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________________ अध्याय : पञ्चम उपसंहार जैनदर्शन के सभी सिद्धान्तों में स्याद्वाद शैली स्पष्ट नजर आती है। वस्तुतत्त्व की मीमांसा भी जैनदर्शन में भेदाभेद की अपेक्षा से हुई है। प्रश्नों को स्याद्वाद के अन्तर्गत समाहित करने के प्रयास में जैनदर्शन को यद्यपि संशयवाद के आरोपों से घेरा गया, पर गहराई में जाकर यदि स्याद्वाद को समझा जाये तो यह भ्रान्ति निरर्थक और निर्मूल सिद्ध होगी। हम अपने व्यवहार में भी पदार्थ का सर्वथा-एकान्त स्वरूप स्वीकार नहीं कर सकते । पदार्थ का वास्तविक स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि यदि उसके अन्य धर्मों का सर्वथा विच्छेद करके मात्र एक ही धर्म का समग्र, मुख्य और सत्य मान लें तो व्यवहार ही खंडहर हो जाता है। जैनदर्शन के सामने भी यह कठिनाई खड़ी हो सकती थी यदि वह पदार्थ का एकांगी स्वरूप करता; क्योंकि एकांगी स्वभाव में या तो शाश्वतवाद रहेगा या शाश्वतवाद । पदार्थ मात्र शाश्वत है तो चारों ओर परिवर्तन क्यों दिख रहा है? हमारे स्वयं के अंतर्मन में पनपते, बदलते भावों को हम महसूस करते हैं। बाह्य जगत् में भी हमारे अत्यन्त समीप शरीर की अवस्थाओं में प्रतिपल परिवर्तन होता है, फिर भी शरीर के परिवर्तन में कोई ऐसा शाश्वत और अकम्प तत्त्व अवश्य है जिसके आधार पर परिवर्तन की संभाव्यता है और यही अशाश्वत के मध्य शाश्वत वस्तु स्वरूप जैन दर्शन का प्रतिपाद्य है जिसे “तत्त्व क्या है?" गौतमस्वामी के प्रश्न परभगवान् महावीर ने “उवगमेई वा, विगमेई वा धुवेई वा" कहा था जो दर्शन में त्रिपदी के नाम से पहचाना जाता है। इस शोधप्रबन्ध में इसी उत्पन्न, विनाश और ध्रौव्य के स्वरूप और लक्षण को विवेचित करने का प्रयास किया गया है। २३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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