Book Title: Dhammaparikkha
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Research Institute of Indology Nagpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिषेण-प्रणीत धम्मपरिखखा (DHAMMAPARIKKHA) परयणसुजालदिरम्माज्ञाकवणादान सियवामरावतपाणायमणमाण युमणयंदवयणाजावफलकन्ह गहनसलनलवासादरपक्वाविवा सागवणहवंतनागमिमहिलाज WINSTITUTE FARCH INST SANMAZ NMATI RES लाकप्रकाशन INDOLOGY डॉ.भागचन्द्र जैन"भास्कर" माRIYAR आ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धपरिक्खा धूर्ताख्यान की परम्परा में लिखित व्याय प्रदान काव्य है जिसमें शास्त्रार्थ के माध्यम से परपक्ष खण्डन और स्वपक्ष मण्डन किया गया है। पौराणिक कथाओं की तत्यधि समीक्षा और दीवेतुकी, अतिरंजित बातों को सबल - सयुक्ति नर्कों से निरर्थक सिद्ध करना इस काव्य का उद्देश्य रहा है। इस महाकाव्य के रचयिता आचार्य हरिषेण दशवीं शताब्दी के महाकवि हैं। जिन्होंने ग्यारह संधियों में इसकी रचना की है। इसकी भाषा अपभ्रंश है । शैली मनोरंजक है । मनोवेग अपने अभिन्न मित्र पवनवेग को किस प्रकार सन्मार्ग पर लाता है और उसे मिध्यादृषियों से उन्मुक्त करता रु, इसका मुख्य विषय है अहिंसा और सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि में किसी के हृदय परिवर्तन करने का यह एक अनुपम उदाहरण है। यहां किसी के विचार का अपमान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विकास के लिए उसकी स्वानुभूतिक मीमांसा है । परीक्षा प्रधान काव्यों की परंपरा में रचित (वि.सं २०४४) इस ग्रन्थ का संपादन प्राचीन प्रतियों के आधार पर विस्तृत भावानुवाद और व्याकरणिक विवेचन के साथ बार हो रहा है। प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए भी काव्य के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित करने का श्रेय आचार्य हरिषेण को दिया जा सकता है। इस में शान्तरस प्रधान है तथा प्रसाद शैली में रूपक, उपमा, उत्पेक्षा आदि अलंकारों का आकर्षक प्रयोग हुआ है। For Private & Pe www.jain Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिषेण प्रणीत धम्मपरिक्खा ( विस्तृत प्रस्तावना, व्याकरणात्मक विवेचन तथा भावानुवाद सहित ) संपादक डॉ. भागचन्द्र जैन "भास्कर" पी-एच. डी., डी. लिट्. अध्यक्ष, पालि - प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय सह-संपादक प्रो. माधव रणदिवे भूतपूर्व पालि - प्राकृत विभाग प्रमुख, शिवाजी आर्टस कालेज, सातारा सन्मति रिसर्च इन्स्टीटयूट आफ इन्डोलॉजी नागपुर 1990 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव संसाधन विभाग, शिक्षा मन्त्रालय द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहायता के अन्तर्गत प्रकाशित @ संपादक : डॉ. भागचन्द्र जैन "भास्कर " सहसंपादक : प्रो. माधव रणदिवे प्रथम संस्करण : दिसम्बर, 1990 प्रतियां : 1000 प्रकाशक : सन्मति रिसर्च इन्स्टीटयूट ऑफ इन्डोलॉजी ( आलोक प्रकाशन ) न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर - 440 001 मुद्रक : राधाकृष्ण प्रिंटिंग प्रेस, मूल्य : साईनगर 1, प्रेमनगर नागपुर - 440002 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन और साहित्य के मर्मज्ञ मनीषी चरित्र-चूडामणि दिग्वासी विश्वसंत आचार्य विद्यासागरजी महाराज को सादर समर्पित Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अंग्रेजी प्रस्तावना i-xi १-११० ८-११ ११-३३ ३३-७९ उपस्थापना १. ग्रन्थ परिचय धर्मपरीक्षा नामक अनेक ग्रन्थ, धर्मपरीक्षा की पृष्ठभूमि, धर्मपरीक्षा का उद्देश्य २. संपादन परिचय प्रति परिचय, पाठ संपादन पद्धति ३. ग्रन्थकार परिचय हरिषेण नाम के अनेक कवि, धम्मपरिक्खा के रचयिता हरिषेण, समय, हरिषेण के पूर्ववर्ती कवि, हरिषेण के समकालोन कवि, हरिषेण की धम्मपरिक्खा और अमितगति की धर्मपरीक्षा की तुलना विषय परिचय प्रथम संधि-मनोवेग और पवनवेग कथा, मधु बिन्दु दृष्टान्त ; द्वितीय संधि : पटना की ओर प्रस्थान, षोडश मुट्ठि न्याय, दस मूों की कथा-रक्तमूढ, द्विष्टमूढ, मनोमूढ व्युद्ग्राही मूढ; तृतीय संधि : पित्तदूषित मूढ, चार मूर्ख; चतुर्थ संधि : बलिबन्धन (अकल्पनाचार्य मुनि) कथा, मार्जार कथा, मण्डपकौशिक और छाया कथा, तिलोत्तमा कथा; पंचम संधि : शिश्नश्छेदन कथा, खर-शिरश्छेदन कथा, जलशिला और वानरनृत्य कथा, कमण्डल और गज कथा, पौराणिक कथाओं पर प्रश्नचिन्ह, छठी संधि : लोक-स्वरूप वर्णन ; सप्तम संधि : बृहत्कुमारिका कथा, भागीरथी और गांधारी कथा, मय ऋषि कोपीन कथा और मंदोदरि, पाराशर ऋषि और योजनगन्धा कथा, उद्दालक और चन्द्रमती कथा, अष्टम संधि : कर्णोत्पत्ति कथा, पाण्डव कथा, महाभारत कथा समीक्षा, शृगाल कथा, विद्याधर वंशोत्पत्ति कथा, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९-८० ८०-८१ ८५-८४ राक्षस वंशोत्पत्ति कथा, वानर वंशोत्पत्ति कथा; नवम संधि : कविट्ठखादन कथा, रावण दस शिर कथा, दधिमुख और जरासंघ कथा, पौराणिक कथाओं की समीक्षा, धर्म का महत्व, दसम संधि : कुलकर व्यवस्था, तीर्थंकर ऋषभदेव और संस्कृति संचालन, पवनवेग का हृदय परिवर्तन, श्रावकवत; ग्यारहवीं संधि : श्रावकवतों का फल, रात्रिभोजन कथा, अतिथिदान व्रत कथा; लेखक प्रशस्ति. ५. कथावस्तु का महाकाव्यत्व, भाषा और शैली ६. मिथकीय कथातत्व तथा कथानक रुढियां७. वैदिक आख्यानों का प्रारूप मण्डप कौशिक कथा, तिलोत्तमा कथा, शिश्नश्छेदन कथा, खरशिरश्छेदन कथा, भागीरथी और गांधारी कथा, पराशर ऋषि और योजनगंधा कथा, उद्दालक और चन्द्रमती कथा, रावण की दशानन कथा. ८. जैन पौराणिक विशेषतायें दधिमुख और जरासंघ कथा, निजन्धारी कथायें, जैन साहित्य में रामकथा, दोनों जैन परम्पराओं में भेदक तत्त्व, वैदिक और जैन परम्परा में कुछ मूलभेद, जैन परम्परा की कुछ मूलभूत विशेषतायें - यथार्थवाद, मानव चरित्र, भ्रातृत्व भक्ति, जैनत्व ९. समसामायिक व्यवस्था १०. जैनधर्म और दर्शन आप्तस्वरूप, श्रावकव्रत ११. धम्मपरिक्खा का व्याकरणात्मक विवेचन १. खण्डात्मक स्वनिम विचार- स्वर विवेचन, स्वर विकार, व्यञ्जन परिवर्तन और विकार तथा उनके उदाहरण, समीकरण, संयुक्त व्यंजन परिवर्तन, २. अधिखण्डात्मक स्वनिम विचार । शब्द साधक प्रणाली, पूर्वप्रत्यय, परप्रत्यय, समास, रूप साधक प्रणाली, सर्वनाम, विशेषण, अव्यय, संख्या वाचक शब्द, संख्यावाचक विशेषण, तद्धित प्रत्यय, किया रूप ९४-९५ ९५-९६ ९७-११० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल धम्मपरिक्खा १. पढमो संधि २. बीओ संधि ३. तइअ संधि ४. चउत्थ संधि ५. पंचम संधि ६. छट्ठ संधि ७. सत्तमो संधि ८. अमो संधि ९. नवमी संधि १०. दहमो संधि ११. एयारहमो संधि विशिष्ट शब्दद-सूची १ - १६० १-१२ १३-२० २२-४२ ४३-५९ ७०-७३ ७४-७६ ८७-१०० १००-११४ ११५-१३१ १३२-१४२ १४३-१६० १-१६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Introduction Logical discussions and debates had paramount importance in ancient India for the purpose of spreading and propagation of one's own religious and philosophical speculations amongst the societies. Therefore the rules and regulations in this context were formed by various sects and sagraments according to their views and convenience. The Vadashila Brahmanas were the leaders of the debaters who used the forms of Vada, Jalpa, Vitanda, Chhala, Jati and Nigrahasthana to gain trumph over the opponents by right or wrong means.' All these debaters are named Takki or Takkika in Pali and Prakrit literature. The Buddhist tradition also could not escape being influenced by this practice The old logical compend like the Upayahrdaya, Tarkashastra, etc. appear to have allowed the use of qubbles (chhala). analogues (jati) etc. for the specific purpose of protecting the Buddhist order'. The Jainas, on the other hand, lay more stress on truth and non-violence. They think of the Vitanda (fa031) as Vilandabhasa (faqograma) Akalanka rejects even the Asadhananga (STATTFIT) and Adosodbhavana (SETTENTAT) in view of the facts that they were themselves the subjects of discussion. He then says : a defendent should himself indicate the real defects in the established theory of disputant and then set up his own theory. 3 hus he should consider each item from the point of view of truth and non-violence. All the Jaina philosophers followed this tradion to the best of their efforts. Note :- The Diacritical marks could not be used by the Press due to certain reasons. The readers are, therefore, requested to kindly bear the inconvenience caused. However, some important words have been given in Devanagari Script. 1. Nyayasutra, 4-2-50-9, 2 Vadanyaya, p. 1 3. Nyayavinishcaya, Vol. 2. p. 384 4. Ashtashati-Ashtasahasri, p. 87 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Harishena is a prominent philosopher and poet who not only followed the said tradition but also criticised the Vedic mythological stories in somewhat different manner. He adopted the satirical style to defend his own view through submitting correct stories found in Jain tradition in parallel ways. The epic is written in such an interesting way that strived to prove them irreliable through truth and non-violent approach. The author investigates the real defects in opponent's theories, in his memorial work Dhammaparikkha. Various Dharmaparikshas The subject of Dharmapariksha (1 519TETT) has been so much popular that inspired the Acharyas to compose the texts in different languages by glimmering their literary radiance. Hence various Dharmaparikshas are available in the Shastrabhandaras throughout the parts of India. We may enumerate here some of them that can be distinguished with some specific details;1. DP., in Prakrit, by Jairam (TTT) which is mentioned by Harishena in his Dhamma-parikkha (A. D. 988), but not found so far. 2, Dp. in Apabhramsha, by Harishena (Sam. 1044, A. D. 988), the proposed text which will be dealt with in detail after wards. 3. DP., in Sanskrit, by Amitagati, the pupil of Madhavasena; it was completed within two months in 1945 verses with 21 Paricchedas (Sam. 1070, A D 1014) based on either Jairama's or Harishena's Dhammaparikkha. 4. DP., in Kannada, by Vrattavilasa (qafate) (A. D. 1160) based on Amitagati's DP. It was transformed in Kannada prose by Chandrasagar in Shaka S. 1770. 5. DP., in Sanskrit, by Saubhagyasagar (#TATTTTTTT) (Sam. 1571, A. D 1515), the pupil of Labdhisagar (A. D. 1515) in 16 chapters. 6. DP., in Sanskrit, by Padmasagaragani, the pupil of Tapaga cchiya Dharmasagar (Sam. 1584, A. D. 1515) in 1474 verses very closed to Amitagati's DP. 7. DP. in Sanskrit, by Jinamandanagani (15th c. A. D.), the pupil of Samasundaragani. 8 DP., in Apabhramsha, by Shrutakirti (16th c. A. D.), the Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iii) pupil of Tribhuvanakirti of Balatkaragana (291517:TOT). 9. DP., in Sanskrit, by Ramachandra (17th c. A. D.), in 900 verses 10. DP., in Sanskrit, by Manavijayagani (18th c. A. D.), the pupil of Tapagacchiya Jayavijayagani. 11. DP., in Sanskrit, by Parshvakirti (17th c A. D.) 12. DP, in Sanskrit, by Vishalakirti (Shak. Sam 1729). 13. DP., in Sanskrit-Kannada, by Nayasena (A. D. 1125), the pupil of Narendrasena. 14. DP., in Hindi, by Manohar (Sam. 1775) in 3000 verses. 15. DP., in Sanskrit, by Vadisingh (16th c. A. D.). 16. DP., in Sanskrit, by Yashovijaya (Sam. 1720). 17. DP., in Sanskrit, by Devavijaya. 18. DP., in Marathi, by Devendrakirti (17th c. A. D.). Of these, the DP. of Amitagati has been more studied by the scholars. Mironow N. wrote a book entitled 'Die Dhai ma Pariksha des Amitagatis' with critical approach published from Leipzig in 1903. It was also translated in Hindi by Shri Pannalal Bakaliwal in 1901 and in Marathi by Pt. Bahubali Sharma in 1931 (Sangali). But no work has been done so far on the Harishena's Dhammaparikkha except an article of Dr. A. N. Upadhye published in Annals, B. O. R. I. 75, pp. 592-608. Background of the Dhammaparikkha The mediaeval period may be acknowledged as the period of logical discussion which entered even into spirictual and religious field. As a result, Acharyas composed their examination-based literature. Alambanapariksha (3777747957er) and Trikalapariksha (fa#179fTT) of Dignaga, Sambandhapariksha (FTTFTTTTTT) of Dharmakirti, Pramanapariksha (9 ATTTTTT) and Laghupramanapariksha (779 STATTTEITT) of Dharmottara, Shrutipariksha (ppfaeftet) of Kalyanarakshita, Pramanapariksha. (TATTET:41) Aptapariksha (31TCITEIT , Patrapariksha, Satyasashanapariksha (सत्यशासनपरीक्षा) of Vidyananda may be mentioned in this respect. Dharmapariksha (EFTT771) also follows the tradition and examines the views of other traditions but with somewhat different style. Vadakatha (ataht) the soul of Dharmapariksha was adopted by practically all the Acharyas like Samantabhadra, Siddnasena, Akalanka, Hari Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) bhadra etc. As a matter of fact, this style is not much found in the early Jair literature But in later period, as Jainism had to face the conflicts with Virashaivas, Lingayatas, Buddhists and Vedic sects, the Jaina authors too started the refutation of others' views. Around tenth century, the vedic mythology and rituals became main target for Jaina thinkers. Haribhadra was the leader of this style who composed the Dhurtakhyana (a PETIT) and refuted the hypothetical stories and superstitions of the Vedic culture. Dharmapariksha followed the Dhurtakhyana ( ETIT) in toto. There are so many other texts also like Samayparikshe ( TTT), Shastrasara (TFFHTT) etc. which refutes such fabricated elements occurred in non-Jain sects. The main object of the Dharmapariksha is to vaninish the wrong views Micchattabhava avagannahi (मिच्छत्तभाव अवगण्णाहा, 11.26) from mind. Such hypothetical notions creat the obsticals in spiritual development The Jainacharyas refute them with progressive attitude and self realization and establish the right path without dishonouring the others' views. Amitagati clearly writes : न बुद्धिगर्वेण न पक्षपाततो मयान्यशास्त्रार्थ विवेचनं कृतं । ममैव धर्म शिवसौख्यदायिके परीक्षितुं केवलमुत्थितः भ्रमः ॥10॥ अहारि कि केशवशंकरादिभिः व्यतारि कि वस्तु जिनेन चार्थिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम् || 11 ।। विमुच्य मार्ग कुगतिप्रवर्तकं भ्रमन्तु सन्त : सुगतिप्रवर्तक । चिराय माभूदखिलांगतापकः परोपतापो नरकादिगामिनाम् ॥ 12 ।। The irreliable Pauranika stories are found in the commentaries on the Prakrit scriptural narrative literature. As a matter of fact, they are found in Scriptural explainatory literature. The Niryukti and Bhashy a literature refers more to such stories with ironical remarks. Acharva Haribhadrasuri utilized the Pauranic and folk tales in the Samaraiccakaha (समराइच्चकहा) Dhurtakhyana (afet) and the commentaries on the Avashyaka and Dasavaikalika Sutra to remove the wrong views and establish the morality thereupon. Editotial Work The present edition of the Dhammaparikkha of Harishena has been prepared on the basis of two MSS. preserved in the Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. Their ption is as follows: MS. A It bears the No. 617/36 of 1875–76, written in good handwriting and appears as if printed. It contains 75 pages. Only first three pages have in the middle the space for the thread and not in any other page. The edges are brittle, the paper also shows signs of earlier age, and now and then Padimatras are used in its writing. The Ms. begins with 37 THT STATTTIG" in red ink. Number of Kadavakas and Dandas (11) are also written in neat hand-writing in black ink, somewhere a half line also is bru hed by white ink. The explanation of any word is not written in the margin on any page. Every page has 11 lines and last 75th one has only 6 lines Every line contains 38 to 44 letters except Dandas (11) and no. of Kadavakas. MS. 8 It bears the No. 1009 of 1887-91. It is written in black ink and not red ink is used anywhere. One, two letters or 1/4, 1/2 or a line is brushed by white or black ink It is written not in very good hand-writing Every page contains 8 lines, but some have 9 lines also. Every line has 28 to 32 letters excepting Dandas and No of Kadavakas. The Ms. has 138 folios. Page No. 137 is partly broken and folio No. 4 is missing. We find the explanation of words etc... with the sign in the mirgin on the top, bottom, right or left side in Sanskrit. It has unwritten space on folios 56a, 57, 69 and 69a, with gaps in the text. This is comparatively modern Ms. as indicated by the paper and hand-writing. It bears a date Samvat 1595 written by different person in different hand-writing on the last page which indicates that the Ms. is older than this date. Both the Mss. together supply the complete text. They are quite independent and not the copies of each other. We find that the first Ms. is more correct and hence it is treated as an ideal one for our editing work. However, the second Ms. has been utilized for deciding the recentons. While editing we have followed the following method :1. F is made ut, as 677, TUTATEMI etc. 2. a fora, as faceri atfestgot etc. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) 3. og for otisi 4. इकार and ओकार are made for half एकार and ओकार respecti vely. 5. Utilization of यश्रुति and वश्रुति । 6. इ and ए in the कारकप्रत्ययs of तृतिया as सप्तमी विभक्तिs and पूर्वकालिक कृदन्त words. There are so many Harishenas who composed the work in Jainism. Some of them are as follows :1. Harishena, the author of the Samudragupta Prayaga Prashasti समुद्रगुप्त प्रयाग प्रशस्ति (A. D. 345) 2. Harishena, the author of the Dhammaparikkha in Apabhra msha (Sam. 1044). 3. Harishena, the author of the Suktavali (gaaraat) (12th c. A. D) 4. Harishena, the author of the Jagatasundariyogamaladhikara. (HYTTET TIT HATTFIT) 5. Harishena as mentioned in the Vasavasena's Yashodhara charitam alongwith Prabhanjana (8th c. A. D.). 