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कर्ममुक्त आत्मा:
आत्मा ज्ञानमय, दर्शनमय, अतीन्द्रिय, महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध है । २०९ आत्मा ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । यह काल की अपेक्षा से आत्मा के लक्षण हैं, भाव की अपेक्षा अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श हैं । २१०
आचारांग में कर्मयुक्त आत्मा का स्वरूप इस प्रकार प्राप्त होता है - शुद्धात्मा अवर्णनीय, अगम्य, शरीर रहित, ज्ञाता, न दीर्घ, न ह्रस्व, न वृत्त, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न परिमंडल, न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीत, न शुक्ल, न सुगंधित, न दुर्गंधयुक्त, न तिक्त, न कटु, न कषाय, न अम्ल, न मधुर, न कर्कश, न मृदु, न गुरु, न लघु, न शीत, नैं उष्ण, न स्निग्ध, न रूक्ष है । वह शरीरमुक्त, कर्ममुक्त, अलेप, स्त्री-पुरुष - नपुंसक आदि वेद रहित है। वह मात्र परिज्ञा है, संज्ञा है, चैतन्यमय है, अनुपमेय व अमूर्त है, वह पदातीत, शब्दातीत, रूपातीत, रसातीत, स्पर्शातीत है । "
२११
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा को निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञायकमात्र कहा है । वह न प्रमत्त है, न अप्रमत्त, न ज्ञान-दर्शन- चारित्र स्वरूप है । २१२ वह तो मात्र अन्यय, शुद्ध, उपयोग स्वरूप है । २१३
नियमसार कुन्दकुन्द ने नियमसार में आत्मा का भावात्मक स्वरूप बताते हुए कहा कि केवलज्ञान स्वभाव, केवलदर्शन स्वभाव, अनन्तसुखमय, और अनन्तवीर्यमयह आत्मा है । २१४ यही लक्षण उत्तराध्ययन में मिलता है । २१५
- २०९. प्र. सा. १९२.
२१०. ठाणांग ५.१७३
२११. आचारांग ३.१२३ -४० व समयसार ५०-५५
२१२. समयसार
२१३. नि. सा. ४४
२१४. नि.सा. ९६
२१५. उत्तराध्ययनं २८.११
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