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प्रज्ञापना में स्थलचर को उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से दो भेद वाला भी कहा है और उनके नाम बताये हैं ।२९२ . ये भी संमूर्छिम और गर्भज दोनों प्रकार के हैं तथा संमूर्छिम नपुंसक एवं गर्भज स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं । २९३
खेचर तियेच पंचेन्द्रिय चार प्रकार के हैं- चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गक पक्षी, विततपक्षी ।२९४ - जिनकी पाँख चमड़े की हो, वे चर्मपक्षी हैं, जैसे-चमागादड आदि। जिनकी पाँखें रोंएदार हो, वे रोमपक्षी या लोमपक्षी हैं, जैसे-चटक आदि। जिनकी पाँखें उड़ते समय पेटी जैसी रहें, वे समुद्गक पक्षी हैं, जैसे-हंस, कलहंस आदि।
और जिनके पंख फैले ही रहें, वे विततपक्षी हैं (ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं हैं)। ये भी संमूर्छिम तथा गर्भज दो प्रकार से निरूपित किये गए हैं, तथा जो संमूर्छिम हैं, उन्हें नपुंसक और जो गर्भज हैं, उन्हें स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से विभक्त किया है ।२९५ २.मनुष्यः- मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। संमूर्छिम और गर्भज ।२९६ तीनों लोकों में ऊपर, नीचे और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्छन है। इसका अभिप्राय है, चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर अवयवों की रचना होना । नारी के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर ग्रहण को गर्भ कहते हैं ।२९७
संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के चौदह स्थान होते हैं। पन्द्रह कर्मभूमियाँ, पन्द्रह अकर्मभूमियाँ और छप्पन अन्तर्वीप में गर्भज मनुष्यों के विष्ठा में, मूत्र में, नाक के मेल में, वमन में, पित्त में, पूय, रक्त में, वीर्य में, पूर्व में सूखे शुक्र के बाद में भीगे पुद्गलों में मरे हुए जीवों के कलेवर में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, ग्राम के
२९२. प्रज्ञापना १.७६.८३.८५ २९३. प्रज्ञापना १.८४.८५ २९४. प्रज्ञापना १.८६ एवं जीवविचार २२ २९५. प्रज्ञापना १.८७.९० २९६. प्रज्ञापना १.९२ २९७. स.सि. ३.३१ ३२२
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