6. Harishena, the author of the Ashtanhikatha ( 37621fEFOTT) 7. Harishena, the author of the Vrhatkatha (10th c. A. D.) Of these, Harishena or Buddha Harishena is the author of the proposed Dhammaparikkha in Apabhramsha as the colophon says itself. He was from Mevada. His parents were Govardhana-Gunavati. He left Cittoda and came to Acalapur on some business where he composed the Dhamma parikkha in Sam. 1044 (A. D. 988). This is said in the opening and the concluding Kadavakas, Sandhi XI, Kada. 26-27. Harishena was the pupil of Siddhasena (XI, Kada, 25). He must have written some more Granthas as he said for himself the “Vibudha Vishrutakavi” in the same Kadavaka. Amongst his predecessors, Harishena mentions Caturmukha, Pushpadanta, Svayambhu, Budha Siddhasena, and Jayarama (1.1.). He belongs to ths 10 c. A. D. when Tomar dynesty was ruling over the country. He refers to Dinara (Tone which has been in current upto the 12th c. A. D. (3.10) He also appears to have supported Devasena (10th c A. D.) that the Buddha had eaten meat and National Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) fish and as a result he was resticated from the Parsvanatha Sangha Hence the Buddha established his own religion called Buddhism (10.10). The author also refers to Kapalavratas (4.17) which became more popular in around tenth century. On the basis of these references, Harishena can be assigned to the 10th c, A D. His contemporary Acharyas may be Amrtachandra, Ramasen, Somadeva, Amitagati, Dhavalakavi, Virakavi, Nayanandi, Camundaraya, Viranandi, Padmanandi, Haricandra, Mallishena, Vadiraja, Aryanandi, Dhanapala, Vagbhatta etc. Harishena composed his Dhammaparikkha in Sam. 1044, After 26 years, Amitagati (Second) wrote his Dharmaparikha in Sam 1070. One belongs to Mewada and the other one to Malawa. Both the texts show remarkable agreement. It is most possible that Amitagati had Harishena's Dhammaparikkha before him while composing his Dharmapariksha. Harishena's division is mora natural into Sandhis than Amitagati's division into Sargas One is descriptive and the other one is rather figurative. Harishena gives in details the Lokasthiti (Sandhi VII), Ramakatha (Sandhi VIII) and Ratribhojanakatha (Sandhi Xi), while Amitagati does not devote many verses to these subjects. We have submitted a detailed account of the subject matter with compa ative approach in Hindi introduction. Looking to it, it appears that Amitagati must have composed his Dharmapariksha on tha basis of some Prakrit work and that Prakrit work may be either of Jayarama or of Harishena. Even language and style are sometimes similar to that of Harishena's DP. Amitagati has through mastery over his expression. However he could not avoid the use of Prakrit words like Hatta, (3.6) Jemati, (5), Grahila (13.23), Kacara (15.23) etc. As regards the division of Sandhis of Dhammaparikkha and Paricchedas of Dharmapariksha, they can be comparatively studied in the light of corresponding topics as follows' :First Sandhi :- H.1.1 A.1.1-16; 2 = 1.17-20; 3 = 1.21-27; = 1. H. Refers to Kadavakas of Harishena's Dhammaparikkha and the A. refers to in correspondence with the Paricchedas of the Amițagati's Dharmapariksha, alongwith its verses. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) 4 = 1.28-31; 5 - 1.32-36; 6-7 -1.37–47; 8-148–55; 9 = 1.56-57; 10-1.58-65; 11=l 66; 12 = 1.67-70; 13 = 2.1-7; 14 = 2 8-21; 15 = 2.22-79-89; 16 = 2.90-95; 17 = 3.1–26; 18-20 = 3 27-43. Second Sandhi :- 1 - 3.44-58; 2-3 = 3 58-68; 4-6 = 3.69-95; 7-8=4.1-39; 9= 4.40-46; 10-16=4.47-76-95, 5.1-76; 16-17 = 5.75-97; 18-23 = 6.1-95; 24 = 7.1-19. Third Sandhi :- 1 = 7.20-28; 2-3 = 7.29-62; 4-6 = 7.63-96; 7= 8.1-9; 8=8.10-21; 9=8.22-34; 10–8.35-49; 11=8.50-73; 12-13 = 8 92-95; 14 =94-20; 15 =9.21-43; 16 = 9.44-49; 17-19 = 9 50-93; 20 = 10.1-20; 21 = 10.21-40; 22 = 10-41-51. Fourth Sandhi :- 1-2 = 10.52–59; 3-4 = 10.66-74; 5-6 = 10.75 100; 7 = 11.1-8; 8-9 = 11.9-25; 10-12 = 11. 26-28; 13-16 = 11.29-47; 17 = 11.48-58; 18 = 11.59–65; 19 = 11.66-82; 20 = 11 73-93; 21 = 11.94-95; 22=12 10-15; 23 = 12-16-26. Fifth Sandhi :- 1 =.12.27-29; 2-6 = 12.30-33; 7 = 12.34-52; 8-9=12–53-76; 10-11=12.77-92; 12= 12 93– 97; 13=13.1-7-17; 14-15=13.18-36; 16-17=13. 37-53; 18-20= 13.54–102. Sixth Sandhi :- 1-18 = Lokasvarupa is not found in A'S Dharmapariksha. Seventh Sandhi :- 1 = 14.1-10; 2 = 14 11-23; 3-4 = 14.24-32; 5=14-33-38; 6 = 14.39-45; 7-8 = 14-46-54: 9 = 14.55-61; 10=14-62-67; 11-13= 15,68-80; 14-15 = 14–81-91; 16–17=14-92–101; 18=15.1-15 Eighth Sandhi :- 1 =15.17-21; 2 =13.22-31; 3 = 15.32-41; 4-5= 15.42-55: 6 = 15.56-66 in detailed: 7 = 15.67– 74; 8-9 = 15.75-94; 10 =15.95-98; 11 = 16.1-21; 12 =Not in A; 13-22 =not in A. Ninth Sandhi :- 1 = 16.22-27; 2-3 = 10-28-43; 4-5 = 16.44-57; 6-10 = 16.58-84; 11-12 = 16.85-93; 13 =not fouud in A ; 14 = 16 99-100; 15-17=16.99-100; 18-25 = 16.102-104 not in detailed in A. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ix) Tenth Sandhi :- The subject matter of the 17th Pariccheda is not found in Dhammaparikkha : 1 =18.1-21; 2 = 18.22-29; 3-10 = 18.27-84; 11-12 =18.85-100; 13 = 19.1–11; 14 = 19.12; 15-16 = 19.13–101 in detailed in A. Eleventh Sandhi- 1-2= not found in A.; 3-10=20,1-12; 11-21= 20,13-52; 22 = 20.53-64; 23-27 = 20 65-90. The camparision leads the impression that Amitagati borrowed the subject matter from Haris hena and composed his Dharmapariksha within two months (A. 20. 90.) Manovega submits fabricated tales before the Brahmanas and when they do not believe on them, he puts forth the parallel stories from the vedas and Puranas and satisfies them. Harishena adopts the descriptive method and therefore does not stand much on traditional approach towards the women, friend, world, wealth, etc. as done by Amitagati, He never leaves the story incompleted in moving from one Sandhi to another as offenly does Amitagati. From imagination and language point of view also, both the works can be compared. For instance :-- H 1.19 = A. 3.36-37; H. 2.3= A. 3.61; H. 2.5= A. 3.85; H ll=A 4 84-85; H. 2 15=A 5:59; H. 2 16= A. 5.82–85; H 3.9=A. 8.22-34 Harishena may have followed Jayarama's Dhammaparikkha as he himself said in beginning of his work. But unless the Jairama's Dhammaparikkha is found, the nature of borrowing elements cannot be decided. Another remarkable point is that Amitagati included the 'Purvapaksha (the arguments of the opponent) into his work as his own verses with slightly changes, but Harishena did it under the heading Tathoktam". For instance :-- H. 4.1 =A. 10.58-59; H. 5:7-=A. 11.8; H 4.7 = 11.12; H. 5.9 = A. 12.72-73; H. 5.17 = Not fonud in A.; H. 7.5=A. 14.38; H. 7.6= A 14 49; H. 7.8=A. 14.50; H. 8.6 =A. 15.94; H. 9.25 = A. Not found in the same form. Subject Matter The Dhammaparikkha is a satiric text which critically examines the Pauranic tales and Vedic superstitions prevelent at that time. It is divided into eleven Saņdhis, which contain 238 Kadavakas in 2070 Shlokapramana The whole text is interconnected with one object and so many fabricated stories. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (x) There may not be one hero but the individuality of all the heroes of the Pauranic stories have been identified properly on their own accord. Considering the characteristics of the text one may, of course, call it an epic composed in different metres like भुजंगप्रयात, रजओ, घत्ता, धुवक But the पज्झटिका is mainly used throughout the text. The story says that there were two intimate friends, one Manovega, the son of king Jitashatru, and the other one Pavanavega, the son of Vijayapuri king. Manovega was religious minded following Jainism while the other one Pavanavega was just opposit to him following Vedic religion. Both the friends go to Pataliputra where Manovega narrates in Vadashala the Pauronic stories before the Brahmanas and strive to prove them irreliable, false and unbelievable. In this context, several Pauranic stories have been narrated. For instance, equifas कथा ( 4.7.12 ), तिलोत्तम कथा (4.13 ), शिश्नश्छेदन कथा (5.1 ), खरशिरश्छेदन कथा (5.6-7), भागीरथी and गान्धारी कथा (7.9), पाराशर ऋषि and योजनगन्धा कथा (7.14), उद्दालक and चन्द्रमती कथा (7.16.7), रावण दशानन कथा ( 8.13.1 ) etc. Hearing the right form of these stories, Pavanavega becomes the follower of Jainism. During criticising the Pauranic tales, Harishena submits their own forms according to Jain tradition and questions obout Vishnu (3.21), Vishnu's sensuality (4.9-12), relation between Brahma and Tilottama (4.13-16), stories related to Brahma and Vishnu (5.16-20), etc. Harishena also explained the Ramakatha (8.11) and other Pauranic tales (6.4-5); 9.11-12-14, 18-25, 17th Sandhi) दविमुख - जरासन्ध कथा (9.6.10 ) and some fabricated tales like मार्जार कथा (4.3.7), जलशिला - वानर नृत्य कथा ( 5.89 ), कमण्डलु गजकथा ( 5.10 - 12 ), वृहत्कुमारी कथा (7.26), fag (9.1-3) etc. Exaggeration element has been removed from these stories and made their humanatarian exposition. Thus the after may be treated as an epic ( महाकाव्य) are though it is not formed under the purview of the traditional characteristics. It is composed with MATA. In course of discussion, Harishena also explained the nature of आप्त and वीतराग परमात्मन् (4.23, 5.18- 20, 9. 13, 18.25), भावकव्रत, अष्टमूलगुण, षट्कर्म, शिक्षाव्रत, रात्रिभोजनत्याग, सल्लेखना, fafaza etc. in Ninth Sandhi. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xi) This is the abridged form of Hindi introduction. The grammatical pecuiarities of Apabhramsha of the text can be seen there in the last part of the introduction. Its language is very simple and sometimes does not even follow the rules of Apabhransha grammar. The parallel stories are also traced out from the Vedas and Puranas and they are mentioned in the Hindi introduction. The readers may go through it for detailed study. The Dhammaparikkha of Harishena is edited for the first time on the basis of two manuscripts. I am indebted for the warm cooperation of Prof. M. S. Randive, former Head of the Department of Pali and Prakrit, Shivaji Arts College, Satara in the form of coping the Text while editing. We are grateful to the Government of India, Ministry of Human Resource Development, Department of Education who extended its financial assistace for the publication of the Dhammaparikkha. New Extention Area, Sadar NAGPUR-440 001. Dated: Dipavali, 18-10-1990 Bhagchandra Jain Bhaskar Head of the Department of Pali and Parkrit, Nagpur University. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपस्थापना १. ग्रन्थ-परिचय प्राचीन काल में वाद, विवाद, शास्त्रार्थ आदि के माध्यम से अपने धर्म की प्रतिष्ठा और प्रचार-प्रसार की योजना बनाना और उसे कार्यान्वित करना एक साधारण और सर्वमान्य बात थी। इसलिए शास्त्रार्थ के नियम, प्रतिनियम भी बनते-बिगडते रहे। उसका भी दार्शनिक क्षेत्र में एक अपना महत्त्व और इतिहास है। सुत्तनिपात में ब्राह्मणों को 'वादशीला' कहा गया है । इससे पता चलता है कि वादपरम्परा का प्रारम्भ ब्राह्मण वर्ग से हुआ है और चूंकि वे अध्येता थे, वाद करना उनका स्वभाव हो गया था । वाद, जल्प और वितण्डा तथा छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे साधनों का प्रयोग न्यायपरम्परा में होता रहा है। वहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए काँटेदार बाडी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार तत्वसंरक्षण के लिए जल्प और वितण्डा में छल, जाति आदि का प्रयोग अनुचित नहीं है।' धर्मपरीक्षा (धम्म परिक्खा) इसी प्रकार का एक ऐसा व्यंग्य प्रधान ग्रन्थ है जिसमें शास्त्रार्थ के अध्यम से परपक्ष-खण्डन और स्वपक्ष-मण्डन किया गया है। पौराणिक कथाओं की समीक्षा का आधार लेकर कवि ने इस काव्य में मनोरजकता ला दी है और पौराणिक कथाओं को अविश्वसनीय सिद्ध कर किया है । इसके अध्ययन से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि जन परम्परा ने छल. जाति आदि के प्रयोग का कभी भी समर्थन नहीं किया। सिद्धसेन ने 'वादद्वित्रिशिका' और अकलंक ने 'अष्टशती-अष्टसहस्री' में यह स्पष्ट किया है कि वादी का कर्तव्य है कि वह प्रतिवादी के सिद्धान्तों में वास्तविक कमियों की ओर संकेत करे और फिर अपने मत की स्थापना करे । सत्य और अहिंसा के आधार पर ही हर दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। १. धमपरीक्षा नामक अनेक ग्रन्थ धर्मपरीक्षा का विषय बहुत लोकप्रिय रहा है । आचार्यों ने उस विषय को अपनी-अपनी काव्य-प्रतिभा से आकलित किया है। उस नाम से जिन ग्रन्थों की जानकारी मिल सकी है, वह इस प्रकार है1. न्यायसूत्र, 4-2-50 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 1. जयरामकृत धर्मपरीक्षा प्रस्तुत विषय का कदाचित यह प्राचीनतम ग्रन्थ है जिसका उल्लेख हरिषेण ने अपने अपभ्रंश ग्रन्थ धम्मपरिक्खा में किया है। यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाप्रबन्ध में लिखा गया होगा। हरिषेण की धर्म -परीक्षा सं. 1044 (A. D. 983) में लिखी गई थी। जयरामकृत धर्मपरीआ इसके कितने पहले लिखी गई होगी, कह सकना कठिन है। वह अभी तक अप्राप्य है।' उनके जीवनकाल आदि के विषय में भी कोई जानकारी नहीं मिलती। 2. अमितगति कृत धर्मपरीक्षा यह उपलब्ध धर्मपरीक्षा ग्रन्थों में प्राचीनतम है। इसकी भाषा संस्कृत है और 1945 श्लोकों में निबद्ध तथा इक्कीस परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें ऊटपटांग पौराणिक कथाओं को सयुक्तिक व समानान्तर कृत्रिम कथाओं के माध्यम से खण्डित किया गया है। इसके रचयिता अमितगति द्वितीय हैं जो काष्ठासंघ-माथुरसंघ के आचार्य थे। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार हैवीरसेन-देवसेन-अमितगति प्रथम-नेमिषेण-माधवसेन-अमितगति (द्वितीय) । अमरकीर्ति के 'छक्कमोवएस' के अनुसार अमितगति की शिय परम्परा इस प्रकार है- शान्तिषण-अमरसेन-श्रीसेन-चन्द्रकीति-अमरकीति । अमितगति धारानरेश भोज के सभारत्न थे । धर्मपरीक्षा की रचना उन्होंने मात्र दो माह में की थी। इसका रचनाकाल है वि सं. 1070 (ई. 1014) । अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा जयराम अथवा हरिषेण की धर्मपरीक्षा (ई.988) के आधार पर की होगी। इनके अन्य ग्रन्थ है- सुभाषितरत्नसंदोह, उपासकाचार, पंचसंग्रह, आराधना, भावना द्वात्रिंशतिका, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सार्द्धद्वयद्वीप-प्रज्ञप्ति एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति । 1. जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबंधि । साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडियाबंधि ॥ 1. 1 2. जिनरत्नकोश, पृ. 189. ग्यारहवीं AII Jndia Oriental Conference, ____1941 (हैदराबाद) में पठित डॉ. आ. ने. उपाध्ये का लेख "हरिषेण's धर्मपरीक्षा in अपभ्रंश' Annals B. O. R. 1-75, PP. 592. 3. अमितगतिरिवेदं स्वस्य मासद्वयन। प्रथित विशदकीतिः काव्यमुद्भूतदोषम् ।। 4. जिनरत्नकोश, P. 190, हिन्दी अनुवाद, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, 1908 ; जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी, कलकत्ता, 1908; विण्टर-नित्स, हिस्ट्री आफ इन्डियन लिटरेचर, भाग 2, P. 563; एन, मिरोनेव, डि धर्मपरीक्षा डेस अमितगति, लाइजिग, 1908. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) 3. वृत्तविलासकृत धर्मपरीक्षा इसके रचयिता कन्नड कवि वृत्तविलास हैं जिनका समय ई. 1160 निर्धारित किया गया है | आर. नरसिंहाचार्य ने उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है- व्रती शुभकीर्ति सिद्धांती माधवनन्दि- यति भानुकीर्ति-धर्मभूषण - अमरकोर्ति- वागीश्वर - अभयसूरि । यह धर्मपरीक्षा कन्नड भाषा में चम्पू शैली में रचित ललित काव्य है जो दश आश्वासों में विभक्त है । इस पर श. सं. 1770 में चन्द्र सागर ने कन्नड गद्य में टीका लिखी है । वृत्तविलास की यह धर्मपरीक्षा अमितगति की धर्मपरीक्षा पर आधारित है । 'नरसिंहाचार्य ने 1904 ( मैंगलोर) में प्राक्काव्यमाला कर्नाटक कविचरिते' में इस ग्रन्थ का कुछ भाग प्रकाशित किया था । 4. सौभाग्यसागर कृत धर्मपरीक्षा इसकी रचना श्रीपाल चरित्र के रचयिता लब्धिसागरसूरि (सं. 1557 ) के शिष्य सौभाग्यसागर ने सं. 1571 ( ई. 1515) में की जिसका संशोधन अन्तहंस ने किया । यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है और सोलह परिच्छेदों म विभक्त है । 5. पद्मसागरगणिकृत धर्मपरीक्षा' यह तपागच्छीय धर्मसागर के शिष्य पद्मसागरगणि की रचना है जिसे उन्होंने सं. 1645 ( ई. 1589) में लिखी। इसमें कुल 1474 श्लोक हैं जिनमें लगभग 1250 तो अमितगति की धर्मपरीक्षा से आकलित किये गये है । 3 कथा तो वही है पर श्वेताम्बर मतानुसार जहां कहीं परिवर्तन कर दिया गया है फिर भी दिगम्बर सिद्धांत उसमें बचे रह गये है । 6. जिनमण्डनगणिकृत धर्मपरीक्षा ' तपागच्छीय सोमसुन्दर के शिष्य जिनमण्डनगणि ( 15 वीं शताब्दी का 1. जिनरत्नकोश, P. 190; मुक्तिविमल जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक 13, अहमदाबाद. 2. जिनरत्नकोश, P. 190; देवचंद्र लाल भाई पुस्तक ( सं. 15 ). बंबई, 1913; हेमचन्द्र सभा, पाटन, सं. 1978 3. तुलनार्थ दृष्टव्य- जैन हितेषी भाग 13, p. 314. आदि में प्रकाशित प. जुगल किशोर मुख्तार का लेख "धर्मपरीक्षा की परीक्षा," जैन सहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, P. 586, टिप्पण 513. 4. जिनरत्नकोश, P. 190; जैन आत्मानन्द सभा (सं. 97), भावनगर, सं. 1974 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अन्तिम दशक) ने 1800 ग्रन्थान प्रमाण धर्मपरीक्षा की रचना की। उनके कुमारपाल प्रबन्ध (सं. 1412) तथा श्राद्धगणसंग्रहविवरण (सं. 1498) ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं। 7. श्रुतकीति कृत धर्मपरीक्षा भट्टारक श्रुतकीति नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान, देवेन्द्र कीति के प्रशिष्य और त्रिभुवनकीति के शिष्य थे । उनका समय वि. की सोलहवीं शती सिद्ध होती है। वे मालवा के निवासी थे। उन्होंने धर्मपरोक्षा की रचना वि. सं. 15 2 (ई. 1496) में अपभ्रंश में की। इसके अतिरिक्त उनके हरिवंशपुराण, परमेष्ठी प्रकाशसार और योगसार ग्रन्थ भी उपलब्ध है । 8. पार्श्वकीति कृत धर्मपरीक्षा (17 वीं शताब्दी) :1 9. रामचंद्र कृत धर्मपरीक्षा पूज्यवादान्वयी पदमनन्दी के शिष्य रामचंद्र (17 वीं शताब्दी) ने देवचन्द्र के अनुरोध पर संस्कृत में धर्मपरीक्षा की रचना 900 श्लोक प्रमाण में की। 10. मानविजयगणि कृत धर्मपरीक्षा तपागच्छीय जयविजयगणि के शिष्य मानविजयगणि (वि. की 18 वीं शताब्दी) ने अपने शिष्य देवविजय के लिए संस्कृत में रचना की ।' 11. विशालकीति कृत धर्मपरीक्षा (शक सं. 1729) 12. नयसेन कृत धर्मपरीक्षा नरेन्द्रसेन के शिष्य नयसेन ने ई. सन् 1125 में संस्कृत-कन्नड मिश्रित धर्मपरीक्षा ग्रन्थ लिखा। वे धारवाड़ जिले के मलगुन्दा नामक गांव के निवासी थे और 'विद्यचक्रवर्ती' कहलाते थे । धर्मपरीक्षा के अतिरिक्त उनके दो और ग्रन्थ मिलते हैं- धर्मामृत और कन्नड व्याकरण । 13. मनोहर कृत धर्मपरीक्षा | कवि मनोहर धामपुर के निवासी और आसू साह के स्नेह भाजन थे । उन्होंने हीरामणि के उपदेश तथा सालिवाहण आदि के अनुरोध से धर्मपरीक्षा की रचना सं . 1775 में की। इसमें हिन्दी के 3000 पद्य हैं । _14. वादिसिंह रचित धर्मपरीक्षा (लगभग 16 वीं शताब्दी)' 1. जिनरत्नकोश, P. 190. 2. जिनरत्नकोश पृ. 190. 3. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 6, डॉ. गुलाबचंद्र चौधरी, वाराणसी 1973, P. 275 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) 15. यशोविजय कृत धर्मपरीक्षा अपने शिष्य देवविजय के लिए यशोविजय ने लगभग वि. सं. 1720 में धर्मपरीक्षा की रचना संस्कृत में की। ये तपागच्छीय नयविजय के शिष्य थे। 16. देवसेन कृत धर्मपरीक्षा 17. हरिषेण कृत धर्मपरीक्षा हरिषेण ने सं. 