________________
प्रदेश से द्रव्यों में वर्तना होती है? (जैसे सुई का कांटा एक स्थान से आगे बढ़ता हुआ दूसरे कांटे तक पहुँचता है और दोनों कांटों के बीच जो दूरी है वह आकाश है।) तो काल को क्रिया का हेतु माने की क्या आवश्यकता है? आचार्य अकलंक समाधान देते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि पकाने के लिए बर्तन आधार है, परन्तु अग्नि होना भी तो अनिवार्य है अन्यथा पाक क्रिया कैसे संभव होगी? उसी प्रकार आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, परन्तु वर्तना की उत्पत्ति में सहायक तो काल ही होगा।९६ ____पंचास्तिकाय की वृत्ति में भी यही शंका उठायी गयी कि सूर्य की गतिक्रिया आदि में धर्मद्रव्य सहकारी कारण है, तब काल की क्या आवश्यकता है, परन्तु यह संभव नहीं लगता; क्योंकि गति परिणति के धर्मद्रव्य तथा काल दोनों सहकारी कारण होते हैं और सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं, जैसे-घट की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र आदि कई सहकारी कारण हैं । इसी प्रकार काल द्रव्य भी सहकारी है। काल के नयसापेक्ष भेद :
नयों की अपेक्षा से काल दो प्रकार का माना गया है- निश्चयकाल और व्यवहारकाल। व्यवहार काल :- समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष आदि जो काल है, वह व्यवहार काल है, इसे पराश्रित काल भी कहते हैं।
नियमसार में इसी व्यवहार काल की अपेक्षा से दो भेद बताये गये हैं और तीन भी। समय और आवलि के भेद से व्यवहार काल के दो भेद होते हैं । अतीत, अनागत और वर्तमान की अपेक्षा से तीन प्रकार भी होते हैं।९९
व्यवहारकाल की परिभाषा तात्पर्यवृत्ति में स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं- “एक आकाश प्रदेश में जो परमाणु स्थित हो, उसे दूसरा परमाणु मंदगति से
९६. त.रा.वा. ५.२२८.४७७ ९७. पं.का.ता.व. २५ ९८. पं.का. २५ ९९. नि.सा. ३१
२०४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org