कनक आदि जो बनाया जाता है, वह चूर्ण है । खण्डः- घट आदि के जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते हैं, वे खण्ड हैं । चूर्णिका:- उड़द, मूंग के जो खण्ड (दाल) किए जाते हैं, वे चूर्णिका हैं । प्रतर:- बादल के बिखर-बिखर कर अलग-अलग जो पटल बन जाते हैं, वे प्रतर कहलाते हैं अणुचटण:- तपाये हु लोहे के गोले आदि को घन आदि से पीटने पर जो स्फुलिंग निकलते हैं वे अणुचटण हैं । २ अधंकारः जैन सिद्धान्त में अन्धकार को भी पुद्गल की पर्याय माना गया है । न केवल माना गया है, अपितु तार्किक आधार पर उसे सिद्ध भी किया गया है । दृष्टि प्रतिबन्धकर्त्ता अन्धकार है। दीपक उस अन्धकार को हटाने वाला होने के कारण प्रकाशक होता है । ३ कुछ दार्शनिक अन्धकार को पुद्गल की पर्याय न मानकर प्रकाश का अभाव कहते हैं और उसके चार कारण बताते हैं: १. इसमें कठोर अवयव नहीं है । २. यह अप्रतिघाती है। ३. इसमें स्पर्श का अभाव है । ४. इसमें खंडित अवयवीरूप द्रव्यविभाग की प्रतीति नहीं होती । परन्तु जैनदर्शन इन तर्कों का खंडन करते हुए कहता है कि अन्धकार भी प्रकाश की तरह चक्षु का विषय है। प्रकाश के परमाणु ही अन्धकार की पर्याय में परिणत होते हैं । यह दृष्टि का विषय भी बनता है, जो दृष्टि का विषय बनता है वह ८२. सं. सि. ५.२४ ५७३ ८३. त. रा. वा. ५.२४. १५.४८९ Jain Education International २२५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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