1044 (ई. 988) में अपभ्रंश में धर्मपरीक्षा की रचना की ग्यारह संधियों में । इसके विषय में हम आगे विस्तार से लिखेंगे। इनके अतिरिक्त भी धर्मपरीक्षा नामक कृतियां भण्डारों में और भी सुरक्षित हंगी। देवेन्द्र कीति (17 वीं शताब्दी की धर्मपरीक्षा मराठी में उपलब्ध है। गुजराती में भी धर्मपरीक्षा ग्रन्थों की रचना हुई होगी। इससे ऐसा लगता है कि धर्मपरीक्षा काफी लोकप्रिय ग्रन्थ न्हा होगा। इन समूची धर्मपरीक्षाओं में। अमितगति की धर्मपरीक्षा का सर्वाधिक अध्ययन हुआ है। Mironow N. ने 1903 में "Die Dharma Pariksha des Amitagati" ग्रन्य Leipzig से प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने भाषा, विषय, छन्द आदि का समीक्षात्मक अध्ययन किया है 1 Mironow के पूर्व डॉ. विन्टरनित्स ने भी सन् 1701 मेंA Hisiory of Indian Literature, Vol. No. 2 में इस ग्रन्थ के विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। धर्मपरीक्षा का हिन्दी अनुवाद भी 1901 में श्री पन्नालाल बाकलीवाल ने किया जिसे उन्होंने जैन हितेषी पुस्तकालय बम्बई से प्रकाशित कराया। इसी का मराठी अनुवाद पं. बाहुबलो शर्मा ने सन् 1931 में सांगली से प्रकाशित किया । डॉ. उपाध्ये ने भी ग्यारहवें प्राच्य विद्या सम्मेलन हैदराबाद में 'हरिषेण को धर्मपरीक्षा" निबन्ध में इस पर कुछ प्रकाश डाला था। २. धर्मपरीक्षा की पृष्ठभूमि इतिहास का मध्यकाल ज्ञान प्रधान रहा है। वहां हर क्षेत्र तार्किकता से सन्नद्ध दिखाई देता है । आचरण और अध्यात्म का क्षेत्र भी तर्कणा शक्ति से उभर नहीं सका । इसलिए इस युग का साहित्य परीक्षा प्रधान साहित्य दिखाई देता है । उदाहरण तौर पर दिग्नाग की आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीति की सम्बन्ध परीक्षा, धर्मोत्तर की प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा, कल्याणरक्षित की श्रुतिपरीक्षा, और विद्यानन्द की प्रमाण परीक्षा, आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा जैसे परीक्षान्त ग्रन्थों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है । इन ग्रन्थों में एक संप्रदाय का आचार्य दूसरे सम्प्रदाय के सिद्धान्तों की तार्किक ढंग से परीक्षा करता है। इस संदर्भ में परीक्षा के स्थान पर मीमांसा शब्द का भी प्रयोग हुआ है और मीमांसा श्लोवातिक, आत्ममीमांसा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि जैसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की गई है। धर्मपरीक्षा भी इसी प्रकार का ग्रन्थ है जिसमें जैनेतर, विशेषतः वैदिक दर्शन, का तार्किक ढंग से परीक्षण किया गया है। धर्मपरीक्षा को पृष्ठभूमि में वाद कथा का भाव रहा है जैसे समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र आदि आचार्यों ने बड़ी विद्वत्ता के साथ अपने ग्रन्थों में अपनाया है । कुन्दकुन्द, पम्प, रन्न आदि ने जैनेतर दर्शनों का वर्णन किया है पर किसी के विरोध में कुछ भी नहीं कहा है। परंतु उत्तरकाल में उन्हें इस परम्परा को तोड देना पड़ा। जैनधर्म के राजाओं को आश्रय मिलना बन्द हो गया। वीरशैवों और लिंगायतों ने भी जैनधर्म को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी। फलतः धीरे-धीरे वाद साहित्य की रचना होने लगी। उदाहरण: नयसेन के धर्मामत (सन् 1112) में सम्यग्दर्शन के अंगों पर प्रस्तुत कथाओं में जैनाचार का पालन करनेवाले जैनेतरों को भ्रष्ट होते हुए बताया है। ब्रह्मशैव ने त्रैलोक्यचूड़ामणि स्तोत्र में वृक्ष, समुद्र, नदी, सूर्य आदि की पूजा का खण्डन किया है और समयपरीक्षे में अन्धविश्वासों का खण्डन करते हए दशावतार, स्वयम्भू आदि को आलोचना की है। इसी तरह वृत्तविलास (सन 1360) ने चम्पूशैली में लिखी धर्मपरीक्षा में वैदिक आख्यानों की तीव्र भर्त्सना की है। यह संस्कृत धर्मपरीक्षा का अनुवाद-सा है। शास्त्रसार में मिथ्यावाद का खण्डन कर सम्यक्त्व की स्थापना की गई है। संस्कृत और प्राकृत में इस प्रकार के अनेक ग्रन्य मिलते हैं । धर्मरीक्षा भी इसी पृष्ठभूमि पर लिखी कथा है जिसमें जै नेतर दार्शनिक सिद्धान्तों और उपासना पद्धतियों पर तीव्र प्रहार किया गया है। धूर्ताख्यान की पृष्ठभूमि पर रची गई धर्मपरीक्षा निःसन्देह एक प्रभावक रचना सिद्ध हुई है। ३. धर्मपरीक्षा का उद्देश्य हरिषेण की धर्मपरीक्षा का उद्देश्य है मिथ्यात्व भाव को स्पष्ट करना (मिच्छत्तभाव अवगण्णहि, 11.26) । मिथ्यात्व से यहां तात्पर्य है, ऐसे सिद्धान्त जिनसे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे सिद्धान्तों का सयक्तिक और स्वानुभूतिक खण्डन कर सम्यकत्व की स्थापना की जाती है। व्यक्ति मिथ्या मार्ग को छोड़ दे और सम्यक् मार्ग को ग्रहण कर ले यही आचार्यो का मुख्य उद्देश्य रहा है। वहां किसी धर्म के अपमान करने का कोई भाव नहीं है। अमितगति ने अपने मन्तव्य को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है- मैंने इस ग्रन्थ में जैनेतर मतों का जो भी खण्डन किया है Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) वह बौद्धिक अभिमान अथवा पक्षपातपूर्वक नहीं किया है। उस खण्डन के पोछे यही उद्देश्य रहा है कि जो धर्म शिवसुखप्रदाता है उस धर्म का ग्रहण उसकी पूरी परीक्षा करके ही होना चाहिए । विष्णु और महादेव ने न मेरा कुछ बिगाड़ा है और न जिनेन्द्र भगवान ने मुझे कुछ दिया है । मेरा तो केवल यही निवेदन है कि जो सत्पुरुष है वे कुगति की प्रवृत्ति कराने वाले मार्ग (धर्म) को छोड़कर सुगति में ले जाने वाले मार्ग का आश्रय करें जिससे वे नरकादि दुःखों से मुक्त हो सकें। न बुद्धि गर्वेण न पक्षपाततो मयान्यशास्त्रार्थ विवेचनं कृतं । ममैव धर्म शिवसौख्यदायिके परीक्षितुं केवलमुत्थितः भ्रमः ।। 10 ।। अहारि कि केशवशंकरादिभिः व्यतारि किं वस्तु जिनेन चार्थिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम ।। II ।। विमुच्य मार्ग कुगतिप्रवर्तकं श्रयन्तु सन्तः सुगतिप्रवर्तक । चिराय माभूदखिलांगतापकः परोपतापो नरकादिगामिनाम् ।। 12 ।। अतः धर्मपरीक्षा में प्रस्तुत विषय को मीमांसापूर्वक ग्रहण किया जाना चाहिए। उसके लेखन के पीछे किसी धर्म विशेष का अपमान करने का भाव आचार्यों के मन में कभी नहीं रहा है। प्राणो का कल्याण मात्र करना उनका उद्देश्य रहा है। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर धर्मपरोक्षा की रचना हुई है । धर्म जैसे सर्वसाधारण और प्रमुखतम तत्व की परीक्षा करके ही उसे धारण किया जाना चाहिए। धर्मपरीक्षा की इसी परम्परा में प्रस्तुत ग्रन्थ में पौराणिक कथाओं की बेतुकी वातों को उद्घाटित कर उन्हें निरर्थक किंवा अविश्वसनीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। ऐसी कथायें आगमिक व्याख्या साहित्य में अधिक मिलती हैं । नियुक्ति और भाष्य साहित्य में ब्राह्मणों की अतिरंजित पौराणिक आख्यानों पर तीव्र व्यंग्य, धूर्तों के मनोरंजक आख्यान तथा साधुओं को धर्म में स्थिर रखने के लिए लोक प्रचलित कथाओं के विविध रूप मिलते हैं। प्राकृत कथा साहित्य का उद्गम वस्तुतः आगम साहित्य से ही हुआ है । टीका साहित्य में यह प्रवृत्ति और अधिक दृष्टिगोचर होती है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने आवश्यक और दशवैकालिक सूत्रों पर टीका लिखते समय तथा समराइच्च कहा और धूर्ताख्यान जैसे जैन कथा ग्रन्थों को रचना करते समय इस बात का अधिक ध्यान रखा है कि लौकिक आख्यानों का अधिकतम उपयोग मिथ्यात्व को दूर करने तथा नैतिकता को प्रतिष्ठापित करने में किया जाये । प्राकृत कथा साहित्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी से प्रारम्भ होता है और सत्रहवीं शताब्दी में समाप्त होता है। इस बीच के साहित्य में कथा, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अन्तर्कथा, आख्यान, दृष्टान्त, संवाद, चरित, प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका, सूक्ति बहावत, गीत आदि समाहित किये गये है । इन कथाओं को हरिभद्र सूरि ने चार भागों ( अर्थ, काम, धर्म और संकीर्ण ) में तथा उद्योतन सूरि ने तीन भागों (धर्म, अर्थ और काम) में विभाजित किया है । पुनः धर्मकथा चार भागों में विभक्त है- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदिनी । उत्तरकाल में इन कथा भागों और भी विभाजित किया गया है । इस समय तक वैदिक आख्यानों का विकास भी प्रारंभ हो गया था । 'इतिहास पुराणाभ्यां वेद समुहयेत्' के रूप में पौराणिक शैली प्रचलित हुई जिसमें अतीत कथाओं के साथ ही नवोदित प्रवृत्तियों और परिस्थितियों के अनुरूप उनमें परिवर्तन और परिवर्धन किया गया। अतिशयोक्ति शैली का अपूर्ण उपयोग किया गया । उदाहरणार्थं पुरूरवा और उर्वशी का सहवास काल ऋग्वेद में चार वर्ष माना गया है पर पौराणिक वर्णन में उसे इकसठ हजार वर्ष कर दिया गया है । जनवर्ग को आकर्षित कर उसे धर्म में स्थिर करने के लिए इस साधन का प्रयोग किया गया। इन आख्यानों का सम्बन्ध अनुभूति से भले ही रहा हो पर उनमें अतिरंजना का तत्व बहुत अधिक जुड़ गया । वह तत्त्व पुराणों का अंग बन गया ओर कालान्तर में उसने स्वतन्त्र और पृथक् रूप में अपना विकास कर लिया। पुराण और इतिहास संवलित हो गया और अतिरंजना के तत्व में इतिहास तत्व पीछे रह गया । आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पों द्वारा दोनों तत्त्वों को विकसित किया गया और इन शब्दों का भी स्वतन्त्र विश्लेषण प्रारंभ हुआ । कौटिल्य अर्थशास्त्र और महाभारत ने पुराणों को श्रद्धेय और अतर्क्य घोषित कर दिया । वैदिक आख्यानों की पृष्ठभूमि में ही विष्णुपुराण, वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, मत्स्यपुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों की रचना हुई है । इनके प्रतिसंस्करण भी प्राप्त होने लगे । समीक्षात्मक दृष्टि से देखा जाये तो लगभग सातवीं शताब्दी तक अष्टादश पुराण और महाकाव्य की परिसीमा निश्चित हो चुकी थी । हरिभद्रसूरि को ये पौराणिक आख्यान सरलतापूर्वक उपलब्ध हो गये । वे स्वयं वैदिक पण्डित थे । जैनधर्म में दीक्षित होने पर उसके प्रगतिशील और व्यावहारिक तत्त्वों ने हरिभद्र के मन को आन्दोलित कर दिया और पौराणिक आख्यानों की अतिरंजित शैली ने अविश्वसनीयता को और गहरा बना दिया । उन्होंने आगमिक टीकाओं में इन आख्यानों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया । धूर्ताख्यान' में तो उन्होंने रामायण, महाभारत ओर पौराणिक आख्यानों पर जो 1. संपादक डॉ ए. एन. उपाध्ये, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, 1944 संघतिलकाचार्य का संस्कृत धूर्ताख्यान जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा, राजनगर द्वारा 1945 में प्रकाशित हुआ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करारा व्यंग्य विनोदात्मक ढंग से कसा है उससे उनकी असत्यता और अविश्वसनीयता और अधिक बढ़ जाती है। निशीथ विशेष चर्णी में धुत्तक्खाणग (पीठिका, पृ. 105) के उल्लेख से यह माना जा सकता है कि हरिभद्र के पूर्व भी इन अख्यानों को उपहास का कारण बनाया गया था । पर इसका सबल प्रयोग हरिभद्र ने ही किया है । उन्होंने धूर्ताख्यान में पांच धूर्तशिरोमणि-मूलश्री, कंडरीक, एलाषाढ, शश और खण्डयाणा के माध्यम से इन अविश्वसनीय पौराणिक आख्यानों को प्रस्तुत किया अपनी कल्पित अनुभूत कथाओं के सहारे । हरिषेण की धर्मपरीक्षा (धम्मपरिक्खा) इसी धूर्ताख्यान के पदचिन्हों पर चलनेवाली अनूठी कृति है । इसमें भी मनोवेग अपने अभिन्न मित्र पवनवेग से इसी प्रकार की कल्पित कथाओं का सहारा लेकर महाभारत और पौराणिक आख्यानों का उपहास करता है । इस युग के अन्य जैनावार्यों ने भी यत्र-तत्र अपने ग्रन्थों में इन कथाओं का पुरजोर खण्डन किया है । वसुदेवहिण्डी आदि कथा ग्रन्थों में यह प्रवृत्ति दृष्टव्य है । नन्दीसूत्र में रामायण, महाभारत आदि जैसे ग्रन्थों को मिथ्याशास्त्रों में परिगणित किया गया है। दार्शनिक क्षेत्र में यही प्रवृत्ति मिथ्यात्वखण्डन के रूप में विकसित हुई है। हरिण की प्रस्तुत 'धम्मपरिक्खा' भी उसी परम्परा में अनुस्यूत एक अपभ्रंश महाभारत कृति है जिसका संपादन प्रथम बार हो रहा है । २. संपादन परिचय १. प्रति परिचय ___ अमितगति की धर्मपरीक्षा से भी पूर्व हरिषेण ने अभ्रंश में धम्मपरिक्खा की रचना की थी। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियां भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट, पूना में सुरक्षित हैं । इन प्रतियों का परिचय इस प्रकार हैi) प्रति A इस पाण्डुलिपि का पुराना नं. है 617/1875-76 और नया नम्बर है 36 1 लेखन स्वच्छ ओर शुद्ध है । इसके कुल पन्ने 75 हैं। प्रथम तीन पन्नों में धागे के लिए कुछ स्थान छोड़ दिया गया है । प्रति का प्रारम्भ “ॐ नमो वीतरागाय" से होता है । वह लाल स्याही में है शेष पूरी पाण्डुलिपि काली स्याही में लिखी गई है। हाशिये में कोई टिप्पण नहीं है । प्रत्येक पृष्ठ में ग्यारह पंक्तियां हैं। हर पंक्ति में 38 से लेकर 44 अक्षर हैं। इसमें आदि -अन्त में कोई समय प्रशस्ति नहीं है । यह पाण्डुलिपि किसी पुरानी पाण्डुलिपि के आधारपर तैयार की गई है। लिपि अधिक पुरानी दिखाई नहीं देती । इसके पन्ने 56 a, 57, 69 अलिखित-से हैं । कागज कत्थे रंग का है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ii) प्रति B यह पूरी पाण्डुलिपि काली स्याही में लिखी गई है । इसका नं. है 1009/ 1887-91. यह पाण्डुलिपि प्रथम पाण्डुलिपि से अपेक्षाकृत पुरानी दिखती है । इसके पन्नों के किनारे कुछ टूट से गये हैं और कागज भी कुछ पुराना अधिक दिखाई देने लगा है । इसमें कुल पन्ने 138 हैं। अंतिम पन्ना कुछ टूट गया है और चौथा पन्ना गुम गया है । स्याही ठीक है, अक्षर सुन्दर और सुवाच्य हैं । प्रत्येक पन्ने में आठ या नौ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में लगभग 28 से 32 अक्षर है। हांशियों में जहां कहीं कुछ टिप्पण भी मिल जाते हैं संस्कृत में । इस पाण्डुलिपि के पन्ना 138 A पर निम्नलिखित प्रशस्ति मिलती है 'संवत् 1595 वर्षे पोषधमासे शक्लपक्षे पंचमी तिथौ व मंगलवारे मघानक्षत्रे चि. (१) कुलनामजोगो ॥ अथ कसय। मोजाबाद वास्तव्ये राजाधिराज क व या ह क व र कर्मचंदराज्यप्र वर्तमाने । इसके बाद अंतिम पृष्ठ पर किसी दूसरी की हस्तलिपि में लिखा है- श्री. मूलसंघे भट्टारक श्री पद्मनंदि, तत्पट्टे म. शुभचंद्र, तत्पट्टे भ . जिनचंद्र, तत्प? भ. प्रभाचंद्र, मण्डलाचार्य भ . रत्नकीति, तत्शिष्य मण्डलाचार्य त्रिभुवनकीति तदाम्नाये खण्डेलवालाश्रये अजमेरागोत्रे सं. सूजू तत्पुत्र टेहक, भार्या लाजी तयोः पुत्र छीतर भार्या सुना इ. रक्षायां ज्ञानावर्णी कर्मक्षयं निमित्तं लिखाप्य ॥ मुनि देवनंदि योग्य दातव्यं ॥ शुभं भूयात् ।। छ । छ । छ ।। ___लगता है, यह प्रति सं. 1595 के पूर्व की होगी। बाद में प्रशस्तिभाग किसी और ने जोड़ दिया है । इसकी अपेक्षा प्रथम पाण्डुलिपि अधिक शुद्ध है । इसलिए हमने उसी को आदर्श प्रति माना है। २. पाठ-संपादन पद्धति 1- इन दोनों प्रतियों के माध्यम से प्रस्तुत संपादन को पूरा किया गया है । दोनों का अध्ययन करने से यह भी तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि वे एक दूसरी पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि नहीं है, बल्कि स्वतन्त्र पाण्डुलिपियों से उनकी प्रतिलिपियां की गई हैं। हमने प्रति A को आदर्श प्रति माना है और उसे पूरा और स्पष्ट करने के लिए प्रति B का सहारा लिया है। इनकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं - 2. आदि और मध्य न को ण । जैसे णवर, घणवाहणु आदि. 3. ब को व । जैसें वित्थारें, वोल्लिएण आदि । प्रति A में जहां कहीं ब ____ अवश्य मिलता है पर उसे भी व कर दिया गया है। 4. णाई को णाइ। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) 5. ण दोनों पाण्डुलिपियों में मिलता है । 6. न कहीं कहीं मिलता है पर उसे भी ण कर दिया है । 7. मुद्रण की सुविधा की दृष्टि से अर्ध एकार ओकार को क्रमशः इकार जैसे पिए, कुंतिहि, ससुरहो, महीयलि, और ओकार कर दिया है । भारहो, भासविणु आदि. 8. यश्रुति और वश्रुति का यथास्थान प्रयोग 9. तृतिया एवं सप्तमी विभक्तियों के कारण प्रत्ययों तथा पूर्वकालिक कृदन्त शब्दों में इ तथा ए को स्वीकार किया गया है । ३. ग्रन्थकार परिचय १. हरिषेण नाम के अनेक कवि हरिषेण नाम के अनेक आचार्य हैं जिन्होंने जैन साहित्य की विविध विधाओं पर ग्रन्थ रचना की है । उदाहरणार्थ- 1 1) समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरिषेण ( ई. सन्. 345 ) 2 ) अपभ्रंशग्रन्थ धम्मपरिक्खा के रचयिता (वि. सं. 1044 ) । इसके विषय में हम विस्तार से बाद में लिखेंगे 1 3) कर्पूर प्रकार या सूक्तावली के रचयिता हरिषेण त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित के रचयिता वज्रसेन के शिष्य थे (12 वीं शताब्दी) । रचयिता हरिषेण 4) जगत् सुन्दरीयोगमलाधिकार के 5) प्रभंजन के साथ वासवसेन के यशोधरचरित में उल्लिखित हरिषेण । उद्योतनसूरि की कुवलयमाला ( ई. सन् 778 ) में प्रभंजन का उल्लेख किया गया है । 6 ) अष्टान्हिका कथा का रचयिता हरिषेण जिनकी गुरु परम्परा हैरत्नकीर्ति, देवकीर्ति; शीलभूषण, गुणचन्द्र, हरिषेण । 7 ) वृहत्कथा कोश का रचयिता हरिषेण जो पुन्नाटसंघीय जिनसेन प्रथम की परंपरा में हुए हैं । अतः उनका समय ई. सन् की दशमी शताब्दी का मध्य भाग है । 1. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, बृहत् कथाकोश, प्रस्तावना, P. 117-119. ; भारतीय विद्या भवन, बम्बई, 1943 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) २. धम्मपरिक्खा के रचयिता हरिषेण .. धम्मपरिक्खा के रचयिता हरिषेण मेवाण में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे । वे श्री उजौर (ओजपुर) से उद्भुत धक्कड वंश के थे । भविस. यत्तकहा के रचयिता यशस्वी कवि धनपाल ने भी इसी वंश को सुशोभित किया था। इसी कुल में हरि नामक कोई प्रतिष्ठित कलाकार भी थे । उनके पुत्र और हरिषेण के पिता का नाम गोवर्धन और माता का नाम गुणवती था। पुत्र हरिषेण गुणगणनिधि और कुल गगन दिवाकर था । उन्होंने किसी कारणवश, कदाचित् व्यापारनिमित्त (णियकज्ज) चित्तौड़ छोड़कर अचलपुर पहुंच गये । वहीं उन्होंने छन्द, अलंकार का अध्ययन किया और धम्मपरिक्खा की रचना की। कवि ने स्वयं को, 'विवह-कइ-विस्सुइ' कहा है । धम्मपरिक्खा की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा है इह मेवाड-देसिजण संकुलि सिरिउजउर-णिग्यय-धक्कड कुलि । पाव-करिद-कुंभदारण-हरि जाउ कलाहिं कुसलु णामें हरि । तासु पुत्त पर-णारि-सहोयरु गुण-गण-णिहि कुल-गयण-दिवायरु । गोवडढणु णामें उप्पण्णउ जो सम्मत्तरयण-संपुण्णउ । तहो गोवड्ढणासु पिय गुणवइ जा जिणवर-पय णिच्च वि पणवइ । ताए जणिउ हरिषेण--णाम सुउ जो संजाउ विवह-क इ-विस्सुउ । सिरि चित्तउउ चइवि अचल उरहो गउ णिय-कज्जे जिणहर - पउरहो। तहिं छन्दालंकार पसाहिय धम्मपरिक्ख एह तें साहिय । जे मज्झत्थ मणुय आयणहिं ते मिच्छत्त-भाउ अवगणहि । तें सम्मत्त जेण मलु खिज्जइ केवलणाणु ताण उप्पज्जइ । घत्ता- तहो पुणु केवलणाणहो णेयपमाणहो जीव-पएसहिं सुहडिउ । बाहा-रहिउ अणंतउ अइसयवंत उ मोक्ख-सुक्ख-फलु पयडियउ ।।26।। धम्मपरिक्खा की रचना वि. सं. 1044 में हुई जैसा कि निम्न कडवक (क्र. 11.27) की पंक्तियों से सिद्ध होता है। विक्कम-णिव-परिवत्तिए कालए ववगयए-वरिस-सहस-चउतालए। इउ उपप्ण्णु भविय-जण-सुहयरु उंयरहिय-धम्मासय-सायरु । बुध हरिषेण के गुरु का नाम सिद्धसेन रहा होगा जैसा कि उन्होंने धम्मपरिक्खा की ग्यारहवीं सन्धि के कडवक 25 के अन्त में लिखा है सिद्धसेण-पय वंदहिं दुक्किउ णिहि जिण हरिषेण णवंता। तहि थिय ते खग-सहयर कय धम्मायर विविह-सुहई पावंता ॥ 11.25 ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) इसके अतिरिक्त हरिषेण के विषय में और कुछ भी नही मिलता । उन्होंने अपने आपको "विवुध विश्रुतकवि' कहा है। इससे यह अनुमान तो किया ही जा सकता है कि उन्होंने कुछ और भी ग्रन्थ लिखे होंगे जो किन्ही भण्डारों में छिपे पड़े हों। जहां तक कवि के समय का प्रश्न है, वह उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि हरिषेण ने अपना ग्रन्थ वि. सं. 