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________________ । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में नयशैली से, व्यवहार नय से, आत्मा को ज्ञानावरणीय कर्म, औदारिकादि शरीर, आहारादि पर्याप्ति के योग्य पुद्गलरूप नोकर्म का और बाह्य पदार्थ घटपटादि का कर्ता कहा है, परन्तु अशुद्ध निश्चय नय से वह आत्मा राग-द्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है, तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध चेतन ज्ञान-दर्शन स्वरूप शुद्ध भावों का कर्ता है ।२०१ - यही तत्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रगट हुआ है कि संसार एवं मोक्ष-इन दोनों का कर्ता एवं भोक्ता जीव स्वयं ही हैं । २०२ . समयसार में संपूर्ण द्वितीय अधिकार कर्ता और कर्म प्रकरण से व्याप्त है। समयसार के अनुसार व्यवहार नय से आत्मा अनेक पुद्गल कर्मों का कर्ता एवं अनेक कर्मपुद्गलों का भोक्ता है ।२०३ ... इन कर्मों का आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से ही कर्ता नहीं, निमित्त नैमित्तिकभाव से भी आत्मा कर्ता नहीं है। इसी प्रकार बाह्य पदार्थ घट, पट अथवा अन्य किन्हीं द्रव्यों का कर्त्ता आत्मा नहीं है, परन्तु घटादि द्रव्य और क्रोधादि विभावभावों को उत्पन्न करने वाले योग व उपयोग का कर्ता है आत्मा।२०४ संक्षेपतः यह कहा जा सकता है कि आत्मा कर्ता और भोक्ता उपचार (व्यवहार) से है, परमार्थ से नहीं । जीव निमित्तभूत होने पर कर्मबन्ध का परिणाम होता हुआ देख कर जीव ने कर्म किया, यह उपचार मात्र से कहा जाता है ।२०५ - इस तत्थ को एक दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है- युद्ध में सेना ही संघर्ष करती है, पर कथन यही होता कि राजा ने युद्ध किया'। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्म जीव ने किये, यह कथन भी उपचार से ही है।०६। निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा पर-पदार्थों का कर्ता नहीं है। जो यह मानता है कि मैं दूसरों को मारता हूँ, दूसरे मुझे मारते हैं, वह अज्ञानी है। जो यह मानता .२०१. समयसार ९८ २०२. कार्तिकेयानुपेक्षा १८८ २०३. समयसार ८४ २०४. समयसार १०० २०५. समयसार १०५ २०६. समयसार १०६ १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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