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सांख्य के अनुसार 'पदार्थ' एवं मीमांसक के अनुसार 'शब्द' मात्र अभिव्यक्त होते हैं, उनकी उत्पत्ति नहीं होती । कारणों के द्वारा अविद्यमान वस्तु की उत्पत्ति होती है। किसी आवरण से ढकी हुई वस्तु के किसी अन्य कारण से प्रकट होने को अभिव्यक्ति कहते हैं, जैसे अंधेरे में कोई वस्तु है पर दिखाई नहीं दे रही है, वही दीपक के प्रकाश से दिखने लगती है, यही अभिव्यक्ति है । परन्तु प्रागभाव का निराकरण करने के कारण घट आदि कार्यद्रव्य अनादि हो जायेंगे और प्रध्वंसाभाव को न मानने के कारण कार्यद्रव्य अनन्त हो जायेंगे । १०९.
धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने पर "यह धर्मी है, ये इसी धर्मी के धर्म हैं और यह धर्म और धर्मी में संबन्ध कराने वाला 'समवाय' है" - इस प्रकार तीन बातों का अलग-अलग ज्ञान प्राप्त नहीं होता । यदि कहे कि समवाय संबन्ध से परस्पर भिन्न धर्म और धर्मी का संबन्ध होता है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसा ज्ञान धर्म और धर्मी का होता है वैसा 'समवाय' का नहीं होता । अगर यह कहें कि एक 'समवाय' को मुख्य मानकर समवाय में समवायत्व को गौण मान लेने पर समवाय की सिद्धि हो जायेगी। तो यह काल्पनिक मात्र है, तथा इसमें लोकविरोध भी है । ११०
कार्य की एकान्त नित्यता में पुण्य, पाप, परलोकगमन आदि सब असंभव हो जायेंगे । १९९
क्षणिकैकान्त में 'यह वही है' - इस प्रकार का व्यवहार संभव नहीं रहेगा, और तब कार्य का आरंभ ही नहीं होगा तो उसका फल कैसे संभव है । ११२ क्षणिक पक्ष में कार्यकारणभाव भी नहीं बन सकता, कार्यरूप सन्तान कारण से सर्वथा पृथक् है (बौद्ध प्रत्येक पदार्थ को संतान मानते हैं ) ।११३
मात्र को 'असत् ' मान लें तो आकाशपुष्प की तरह उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी । ११४
१०९. कार्यद्रव्यमनादि.. अनंनतां व्रजेत्-आ.मी. १.१० ११०. न न धर्मधर्मित्व.... लोकबाधः अन्ययो. - व्य . ७. १११. पुण्यपापाक्रिया.... तेषां न - आ.मी. ३.४० ११२. क्षणिकैकांतपक्षेपि... कृतः फलम् - आ.मी. ३.४१ ११३. न हेतुफलभावा.... पृथक् - आ.मी. ११४. यद्यसत् सर्वथा.....खपुप्पवत् - आ.मी.
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