1044 (ई. सन् 988) में लिखा था। क्षीरम ढकथा के प्रसंग में उन्होंने सागरदत्त नामक वणिक का उल्लेख किया है जो समुद्र पारकर चोल (१) द्वीप गया और वहां तोमर राजा से मिला । उसने तोमर को दुग्ध-दधि मिश्रित व्यंजन खिलाये जिससे आकृष्ट होकर तोमर ने उस गाय की कामना की (3.4)। यहां हरिषेण ने 'णालिएर पुव्व हो गउ दीपहो' तो लिखा है पर चोल द्वीप का स्पष्टत: उल्लेख नहीं किया है । अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा (7.64) में अवश्य यह जोड़ दिया है। तोमरवंशीय क्षत्रिय दिल्ली को हो अपना मूल स्थान मानते हैं। चंबल को तोमरों ने सन् 736 ई. में अपना राज्य हरियाणा क्षेत्र में स्थापित किया था। वे ई. सन् 1192 तक ढिल्लिका को राजधानी बताकर राज्य करते रहे। मार्च 1192 ई. में ताराईन के निर्णायक युद्ध में चाहड़पालदेव तोमर की मृत्यु के साथ तोमरों का दिल्ली साम्राज्य समाप्त हो गया और फिर ग्वालियर तोमर इतिहास प्रारम्भ हुआ । हरिषेण और अमित गति ने तोमर का उल्लेख तो किया है पर उस वंश के किसी सम्राट का नामोल्लेख नहीं किया। साथ ही दक्षिणवर्ती चोल राज्य में तोमर का प्रवेश हुआ हो ऐसा कोई उल्लेख भी मुझे देखने नहीं मिला। हो सकता है, किसी युद्ध में कोई तोमर सम्राट हार गया हो, वह यों ही चोल द्वीप में पहुंच गया हो और बिना किसी प्रयत्न किये ही वह अपना राज्य वापिस लेना चाहता हो। इसी घटना को हरिषेण ने क्षीरमूढ कया में कहकर उसकी इच्छा को मूर्खता किंवा उपहासास्पद कह दिया हो । जो भी हो, हरिषेण काल तोमरकाल रहा है इसमें कोई संदेह नहीं है। ___इसी प्रकार हरिषेण ने तृतीय संधि के दसवें कडवक में दीणार ओर पल का उल्लेख किया है। दीणार का उल्लेख लगभग बारहवीं शताब्दी तक मिलता है। राजशेखर की राजतरंगणी में भी दोणार का सुन्दर वर्णन उपलब्ध है। पर यह उल्लेख हरिषेण के समय को निश्चित करने में अधिक सहायक नहीं हो पाता। कुल मिलाकर हम यही कह सकते हैं कि हरिषेण दसवीं शताब्दी के महाकवि थे। दर्शनसार में देवसेन ने कहा कि है कि तीर्थ कर पार्श्वनाथ के तीर्थ में शुद्धोदन और उनके पुत्र महात्मा बुद्ध थे। बुध्द ने संघ में रहकर मत्स्य, मांस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) आदि का भक्षण करना प्रारंभ कर दिया । फलतः उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया गया। बाद में उन्होंने संघ से पृथक होकर अपने अलग धर्म की स्थापना कर ली जिसे बौद्धधर्म कहा जाने लगा। यह प्रसंग धम्मपरिक्खा की दशवीं संधि के दशवें कडवक में हरिषेण ने उद्धृत किया है। देवसेन का भी समय लगभग दशवीं शताब्दी माना जाता है। हरिषेण और देवसेन इस दृष्टि से समकालीन कवि सिद्ध होते है। ३. हरिषेण के पूर्ववर्ती कवि हरिषेण ने अपने पूर्ववर्ती कवियों में चतुर्मुख, पुष्पदन्त, स्वयंभू बध सिद्धसेन और जयराम का उल्लेख किया है। धर्म परीक्षा के प्रारंभ में ही सिद्धि पुरंधिहि कंतु सुद्धे तंणु-मण-वयणे। भत्तिए जिणु पणवेवि चितिउ बुह-हरिषेणें ।। मणुयजम्मि बुद्धिए किंकिज्जइ मणहरु जाइ कन्वु ण रइज्जइ । तं करंत अवियाणिय आरिस हासु लहहि भड रणि गय-पोरिस । चउमहं कन्वविरयणि सयंभु वि पुप्फयंतु अण्णाणु णिसंभिवि । तिण्णि वि जोग्ग जेण त सीसइ चउमुह मुहे थिय ताव सरासइ । जो सयंभु सो देउ पहाणउ अह कह लोयालोय-वियाणउ। पुष्फयंतु णवि माणुसु वुच्चइ जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ । ते एवंविह हउं जडु माणउ तह छंदालंकार-विहूणउ । कम्प करंतु केम णवि लज्जमि तह विसेस पिय-जण किह रंजामि । तो वि जिणिद-धम्म-अणुराएं बुधसिरि-सिद्धसेण-सुपसाए । करमि सयं जि णलिणि-दल-थिउजलु अणुहरेए णिरुवमि मुत्ताहलु । घता-जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबंधि । साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडिया-बंधि। चतुर्मुख हरिषेण ने जिन महकवियों का उल्लेख किया है उनमें चतुर्मख का नाम शीर्षस्थ है । लगता है, वे अपभ्रंश के कदाचित् प्राचीनतम कवि रहे हैं । यही कारण है कि स्वयंभू ने अपने पउमचरिउ, रिहणेमिचरिउ और स्वयंभछन्द में तथा पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में उनका बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है । पुष्पदन्त ने तो यहां तक लिखा है कि चतुर्मुख के तो चार मुख हैं, उनके आगे सुकवित्व क्या कहा जाये-चउमुहहु चयारि मुहाहिं जहिं, सुकइ तणु सीसउ काई तहिं (महापुराण, 69 वीं संधि)। स्वयंभू ने कहा कि चतुर्मुख ने छर्दनिका, द्विपदी और ध्रुवकों से जटित पद्धड़ियां दी हैं (रिट्ठणे मिचरिउ)। उनके पउमचरिउ का वह उल्लेख भी स्मरणीय है जहां कहा गया है कि चतुर्मख के Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों को आज भी कोई नहीं पा सकता है। गोग्रहकथा वर्णन में-च उमुह एव च गोग्गह कहाए । इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि चतुर्मुख महाकवि स्वयंभू से भी पूर्ववर्ती होना चाहिए । कहा जाता है कि उनकी तीन प्रमख कृतियां अपभ्रंश भाषा में लिखी गई हैं - पउमचरिउ, रिट्ठणे मिचरिउ तथा पंचमीचरिउ । धवल कवि ने हरिवंशपुराण में उनके एक और ग्रन्थ का उल्लेख किया है-'हरि पाण्डवानां कथा' । दुर्भाग्यवश महाकवि का अभी तक कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है । कवि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है । हरिषेण ने उनके मुख में सरस्वती का निवास बताकर उनका सम्मान किया है। स्वयंभूदेव स्वयंभूदेव के पिता का नाम मारुतदेव और माता का नाम पद्मिनी था । उनकी तीन पत्नियां थीं- आदित्यदेवी, अमृताम्बा और सुअब्वा। इन तीनों ने कवि के ग्रन्थों को लिखने में काफी सहायता की थी। कवि के पिता भी कवि थे। उनके लड़के त्रिभुवन स्वयंभू भी अपने पिता के समान ही प्रतिभा संपन्न महाकवि थे। उन्होंने भी अपने पिता के ग्रन्थों को पूर्ण करने में अपनी प्रतिभा का उपयोग किया था। कवि मलतः कौशल प्रदेश के थे। बाद में उन्हें राष्ट्रकुट राजा ध्रुव का मन्त्री मान्यखेट ले गया था । हरिषेण ने उन्हें लोकालोक में विश्रुत माना है। महाकवि ने पउमचरिउ ओर रिट्ठणेमिचरिउ में जिन पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख किया है उनमें रविषेणाचार्य सबसे बाद के हैं। रविषेण ने पदमचरित की रचना वि. सं. 734 में की अतः स्वयंभू की पूर्व कालावधि वि. की लगभग 8 वीं शती होगी। इसी तरह महाकवि पुष्पदन्त ने स्वयंभू का उल्लेख अपने महापुराण में किया है। महापुराण की रचना वि. सं. 1016 में हुई थी। अतएव स्वयंभू की उत्तरकालावधि वि. सं. 1016 है । जयकीर्ति और असग ने स्वयंभ का उल्लेख किया है। अतः कवि का समय नवमी शताब्दी होना चाहिए। महाकवि की तीन विशाल रचनायें उपलब्ध है- प उमचरिउ, रिट्ठणे मिचरिउ, और स्वयंभू छन्द । इनके अतिरिक्त तीन और ग्रन्थ उनके नाम पर उल्लिखित है-सोद्धयचरिउ, पंचमिचरिउ और स्वयंभूव्याकरण । कवि के सभी ग्रन्थ भाषा, विषय और शैली की दृष्टि से अनुपम हैं। रामकथा को नदी मानकर उसे उन्होंने बहुत सरस बना दिया है। पुष्पदन्त महाकवि पुष्पदन्त भी स्वयंभू के समान मूलतः ब्राह्मण थे पर जैनधर्म की विशेषता देख कर वे जैनधर्मपरायण हो गये थे। उनके पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। वे बड़े स्वाभिमानी और स्पष्टवक्ता थे । महापुराण के अन्त में दी गई प्रशस्ति से उनके व्यक्तित्व की एक झलक मिल Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है। अभिमानमेरु, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय और काव्यपिसल्ल जैसे उपाधि नामों से भी कवि के व्यक्तित्व का पता चलता है। वे राष्ट्रकट के अंतिम सम्राट कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे । भरत ही उन्हें विदर्भ से मान्यखेट ले गये और उन्हीं की प्रेरणा से मान्यखेट में महापुराण की रचना हुई थी। हरिषेण ने उनकी मानवीयता तथा विद्वत्ता का ससम्मान उल्लेख किया है। ___ महाकवि पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय रहे हैं। धवला और जयधवला ग्रन्थों का भी उन्होंने उल्लेख किया है। जयधदलाटीका वीरसेन ने अमोघ वर्ष प्रथम वि. सं. 894 (A. D. 837) के आसपास की थी। हरिषेण के शिष्य जयसेन ने वि. सं. 1044 में उनका उल्लेख किया है। अतः महाकवि का समय वि. सं. 894 और 1044 के बीच तो होना ही चाहिए । धनपाल में पाइयलच्छी नाममाला में वि. सं. 1629 में मालव नरेन्द्र द्वारा की गई मान्यखेट की लूट का उल्लेख है। पुष्पदन्त ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। लगता है इस लूट को उन्होंने स्वयं देखा है और वे उसके बाद भी मान्यखेट में रहे हैं । अतः महाकवि का समय ई. सन की दसवीं शताब्दी होना चाहिए । पुष्पदन्त की तीन रचनायें उपलब्ध हैं- महापुराण, णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ । ये तीनों ग्रन्थ रस, अलंकार और प्रकृतिचित्रण की दृष्टि से बेजोड़ हैं। उपमा और रूपक की शैली से कवि की विदग्धता का पता चलता है। देशी भाषा के शब्दों का बड़ा सुन्दर प्रयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। बुध सिद्धसेन हरिषेण ने बुध सिद्धसेन का उल्लेख (I1-25) इस प्रकार से किया है जैसे वे उनके गुरु रहे होंधत्ता- सिद्धसेण-पय बंदहिं दुक्किउ णिदहिं जिण हरिषेण णवंता। तहि थिय ते खग-सहयर कय धम्मावर विविह-सुहई पावंता ॥ धम्मपरिक्खा के प्रारम्भ में भी उन्होंने बुध सिद्धसेन के 'प्रसाद' का उल्लेख किया है। हरिषेण के अतिरिक्त अन्यत्र बुध सिद्धसेन का उल्लेख देखने में नहीं आया। जयराम हरिषेण ने लिखा है कि जिस धम्मपरिक्खा को कवि जयराम ने गाथा प्रबंध में लिखा था उसी को उन्होंने पद्धडिया छन्द में लिखा दिया है। इससे ऐसा लगता है कि 'धम्मपरिक्खा' का प्रारम्भ जयराम ने किया था। परन्तु यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। अतः इसके विषय में कुछ भी कहना संभव Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) नहीं है । कवि जयराम का उल्लेख भी अन्यत्र नहीं मिलता । इतना अवश्य है कि हरिषेण ने जयराम की धर्मपरीक्षा के आधार पर ही अपनी धर्मपरीक्षा की रचना की होगी । ४. हरिषेण के समकालीन कवि आचार्य हरिषेण का समय दशवीं शताब्दी के मध्यभाग से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक होना चाहिए । इस बीच अनेक महान् कवि और दार्शनिक हुए हैं । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रन्थां के रचयिता अमृतचन्द्र, तत्वानुशासन के रचयिता रामसेन, यशस्तिलकचम्पू के रचयिता सोमदेव, धर्मपरीक्षा के रचयिता अमितगति, हरिवंशपुराण के रचयिता धवलकवि, जम्बूस्वामि रचयिता वीरकवि, सुदंसणचरिउ के रचयिता नयनंदि आदि महाकवि हरिषेण के समकालीन थे । दशवीं - ग्यारहवीं शताब्दी के और भी धुंरधर कवि हुए हैं जिन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश में ग्रन्थ-रचना की है । उन ग्रन्थों की शैली भी लगभग एक जैसी ही है । देवसेन, रविकीर्ति, आर्यनन्दी, मुनि रामसिंह, पद्मकीर्ति, इन्द्रनन्दि, वादिराज, वीरनन्दि, चामुण्डराय, पद्मनन्दि, धवल, नरेन्द्रसेन, मल्लिषेण, धनपाल, वाग्भट्ट, हरिचन्द्र आदि महाकवियों ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय हरिषेण के काल में ही दिया है । ५. हरिषेण की धम्मपरिक्खा और अमितगति की धर्मपरीक्षा की तुलना हरिषेण की धम्मपरिवखा ई. सन् 1044 में समाप्त हुई और इसके 26 वर्ष बाद अमितगति (द्वितीय) को धर्मपरीक्षा वि. सं. 1070 में पूर्ण हुई। अमितगति मालवा के निवासी रहे हैं । उनका पंचसंग्रह धार के समीपवर्ती गांव ' मसीदकिलोदा' में लिखा गया था । इनकी गुरुपरम्परा वीरसेन- देवसेन- अमितगति प्रथम ( योगसार प्राभृतकार ) - नेमिषेण - माधवसेन- अमितगति द्वितीय । पण्डित विश्वेश्वरनाथ ने अमितगति द्वितीय को वाक्पतिराज मुञ्ज की सभा के एक रत्न के रूप में प्रतिष्ठित किया है।' 'सुभाषित रत्न संदोह' की समाप्ति मुंज के ही राजकाल में वि.सं. 1050 में हुई । कवि के निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं- धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसंदोह, उपासकाचार, पंचसंग्रह, आराधना, भावना द्वात्रिंशतिका, चन्द्रप्रज्ञप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । हरिषेण की धम्मपरिक्खा अपभ्रंशशैली में ग्यारह सन्धियों में पूर्ण हुई । 1. संवत्सराणां विगते सहस्रं ससप्ततौ विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं जिनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ॥ धर्मपरीक्षा, प्रशस्ति भाग, श्लोक 20 2. भारत के प्राचीन राजवंश, प्रथम भाग, बम्बई सन् 1920, P. 101 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) इसमें कुल कडवक 238 हैं जो भिन्न भिन्न अपभ्रंश छन्दों में लिखे गये हैं । कुल ग्रन्थ : 2 70 हैं | ये मेवाड़ निवासी हैं। मेवाड़ ओर मालवा में कोई विशेष दूरी नहीं है । दोनों समकालीन भी है। अमितगति की ध. प. से हरिषेण की ध. प. पहले लिखी गई । अतः अधिक सम्भावना यह है कि अमितगति के सामने हरिषेण की ध. प. रही होगी । हरिषेण की ध. प. विवरणात्मक अधिक है tate अमितगति एक कुशल कवि के रूप में आलंकारिक शैली में प्रत्येक तत्व का वर्णन करते हैं । हरिषेण ने सप्तम संधि में लोक स्वरूप को तथा अष्टम संधि में जैन परम्परागत रामकथा को कुछ विस्तार से लिखा है जबकि अमितगति ने कुछेक श्लोकों में ही उसे निपटा दिया है। हरिषेण ने अन्तिम संधि में रात्रि भोजनकथा का विस्तार किया है पर अमितगति उसको सिद्धान्त रूप उल्लिखित करके आगे बढ गये । इसी तरह अमितगति ने जैन सिद्धान्त, नीतितत्व, प्रकृतिचित्रण, आदि को जिस आकर्षक और काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है वह हरिषेण नहीं कर सके । हरिषेण का सन्धि विभाजन अमितगति के अध्याय विभाजन से अधिक युक्ति-संगत है । इन विशेषताओं और विभिन्नताओं के बावजूद लगता है, हरिषेण की धम्मपरिक्खा अमितगति की धर्मपरीक्षा का आधारभूत ग्रन्थ रहा होगा । इन दोनों ग्रन्थों की विषयगत तुलना हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं हरिषेण की धम्मपरिक्खा प्रथम सन्धि अमितगति को धर्मपरीक्षा कडवक श्लोक 1. पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख प्रथम परिच्छेद - 1.16 2. जम्बूद्वीप वर्णन 1.17-20 3. विजयार्ध पर्वत वर्णन 1.21-27 4. वैजयन्ती नगरी वर्णन 1.28-31 5. राजा जितशत्रु वर्णन 1.32-36 1.37-47 6 - 7. जितशत्रु की पत्नी वायुवेगा और पुत्र मनोवेग 8. मनोवेग का मित्र पवनवेग, विजयापुरी नगरी के राजा का पुत्र । उसका जैन मंदिर के दर्शनार्थ गमन 9. जंगल में मुनिदर्शन | अवन्ति देश का वर्णन 10. उज्जैयिनी नगरी का वर्णन 11. उज्जैयिनी के वन का वर्णन 12. वन में विराजित जैन मुनि का वर्णन और उनसे प्रश्न 13. संसार वर्णन - मधुबिन्दु दृष्टान्त 1.48-55. प्रियापुरी नगरी का राजपुत्र 1.56-57 1.58-65 1.66 1.67-70 प्रथम परिच्छेद समाप्त और 2. 1-7 द्वितीय परि. प्रारंभ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. मधुबिन्दु कथा समाप्त 2.8-21 यहां इस कथा में कुछ अन्तर है पर विस्तार समान है। 15. धर्म का प्रभाव 2.22-79 यहां इसका विस्तार अधिक है। यहीं योगिराज द्वारा कुशल प्रश्न भी है 2.80-89. 16. मुनि से प्रश्न और उनका उत्तर । पवनवेग के 2.90-95 द्वितीय परिच्छेद मिथ्यात्व को दूर करने का मार्ग बताना । समाप्त । 17. मनोवेग और पवनवेग के बीच संवाद । मनोवेग तृतीय परिच्छेद । मित्रता द्वारा जिनदर्शन की बात कहकर पाटलिपुत्र का का विशेषता पूर्वक दोनों उल्लेख करना। के बीच संवाद 3.1-26 18. पाटलिपुत्र की विशेषतायें । बाद में 3.27-43 19-20. पवनवेग ने मनोवेग से कौतुक प्रदर्शन करने का आग्रह किया | द्वितीय संधि 1. दानों मित्रों का पटना-गमन 3.44-58 2-3. दोनों कुमारों का रूप वर्णन और उनका 3.58-68 काव्यात्मक वादशाला में प्रवेश तत्व अधिक है 4-6 शास्त्रार्थ विप्रगण का एकत्रित होना और 3.69-95 तृतीय परिच्छेद उनसे कुमारों का संवाद समाप्त 7-8. षोडश-मुक्कि न्याय की प्रसिद्धि 4.1-39 9. दस मूढों की कथा 4.40-46 10-16. रक्त मूढ कथा (1) बहुधान्यक और उसकी 4.47-76-95 चतुर्थ पत्नी सुन्दरी और कुरगी के बीच परिच्छेद समाप्त। यहां स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन विस्तार है जो हरिषेण की ध.प. में नहीं है। 15.1-76 16-17. द्विष्ट मूढ कथा (2) 5.77-97 संसार का स्कन्ध और वक्र । वक्र ने मरने के बाद विस्तृत चित्रण जो हरिषेण स्कन्ध पर आक्रमण किया। की ध. प. में नहीं है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) 18- 23. मनो मूढ कथा ( 3 ) - कंठोष्ठनगर में भूतमति ब्राह्मण, उसकी पत्नी यशा और शिष्य यश । ब्राह्मण के जाने पर दोनों में संबन्ध | ब्राह्मण का आगमन । वह दोनों को खोजने निकला पर यशा पत्नी और यश शिष्य को उस ब्राह्मण ने नहीं पहचान पाया 24. व्युग्राही मूढ कथा ( 4 ) - दुर्धर राजा उसका दानी जात्यन्ध पुत्र । लोहदण्ड से उसपर प्रहार करना 1. 2-3 आम्रमूढ कथा ( 6 ) 4-6. क्षीर मूढ कथा ( 7 ) 7. अगुरु मूढ कथा (8) 8. 9. पित्तदूषित मूढ कथा (5) तृतीय सन्धि 14. गजरथ और मंत्री का संवाद धन की महिमा 10. चंदन का बेचना और दुःखी होता 15. खेत की चंदन लकड़ी काटना और फिर कोदों बोना 11. चंदनत्यागी मूर्ख की कथा ( 9 ) 12-13 चार मूर्खों की कथा ( 10 ) मथुरा नरेश उपशान्तमन को पित्तज्वर और उसकी शान्ति कथा सर्वाधिक मूर्ख कोन है, इसका निश्चय करना प्रथम मूर्ख कथा - मूषक द्वारा आंख का जलाया जाना और विषमेक्षण नाम रखना यहां भी संसार का चित्रण है, नारी और कामुकता का भी 6.1-95 7.1-19 7.20-28 7.29-62 7.63-96 8.1-9 8.10-21 हरिषेण ने विस्तार नहीं किया 8.22-34 8.35-49 8.50-73 8.92-95 9.4-20 द्वितीय मूर्ख कथा - दोनों पत्नियों ने दोनों 9.21-43 पैर तोड़ दिये और उसका कूटहंसगति नाम रख दिया । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) 16. तृतीय मूर्ख कथा-दस पुत्रों की शर्त में अपनी 9.44-49 संपत्ति चोरों को लुटा देना 17-19. चतुर्थ मूर्ख कथा-गल्लस्फोट कथा 9.50-95 20. मनोवेग का प्रश्न-विष्णु के संदर्भ में 10.1-20 21. विष्णु पर प्रश्न चिन्ह 10.21-40 22. ब्राह्मणों को निरुत्तर कर मनोवेग 10.41-51 वादशाला से बाहर आया चतुर्थ संधि 1-2. विष्णु कथा-अकंपनाचार्य कथा 10.52-65 3. मार्जार बेचने के लिए मनोवेग वादशाला 10.66-74 पहुंचा 5-6. मार्जार के दोष और गुण । कूपमण्डूक, कृतक 10.75--100 बधिर और क्लिष्टभृत्य जैसे के सामने तत्त्व की बात न कहना मण्डप कौशिक कथा 11.1-8 मण्डप कौशिक की पुत्री छाया और महादेव 11.9-25 यहां गंगा का का संबन्ध । महादेव का गंगा से भी प्रसंग मात्र एक श्लाक में संबन्ध है। पर हरिषेण ने इसका विस्तार किया है। 10-12. हरि (विष्णु) की कामुकता और कृष्ण 11.26-28 का सुन्दर रूप 13-16. ब्रह्मा और तिलोतमा का प्रेम सम्बन्ध 11.29-47 17. ब्रह्मा ने महादेव को शाप दिया 11.48-48 18. ब्रह्मा की रीछनी से जांबव नामक पुत्र। 11.59-65 इन्द्र ने भी गौतम ऋषि की पत्नी का उपभोग किया। यमराज के पास छाया पुत्री के रखने का संकल्प 19. यमराज ने छाया को पत्नी बनाया। अग्नि 11.66-82 ने भी छाया का उपभोग करना चाहा । प्रच्छन्न रूप से छाया के साथ अग्निदेव 11.73-93 का रमण । छाया द्वारा उसका उदरस्थ किया जाना । यमराज ने दोनों को उदरस्थ कर लिया Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) 21. 22 पवनदेव का देवों को निमन्त्रण । अग्निदेव 11.94-95 का प्रगट होना और भय से वृक्षों-शिलाओं 12.1-9 में छिप जाना यमराज और अग्निदेव के देवत्व पर प्रश्न 12.10-15 चिन्ह । मार्जार के दोष की स्वीकृति क्यों नहीं ? आप्त का स्वरूप-वीतरागता व 12.16-26 निष्कामता 23. पंचम संधि 1. देवों में ऋद्धियों का होना 12.27-29 2-6. शिश्नच्छेदन कथा 12.30-33 7. स्वर शिरश्छेदन कथा 12.34-52 8-9. जल पर तैरती शिला तथा वानरनत्य 12.53-76 कथा 10-11. कमण्डलु में हाथी का प्रवेश और उसमें से 12.77-92 उसका निर्गमन विप्रगण द्वारा आश्चर्य-व्यक्त 12.93-97 किया जाना 13.1-6 13. युधिष्ठिर द्वारा रसातल से दस करोड़ 13.7-17 सेना और शेषनाग सहित सप्तषियों को ले आना 14-15 अगस्त्य और ब्रह्मा की सृष्टि कथा 13.18-36 16-17 ब्रह्मा, विष्णु आदि की कथाओं पर 13.37-53 प्रश्नचिन्ह 18-20 जिनेन्द्र गुणों की विशेषता 13.54-102 यहां और भी पौराणिक कथाओं का उल्लेख है। षष्ठ सन्धि 1-18 इस संधि में लोकस्वरूप का विस्तृत वर्णन है। अमितगति ने इसे बिलकुल छोड़ दिया है Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) सप्तम संधि 1. मनोवेग ने पटना की अन्य वादशाला में 14.1-10 पहुंचकर अपनी कथा कही 2. मैं साकेत नगरी की वृहत्कुमारिका का पुत्र 14.11-23 हूँ। पिता के मात्र स्पर्श से मेरा जन्म हुआ। बारह वर्ष तक दुष्काल के भय से गर्भ में ही रहा। 3-4 बाद में चूल्हे के पास जन्म होते ही मैंने बा 14.24-32 भोजन मांगा। फलतः मां ने मुझे घर से निष्कासित कर दिया। 5. घर से निकलकर मैंने एक वर्ष तक तपस्या 14.33-38 की । साकेत में मैंने मां को पुनविवाहित देखा 6. पुराणानुसार पत्नी किन्हीं विशेष 12.39-45 परिस्थितियों में विवाह कर सकती है। 7-8 पुराण का अर्थ कहने पर भय व्यक्त 14.46-54 किया 9. भागीरथी से भगीरथ और गांधारी से 14.55-61 सौ पुत्रों की उत्पत्ति कथा 10. गर्भस्थ अभिमन्यु के समान उसने भी 14.62-67 तपस्वियों के वचन सुने 11-13 बारह वर्ष तक गर्भस्थ रहना भी 15.63-80 प्रामाणिक है । यम की कन्या ने अपना गर्भ सात हजार वर्ष तक रखा । बाद में उसी गर्भ से रावण का पुत्र इन्द्रजीत हुआ। 14-15 पाराशर और योजनगन्ध कथा 14.81-91 16-17 उद्दालक और चन्द्रमुखी कथा 14.92-101 18. समापन 15.1-15 अष्टम सन्धि 1. जैन पुराणानुसार कर्ण कथा । विचित्र वीर्य के तीन पुत्र-धृतराष्ट्र, पाण्डु और 15.17-21 विदुर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) 2. पाण्डु और चित्रांगद के बीच संवाद 3. कर्ण कथा- - कुन्ती के साथ पाण्डु का विवाह 4- 5. 6. 7. 10. 11. युधिष्ठिर आदि पाण्डवों का मोक्ष गमन व्यास का गंगास्तान और फिर ताम्रभाजन कान मिलना मनोवेग पटना की एक और अन्य वादशाला में पहुंचे 8- 9. बौद्ध भिक्षुओं को श्रृंगाल द्वारा आकाश में 15.75-94 उठा ले जाना 12. विद्याधरवंशोत्पत्ति कथा 2-3, 4-5. 13-15. राक्षस वंशोत्पत्ति कथा 16- 21. वानर वंशोत्पत्ति कथा 22. समीक्षात्मक समापन रामचंद्रजी का वनवास से लेकर श्रीलंका 15.95-98 में प्रवेश समीक्षात्मक समापन नवम सन्धि 1. मनोवेग ने पुन: पौराणिक कथाओं की व्याख्या की कविट्ठखादन कथा इस कथा की समीक्षा 15.22-31 15.32-41 6 - 10. दधिमुख और जरासंध कथा । बिना धड़ के व्यक्ति का शिर एक दूसरे घड़े पर गिरने पर जुड़ जाना 15.42-55 15.56-66 यहां पुराणों की समीक्षा जैन दृष्टिकोण से की गई है जो हरिषेण ने नहीं की । 15.57-74 16.1-21 यहां यह समीक्षा अधिक विस्तृत है । अमितगति ने इसका वर्णन नहीं किया 隷 · 券 16.22-27 19.22-37-43 16.44-57 यहां अधिक विस्तृत समीक्षा है | 16.58-84 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) 11- 12. समीक्षा - जब जरासंध का धड़ जुड़ सकता 16.85-93 है तो हमारा धड़ क्यों नहीं जुड़ सकता ? श्राद्ध में परलोक में पिता को भोजन मिल सकता है तो हमारा पेट क्यों नहीं भर सकता ? 13. कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की जगह सुदेव, सुशास्त्र और सुगुरु का महत्व 14. वैदिक पुराणों की समीक्षा 15-17. बलि और रावण का प्रसंग अत्यल्प 1--25. पौराणिक समीक्षा के साथ जैनेन्द्रदेव की विशेषता, धर्म का महत्त्व आदि वर्णित है दशम संधि 1. उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल, चौदह कुलकर 2. अंतिम कुलकर के पुत्र ऋषभदेव, उनका विवाह, पुत्र, पुत्रियां 3 - 10. ऋषमदेव का तप वर्णन । उनके साथ दीक्षित राजाओं का पथ-भ्रष्ट होना तथा मिथ्यात्व का उदय 11- 12. पवनवेग का जैन धर्म की ओर झुकाव ओर उनका उज्जैयिनी में जैन मुनि के पास पहुंचना 13. मुनिचंद्र के पास पहुंचकर मनोवेग ने पवनवेग को व्रत देने का निवेदन दिया । यहां यह वर्णन नहीं मिलता । 16.99-100 16.102 - 104 यहां यह विस्तार से नहीं है । 17 वें परिच्छेद में वेदों की अपौरुषेयता, जातिवाद, स्नानवाद, अकर्मवाद, भूतत्ववाद, सृष्टिकर्तृत्व आदि का खण्डन है और आत्मा का अस्तित्व, कर्म वाद आदि की सिद्धि की गई है। हरिषेण की ध. प. यह सब नहीं है । 18.1-21 18.22-29 18 27-84 18.85-100 19.1-11 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) 14. श्रावक व्रतों का वर्णन । अष्टमूल गुण 19.12 व बारह व्रत 15. चार शिक्षाव्रत-सामायिक, प्रोषधोपवास, 19.13-101 इसमें अधिक अतिथिसं विभाग, भोगोपभोगपरिमाण । विस्तृत विवेचन है । सल्लेखना, रात्रिभोजनत्याग, जिनमंदिर दर्शन, जिनपूजन पर भी जोर दिया है । 16. पवनवेग द्वारा श्रावक व्रतों का ग्रहण । इसमें रात्रिभोजन त्याग भी है। ग्यारहवीं सन्धि 1. मेवाड़ का वर्णन यह वर्णन यहां नहीं है। 2. मेवाड़ की उज्जयिनी का वर्णन 3-10. निशि भोजन कथा 20.1-12 रात्रिभोजन कथा नहीं है । उसके दुष्परिणाम अवश्य दिये हैं। 11-21. आहार दान कथा 20.23-52 प्रोषधोपवास, आहारदान आदि का वर्णन स्पष्ट व्यसन त्याग। 22. पंचणमोकार मंत्र जप, फल, अतिथि 53-63 ग्यारह प्रतिमाओं संविभाग, अभयदान आदि कथायें का वर्णन । 64-80 सम्य ग्दर्शन आदि का वर्णन ! 23-27. अंत में हरिषेण प्रशस्ति और धर्मपरीक्षा 81-90 पवनवेग का जैनलिखने का उद्देश्य । धर्म में दीक्षित होना, धर्मपरीक्षा का उद्देश्य प्रशस्तिभाग में दिया गया __ इन दोनों धर्मपरीक्षाओं की तुलना करने पर यह सहजता पूर्वक समझ में आ जाता है कि अमितगति ने विषय सामग्री हरिषेण से ली और उसे अपनी प्रतिभा से विस्तार देकर दो माह में ही अपनी धर्मपरीक्षा को समाप्त कर दिया (अमितगतिरिवेदं स्वस्य मासद्वयेन, प्रथित विषदकीति: काव्यमुद्भूतदोषम्, 20-90)। शैली भी दोनों की समान है। मनोवेग कल्पित कथायें बनाकर विप्रगण के समक्ष प्रस्तुत करता है और जब वे उन कथाओं पर विश्वास नहीं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) करते तो तुरन्त लगभग वैसी हो कथायें पुराणों से निकालकर उपस्थित कर देता है । हरिषेण काव्यात्मक वर्णन के चक्कर में न पड़कर विवरणात्मक शैली को अपनाते हैं । इसलिए वे अमितगति के समान न परम्परागत स्त्रियों की अधिक निन्दा करते हैं, न मित्रता के अधिक गुण गाते हैं, न संसार के दोष बताते हुए अधिक समय तक रुकते हैं और न धन की महिमा का गुणगान करते हैं । वे तो द्रतगति से पौराणिक कथाओं को कहते हुए आगे बढ़ते जाते हैं उन्होंने सप्तम सन्धि में लोक स्वरूप का, आठवीं संधि में रामकथा का तथा ग्यारहवीं मन्धि में रात्रिभोजन-विरमण आदि कथाओं का विशेष विवेचन किया है जिसे अमितगति ने संक्षेप में ही उल्लेख मात्र कर निपटा दिया है। संधिगत विषय के अध्ययन से हरिषेण की एक यह विशेषता दृष्टव्य है कि उन्होंने सन्धि-- विभाजन का जो वैज्ञानिक तरीका अपनाया है वह अमित गति के परिच्छेद विभाजन में दिखाई नहीं देता। अमितगति तो कथा को बीच में ही छोड़ कर परिच्छेद परिवर्तन कर देते हैं पर हरिषेण ने ऐसा नहीं किया। दोनों धर्मपरीक्षाओं की भाव और भाषा की दृष्टि से भी तुलना की जा सकती है। जहां उन्होंने पारम्परिक शैली को अपनाया है। हरिषेण की धम्मपरिक्खा अमितगति को धर्मपरीक्षा 1) तं अवराहं खमसु वराह यत्त्वां धर्ममिव त्यक्त्वा तो हसिऊणं मरुवेयेणं । तत्र भद्र चिरं स्थित । भणिओ मित्तो तं परघुत्तो क्षमितव्यं ममाशेषं माया णेहिय अप्पाणे हिय (10.19) दुविनीतस्य तत्त्वया ॥ उक्तं पवनवेगेन हसित्वा शुद्धचेतसा। को धूर्तो भुवने धुर्ते वक्ष्यते न वशंवदैः ।। 2) हा हा कुमार पच्चक्ख मार (2.3) जातः तामो द्विधा ननमित्थं भावन्त काश्चन (3.61) 3) इय दुण्णि वि दुग्गय-तणय-तणं तं जगाद खचराङगजस्ततो गिण्हेविण लक्कड-भारमिणं ।। भद्र निर्धनशरीरभूरहं। आइय गुरु पूर णिएवि मए आगतोऽस्मि तणकाष्ठविक्रयं वायउ ण उ जायए वायमए ।। 2.5 कर्तुमत्र नगरे गरीयसि ।। 3.85 4) णिद्ध ण जाणेविण जारए हिं पत्युरागमनमवेत्य विटौधः तप्पिय आगमणासंकिएहिं । सा विलुण्टय सकलानि धनानि । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) मुक्की झड ति झाडे वि केम मुच्यते स्म बदरी दय्युवर्तपरिपक्क पंथि थिय वोरि जेम। स्तस्कररिव फलानि पथि स्था । णिय-पिय-आगमणु मुणंतियाए सा विबुध्य दयितागमकालं किउ पवसिय- पिय-तिय-वेसु ताए ।।211 कल्पितोत्तमसतीजनवेषा। तिष्ठतिस्म भवने अपमाणा वञ्चना हि सहजा वनितानाम् ।। 8.44-85 5) भणिउ तेण भो णिसुणाहि गहवइ चौरीव स्वार्थतनिष्ठा छाया इव दुगेज्झ महिला-मई । 2.15 वहि ज्वालेव तापिका। छायेव दुर्ग्रहा योषा सन्ध्येव क्षणरागिणी ।। 5.59 6) भणिउ ताय संसारे असारए तं निजगाद तदीयतनूज को वि ण कासु वि दुह गम्यारए। स्तात विधेहि विशुद्ध मनास्त्वम् । मुय-मणुएं सहु अत्थु ण गच्छइ कंचन धर्ममपाकृतदोष सयणु मसाणु जाम अणुगच्छइ । यो विदधाति परत्र सुखानि । धम्माहम्मु णवर अणुलग्गउ पुत्र कलत्रधनादिषु मध्ये गच्छइ जीवहु सुह-दुह-संगउ । कोऽपि न याति समं परलोके । इय जाणेवि ताय दाणुल्लउ कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं चितिज्जई सुपत्ते अइभल्लउ । कर्त मलं सुखदुःख शतानि ।। इट्ठ-देउ णिय-मणि झाइज्जइ कोऽपि परो न निजोऽस्ति दुरन्ते सुह-गइ-गमणु जेण पाविज्जइ । जन्मवने भ्रमतां बहुमागें । -2.16 इत्थमवेत्य विमुच्य कुबुद्धि तात हितं कुरु किचन कार्यम् ।। मोहपास्य सुहृत्तनुजादौ देहि थनं द्विजसाधुजनेभ्यः । संस्मर कंचन देवमभीष्टं येन पति लभसे सुखदात्रीम ॥ 5.82-85 7) 3.9 8. 22-34 अमितगति की धर्मपरीक्षा का आधारभूत कोई प्राकृत अथवा अपभ्रंश में लिखा ग्रन्थ अवश्य होना चाहिए । अन्यथा दो माह में इतना बड़ा ग्रन्थ कैसे बन सकता था। Mironow ने भी अपने अध्ययन में इस संभावना को पुष्ट किया है। चौहार (7.63), संकराट मठ (8.10) जैसे शब्द किसी प्राकृत ग्रन्थ से ही गृहीत हो सकते हैं । इसी तरह योषा की व्युत्पत्ति जष्, जोष से खोजने की भी क्या आवश्यकता थी-- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता । विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ॥ यतश्छादयते दोषस्ततः स्त्री कथ्यते बुधः । विलीयते यतश्चित्तमेतस्यां विलया ततः ॥ अमितगति की धर्मपरीक्षा जिस प्रकार मात्र दो माह में तैयार हो गई थी उसी प्रकार उनकी संस्कृत आराधना और संस्कृत पंचसंग्रह ग्रन्थ भो लगभग चार-चार माह में रच लिये गये थे जो क्रमशः शिवार्य की प्राकृत भगवती आराधना और प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत संक्षिप्त अनुवाद मात्र है । यह उनके संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार का फल था और आशुकवि होने का प्रमाण भी । धम्मपरिक्खा के प्रारंभ में भी उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि उनके पूर्व कवि जयराम ने धर्मपरीक्षा को गाथा छन्द में निबद्ध किया था और उसी को उन्होंने पद्धडिया छन्द में लिखा है । जयराम का ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। इसलिए उसके विषय में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा पर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि अमितगति ने प्राकृत में लिखे जयराम के ग्रन्थ को भी अपना आधार बनाया होगा । इसके समर्थन में एक और प्रमाण रखा जाता है कि अमितगति ने धर्मपरीक्षा में हट्ट (3.6), जे मति (5:39, 7.5 ) . ग्रहिल ( 13.23), कचार (15.23), जैसे प्राकृत शब्दों को समाहित किया है जबकि हरिषेण ने ऐसे स्थलों में क्रमश: 1.17, 2.24 ( णउ भुंजइ), 2.18, 5.14, 8.1 asari में इन शब्दों का उपयोग नहीं किया है । इससे यह लगता है कि अमितगति के समय जयराम की धम्मपरिक्खा और कदाचित् हरिषेण की भी धम्मपरिक्खा रही होनी चाहिए | अमितगति ने जिस नगरी को प्रियापुरी (1.48 ) और संगालो कहा है, हरिषेण ने उन्हें क्रमशः विजयापुरी (विजयाउरी ) ( 18 ) तथा मंगालो ( 27 ) शब्द दिये हैं । हरिषेण ने जयराम का उल्लेख बहुत स्पष्ट शब्दों में कर दिया है जबकि अमितगति ने ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया । अतः जब तक जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्खा उपलब्ध नहीं होती तब तक यह अनुमान मात्र लगाया जा सकता है कि अमितगति ओर हरिषेण, दोनों ने उसे अपना आधार बनाया है । पर चूंकि हरिषेण की अपभ्रंश धम्म रिक्खा उपलब्ध हैं अतः यह अनुमान लगाना अनुचित नहीं होगा कि अमितगति के समक्ष यह ग्रन्थ भी रहा होगा । पूर्वोक्त परिच्छेदगत विभाजित विषय सामग्री से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि आमतगति ने हरिषेण के विषय को विस्तार मात्र दिया है । साधारणतः यह नियम रहा है कि पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते समय मूल उद्धरण उपस्थित किये जाने चाहिए। हरिषेण ने तथोक्तं कहकर इस परम्परा का पालन किया है पर अमितगति ने उन्हें अपनी इच्छानुसार परिवर्तित रूप में ग्रन्थ के मूल रूप में समाहित कर दिया है । उदाहरणार्थ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) 1) हरिषेण की धम्मपरिक्खा ( 41 ) में तथा चोक्तम् - 2. मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च ते दश ।। अक्षराक्षरनिर्मुक्तं जन्ममृत्युविवर्जितं । अव्ययं सत्यसंकल्पं विष्णुध्यायी न सीदति ॥ अमितगति ने इन्हें इस प्रकार दिया है- व्यापिन निष्कलं ध्येयं जरामरणसूदनम् । अच्छेद्यमव्ययं देवं विष्णुं ध्यायन्न सीदति || मीनः कूर्मः पृथुः पोत्री नारसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्ध: कल्की दश स्मृताः ।। 10.58-9. 2 ) हरिषेण की DP. 5.7 में अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्भवति भिक्षुकः ॥ इसे अमितगति ने इस प्रकार लिखा है अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो न तपसो यतः । ततः पुत्रमुखं दृष्ट्वा श्रेयसे क्रियते तपः ।। 11.8 3 ) हरिषेण ने D. P 4.7 में मृते जिते क्लीबे च पतिते पती । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ अमितगति में यह इस प्रकार मिलता है पत्य प्रव्रजिते क्लीबे प्रनष्टे पतिते मृते । पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ 11. 12 4 ) हरिषेण D. P 4-9 में का त्वं सुन्दरि जान्हवी किमिह ते भर्ता हरो नन्वयं अम्भस्त्वं किल वेद्मि मन्मथरसं जानात्ययं ते पतिः । स्वामिन्सत्यमिदं न हि प्रियतमे सत्यं कुतः कामिनां इत्येवं हरजान्हवीगिरिसुतासंजल्पनं पातु वः ।। 1. Cf. यशस्तिलकचम्पू ( बम्बई, 1903), भाग 2, P. 286 पर यह श्लोक उद्घृत हुआ है । पाराशर स्मृति, 4.28 मनुस्मृति, गुजराथी प्रेस, बम्बई, 1913, P-9, श्लोक 126 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) अतिगति की DP में इससे मिलता-जुलता कोई श्लोक दिखाई नहीं दिया । 5) हरिषेण के DP. 5.12 में - अङ्गुल्या कः कपाटं प्रहरति कुटिले माधवः किं वसन्तो नो चक्री किं कुलालो न हि धरणिधरः किं द्विजिव्हः फणीन्द्रः । नाहं घोराहिमर्दी किमसि खगपतिर्नो हरिः किं कपीश : इत्येवं गोपवध्वा चतुरमभिहितः मातु वश्चक्रपाणिः ॥ 6 ) हरिषेण की DP. 5.9 मेंतथा चोक्तं तेन अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद्भवेत् । यथा वानरसंगीत तथा सा प्लवते शिला ॥ अतिगति DP में यह इस प्रकार में मिलता है-तथा वानरसंगीतं त्वयादशि वने विभो । तरन्ती सलिले दृष्टा सा शिलापि मया तथा । अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितं । जानाः पण्डितैर्नूनं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणोः ।। 12.72-3. 7 ) हरिषेण DP 5.17 में - भो भो भुजंगतरुपल्लवलोलजिव्हे बन्धूकपुष्पदलसन्निभलोहिताक्षे । पृच्छामि ते पवनभोजनकोमलाङ्गी काचित्त्वया शरदचन्द्रमुखी न दृष्टा ॥ अमितगति ने इसे छोड़ दिया है 8) हरिषेण DP. 7.5 में अद्भिर्वाचापि दत्ता या यदि पूर्ववरो मृतः । सा चेदक्षतयोनिः स्यात्पुनः संस्कारमर्हति ॥ " अमितगति DP 14.38 में कुछ परिवर्तन के साथ यह छन्द इस प्रकार हैएकदा परिणीतापि विपन्ने देवयोगतः । भर्तर्यक्षतयोनिः स्त्री पुनः संस्कारमर्हति ॥ 1. सुभाषितरत्नभाण्डागार (दशावतार, P. 38, श्लोक 166 ), बम्बई, 1891 में यह श्लोक कुछ परिवर्तन के साथ उद्धृत है । 2. वशिष्ठ स्मृति, 17.64 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) 9) हरिषेण DP. 7.6 में अष्टौ वर्षाण्युदीक्षेत ब्राह्मणी पतितं पति । अप्रसूता च चत्वारि परतोऽन्यं समाचरेत् ।। अमितगति DP. 14.39 में इस प्रकार है प्रतीक्षेताष्ट वर्षाणि प्रसूता वनिता सती । अप्रसूतात्र चत्वारि प्रोषिते सति भरि ।। 10) हरिषेण DP. 7.8 में पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सिकम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥' अमितगति DP 14.49 में इसे इसी रूप में उधृत कर दिया है। (11) हरिषेण DP. 7.8 में मानवं व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतम । अप्रमाणं तु यो ब्रूयात स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ अमित गति DP 14.50 में इस प्रकार मिलता है मनव्यासवशिष्ठानां वचनं वेदसंयुतम् । अप्रामाण्यतः पुंसो ब्रह्महत्या दुरुत्तरा ॥ (12) हरिषेण DP. 8.6 में गतानुगतिको लोको न लोक: पारमाथिकः । पश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ।। अमितगति DP 15 64 में इस प्रकार मिलता है दष्ट्वानुसारिभिर्लोकः परमार्थविचारिभिः । तथा स्वं हार्यते कार्य तथा मे ताम्रभाजनम् ।। (13) हरिषेण DP. 9.25 में प्राणाघातान्निवृत्तिः परध नहरणे संयमः सत्यवाक्यं काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम । तृष्णास्रोतोविभङगो गुरुषु च विनति : सर्वसत्त्वानुकम्पा सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनपहतमति: श्रेयसामेष पन्थाः ॥' अमितगति ने इसी रूप में इन्हें ग्रहण नहीं किया है। 1. यशस्तिलकचम्पू, भाग 2, P. 119 पर उद्धृत; मनुस्मृति, 12.110-11 यशस्तिलकचम्पू, भाग 2, P. 99 तथा सुभाषितरत्न भाण्डागार, P. 282 (श्लोक 1056) पर कुछ परिवर्तन के साथ ये श्लोक उद्धत हुए हैं। भर्तहरि नीतिशतक, 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14) हरिषेण DP. 10.9 मेंa) स्वयमेवागतां नारी यो न कामयते नरः । ब्रह्महत्या भवेत्तस्य पूर्व ब्रह्माब्रवीदिदम् ॥ B) मातरमुपैहि स्वसारमुपैहि पुत्रार्थी न कामार्थी ॥ अमितगति में यह उपलब्ध नहीं है। ४. विषय-परिचय १. प्रथम संधि बुध हरिषेण शुद्ध मन, वचन, काय से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र भगवान को प्रणाम कर धर्मपरीक्षा रचने की प्रतिज्ञा करते हैं। उसके बाद वे अपने पूर्ववर्ती कवियों में चतुर्मुख, स्वयंभ और पुष्पदन्त कवियों का उल्लेख करते हैं, तीनों का स्मरणकर वे यह भी कहते हैं कि चतुर्मुख के मुख में सरस्वती निवास करती है। स्वयंभू लोकालोक का ज्ञाता है और पुष्पदन्त को सरस्वती कभी छोड़ती नहीं। इनकी तुलना में, आगे कवि अपनी विनम्रता प्रगट करते हुए कहता है, कि मैं छंद और अलंकार के ज्ञान से विरहित हूँ, काव्य रचने में लज्जा का अनुभव हो रहा है फिर भी जिनधर्म के अनुरागवश काव्य रचना कर रहा हूँ। बुध श्री सिद्धसेन को प्रणाम करके यहां वे यह भी स्पष्टत: कहते हैं कि धर्मपरीक्षा पहले कवि जयराम ने गाथा में रची थी। उसी कोवे पद्धडिया छन्द में रच रहे हैं ॥१॥ इसके बाद कथा प्रारंभ होती है। मनोवेग और पवनवेग कथा यहां जम्बवक्ष से चिन्हित जम्बूद्वीप है जिसमें जिनवर के वचन की तरह भरतक्षेत्र शोभायमान है। उसमें रमणीय विशाल उद्यान, नगर, ग्राम आदि अपनी अनुपम शोभा से स्थित हैं। उसके मध्य विजया नामक विशाल पर्वत है जिसमें एक सुन्दर जिनालय है जो पक्षिकुलों का घर है । यह पर्वत उत्तर और दक्षिण श्रेणी में विभाजित है। उसपर विद्याधरों के उत्तर श्रेणी में साठ और दक्षिण श्रेणी में पचास नगरियां विद्यमान हैं (2-3)। उन पचास नगरियों में एक नगरी वैजयन्ती है जो कामिनी की तरह जन साधारण की आंखों की प्यारी है, विशाल उपवनों से सुशोभित है, उत्तुंग भवनों, गोपुरों और शिखरों से विराजित है ॥4॥ उस नगरी का राजा जितशत्रु था जिसने नीति पूर्वक अपने शत्रु राजाओं को पराजित किया था। यहां विरोधाभासालंकार में राजा की अनेक विशेषताओं का वर्णन है जिनमें लक्ष्मीवान्, सत्यपिपासु, विनयी, इन्द्रिय विजयी और अतुलबली होना प्रमुख है ।।5।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस जितशत्रु की वायुवेगा नामकी पतिदता और रूपवती पत्नी थी तथा अनंग की तरह सुन्दर मनोवेग नाम का पूत्र था। वह पुत्र सज्जनों को प्रसन्न करने वाला और दुर्जनों को कुचलने वाला था, परधन का अपहरणकर्ता नहीं था, आत्मवत् दूसरों को देखने वाला था, बारह व्रतों का पालक था (6-7) । उसका पवनवेग नाम का अभिन्न मित्र था जो विजयापुरी नगरी के विद्याधर राजा का पुत्र था। पवनवेग मिथ्यादष्टि और कुतर्की था पर मनोवेग सम्यग्दृष्टि और जैनधर्मावलम्बी था। मनोवेग पवनवेग को सन्मार्ग पर लाने के लिए चिन्तित रहता था। एक दिन वह कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने निकल पड़ा (8) चलते चलते एक स्थान पर उसका विमान अटक गया । उसने सोचा कि उसके विमान को किसी शत्रु ने रोका है अथवा किसी ऋद्धिधारी- केवलज्ञानी मुनि का प्रभाव है। कौतुहलवश उसने निर्जन जंगल में एक मुनि को देखा। वह जंगल अवन्ति देश की उज्जैनी नगरी का था। उस नगरी में एक सुन्दर उपवन था जिसमें एक निष्कलंक मुनीश्वर विराजमान थे । तुरन्त वह आकाश से उतरकर पूरे सम्मान के साथ उन्हें प्रणाम कर एक और बैठ गया और विनम्रता पूर्वक एक प्रश्न पूछा "हे मुनीन्द्र ! इस असार संसार में भ्रमण करने वाले जीव को कितना सुख है और कितना दुःख है ?" (9-12) मुनीश्वर ने मधुबिन्दु का दृष्टान्त देते हुए इस प्रश्न का उत्तर दिया । उन्होंने कहा- किसी व्यक्ति ने संसार रूपी अटवी के समान महावन में प्रवेश किया। उसने यमराज के समान संड को ऊंची किये क्रोधित हाथी को अपने सम्मुख आते देखा । पथिक हाथी के भय से बेतहाशा आगे भागा ओर संयोगवशात् कुये में गिर गया। वहां बीच में ही सरस्तंब अथवा बड़को जड़ (कास? ) को पकड़कर लटक गया। नीचे जब उसने देखा तो पाया कि एक विशाल अजगर बीच में और चार भुजंग चारों कोनों में मुंह खोले पड़े हुए हैं, ऊपर देखने पर पता चला कि उसी सरस्तंब की डगाल को एक श्वेत और एक काला चूहा काट रहा है। उसी समय उस वृक्ष के मूल भाग को हाथी ने जोर से हिलाया और फलतः उसमें लगी मधुमक्खियां उस व्यक्ति को लपट गई। दुःख से कराहते हुए जैसे ही उसने ऊपर देखा कि मधुमक्खियों के छत्ते से मधु का एक बिन्दु उसके मुंह में टपक गया (13)। वह अज्ञानी मधुबिन्दु के उस क्षणिक स्वाद से अपने आपको महासुखी मानने लगा और पुनः उसकी अभिलाषा करने लगा। बस संसार में ऐसा ही सुख-दुःख है। उस मधु बिन्दुकथा में अटवी और कूप संसार के प्रतीक है, पुरुष जीव का, हाथी मृत्यु का, भीलों का मार्ग अधर्म का प्रतीक है, अजगर नरक है, वृक्ष कर्मबन्ध है, सरस्तम्ब आयु है, श्वेत और अश्वेत मूषक शुक्ल और कृष्णपक्ष हैं, चार भुजंग चार कषायें हैं, मधुमक्षिकायें शरीर के राग है मधुबिन्दु का स्वाद इन्द्रियनित क्षणिक सुख है। इस तात्विक चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति को संसार-सागर से पार होना चाहिए । धर्म Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ से स्वर्ग और मनुज भव मिलता है और धर्म से ही शरीर निरोग होता है | |14|| धर्म के प्रभाव से व्यक्ति उत्तुंग कंचन - विनिर्मित भवनों में निवास करता है, धर्म से स्वच्छ चामर धारण करता है, धर्म से विविध मणिकुण्डल धारण करता है, महापुरुषों से स्नेह पाता है, धर्म से सर्वत्र पूजा होती है, धर्म के बिना उसे कुछ भी नहीं मिलता। और तो क्या, जो कुछ भी सुख है, वह धर्म का ही फल है ॥15॥ अवसर पाकर मनोवेग विद्याधर ने मुनिवर से पूछा- उसका परम मित्र पवनवेग अत्यन्त मिथ्यादृष्टि है । वह कभी सम्यक्त्व प्राप्त कर सकेगा या नहीं ? मुनिवर ने उत्तर दिया- देवों की प्रिय नगरी पटना ( पुष्पनगर) में उसे ले जाकर परस्पर प्रमाणों से विरोधित अन्य मतों को प्रत्यक्षतः दिखलाकर जैन सिद्धान्तों को यदि तुम समझाओगे तो वह सम्यग्दष्टि हो जायेगा और कर्मबन्ध को विनष्ट करने में सक्षम होगा। यह सुनकर मनोवेग मुनिवर की चरणवन्दनाकर शीघ्र ही विमान में बैठकर घर की ओर चल पड़ा ( 16 ) 1 जिस विमान पर बैठकर मनोवेग गया उस विमान को पवनवेग ने देख लिया। देखते ही उसने मनोवेग से कहा - मित्र ! तुम मुझे छोड़कर कहां चले गये थे ? मैंने तुम्हें क्रीड़ास्थल, पर्वत, सरोवर, प्रांगण, जिनमंदिर आदि सभी स्थानों पर देखा, पर तुम दिखाई नहीं दिये । जब मैं इस ओर आया तो तुम आते हुए दिखाई दे गये । तुम्हारे वियोग में मैं इधर-उधर भटकता रहा । मनोवेग ने तब कहा - मित्र इस प्रकार कुपित मत होओ। मैं मध्यलोकवर्ती जिन - चैत्यालयों के दर्शन करने गया, उनकी भक्ति पूर्वक वन्दना की । भरतक्षेत्र में मैंने भ्रमण करते हुए स्वर्गनगरी के समान सुन्दर पाटलिपुत्र देखा जहां चतुर्वेदों की ध्वनियां सुनकर पक्षी द्विप जाते हैं ( 17 ) । उस पाटलिपुत्र में गंगा नदी के किनारे कमंडलु और त्रिदण्डि को धारण किए हुए कुछ मुण्डित सन्यासी दिखाई दिये । वे हरि हरि हरि का उच्चारण करते हुए स्नान करने में व्यस्त थे । वे ब्रह्मशाला में बैठकर वाद, जल्प, वितण्डा किया करते हैं, विष्णुपुराण, भागवतपुराण आदि की व्याख्या करते हैं, वैशेषिक, मीमांसा आदि शास्त्रों का उपदेश करते रहते हैं, कहीं-कहीं ग्रहज्योतिषी ओर कपिलमतानुयायी भी दिखाई देते हैं, अग्निहोत्रादि कर्म करते हुए श्रोत्रिय ब्राह्मण अनेक प्रकार से दाक्षिणाग्नि में हवन करते हैं, कोई षट्कर्म में लीन हैं अन्य ब्रह्मचारी हैं, और | हे मित्र ! वहां जाकर मैंने कोई अक्षमाला लिये हुए कमलासन पर आसीन जो कुछ भी देखा उसे तुम्हें कह दिया । फिर भी पूरा वर्णन करना संभव नहीं है ( 18 ) । इतनी देर तक अनुपस्थित रहा । अतः इस अविनयी का अपराध क्षमा करो। मनोवेग के ये वचन सुनकर पवनवेग ने हंसकर कहा- मित्रवर ! इन कौतुकों को मुझे भी दिखाओ । मझे उन्हें देखने की बड़ी उत्कंठा है । जो Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र होता है, वह कभी भी मित्र की प्रार्थना को निष्फल नहीं जाने देता। अतः मुझे पाटलिपुत्र ले चलो और मेरे वचनों का उलंघन मत करो ॥19॥ मनोवेग ने उसकी इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उसने कहा कि कल प्रातःकाल भोजन करके चलेंगे। दोनों मित्रों ने मिलकर घर पर स्वादिष्ट भोजन किया और तांबूल भक्षण कर प्रसन्नचित्त हुए ।।20। २. द्वितीय संधि पटना की और प्रस्थान दूसरे ही दिन सूर्योदय होने पर मनोवेग और पवनवेग पटना नगर की ओर चल पड़े । उन्होंने नगर के बाहर एक मनोहर उद्यान देखा । वहां हिताल, ताल, कंकेलि, हरिचंदन, कर्पर आदि लताओं की मनमोहक सुगन्धि फैल रही थी। उसमें वे दोनों मित्र कामदेव जैसे शोभित हो रहे थे। मनोवेग ने पवनवेग से कहा कि जैसा वह कहे, वैसा ही अनुसरण करे। पवनवेग ने इसे स्वीकार कर लिया। तब दोनों मित्रों ने मणि, कुण्डल आदि आभूषण पहनकर तथा शिर पर तृण और काष्ठ रखकर कौतुहल पूर्वक नगर में प्रवेश किया। उनको देखकर लोग विनम्रतापूर्वक कहने लगे-ये लोग शिर पर तृण-काष्ठ रख कर क्यों घूम रहे हैं ? ये या तो मूढ़ है अथवा क्रीडा कर रहे हैं। मणि मुकुट धारण कर तृण-काष्ठ बेचनेवाले नहीं है, ये तो विद्याधर से लगते हैं ।। 1 ।। यह जानकर कुछ लोग यह भी विचार करने लगे कि दूसरे की चिन्ता करने का प्रयोजन क्या है ? वह तो पापबन्ध का कारण है। इसी बीच जब नगर वधुओं ने उन्हें देखा तो वे काम-पीडित हो गई। वे कहने लगी- ये तो साक्षात् कामदेव हैं । किसी ने कहा- ऐसे तृण-काष्ठधारी सुन्दर युवकों को मैंने अभी तक नहीं देखा । किसी ने कहा सखि, जाओ, पूछो, तृण-काष्ठ का मूल्य क्या है ? जो भी मूल्य हो, दे दो। जीवन के साथ मूल्य का क्या महत्व है ? इस प्रकार नगर निवासियों के वचन सुनते हुए वे दोनों कुमार ब्रह्मशाला (वादशाला) में पहुंचे और तृण-काष्ठ का भार उतारकर भेरी बजा दी तथा सिंहासन पर बैठ गये । भेरी का शब्द सुनकर विप्रगण एकत्रित हो गये और मैं वाद करूंगा, मैं वाद करूंगा कहते हुए उन विद्याधरों के पास पहुंच गये ॥३॥ मनोवेग के रूप को देखकर वे आश्चर्यान्वित हो गये। वे कहने लगे कि यह तो साक्षात् नारायण है, विष्णु परमेश्वर है पर विष्णु तो चतुर्मुख होते हैं, ब्रह्मा है, पर ब्रह्मा तो चर्तुवसनी होते हैं, इन्द्र है, पर इन्द्र तो सहस्राक्ष है। इस तरह सोचकर उन्होंने कुमारों से पूछा-क्या तुम वाद करोगे ? कनकासन पर क्यों बैठ गये हो ? इस नगर में चारों वेदों के ज्ञाता हैं और सभी धर्मों के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ अध्येता हैं। यहां से कोई भी विद्वान वाद जीतकर वापिस नहीं गया । तुम दिव्य मणि और आभूषणों से विभूषित हो अवश्य, पर या तो तुम्हें वायुरोग है, या तुम पिशाच पीडित हो, या कामदग्ध हो । ये वचन सुनकर मनोवेग ने कहाआप लोग व्यर्थ ही क्रोध कर रहे हैं। हम लोग तो इस सिंहासन पर कोतुकवश बैठ गये हैं । भेरी वादन भी यों ही कर दिया है। हम लोग तो तृणकाष्ठ बेचने वाले हैं । तुम्हारे पुराण और रामायण ग्रन्थों में हम जैसे बहुत लोग हैं ।। 4-6 ।। षोडश मुट्ठि न्याय विचार रहित मूढजन विप्रों ने कहा- यदि पुराण में तुम्हें ऐसे पुरुष मिले हों तो बताओ, हम अवश्य विश्वास करेंगे । मनोवेग ने कहा- हम बता तो सकते हैं. पर भय लगता है । आप लोगों में कोई विचारवान् नहीं दिखाई देता । सत्य कथित को भी असत्य बुद्धि से 'सोलह मुक्की न्याय' की रचना करते हैं । विप्रगण ने कहा- यह 'सोलह मुक्की न्याय' क्या है ? मनोवेग ने कहा- सुनो मैं बताता हूँ - मलय देश में सुखरूप संगाल नामक एक ग्राम है । उसमें मधुकर नामक एक गृहपति रहता था। पिता के प्रति रोष के कारण वह घर से बाहर निकल गया और आभीर देश में पहुंच गया । वहां उसने आश्चर्यपूर्वक विभाग की हुई चनों की अनेक राशियां देखीं । ग्रामपति के पूछने पर उसने कहाआश्चर्य इसलिए कि जैसे यहा चनों की राशियां हैं वैसे ही हमारे यहां मिरचों की राशियां हैं । ग्रामपति ने सोचा हमारे यहां मिरचें नहीं मिलतीं है इसका यह उपहास कर रहा है । इसलिए इसे दण्ड दिया जाना चाहिए। यह सोचकर उसने मधुकर को अपने सेवकों से मस्तक पर आठ मुक्के लगवाये । सत्य वादन का यह फल जानकर वह वापिस अपने नगर संगाल पहुंचा। वहाँ उसने मिर्च की राशियां देखीं और कहा कि जैसे यहां मिरचों के ढेर हैं वैसे ही आभीर देश में मैंने चनों के ढेर देखे हैं । इस कथन को उपहास मानकर यहां भी उसे आठ मुक्के खाने पड़े । तभी से यह " षोडश मुट्ठि न्याय" प्रसिद्ध हो गया । इसका तात्पर्य है कि बिना प्रमाण के सत्य नहीं बोलना चाहिए । जो बोलता है वह असत्यभाषी की तरह दण्ड पाता है । इसी प्रकार मूर्खों के बीच सत्यवादी भी नहीं होना चाहिए। आप से सत्य कहा भी जायेगा तो आप लोग विश्वास नहीं करेंगे ॥ 7-8 ॥ दस मूर्खो की कथा ब्राह्मणों ने कहा- आभीर देश वालों के समान हम लोग मूर्ख नहीं हैं । तुम निश्चिन्त होकर अपनी बात कहो । मनोवेग ने कहा- रक्त, द्विष्ट, मनोमूढ, व्युग्राही, पित्तदूषित आम्र, क्षीर, अगुरु, चन्दन और वालिश ( मूर्ख) ये " Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस प्रकार के मूर्ख हैं जो पूर्वापर विचार रहित पशुओं के तुल्य हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है१. रक्त मूढ कथा रेवा नदी के दक्षिणी किनारे पर सामन्त नगर में एक बहुधान्यक नाम का ग्रामकट (प्रमुख) रहता था। उसकी दो सुन्दर स्त्रियां थींसुन्दरी और कुरंगी । सुन्दरी वृद्धा थी। उसे छोडकर उसने तरुणी कुरंगी से विवाह किया। कुछ समय बाद बहुधान्यक ने उस साध्वी पत्नी सुन्दरी को अलग कर दिया और कुरंगी के साथ भोगपूर्वक समय बिताने लगा। सुन्दरी ने इसे अपना पापकर्म का फल मानकर शान्ति पूर्वक रहने लगो (9)। इस बीच बहुधान्यक को राजा की सेना का प्रबंधक होकर बाहर जाना पड़ा। कूरंगो इस विरह को नहीं सह पाती और साथ जाने का आग्रह करती है पर बहुधान्यक उसके हरे जाने के भय से साथ नहीं ले जाना चाहता। अतः वह उसे समझाकर सेना के साथ चला गया और कुरंगी को सारी धन संपत्ति के साथ घर छोड गया । बहुधान्यक के जाते ही कुरंगी स्वच्छन्द हो गई । और अपने जारों के साथ काल' यापन करने लगी। उनके साथ रमण करते हुए उसने अपनी सारी संपत्ति भी नष्ट कर डाली नौ-दस दिनों में ही। जब उसने पति के आगमन का समाचार सुना तो वह पतिभक्ता और धर्मनिष्ठा बनकर घर में रहने लगी। बहुधान्यक ने गांव में प्रवेश करने के पूर्व ही एक व्यक्ति के साथ कुरंगी के पास अपने आने का समाचार भेज दिया । उसने कहा उस संदेशवाहक से कि प्रथम दिन का भोजन तो ज्येष्ठा के साथ होना चाहिए । यह सोचकर वे दोनों सुन्दरी के पास गये । और कहा कि तुम्हारा पति विदेश से वापिस आ गया है और आज वह तुम्हारा ही स्वादिष्ट भोजन करेगा (11)। सुन्दरी ने कहा- मैं भोजन (रसोई) बनाऊंगी परन्तु तुम्हारा पति भोजन यहां नहीं करेगा, तुम्हारे घर ही करेगा। फिर भी सरलस्वभावा सुन्दरी ने षटस भोजन तैयार किया। वह रक्त पुरुष भोजन करने के लिए सीधे कुरंगी के घर गया । निर्धना कुरंगी ने अपनी स्थिति को छिपाने के लिए कर्कश और अपमानात्मक शब्दों में उसे सुन्दरी के पास जाने के लिए कहा। उसी बीच सुन्दरी ने अपना पुत्र भेजकर बहुधान्यक को निमन्त्रित किया ।। 12 ।।। ___ कुरंगी की भयानक भ्रकुटि को देखकर बहुधान्यक आश्चर्य में पड़ गया। सुन्दरी ने उसे बड़े स्नेह और सन्मान से षट्रसमयी भोजन कराया। फिर भी उसका मन कुरंगी की ओर लगा रहा (13)। प्रणय कुपित दृष्टि वाली कुरंगी मुझ से क्यों रुष्ट है ? शायद उसने मुझे गलत समझ लिया है। तब श्वासनिश्वास करते हुए उसने कहा- मुझे कुरंगी के घर से कुछ भी ला दो। तभी भोजन अच्छा लगेगा। सुंदरी कुरंगी के पास गई और कहा कि तुम्हारे भोजन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बिना उसे मेरा स्वादिष्ट भोजन भी ध्यर्थ लग रहा हैं। कुरंगी के पास तो कुछ था ही नहीं। उसने क्रोधित होकर पतले गोबर में कुछ गेहूं चने के दाने डालकर, व्यंजन के रूप में उसे दे दिया (14) । आसक्त बहुधान्यक उसे पाकर कृतकृत्य-सा हो गया और बडा स्वादिष्ट मानकर उसे खा गया । रक्त पुरुष क्या नहीं कर सकता ? महिलायें सर्पगति जैसी कुटिला होती है। रक्त पुरुष उनके कार्यों को नहीं समझ पाता। बहुधान्यक अपने दोष-अपराध की और सोचता रहा (15) । पूछने पर ब्राह्मण ने बताया- इस कुरंगीने अपनी सारी संपत्ति अपने जारों में लुटा दी । बहुधान्यक ने यह बात कुरंगी से जाकर कह दी । कुरंगी ने भट्ट पर अपने शीलापहरण का दोष लगाकर उसके विषय में भला-बुरा कहा । बहुधान्यक ने उसकी बात सही मानकर उसे निकाल दिया । स्त्री में आसक्त पुरुष स्त्री के दोष नहीं जान पाता और अपने ही हितचिन्तक के विरुद्ध हो जाता है । (15-16)। २. द्विष्ट मूढ कथा मनोवेग ने दूसरी द्विष्ट मूढ कथा कही-सौराष्ट्र देश के कोटि नगर में बडे संपन्न दो व्यक्ति थे- स्कन्ध और वक्र। इनमें वक्र अत्यन्त कुटिलगामी और दुखदायी था। दोनों में परस्पर विरोध था। एक बार वक्र को कोई असाध्य रोग हो गया । तब उसके पुत्र ने संसार की असारता समझाते हुए सरल प्रकृति बनकर धर्म-धारण करने का आग्रह किया। वक्र ने उसपर ध्यान नहीं दिया। बलिक कालानुरूप जानकर उसने अपने पुत्र से कहा (16)-हे वत्स, मैने स्कन्ध के विनाश का पूरा प्रयत्न किया पर उसमें सफल नहीं हो पाया। अब तुम इस काम को पूरा करना । ऐसा प्रयत्न करना जिससे इसका समूल विनाश हो जाये। उपाय यह है कि मेरे मर जाने पर तुम मेरे मृत शव को स्कन्ध के खेत में लकडियों के सहारे खंडा कर देना और अपनी गाय-भैस उसके खेत में छोड देना। यह देखकर वह मेरे उपर आक्रमण करेगा ! यह सब तुम छिपे हुए देखते रहना । जैसे ही वह आक्रमण करे, तुम जोर से चिल्लाना कि वक्र ने मेरे पिता को मार डाला । राजा यह जानकर स्कन्ध को मृत्यु दण्ड दे देगा। यह कहकर वक्र मर गया । पुत्र ने गलत होते हुए भी अपने पिता को आज्ञा का पालन किया। वक्र ने फलस्वरूप नरक दुःख पाये । द्विष्ट पुरुष अपनी हानि सोचे बिना ही दूसरे को दु.ख देने में प्रसन्नता का अनुभव करता है (17)। ३. मनो मूढ कथा मनोवेग ने कहा- कंठोष्ठ नाम का एक नगर था। वहां एक वेदपाठी भूतमति ब्राह्मण रहता था। उसकी बाल्यावस्था शास्त्राभ्यास में ही निकल गई। पचास वर्ष की अवस्था हो जाने पर कुटुम्बियों ने उसका विवाह एक तरुणी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० यज्ञा से कर दिया । ब्राह्मण पण्डित के पास एक सुन्दर यज्ञ नामक तरुण शिष्य आया। यज्ञा उसपर मोहित हो गई। एक समय मथुरा में पुण्डरीक नामक यज्ञ कराने के लिए मथुरावासियों ने भूतमति को आमन्त्रित किया । भूतमतिने ब्राह्मणी को समझाया- तुम घर के भीतर सोना और बटुक को बाहर सुलाना। यह सब कहकर वह मथुरा चला गया (18)। अपने पति के चले जाने पर यज्ञा और यज्ञ दोनों निरंकुश हो गये । खुले भाव से वे मदन-क्रीडा में व्यस्त हो गये । चार माह रमण करते हुए बीत गये । एक दिन बटुक ने खिन्न मन से कहा (19)- भट्ट जी के आने का समय हो गया है। मेरा मन यहां से जाने का भी नहीं है और रहना भी कठिन हो गया है । तुम्हें छोडकर कसे जाऊ । यज्ञा ने कहा- तुम निश्चित रहो। एक उपाय बताती हूं। हम दोनों यहां से बहुत सारी संपत्ति लेकर अन्यत्र चले चलेंगे। तुम दो शव ले आओ । बटुक दो शव ले आया। यज्ञा ने एक शव को भीतर और एक को बाहर रख दिया और संपत्ति लेकर दोनों बाहर निकल गये। साथ ही घर में आग लगा दी। नगर वासियों ने देखा कि दो शव जले पडे हैं। उनकी सूचना पर भूतमति आया और शोक विव्हल हो गया। वह यज्ञा और यज्ञ की प्रशंसा करता हुआ दुःखी होता रहा (20) । लोगों ने उसे संसार की अवस्था तथा स्त्री के स्वरूप का विविध रूप से चित्रण करते हुए समझाया । पर उसकी आसक्ति नहीं गयी। वह मढ ब्राह्मण दो तूंबी लेकर उनमें दोनों की अस्थियां भरकर गंगाजी में प्रवाहित करने के लिए चल पडा। मार्ग में उसे यज्ञ बटुक मिल गया। बटुक ने पैरों पर गिरकर अपराध क्षमा करने की प्रार्थना की। ब्राह्मण ने घबराकर कहामेरा बटुक तो जल गया और आगे बढ गया। बाद में उसे यज्ञा पत्नी भी दिख गई। उससे भी उसने यही कहा। इन दोनों को देखकर भी भतमति प्राह्मण को विश्वास नहीं हुआ। वह उन्हें छोडकर दूसरे नगर में चला गया। दोनों ने सत्य स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया फिर भी ब्राह्मण को विश्वास नहीं हुआ। आसक्त पुरुष ऐसा ही होता है (23)। ४. व्युद्ग्राही मूढ कथा __एक समय नंदुरद्वारा नामक नगरी में दुर्घट नाम का एक राजा था। उसका जात्यन्ध नामक पुत्र था । वह बडा दानी था । प्रतिदिन वह आभूषण आदि का वितरण किया करता था । यह देख कर मन्त्री को चिन्ता हुई। उसने राजा से मिलकर एक उपाय सोचा मंत्री ने लोहे के आभरण और याचकों को मारने के लिए एक लोहे का दण्ड लाकर राजकुमार को दिया और कहा कि ये गहने कुल क्रमागत हैं। इन्हें किसी को नहीं देना। यदि दोगे तो तुम्हारा राज्य चला जायेगा। यदि कोई इन्हें लोहमयी बताये तो उसके शिर पर इस लोहदण्ड का प्रहार करना । राजकुमार ने उसे स्वीकार किया। जो भी उससे कहता Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ये आभूषण लोहे के हैं उसे वह लोहदण्ड से प्रहार करता। ठीक है - जिसकी व्युद्ग्राही मति हो जाती हैं वह ऐसा ही कार्य करता है । जो व्यक्ति जात्यंध के समान दूसरों के कहे वचनों पर विचार किये बिना ही काम करता है वह युद्ग्राही कहलाता है (24) 1 ३. तृतीय संधि ५. पित्तदूषित मूढ कथा विपरीत भाव को जाननेवाला अर्थात् गुण को दोष और दोष को गुण मानने वाला व्यक्ति पिस्तदूषित मूढ कहलाता है। इसकी लोक कथा इस प्रकार है - पित्तज्वर से आक्रान्त किसी व्यक्ति को शक्कर मिश्रित दुग्ध दिये जाने पर वह उसे कडुवा कहकर छोड़ देता है । इसी प्रकार पित्तदूषित व्यक्ति दुःख को सुख, सुख को दुःख मानकर उचित - अनुचित का भेद नहीं जान पाता । ६. आम्र मूढ पुरुष कथा इसी तरह आम्रमूढ पुरुष की कथा है। अंग देश में चंपापुर नगरी के राजा नृपशेखर को उसके वंगदेशीय राजा ने एक आम्रफल भेजा । एक आम्रफल को कितने लोग खा सकेंगे यह सोचकर नृपशेखर ने उसे अपने वनमाली को रोपने के लिए दिया । वह आम कालान्तर में बड़ा होकर सुन्दर और स्वादिष्ट फल देने • लगा । एक दिन किसी पक्षी के मुख से सर्प की विषाक्त वसा संयोगवशात उसी वृक्ष एक फल पर गिर गयी । उसके प्रभाव से वह फल समय के पूर्व ही पककर जमीन पर गिर गया । वनपाल ने उसे राजा को भेंट किया और राजा ने अपने युवराज पुत्र को दिया । युवराज ने उसे खा लिया और विषप्रभाव के कारण वह तुरन्त दिबंगत हो गया । क्रोधांध होकर राजा ने उस वृक्ष को कटवा दिया । वृक्ष के फलों को आम जनता ने मरने की इच्छा से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक खाया । पर उनकी मृत्यु न होकर वे खांसी, यक्ष्मा, जरा, वमन, शूल, क्षय, श्वास आदि रोगों से मुक्त हो गये । राजा ने यह जानकर बड़ा पश्चात्ताप किया और कहा कि बिना बिचार किये ही उसने आम्रवृक्ष कटवा दिया। कर्मानुसार इसकी अविवेकी बुद्धि ने ऐसा किया। मनुष्य और पशु में यही भेद है कि मनुष्य को हिताहित का विचार होता है पर पशु ऐसा विचार नही कर पाता (1.1-3) 1 ७. क्षीरमूढ की कथा छोहार नामक देश में सागरदत्त नाम का एक वणिक् रहता था। वह सागर चार व्यापारार्थ चोल (?) द्वीप पहुंचा । भोजन- नन्दी होने के कारण सागरदत्त Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने चलते समय एक सु दर गाय भी साथ ले ली। चोल द्वीप में पहुंचकर उसने कुछ भेंट के साथ तोमर नरेश से भेंट की। दूसरे दिन वह खीर ले गया और तीसरे दिन शालिधान्य का बना हुआ चावल ले गया। तोमर बादशाह द्वारा इस स्वादिष्ट भोजन के बारे में पूछे जाने पर सागरदत्त ने कहा कि यह भोजन उसकी कुलदेवी देती है। तोमर की प्रार्थना पर उसने फिर उस गाय को उसे दे दिया और बदले में अकूत सम्पत्ति लेकर वापिस चला आया। दूसरे दिन बादशाह ने गाय के सामने पात्र रखकर दुग्धयाचना की । कोई फल न देख कर उसके दुःखी होने की कल्पना कर ली। तीसरे दिन उसके सामने बर्तन रख कर दिव्य भोजन की याचना की। फिर भी गाय चुपचाप खड़ी रही। यह देखकर क्रोधित होकर तोमर बादशाह ने उस गाय को अपनी द्वीप से बाहर निकाल दिया। उसे यह भी ज्ञान नहीं रहा कि याचना मात्र से कहीं दूध मिलता है। इसी प्रकार जो प्रक्रिया जाने बिना ही वस्तु-प्राप्ति करना चाहता है वह उसे कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। अभिमान को छोड़ बिना संसार समुद्र से पार कोई भी नहीं हो सकता, शुक्लध्यान प्राप्त नहीं कर सकता । वह तोमर बादशाह के समान प्राप्त वस्तु को भी अज्ञानतावश हाथ से खो बैठता है (1.4-6)। ८. अगुरु मूढ कथा मगध देश में गजरथ नामक एक राजा था। एक दिन वह राजा अपने मंत्री के साथ क्रीड़ा करते हुए जंगल में काफी दूर निकल गया। वहां पहले से ही खड़े हुए तुरंग लिए एक भत्य को देख कर राजा ने मंत्री से पूछा - यह कोन है, किसका नौकर है और किसका पुत्र है ? मंत्री ने उत्तर दिया- यह हरि नामक मेहर (महत्तर-महार) का पुत्र हलि है। यह बारह वर्ष से आपकी क्लेशकारक सेवा कर रहा है। तब राजा ने मंत्री से कहा- तुमने अभी तक इस पयादे के क्लेश का कारण मुझसे क्यों नहीं कहा ? सप्तांग वाले राज्य में मंत्री का कर्तव्य है कि वह भृत्य के गुण-दुर्गुण को राजा से कहे (7) । तदनंतर राजा ने प्रसन्न होकर हलि से कहा-500 गांवों के साथ एक मठ तुम्हें दे रहा हूँ उससे तुम अपने बंधु-पुत्रों सहित सुखी रहोगे। हलि ने कहा-मेरा कोई परिवार नहीं है । मैं इन गांवों का क्या करूंगा ? ये गांव उन्हीं द्वारा ग्रहणीय हैं जिनके पास हजारों भृत्य और सैनिक हो । राजा ने कहा- गांवों से ही धन की प्राप्ति होती है, भृत्य मिलते हैं, सुपुत्र, सुमित्र, सुबन्धु सभी कुछ उपलब्ध होते हैं । धन ही सत्य का मूल है, सुख का कारण है। धन के कारण ही कायर भी वीर हो जाते हैं, अधीर भी धीर बन जाते हैं, असत्य भी सत्य हो जाता है। धन से ही पुण्य होता है, धर्मरागी होता है। जो व्यक्ति संपत्तिवान् हो और धर्मरागी न हो वह चर्मचक्षुवान् होने पर भी दृष्टा नहीं है, पशु के समान है ॥8।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन की यह महिमा जानकर तुम इन गांवों को स्वीकार करो और सुखी होओ । हलि ने कहा- महाराज ! यदि आप चाहते हैं तो मुझे ऐसा खेत दीजिए जिसमें मैं खेती कर सकू । उसमें वृक्ष और गडढे वगैरह भी न हों। तब राजा ने मंत्री को आज्ञा दी कि हलि को अगुरु चंदन का बन दे दो जिससे वह चंदन को लकड़ी बेचकर अपना जीवन निर्वाह कर सके। हलि ने उसे देख कर कहामैंने वृक्ष और निरुपद्रव खेत मांगा था. यह खेत तो अंजन के समान श्याम और विस्तीर्ण है। फिर भी जो जैसा भी है, ग्रहण कर लेना चाहिए । राजा यदि यह भी नहीं देता तो मैं क्या कर सकता था। इसे मैं ठीक कर लूंगा। दूसरे ही दिन हलि ने तीक्ष्ण कुठार लेकर सारा चन्दनवन काट डाला और उसे जलाकर कोदों बो दिया। यह जानकर मंत्री को बड़ा आश्चर्य हुआ ॥9।। तब मंत्री के पूछने पर हलि ने कहा-मात्र एक हाथ भर का टुकड़ा जलने से बच गया है। मंत्री ने कहा उसे बाजार में जाकर बेच दो । न चाहते हुए भी हलि बाजार गया । बेचने पर व्यापारी ने उसे पांच दीनारें दीं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और सोचने लगा अपनी अज्ञानता पर कि उसने सास चन्दनवन जला क्यों डाला ? पश्चात्तापाग्नि से वह जलने लगा। इस प्रकार हेयोपादेय और गुण-दुर्गुण को जाने बिना जो व्यक्ति प्राप्त वस्तु को छोड़ देता है वह हलि के समान दुःखी होता है ॥10॥ ९ चंदन त्यागी की कथा मनोवेग ने उन ब्राह्मणों को चंदन त्यागी की कथा सुनाई। सुखाधारभूत मथरा नगरी में उपशान्तमन नामक एक राजा था । एक दिन उसे भीषण पित्तज्वर हो गया। अनेक प्रयत्न करने के बावजूद ज्वर शान्त नहीं हुआ। तब मंत्री ने नगरी में यह घोषणा कराई कि जो भी व्यक्ति राजा का पित्तज्वर शान्त कर देगा उसे पारितोषिक रूप में सौ गांव दिये जायेंगे। साथ ही आभूषण भी भेंट किये जायेंगे । यह घोषणा सुनकर एक वणिक् गोशीर्ष चंदन को लकड़ी लेने के लिए घर से निकल पड़ा। संयोगवश नदी के किनारे एक धोबी को गोशीर्ष चंदन का मूठा लिये उसने देखा। लकड़ी को परखकर उसने उससे मधुर स्वर में कहा कि यह नीम की लकड़ी का मूठ। मुझे दे दो और इसके बदले मुझसे नीम की बहुत सारी लकड़ी ले लो। धोबी ने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया । वणिक् ने उस लकड़ी को साफकर, घिसकर राजा के सारे शरीर में उसका लेप कर दिया। फलतः राजा का पित्तज्वर तुरन्त शान्त हो गया। राजा ने घोषणानुसार उसे सौ गांव और विविध आभूषण भेंट किये। यह सब जानकर धोबी को अपनी मूर्खता पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । इसी प्रकार वस्तु की पहचान किये बिना ही जो अविवेकी वस्तु का परित्याग कर देता है वह चंदनत्यागी धोबी के समान दुःखी होता है ।।1 | Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ १०. चार मूर्खों की कथा चार मूर्खजन कहीं जा रहे थे । इतने में उन्होंने एक श्रुत संपन्न संयमी मुनिराज को देखा । वे मुनिराज त्रिगुप्तिवान् होने पर भी कर्मबन्ध से निर्मुक्त हैं, समल होकर भी निर्मल हैं, पण्डितगण उनकी स्तुति करते हैं, दिग्वास होने पर भी आशा विरहित हैं, मुक्त हरण होने पर भी तिर्यञ्च समूह से शोभित हैं, निर्ग्रन्थ होने पर भी ग्रन्थों के परिग्रह से युक्त हैं, मद का विध्वंसन करने पर भी मद से आहत नहीं हैं । ऐसे तपस्वी साधक मुनिराज की वंदना उन चारों मूर्खों ने की । मुनिराज ने उन चारों को आशीर्वाद दिया । एक योजन जाने के बाद वे चारों मूर्ख परस्पर झगड़ने लगे । एक ने कहा मुझे आशीर्वाद दिया था । दूसरे ने कहा मुझे आशीर्वाद दिया था। किसी तीसरे व्यक्ति के समझाने पर इस कलह को निपटाने के लिए वे मुनिराज के पास गये और पूछा कि उन्होंने आशीर्वाद किसे दिया था। मुनिराज ने उत्तर दिया- जो सर्वाधिक मूर्ख हो । उसे मैंने आशीर्वाद दिया था ( धम्मुचरइ ) | यह सुनकर वे चारों मूर्ख नगर की और गये और नगरवासियों से यह निश्चय कराने लगे कि उनके बोच सर्वाधिक मूर्ख कौन है | नगरवासियों में से एक ने कहा कि तुम लोग अपनी-अपनी मूर्खता की कथा कहो तभी यह विवाद सुलझ सकता है ( 11-13) | उनमें से एक ने कहा-मेरी दो स्त्रियां हैं और दोनों ही प्रिय हैं । एक दिन रात में मैं उत्तान शयन कर रहा था। इन दोनों पत्नियों ने मेरे एक-एक हाथ को मस्तक के नीचे दबाकर मेरे दोनों ओर सो गई । मैंने सोते समय अपने मस्तक पर प्रज्वलित दीपक रख लिया था। एक मूषक उस दीपक में से जलती बत्ती निकालकर ले भागा । वह बत्ती मेरी वायीं आंख पर गिर गई । दुःख से व्याकुल होते हुए मैंने सोचा कि यदि दायां अथवा बायां हाथ निकालकर बत्ती बुझाता हूं तो ये दोनों स्त्रियां जाग जायेंगी और वे रुष्ट हो जायेंगी । फलतः उस दुःख को मैं चुपचाप सहता रहा और तभी से मैं काना हो गया हूँ । इसलिए मेरा नाम 'विषमावलोचन' हो गया है। मनोवेग ने कहा कि यदि आपके बीच ऐसा कोई पुरुष हो तो कहते हुए भी भयभीत होता हूँ। जब वह मूर्ख अपनी कथा कहकर थक गया तो दूसरे मूर्ख ने अपनी कथा कहना प्रारंभ किया ||14|| उसने कहा- मेरी भी दो स्त्रियां थीं। वे बड़ी कुरूप ओर भयंकर थी । एक का नाम खरी था जो दायां पैर धोया करती थी और दूसरी का नाम ऋच्छिका था जो वायां पैर धोया करती थी । एक दिन खरी ने मेरा दायां पैर धोकर वायें पैर पर रख दिया । ऋच्छिका ने क्रोधित होकर मेरे पैर को मूसल से तोड़ दिया। तब खरी ने उसको भला-बुरा कहकर बहुत डांटा और उस पर विटों के साथ व्यभिचार का दोषारोपण किया । ऋच्छिका ने भी इसी तरह खरी पर व्यभिचारिणी होने का आरोप किया और कहा कि तेरा शिर मुंड़वा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर पांच चोटियां रखाकर शराबों की माला पहनाकर नगर में घुमाया जाये तभी ठीक होगा। इस तरह क्रोधाविष्ट होकर उसने मेरा वायां पैर भी तोड़ दिया। तब से मेरा नाम 'कूटहंसगति' हो गया। दूसरे मूर्ख के चुप हो जाने पर तीसरे ने अपनी कथा कहना प्रारंभ किया । 150 मेरी पत्नी रात्री को सोते समय बोलती नहीं थी। तब हमने कहा कि जो भी हम दोनों में से वोलेगा उसे घी में तले हुए गुड़ के दस पूए देने पड़ेंगे। उसने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। एक दिन चोरों ने घुसकर हमारी सारी संपत्ति लूट ली। वह फिर हमारी पत्नी के अधोवस्त्र खोलने लगा तब मेरी पत्नी ने कहा कि निर्लज्ज ! तूं अभी भी देख रहा है। मेरा अधोवस्त्र खोले जाने पर भी चुप खडा है। तब मैंने हंसकर कहा कि तू अपनी शर्त हार गई अब दस पूए देना पडेंगे। मैंने अपनी सारी संपत्ति चोरों को लूटा दी । तभी से मेरा नाम 'बोद' पड गया ।।6।। चतुर्थ मूर्ख ने अपनी कथा सुनाई । उसने कहां-एक बार मैं अपनी पत्नी को लेने ससुराल गया। वहां मेरी सास ने बडा स्वादिष्ट भोजन परोसा । संकोच में मैंने उसे छोड दिया। दूसरे दिन लगातार उस गांव की नारियों के आवागमन के कारण भोजन नहीं कर सका। तीसरे दिन मैं भूख से तडपने लगा । संयोगवशात् पलंग के नीचे झांका तो पाया कि वहां एक वर्तन में जल में चावल पडे हुए हैं ।।1711 अवसर पाकर भूख से व्याकुल होने के कारण मैंने चावलों से अपना मुंह भर लिया । इतने में मेरी पत्नी वहां आ पहुंची। लज्जावश में वैसे ही फूले गाल लिये चुपचाप बैठा रहा। उसने फूले गाल, मुख तथा मिचे हुए नेत्रों को देखकर घबडाकर अपनी मां से कहा कि देखो तुम्हारे दामाद को क्या हो गया है ? मां ने मुझे मरणासन्न जानकर मेरे गालों को दबाया पर मैं पूरी ताकत से उन्हें कठोर बनाये रखा। रोती हुई पत्नी की आवाज सुनकर गांव की अनेक महिलाएँ इकट्ठी हो गईं। उनमें से एक ने कहा कि सप्त माताओं की पूजा न करने के कारण यह स्थिति आई है। दूसरी ने कहा कि यह किसी देवता का रोष-दोष है। तीसरी ने कहा कर्णमूल है, चौथी ने कहा-यह तो गंडमाल है, पांचवी ने कहा यह कर्णसूचिका है, छटी ने कहा-यह गला रोग है । और भी महिलाओं ने इसी तरह अपने -अपने नाना-विध विचार व्यक्त किए ।।8।। ___इसी बीच वहां पर शस्त्रवैद्य आ गया। महिलाओं ने उसे बुलाकर मुझे दिखाया। उसने मेरे गालों को दबाकर देखा और देखा कि पलंग के नीचे तंदुल-पात्र रखा है । सारी स्थिति को समझकर उसने मेरी सासू से कहा कि इसे तन्दुल व्याधि हो गई जिसके कारण मरण भी संभावित है। तुरंत इलाज करना आवश्यक है । यदि तुम मुझे भरपुर संपत्ति दोगी तो मैं तुम्हारे दामाद के प्राण बचा सकूँगा। सासू सहर्ष तैयार हो गई। तब शस्त्रवैद्य ने शस्त्र द्वारा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे गाल को फाड़कर उसमें से रक्त मिश्रित चांवल निकाले और उन्हें कोडे कहकर सारी महिलाओं को दिखाया । व्यर्थ ही मैंने यह दुःख सहन किया। सासू ने वैद्यराज को धोतो-जोड़ा देकर बहुविध सम्मान किया और वास्तविकता जानने पर लोगों ने मेरा बड़ा उपहास किया। तभी से मेरा नाम 'गलस्फोट' पड़ गया। इन चारों मों की कथायें सुनकर नगरवासियों ने कहा कि अब तुम लोग उसी साध के पास जाकर अपनी मूर्खता को शुद्ध करो ।।19॥ इस प्रकार चार मूों की कथा कही गई । मनोवेग ने कहा- हे ब्राह्मणो! ये दस प्रकार के मूर्ख बताये गये। इनमें से एक भी प्रकार का मर्ख तुम लोगों में हो तो मुझे बताओ । मुझे अभी भी कहने का साहस नहीं हो रहा है । आप लोग प्रायः कदाग्रही होंगे तथा जिस वक्ता के पास कोई विशेष वेश न हो, पगडी, चोरी, पुस्तक अथवा धोती-जोड़ा न हो, जनानुरंजनकारी भेष न हो, पावड़ी (खडाऊ) न हो, उस वक्ता का कोई भी अभिवचन आप प्रामाणिक नहीं मानते । तब ब्राह्मणों ने कहा-हे भद्र ! भयभीत न होओ। हम लोगों में ऐसा कोई भी मुर्ख नही है। तुम निश्चिन्त होकर अपनी बात युक्ति पूर्वक कहो। तब मनोवेग ने कहा-मैं जो कुछ कहूँ, उस पर निष्पक्ष होकर विचार कीजिएगा। मणि मुकुटांकित हरि (विष्णु) में अपनी आस्था है या नहीं ? विप्रों ने कहाचराचर जगद्व्यापी विष्णु भगवान को कौन नहीं मानता ? तब मनोवेग ने कहा- यदि आपका विष्णु ऐसा है तो नन्द गोकुल में गवालिया होकर गायों को क्यों चराता था ? तथा ग्वालिनियों के साथ रतिक्रीडा क्यों करता था ? ॥20॥ ___मनोवेग ने आगे कहा- पाण्डवों की ओर से दुर्योधन के पास चूत कार्य करने के लिए वे क्यों गये ? वामन रूप धारण कर बलि राजा से पृथ्वी की याचना क्यों की ? रामावतार में कायी के समान सीता के विरह में संतप्त क्यों हए ? यदि ऐसे कार्य विराग रूप ही करते है तो हम जैसे दरिद्र पुत्रों का काष्ठ बेचने में क्या दोष है ? मनोवेग के इन सयुक्तिक वचनों को सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- हमारा विष्णु तो ऐसा ही है । पुराणों में उसका ऐसा ही वर्णन मिलता है । तूने हमारे लिए चिन्तन का एक सूत्र दिया है। दर्पण के बिना नेत्र रहते हुए भी रूप नहीं देखा जाता। यदि वह सरागी है तो विरागी कैसे हो सकता है ? यदि सर्वव्यापी है तो इष्ट वियोग कैसे हो सकता है ? सर्वज्ञ होकर वृक्ष-वृक्ष से खबर पूछना कैसे लग सकता है ? अल्प जीवों के समान दुःखित होकर उसने मत्स्य, कच्छप, शूकर, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण वगैरह अवतार किस कारण धारण किये हैं ? वे जन्म-मरण के दुःख निरंजन होकर कैसे सहते हैं ? ।।2111 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा आदि से संकुलित यह शरीर नव द्वारों से अपवित्र वस्तुओं को दूर फेंकता है। उस अपवित्र शरीर को यह परमेश्वर क्यों धारण करता है ? सर्वज्ञ होने पर भी वह क्यों पूछता है ? दानवों को उत्पन्न कर फिर उसे क्यों मारता है? यदि वह तृप्त है तो भोजन क्यों करता है ? यदि अमर है तो अवतार क्यों लेता है ? यदि भय और क्रोध से विरहित है तो शस्त्र क्यों धारण करता है ? ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में आने लगे हैं । अतः हे भद्र ! तुमने हमको जीत लिया है। अब तू जयलाभ रूप आभूषण को पहनकर भूषित हो जाओ। हम भी विरागी देव को खोज करते हैं ? इस प्रकार मनोवेग विप्रगण को निरुत्तर कर उस वादशाला से बाहर आ गया 112211 ४. चतुर्थ संधि मनोवेग ने पुनः पवनवेग से कहा- हे मित्र, अभी तुमने लौकिक सामान्य देव को सुना अब संशय विनाशक अनुक्रम का स्वरूप बताते हुए हरि सर्वज्ञ के विषय में कहता हूँ । पवनवेग ! इस भारतवर्ष में छ: काल यथाक्रम से हुए हैंसुखमसुखमा, सुखमा, सुखमदुःखमा, दुःख मसुखमा, दुःखमा और दुःखमदुःखमा । चतुर्थकाल दुःखमसुखमा में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव, इस तरह 63 शलाका पुरुष होते हैं। उनमें कोई मोक्ष जाते हैं और कोई नरक दुःख का अनुभव करते हैं। महापुरुषों में नारायणों में से कंसासुर और चाणूरमल्ल के शत्रु वासुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण हुए। उन्हें पुराणों में जन्म-मृत्यु विवजित कहा है और साथ ही उनके दस अवतारों (मत्स्य, कूर्म, शूकर, नरसिंह, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की) की भी चर्चा आई है। इस परस्पर-विपरीत चर्चा में यह भी कहा गया है कि जो अक्षराक्षर विनिर्मुक्त, अभयरूप, सत्य संकल्प विष्णु का ध्यान करता है वह सांसारिक दुःखों से मुक्त हो जाता है ।। 1 ।। बलिबन्धन (अकम्पनाचार्य मुनि) कथा मित्र, तुम्हें बलि-बन्धन की कथा सुनाता हूँ । एक समय बलि नामक दुष्ट ब्राह्मण मंत्री ने मुनियों को मारने की इच्छा से सात दिन का राज्य मांगा और भयंकर उपसर्ग किये । उस अकम्पन मुनिसंघ के इस उपसर्ग को दूर करने के लिए ऋद्धिधारी विष्णुकुमार मुनि ने वामन का रूप धारण कर बलि राजा से तीन पांव जमीन मांगकर उसे बांध लिया और मुनि उपसर्ग दूर कर दिया । इस कथा को मूढ लोगों ने कुछ और ही रूप दे दिया। उसी को विष्णु मानकर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा करने लगे । पुराणों में यही कथा दूसरे दूसरे रूप से मिलती है। इसे स्पष्ट करने के लिए उसने लकड़हारे का रूप छोड़ दिया ।। 2॥ मार्जार कथा मनोवेग ने पुन: पवनवेग से कहा- तुम्हें इन विरोधी कथनों से भरपूर पुराणों की बात और कहता हूँ। तत्पश्चात् उसने अपनी विद्या के प्रभाव से ऐसे भील का रूप धारण किया जिसके केश वक्र थे, दाढी चौड़ी थी, नयन लाल थे, नासिका चपटी थी, कटि भाग दृढ़ था, बाहुदण्ड प्रचण्ड बलशाली था। इसी प्रकार पवनवेग ने पीली आंखों वाले रुधिर मिश्रित कटे कान वाले मार्जार का रूप धारण किया। तत्पश्चात् मनोवेग ने उस मार्जार को घड़े में रखकर उत्तर दिशा में स्थित वावशाला में प्रवेश किया और भेरी बजाकर स्वर्ण सिंहासन पर जा बैठा। भेरी की आवाज सुनकर वादशील ब्राह्मण एकत्रित हो गये । मनोवेग ने कहा- वह 'वाद' जानता ही नहीं। उसनें तो कौतुकवश भेरी बजा दी थी। आगे उसने कहा- मैं तो मार्जार बेचने आया हूँ, मैं भील हूँ । यह कहकर वह सिंहासन से उतर गया ॥ 3 ॥ ब्राह्मणों ने पूछा- इस मार्जार की क्या विशेषता है और इसका मूल्य क्या हैं ? मनोवेग ने कहा- इसकी गंध मात्र से बारह योजन तक के मूषक विनष्ट हो जाते हैं और इसका मूल्य साठ स्वर्ण पण (एक प्रकार की मुद्रा) है। ब्राह्मण समुदाय यह विचार करने लगा कि यह मार्जार बहुत काम का है। एक दिन में मषक जितना द्रव्य खा जाते हैं उससे हजारवां भाग भी इसकी कीमत नहीं है। यह सोचकर ब्राह्मणों ने मिलकर उस मार्जार को साठ पण देकर खरीद लिया, मनोवेग के यह कहने पर भी कि कहीं आपको पश्चात्ताप न हो। ब्राह्मणों के पूछने पर मनोवेग ने कहा कि इसके कान रुधिरसिक्त और छिन्न इसलिए हैं कि एक दिन में रात्रि में एक देवालय में रुका।वहां बहुत अधिक मूषक थे। उन्होंने मिलकर इसके कान कुतर-कुतरकर खा लिये। उस समय मार्जार भी भखा होने के कारण अचेत होकर सो रहा था। ब्राह्मणों ने कहा-यह तुम्हारा कथन परस्पर विरोधी है । जिस मार्जार के गन्ध मात्र से चूहे नष्ट हो जाते हैं उसी मार्जार के कान चूहे कैसे खा सकते हैं ? मनोवेग ने कहा- क्या मात्र एक दोष के कारण समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं ? ब्राह्मणों ने कहा- हाँ, क्या कांजी का एक बिन्दु मात्र पड़ जाने से दूध फट नहीं जाता? मनोवेग ने कहाएक दोष से गुण कदापि नष्ट नहीं हो जाते। क्या अंधकार से मदित सूर्य के 1. यहां मूल प्रति में 'पल' शब्द का प्रयोग हुआ है (कणयहो पला.. 44)। पर यह पण होना चाहिए । यह एक मुद्रा थी जो सोने अथवा तांबे की होती थी। पल मापने का साधन है जबकि पण मुद्रा का नाम है। पल 320 रत्ती का होता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण लुप्त हो जाते हैं ? और फिर हम तो आपके साथ वाद-विवाद कर भी नहीं सकते । ब्राह्मणों ने कहा-इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह तो मार्जार का दोष है। क्या उस दोष को दूर कर सकते हैं ? मनोवेग ने कहा-यह संभव है। पर आपके साथ बात करने में मुझे भय का अनुभव होता है। जो व्यक्ति कूपमण्डूक के समान अथवा कृनक बधिर के समान अथवा क्लिष्टभृत्य के समान होता है उसके सामने सत्य तत्व को प्रस्तुत करने में भय-सा बना रहता है। एक समय समुद्र निवासी राजहंस को देखकर किसी कूप-मण्डूक ने पूछातुम कहाँ रहते हो ? राजहंस ने कहा- समुद्र में । तेरा समुद्र कितना बड़ा है ? बहुत बड़ा है । मण्डूक ने तब हाथ पसारकर कहा- इतना बड़ा है। राजहंस ने कहा- बहुत बड़ा है। मेरे कुए से भी बड़ा है ? इससे बहुत बड़ा है ? परन्तु मेंढक ने तब भी उसे स्वीकार नहीं किया । कृतक बधिर वह है जो आगम अथवा शकुन शास्त्र को न मानकर किसी कार्य का प्रारंभ करता है। इसी तरह क्लिष्टभृत्य वह है जो राजा को दुष्टमति, तृष्णालु, कृपण जानकर भी उसे नहीं छोड़ता और क्लेश भोगता रहता है। ऐसे लोगों से तत्व की बात कहना उचित नहीं है ।। 6॥ जो इन तीनों प्रकार के पुरुषों के समान कार्य-अकार्य की उपेक्षा करते हैं उनके लिए सज्जन तत्व का यथार्थ स्वरूप न कहे । बिना साक्षी के सत्य भाषण भी नहीं करना चाहिए । तभी तो. 'षोडश मुट्ठि न्याय' प्रसिद्ध हुआ। दस प्रकार के मूों की पूर्वोक्त कथा भी इसी प्रकार की है। यह सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- हे भद्र ! क्या हम लोग ऐसे मूर्ख हैं जो प्रमाण सिद्ध तथ्य को भी स्वीकार नहीं करेंगे ? तब मनोवेग ने कहा कि वह पुराण और आगम में कथित प्रमाणों के आधार पर ही बात करेगा। उसे कृपया सुनिए । मण्डपकौशिक और छाया कथा कठोर तपस्या करने वाला एक मण्डपकौशिक नामक तपस्वी था। एक दिन अन्य तपस्वियों के साथ किसी ने उसे भी भोजन पर आमन्त्रित कर लिया। तथाकथित पवित्र तपस्वियों ने उसे पंक्ति में भोजन करते हुए देख कर कोपाविष्ट होकर वे सहसा उठ खड़े हुए। जजमान के पूछने पर तपस्वियों ने कहा कि भोजन पंक्ति में एक पापी बैठा हुआ है । मण्डपकौशिक ने पूछा- बताइये, इसमें मेरा क्या दोष है ? तपस्वियों ने कहा- तुम अपुत्रवान् ब्रह्मचारी हो । पत्र के बिना न इहलोक न परलोक में कोई गति मिलती है। अतः तुम्हारा संसर्ग भी वर्जित है । मोक्ष की इच्छा हो तो पहले गृहस्थाश्रम स्वीकार कर पुत्रवान् बनो ।॥7॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मण्डपकौशिक ने कहा कि मुझ वृद्ध को कौन अपनी कन्या देगा ? तपस्वियों ने कहा- तुम विधवा को भी स्वीकार कर सकते हो। स्मृतियों में स्पष्ट कहा है कि पति के परदेश चले जाने पर, नपुंसक होने पर, रोगी दरिद्री अथवा भाग जाने पर, जातिच्युत हो जाने पर तथा मर जाने पर, इन पांच आपदाओं में स्त्री के लिए दूसरा पति किया जा सकता है । ऋषियों की आज्ञा से मण्डप ने विधवा के लिए गृहस्थावस्था में प्रवेश किया। फलतः उसकी छाया नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या हुई । जब वह आठ वर्ष की हो गई तो मण्डप के मन में तीर्थयात्रा करने का विचार हुआ । पर समस्या थी कि छाया को किसके पास छोड़ा जाय । भय था कि जिसके पास भी छोड़ा जायेगा वह उसे अपना लेगा। इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो स्त्री से पराङ्गमुख हो । यह कन्या यदि महादेव को दी जाये तो ठीक नहीं है । वे गौरी पार्वती के साथ कैलाश पर निवास करते हैं । सन्ध्यावन्दन के निमित्त आयी गंगा को स्त्री रूप में क्रीड़ा करते हुए उन्होंने देखा और काम बाण से विद्ध हो गये । वे सोचने लगे कि यह किसकी कन्या है । यह तो उर्वशी से कम नहीं है । अन्ततः उन्होंने गंगा से अपनी इच्छा व्यक्त की। उसने कहा कि वह परपति की अभिलाषा नहीं करती और फिर तुम्हें अपनी पति से भी इस विषय में पूछ लेना चाहिए। अन्ततः महादेव ने, कहा जाता है, गगा का सेवन कर लिया। विष्णु अपनी लक्ष्मी को छोड़कर सोलह हजार गोपियों का सेवन करते हैं। यहां उनके साथ विविध क्रीड़ाओं का वर्णन मिलता है । परन्तु पुरुषोत्तम होने पर परदाराओं के साथ रमण करना शोभास्पद नहीं माना जा सकता । जिस ब्रह्मा ने देवांगना के नृत्यमात्र देखने के लिए अपनी तपस्या भंग कर दी वह ब्रह्मा भी सुन्दर कन्या को पाकर क्या नहीं करेगा ? 18-120 तिलोत्तमा कथा एक समय अचानक इन्द्र का आसन कंपित हो गया। तब इन्द्र ने वृहस्पति से इसका कारण पुछा । वृहस्पति ने कहा-देव ! ब्रह्मा आपके राज्य लेने की इच्छा से पिछले चार हजार वर्ष से तप कर रहे हैं, उसी तप के प्रभाव से आपका यह आसन कंपित हो गया है। उसे नष्ट करने के लिए किसी सुन्दर स्त्री का उपयोग किया जा सकता है । तब विश्वकर्मा ने समस्त सुन्दर स्त्रियों का तिल. तिल का रूप ले तिलोत्तमा नामक अप्सरा बनाई और उसे ब्रह्मा के पास जाकर उनके तपोभंग करने का आदेश दिया। तिलोत्तमा ने अपने पूरे हाव-भाव, विभ्रम और नवरसमयी नृत्य से ब्रह्मा को आकृष्ट करने का प्रयत्न किया । ब्रह्मा उसके विलासमयी नृत्य और भंगिमाओं को देखकर विचलित हो गये । वे कभी उसके चरण की ओर तो कभी जंघा व उरस्थल पर दृष्टिपात करते, तो कभी जंघाओं में, कभी नाभि पर, कभी पीनस्तनों पर, कभी मुख पर, कभी कुंतल पर दृष्टिपात Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते । जिस और उसका अंग घुमता उसी ओर ब्रह्मा का ध्यान चला जाता। तिलोत्तमा ने ब्रह्मा की दृष्टि को आसक्त जानकर क्रमशः दक्षिण, उत्तर और पीठ पीछे नृत्य करके उसके मन को चारों तरफ घुमाया, पर लज्जावश गर्दन को चारों ओर नहीं घुमा सके (13-15)। फिर विवश होकर ब्रह्मा ने हजार वर्ष की तमस्या का फल व्यय करके प्रत्येक दिशा में एक एक नया मुंह बनाकर उसके रूप को निरखने लगे । उनको अत्यधिक आसक्त जानकर आकाश में उड़कर वह नृत्य करने लगी। तब ब्रह्मा ने पांच सौ वर्ष की तपस्था का फल ध्यय करके पांचवां गधे का मुह बनाया और तिलोत्तमा को आकाश में देखने लगे । परन्तु न वे तिलोत्तमा को देख सके और न तप ही पूरा कर सके। राग के वश होकर वे दोनों ओर से वंचित रह गये । तिलोत्तमा अपना कर्तव्य पूरा कर स्वर्ग चली गई ।।16।। इधर ब्रह्मा तिलोत्तमा को खोजने लगे । मदन से उनका मन और तन जर्जरित हो गया। मार्ग-मार्ग में उन्होंने उसकी खोज की। उनकी यह कामकावस्था देख कर देव उपहास करने लगे । क्रोधित होकर ब्रह्मा ने गधे के पंचम मुख से उनको खाना प्रारंभ कर दिया । देवगण महादेव के पास दौड़े और महादेव ने आकर ब्रह्मा का वह पांचवां शिर काट लिया। ब्रह्मा ने क्रोधित होकर महादेव को यह अभिशाप दिया कि तुमने जो ब्रह्महत्या की है इसके कारण तम्हारे हाथ से यह शिर कभी नहीं गिरेगा। महादेव मे सचिन्तित होकर क्रोध शान्त करने का आग्रह किया। ब्रह्मा ने तब कहा- मेरे इस मस्तक को विष्णु भगवान जब रक्त से सिंचन करेंगे तभी यह शिर तुम्हारे हाथ से गिरेगा। इसके लिए तुम्हें कपालव्रत धारण करना पड़ेगा। यह सुनकर महादेव विष्णु के पास गये। इधर ब्रह्मा ने एक मृगवन में प्रवेश किया जहां उन्होंने ऋतुवती रीछनी के साथ रमण किया ।।