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________________ विकार है-ऐसा हम नहीं कह सकते । ये दोनों एक हैं, भेद प्रतीतिमात्र है, हाँ! व्यावहारिक भेद अवश्य है।६ आचार्य शंकर ने ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण माना है। इसी ब्रह्म से आकाशादि भूतप्रपंच की उत्पत्ति होती है। आकाश एक है, अनन्त है, लघु और सूक्ष्म है, क्रियारहित, सर्वव्यापक और सबसे प्रथम उत्पन्न पदार्थ है।४८ .. - जैनदर्शन वेदान्त की आकाश व्यवस्था से सहमत नहीं है, क्योंकि चेतन से अचेतन तत्त्व कैसे उत्पन्न हो सकता है? आकाश शाश्वत और विभु है, फिर वह समय-विशेष में उत्पन्न कैसे माना जा सकता है? आकाश स्वयं स्वतन्त्र और षड्द्रव्यों में से एक द्रव्य है। . बौद्ध मत और आकाश :- बौद्ध दर्शन के अनुसार तत्त्व चार हैं, पृथ्वी जो कठोर है, जल जो शीतल है, अग्नि जो उष्ण है, वायु जो गतिमान् है । आकाश को वे नहीं मानते, परन्तु कई वाक्यों में निरपेक्ष आकाश को भी जोड़ देते हैं। बुद्ध का कहना था “हे आनन्द! यह महान् पृथ्वी जल पर आश्रित है, जल वायु पर आश्रित है और वायु आकाश पर आश्रित है”। आकाश का विवेचन एक अन्य अपेक्षा से भी आता है। “नागसेन! इस संसार में ऐसे प्राणी पाए जाते हैं जो कर्म के द्वारा इस जन्म में आये हैं, दूसरे ऐसे हैं जो किसी के परिणाम के रूप में आये हैं, परन्तु दो वस्तुएँ ऐसी हैं जो इन दोनों की श्रेणी में नहीं आती- एक है आकाश और दूसरा है निर्वाण ।"५१ . परन्तु वैभाषिक और सौत्रान्तिक दो लोक मानते हैं और इनमें परस्पर भेद करते हैं-भाजनलोक जो वस्तुओं का आवास स्थान है और सत्त्वलोक जोजीवित प्राणियों का संसार है। भाजनलोक सत्त्वलोक की सेवा के लिए है।५२ ४६. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ४५५ ४७. भारतीय दर्शन डॉ. एन. के. देवराज पृ. ४९५ ४८. शांकरभाष्य २.३.७ ४९. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ३५० ५०. दीघनिकाय २०७ ५१. मिलिन्द ४ ५२. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. ५६७-६८ १९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004236
Book TitleDravya Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreejiji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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