17।। उस रोछनी से गुणसंपन्न जांबव नामक पुत्र हुआ । मण्डपकौशिक ने सोचा कि इस प्रकार के कामातुर ब्रह्मा के पास भी कन्या को कैसे छोड़ा जाये ? इसी प्रकार गौतम ऋषि की स्त्री को कामातुर होकर इन्द्र ने उपभोगा । यह जानकर गौतम ऋषि ने इन्द्र को सहस्रभग होने का अभिशाप दिया । देवों की प्रार्थना पर फिर यह अभिशाप अनुग्रह स्वरूप सहस्राक्ष हो जाने के रूप में बदल दिया। इस प्रकार निष्काम देव इस लोक में दिखाई नहीं देते। हां. यमराज अवश्य धर्म परायण हैं। इसलिए उनके पास कन्या को छोड़ा जा सकता है । 1180 यह सोचकर मण्डपकौशिक ने छाया को यमराज के पास छोड़ दिया और तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ा । इधर यमराज भी कामवाण से विद्ध हो गया। उसने छाया को स्त्री बना लिया और हरी जाने के भय से उसे उदरस्थ कर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया । एक दिन पवनदेव ने अग्निदेव से कहा कि आजकल यमराज रतिसुख में लीन हैं, एक सुन्दर स्त्री के साथ । अग्निदेव ने कहा- भद्र ! कैसे उसे प्राप्त किया जा सकता है ? पवनदेव ने कहा- तुम विषय वासना से दग्ध हो रहे हो और अंगुलि पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हो । अस्तु, एक मार्ग है। यमराज नित्यकर्म करने के लिए छाया को एक प्रहर मात्र के लिए अपने उदर से बाहर निकालता है। अग्निदेव के लिए इतना समय पर्याप्त था। वह समय देखकर छाया के पास तब गया जब यमराज ने विशुद्ध होने के लिए गंगाजी में प्रवेश किया ।। 19 ।। अग्निदेव प्रच्छन्न रूप से सुन्दर शरीर धारण कर वहां पहुंच गये जहां छाया को छोड़कर यमराज स्नान करने गये थे। यमराज के आने के पूर्व तक उसके साथ उसने खूब रमण किया । छाया ने फिर कहा कि मेरे पति यमराज के आने का समय हो गया है। यदि उसने तुम्हें देख लिया तो वह तुम्हें मार डालेगा और मेरी नासिका काट डालेगा। परन्तु कामातुर अग्निदेव वहां से नहीं गया । छाया ने तब उसे अपने उदर में रख लिया । यमराज ने भो आकर छाया को उदरस्थ कर लिया। अब छाया और अग्निदेव दोनों यमराज के पेट में बन्द हो गये । इधर अग्नि के बिना संसार में भोजन बनाना, प्रदीप जलाना आदि सभी कार्य रुक गये । सुरगण विकल हो गये। तब इन्द्र ने पवनदेव से कहा- तुम अग्निदेव को खोजो। उसने कहा- सर्वत्र खोज लिया, पर वे मिले नहीं ।। 20 ।। एक स्थान शेष है। वहां उसे यदि पा लिया तो आपको सूचित करूंगा। यह कहकर उसने सभी देवों को भोजन पर आमन्त्रित किया। सभी को तो एक-एक आसन दिया पर यमराज को तीन आसन दिये। सभी को एक भाग परोसा पर यमराज को तीन भाग परोसा। यह देखकर यमराज ने पूछा- ऐसा क्यों ? पवनदेव ने कहा- पहले तुम छाया को उगलो । छाया के बाहर निकलने पर छाया से अग्निदेव को उगलवाया। यह देखकर यमराज क्रोधित होकर अनिदेव के पीछे दौड़े । अग्निदेव दौड़ते-दौड़ते वृक्षों और शिलाओं में छिप गये । आज भी बुद्धिमानों एवं प्रयोग के बिना वह प्रगट नहीं होता ॥ 21 ॥ ___मनोवेग ने कहा-हे विप्रो! क्या आपके पुराणों में यह कथा इसी प्रकार मिलती है ? विप्रों ने इसे स्वीकार किया। मनोवेग ने कहा- जो अपने उदर में स्थित पत्नी के उदर में बैठे अग्निदेव को नहीं जान सका उसका देवत्व और अग्नि का देवत्व कहां गया? जिस प्रकार इस छोटे-से दोष के कारण इन देवों का देवत्व नहीं जाता उसी प्रकार मषकों द्वारा मेरे मार्जार को कर्णच्छिन्नता से बड़े गुणों को कैसे उपेक्षित किया जा सकता है ? विप्रों ने इस कथन की प्रशंसा की ।। 22 ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ विप्रों ने आगे ने कहा- हे भद्र ! पुराणों की कथाओं पर जैसा - जैसा विचार करते हैं, वे वैसी वैसी तथ्यहीन सिद्ध होती जाती हैं । मनोवेग ने कहाजिसका चित्त त्रिभुवन को जीतने वाली रमणियों के विभ्रम से पूर्णतः मुक्त है उसके स्वरूप को सम्यक् रूप से पहचानो । सभी देव उसे प्रणाम करते हैं । जिस काम के वशीभूत हो शंकर ने पार्वती को अर्धांगिनी बनाया, विष्णु ने गोपियों का उपभोग किया, ब्रह्मा ने तपश्चरण छोड़कर तिलोत्तमा के नृत्य को देखने के लिए चतुर्मुख बनाये इन्द्र को सहस्त्रभग बनना पड़ा, यमराज ने छाया का उपभोग कर उसे अपने पेट में रखा, अग्निदेव को वृक्षों और शिलाओं में प्रवेश करना पड़ा ऐसे कामदेव को जिसने जीत लिया है और सुरासुरों द्वारा पूजित है, उस अष्टदेव की वन्दना करो । उसकी वन्दना से ही व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। मित्र के निमित्त मनोवेग ने ये कथायें कही | 23 | ५. पंचम संधि शिश्नश्छेदन कथा मनोवेग ने पुनः पवनवेग से कहा- हे मित्र, तुमने अभी रुद्रादि देवों के गुणों का आख्यान सुना । ये सभी साधारण देव हैं । अणिमा, महिमा, लघिमा आदि अष्ट ऋद्धियां देवों में होती है। उनमें लघिमा ऋद्धि ही इन देवों में पाई जाती है । ब्रह्मा महादेव के बनकर गये थे । वहां पाणिग्रहण कराते समय पार्वती के इतने कामपीड़ित हो गये कि उनका शुक्रपात हो गया और वे उपहास के कारण वन गये । महादेव ने नृत्य करते समय ऋषियों की कन्याओं के साथ आलिंगन आदि कामुक क्रियायें की जिन्हें देखकर ऋषियों ने उनका शिश्नश्छेदन कर दिया और अभिशाप स्वरूप योनि लिंग के रूप में शिवमूर्ति की स्थापना हुई, जिसकी पूजा नहीं की जाती । शिव के ही रुद्र, महादेव, शंभु, शंकर हैं । अहल्या ने इन्द्र को, छाया ने यमराज और अग्नि को, कामवासना में प्रवृत्त किया । इस प्रकार लोक में और भी नाम की निम्नकोटि की विवाह में पुरोहित करस्पर्श मात्र से वे आपूर हैं। पवनवेग ने कहा- परदाराओं का उपयोग करने में क्या इन्हें लज्जा नहीं आई ? इनका देवत्व तो यों ही चला गया । खर शिरश्छेदन कथा आदि विविध रूप कुन्ती ने सूर्य को देव हैं जो कामुकता मनोवेग ने गधे के शिरश्छेदन की कथा को स्पष्ट करते हुए कहा- ग्यारह रुद्रों में से अंतिम रूद्र सात्यकी मुनि के अंग से उत्पन्न ज्येष्ठा नाम की आर्थिक के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। मुनि होने पर उग्र तपस्या के प्रभाव से वह अनेक प्रकार की विद्याओं का स्वामी हो गया। उसे 500 बड़ी विद्याएँ और 700 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोटी विद्याएँ प्राप्त हुई। उन्होंने उससे पूछा- स्वामी, आपकी क्या सेवा की जाये ? दश पूर्वधारी उस रुद्र ने आठ कन्याओं को देख कर मुनिपद छोड़ दिया और उनसे विवाह कर लिया। परन्तु रतिकर्म में असमर्थ होने के कारण वह काल-कवलित हो गई । तब रुद्र ने पर्वती से विवाह कर लिया। फलतः उसकी त्रिशूल-विद्या नष्ट हो गई। फिर वह ब्राह्मणी नामक विद्या सिद्ध करने लगा। तब ब्राह्मणी ने उसे डिगाने के लिए गीत-नृत्यादि करना प्रारंभ कर दिया। ऊपर देखने पर उसे एक स्त्री दिखी। बाद में उसके स्थान पर एक प्रतिमा दिखी और बाद में उसपर चतुर्मुखी मनुष्य को देखा। उसके शिर पर बढ़ता हआ एक गधे का मुख दिखाई दिया जिसे उस रुद्र ने तुरन्त काट दिया, परन्तु वह गधे का मख उसके हाथ से नीचे नहीं गिरा । ब्राह्मणी विद्या उसकी विद्यासाधना को समाप्त कर वापिस चली गई । तत्पश्चात उस रुद्र ने वाराणसी नगर के समीप पद्मासन में आरुढ वर्धमान स्वामी को देखकर उन्हें विद्यामनुष्य जानकर उनपर घनघोर उपसर्ग किये । प्रातःकाल होने पर जब उसने उन्हें वर्धमान स्वामी समझा तो बड़ा पश्चात्ताप किया और चरण वन्दना की। फलस्वरूप वह शिर उसके हाथ से नीचे गिर गया। मनोवेग ने कहा- मित्र, यह गधे के शिरश्छेदन का सही इतिहास है । अब हम तुम्हें कुछ और कौतुक दिखाते हैं ।। 7॥ जलशिला और वानर नृत्य कथा मनोवेग ने ऋषि का रूप धारण कर पश्चिम की ओर से पटना नगर में प्रवेश किया और तृतीय वादशाला में प्रवेश कर सिंहासन पर जा बैठा और वहां वादसूचिका भेरी बजा दी। वादी विप्रगण एकत्रित हो गपे और उन्होंने कहा- तुम वाद करना चाहते हो ? मनोवेग ने कहा कि वह तो 'वाद' जानता ही नहीं और फिर स्वर्णासन से उतर गया। साथ ही यह भी कहा कि उसका कोई गुरु नहीं है । उसने तो स्वयं ही तपोग्रहण किया है पर इसका कारण बताने में मुझे भय लग रहा है । फिर भी कह रहा हूँ ।। 8 ।। चंपापुर के राजा गुरुवर्म के मंत्री हरि नामक द्विज ने एक दिन पानी में तैरती हुई एक शिला देखी। राजा ने उसपर विश्वास नहीं किया, प्रत्युत उसे ताड़ित किया और बंधवा दिया । असत्यभाषी मंत्री के साथ ऐसा ही होता है। क्षमा मांगने पर मंत्री को छोड़ दिया गया। मंत्री ने बदला लेने के लिए बंदरों को नृत्य-गाना सिखाया। एक दिन वन में राजा को अकेला देखकर उनका संगीत कराया। राजा ने वह संगीत सुनकर उसे दिखाने के लिए कहा। इतने में ही वे बन्दर इधर-उधर भाग गये। मंत्री ने तब भट्टगणों से कहा- राजा को अवश्य ही कोई भूत लग गया है। इसे बांध लो। भट्टगणों ने राजा को बांध लिया। फिर राजा के कहने पर उसे छोड़ दिया गया। मंत्री ने कहा- जिस Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार से आपने वन में वानर-नृत्य देखा उसी प्रकार से मैंने जल पर तैरती शिला देखी थी। अत: विद्वानों को प्रत्यक्ष देखा हुआ भी अश्रद्धेय वचन कभी भी नहीं कहना चाहिए । विप्रगणों, आप लोग भी साक्षी बिना मुझ अकेले की कही बात पर विश्वास नहीं करेंगे ।। 9॥ कमण्डलु और गज कथा विप्रों ने कहा- सयुक्तिक बात पर हम विश्वास करेंगे। तुम अपने विषय में कहो । मनोवेग ने कहा- मैं श्रीपुर के जिनवरदत्त का पुत्र हूँ। पिता ने मुझे ऋषि के पास पढ़ने के लिए भेजा। एक दिन उन्होंने मुझे कमण्डलु में जल लाने के लिए भेजा । मैं बीच में ही समवयस्कों के साथ खेलने लगा। देर हो जाने से गुरुजी के भय के कारण मैं दूसरे नगर में भाग गया। एक नगर के पास उन्मत्त हाथी को अपने सामने आते देखा । भय से मैं कंपित हो उठा। मैंने कमण्डलु को भिण्डी के वृक्ष पर रख दिया और स्वयं उसकी टोंटी से भीतर प्रवेश कर छिप गया। हाथी भी मेरा पीछा करते हुए कमण्डलु में पहुंच गया और कोपाविष्ट होकर सूड़ से मेरी धोती खींचकर फाड़ने लगा। यह देख शीघ्र ही मैं कमण्डलु के मुंह से बाहर निकल गया। मुझे निकलता देखकर वह भी उसी मार्ग से बाहर निकला । परन्तु उसकी पूंछ का एक बाल उसमें अटक गया और वह वहीं गिर पड़ा। यह देखकर मैंने उससे कहा- पापी, तू यहीं मर । यह कहकर मैं निर्भय होकर निर्वस्त्र ही नगर में पहुंचा। वहां जिनमंदिर में रुक गया। "मुझे वस्त्र कौन देगा" यह सोचकर दिगम्बर ही बना रहा। नगर-नगर घूमते हुए आज मैं यहां पहुंचा हूँ (10-11)। यह सुनकर विप्रगण हंसने लगे और कहने लगे कि तुं स्वयंभू सत्यव्रती है और इस प्रकार असत्य भाषण कर रहा है । भिण्डी वृक्ष पर कमण्डलु का रखा जाना और उसमें हाथी का प्रवेश होना आदि सब कुछ असंभव है। मनोवेग ने साश्चर्य कहा- दूसरे के दोष देखना सरल होता है। क्या तुम्हारे मत में इस प्रकार का असत्य और असंभव भाषण नहीं है ? विप्रगण ने कहा- यदि ऐसा है तो कहिए । हम उसे स्वीकार करेंगे । तुम निर्भय होकर कहो ।। 12 ।। पौराणिक कथाओं पर प्रश्नचिन्ह एक बार युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के समय कहा था- क्या कोई ऐसा पुरुष है जो पाताल में से फणीन्द्र को ले आये ? तब अर्जुन ने कहा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं सप्तर्षियों के साथ फणीश्वर को ला सकता हूँ। तत्पश्चात् अर्जुन ने गाण्डीव धनुष के द्वारा तीक्ष्ण बाणों से पृथ्वी को भेदकर रसातल में जाकर दस करोड़ सेना सहित शेषनाग और सप्तषियों को ले आया। मनोवेग ने कहा- हे विप्रो, आपके पुराणों में यह उपलब्ध है या नहीं ? वित्रों Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने कहा- हाँ, ऐसा उपलब्ध है । तब मनोवेग ने कहा- बाण के सूप छिद्र से दस करोड़ सेना सहित शेषनाग आ सकता है । रसातल में से तो कमण्डलु के छिद्र में से हाथी कैसे नहीं निकल सकता ? विप्रों ने कहा- ठीक है, यह मान लिया। परन्तु कमण्डलु में हाथी का समाना, हाथी के भार से भिण्डी वृक्ष का न टूटना, तथा कमण्डलु में हाथी की पूछ का बाल अटक जाना, यह सब कैसे संभव है ? ।। 13 ।। मनोवेग ने पुन: कहा- क्या यह सब तुम्हारे पुराणों में नहीं है ? कहा जाता है, करांगुष्ठ के बराबर अगस्त्य मुनि ने समुद्र जल को तीन चुल्ल में भरकर पी लिया। जब अगस्त्य मुनि के उदर में समुद्र का समस्त जल समा गया तो मेरे कमण्डल में हाथी क्यों नहीं समा सकता ? इसी तरह कहा जाता है, एक समय सारी सृष्टि समुद्र में बह गई। यह समझकर ब्रह्मा व्याकुल होकर इधरउधर उसे खोजते रहे । तब उन्होंने अलसी के पेड़ पर सरसों बराबर कमण्डल को रखे अगस्त्य मुनि को देखा । फिर अगस्त्य मुनि के पूछने पर ब्रह्मा ने अपनी सष्टि खो जाने की चिन्ता व्यक्त की। अगस्त्य मुनि ने चिन्तित देखकर उस सष्टि को अपने कमण्डलु के भीतर रखा बताया ॥ 14 ।। ब्रह्मा ने जब देखा तो पाया कि कमण्डलु के भीतर वटवृक्ष के पत्ते पर पेट फुलाये विष्णु भगवान सो रहे हैं । ब्रह्मा के पूछने पर विष्णु ने कहा कि तुम्हारी सष्टि एक समुद्र में बही जाती थी। उसे मैंने अपने पेट में रख ली है। इसलिए अब निश्चित होकर सो रहा हूँ। सृष्टि रखी होने के कारण पेट फूला है और सष्टि सुरक्षित है । यह जानकर ब्रह्मा ने प्रसन्नता व्यक्त की। पर उन्होंने उसे देखने की उत्कण्ठा अवश्य प्रकट की। विष्णु के कहने पर उन्होंने उदर में जाकर सष्टि को देखा और विष्णु की नाभि-कमल के छिद्रभाग से बाहर निकल आये । परन्तु निकलते समय वृषण के बाल का अग्रभाग अटक गया। निकलना संभव न जानकर उसी बालाग्र को कमलासन बनाकर वे बैठ गये। तभी से ब्रह्माजी का नाम 'कमलासन' प्रसिद्ध हो गया ।। 15 ।। ___ मनोवेग के पूछने पर विप्रों ने कथानक की सत्यता को स्वीकार किया। तब उसने कहा- जब ब्रह्मा का केश नाभि-छिद्र में अटक गया तो हाथी की पूंछ का भाग कमण्डलु के छिद्र में कैसे नहीं अटक सकता ? जब समस्त सृष्टि सहित कमण्डलु के भार से अलसी वृक्ष की शाखा नहीं टूटी तो एक हाथी के भार से भिण्डी वृक्ष कसे टूट सकता है ? जब अगस्त्य के कमण्डलु में सारी सष्टि समा गई तो मेरे कमण्डलु में मुझ सहित हाथी क्यों नहीं समा सकता ? यह भी विचारणीय है कि सारी सृष्टि को पेट में समा लेने पर विष्ण, अगस्त्य, ब्रह्मा, आदि कहां बैठे ? अलसी वृक्ष किस पर रुका रहा ? यह सब पूर्वापर विरोधी कथनों से भरे आपके पुराण सत्य हो सकते हैं पर. हमारा कथन सत्य नहीं हो सकता । यह कहां का न्याय है. ? ॥16॥ . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ यदि ब्रह्मा सर्वज्ञ है तो सृष्टि कहां है, इसका ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? जो ब्रह्मा नरक से प्राणियों को खींचकर ला सकता है, वह वृषण- केश को क्यों नहीं निकाल सका ? जो विष्णु प्रलय से पृथ्वी की रक्षा करता है उसने सीता हरण को क्यों नहीं जाना ? और उसकी रक्षा क्यों नहीं की ? जो लक्ष्मण समस्त जगत को मोहित कर सकता है वह इन्द्रजीत ( रावण ? ) के द्वारा मोहित होकर नागपास में कैसे बांधा गया ? जो विष्णु सारे संसार सीता का वियोग कैसे सहना पड़ा ? क्षुधा तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, मद, रोग, चिन्ता, जन्म जरा, मृत्यु विषाद, विस्मय, रति, स्वेद, खेद, निद्रा ये अठरह दोष सभी के दुःख के कारण हैं । सुख चाहने वाले जीव को इन दोषों से मुक्त होना चाहिए ।। 17 ॥ का पालक है उसे क्षुधा, तृषा आदि इन अठारह दोषों से और कर्मजाल से ब्रह्मा, विष्णु गैरह देव भी पीड़ित दिखाई देते हैं । जो इनसे मुक्त हो जाते हैं वे संसार द्वारा पूजित होते हैं । कर्मपटल से मुक्त हुआ जीव ही सिद्ध बुद्ध बन पाता है । जिनमें अहिंसा का शासन है वे मुनि वंदनीय हैं। देव उनकी स्तुति करते हैं । वे शोकमुक्त रहते हैं, सकल भाषाओं के ज्ञाता हैं. भामण्डल, दुन्दुभि, चामर अतिशय आदि गुणों से सुसज्जित रहते हैं । उन्होंने दश धर्मों की सुन्दर व्याख्या की है जिनका पालन कर व्यक्ति चतुर्गतियों से छूट जाता है । पंचमहाव्रत, क्षमा, पंचसमिति, अष्टकर्म विध्वंसन, गुप्ति, रत्नत्रय, अहिंसा आदि तत्व धर्म के अंग हैं । इसी धर्म को आगमज्ञ गुरु ने प्रकाशित किया है। ऐसे सच्चे गुरु जिनेन्द्रदेव के गुणस्मरण मात्र से सारे कर्म और दोष नष्ट हो जाते हैं ।।18-2011 ६. छठी संधि मनोवेग वहां से निकलकर दूसरे उपवन में चला गया। वहां पवनवेग को उसने लोकस्वरूप के विषय में समझाया । यह लोक अनादिनिधन है, अविनाशी है, निश्चल है, चौदह राजू प्रमाण है । अधोलोक वेलासन (अर्ध मृदंगाकार ) सदृश है, मध्यलोक की आकृति खड़े हुए अर्धमृदंग के ऊर्ध्वभाग के सदृश है और ऊर्ध्वलोक की आकृति खड़े हुए मृदंग के सदृश है । जीव यहीं त्रिलाक में भ्रमण करता है । अधोलोक में सात पृथिवियां हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा । इन सातों पृथिवियों में चौरासी लाख बिल है- प्रथम में 30 लाख, द्वितीय में 25 लाख, तृतीय में 15 लाख, चतुर्थ में 10 लाख, पंचम में 3 लाख, और छठे में 68 कम एक लाख प्रकीर्णक बिल हैं। सातवीं पृथ्वी में नियम से प्रकीर्गक विल नहीं है । जीव पृथिवियों में उत्पन्न होते मरते रहते हैं। हिंसक असत्यवादी, परद्रव्य का अपहरण करने वाले, परस्त्री सेवन करने वाले, परवंचन कर परिग्रह करने वाले इन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकों में अत्यन्त दुःख पाते है । कितने ही नाटकी जीव लोह के कड़ाहों में रखे गरम तेल में फेंके जाते हैं, कितने ही प्रज्वलित अग्नि में पका दिये जाते हैं। असि-पत्र वन से चक्र, वाण, तोमर आदि विविध तीक्ष्ण अस्त्र मारकियों के शिर पर गिरते हैं। परस्त्री में असक्त रहने वाले जीवों के शरीरों में अतिशय तप्त लोहमयी युवती की मूर्ति को दृढ़ता से लगाते हैं। कितने ही नारकी करोंत से फाड़े जाते हैं और भयंकर भालों से वेधे जाते हैं। इस प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छिन्न नारकियों का शरीर फिर से मिल जाता है । उनका अकाल मरण नहीं होता ।।1-211 __ असुर, नाग आदि के भेद से भवनवासी देव दस प्रकार के होते हैं । ये सभी देव स्वर्णकान्ति से संपन्न सुगन्धित निश्वास से युक्त, चन्द्रसदश महाकान्ति वाले नित्य ही कुमार रहते हैं । रोग और जरा से मुक्त, अनुपम बल-वीर्य से परिपूर्ण, अणिमा आदि अष्ट ऋद्धियों से युक्त, विविध आभूषण में सज्जित ये देव आहारक और अनाहारक दोनों प्रकार के होते हैं (3) । रत्नप्रभा नरक से च्युत होकर भवनवासी देव हजार योजन ऊपर निवास करते हैं । भवनवासी देवों में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख, नागकुमार के चौर सी लाख, सुपर्ण कुमार के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधि कुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार और अग्निकुमार के 76-76 लाख तथा वायुकुमार देवों के 96 लाख भवन हैं। इन दस कुलों के सभी भवनों का सम्मिलित योग 77210003 है (3-4)। इसके बाद व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच । इनके असंख्य प्रमाण भवन है । तियंच लोक, मध्यलोक, द्वीप, समुद्र, मानुसोत्तर पर्वत, अढाई द्वीप, स्वयंभूरमण आदि स्थानों पर उनका निवास रहता है (5)। वैमानिक देवों के सोलह भेद हैं- सौधर्य, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इन स्वर्गों में दो प्रकार के पटल है-कल्प और कल्पातीत । कल्प कोई बारह मानता है और कोई सोलह । हरिषेण सोलह कल्प मानते हैं, ग्रेवेयक, अनुदिश और अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं । ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और शतार को छोड़कर शेष बारह कल्प हैं । इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पांच अनु तर विमान हैं । ये सभी विमान क्रमश: ऊपर ऊपर हैं। सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्मब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्रार इन छह युगलों के बारह स्वर्गों में, आनत प्राणत, अरण-अच्युत स्वर्गों में, नव अनुदिश विमानों और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थ सिद्धि इन पांच अनुत्तर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानों में वैमानिक देव रहते हैं (6-8) । ये विमान सुवर्ण भित्तियों से युक्त, नाना मणि-मालाओं से सहित, चन्द्रकांत और सूर्यकांत मणियों से भाषित, विविध घटिकाओं से संयुक्त, कुसुममालाओं से युक्त, गोपुर, उपवनों सहित, अकृत्रिम जिनचैत्यालय से परिपूर्ण है (9) । पृथ्वीतल' पर असंख्य जिनभवन हैं। पंचमेरु, उनके चार वन (पाण्डु, सौमनस, नन्दन और भद्र शाल) हैं, शाल्मली जम्बू, वृक्षादि हैं, गजदन्त गिरी हैं, चारों दिशाओं में कुलपर्वत हैं, मानुषोनर पर्वतस्थ जिनालय हैं, नदीश्वद्वीपस्थ जिनालय हैं (10) । नारकियों के पटलों के अनुसार उनकी आयु और ऊँचाई है। नारकियों की उत्कृष्ट आयु क्रम से पहले में एक सागर, दूसरे में तीन सागर, तीसरे में सात सागर, चौथे में दस सागर, पांचवें में सत्रह सागर, छठे में बावीस सागर और सातवें में तेतीस सागर है। व्यन्तर देव द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, गली, बाग, वन आदि स्थानों में रहते हैं (11-18)। इस संधि में देवों, मनुष्यों और नारकियों की आयु, ऊंचाई, भवन आदि का वर्णन मिलता है । इसे त्रिलोक प्रशस्ति आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। ७. सप्तम संधि उपकार निमित्त से त्रिलोक का वर्णन कर मनोवेग ने पवनवेग से कहामित्र, अभी तुम्हें पुराणों की कुछ और कथायें बताता हूँ। यह कहकर ऋषिवेष को छोड़कर और तपस्वी वेष को धारणकर उन्होंने पटना नगर में उत्तर दिशा की ओर से प्रवेश किया। वहां ब्रह्मशाला में पहुँचकर भेरी बजा दी और सिंहासन पर बैठ गया। भेरी की आवाज सुनकर वादशील ब्राह्मण एकत्रित हो गये और कहने लगे- तुम कहां से आये हो और किस विषय पर वाद करना चाहते हो ? मनोवेग ने कहा- हम लोग भ्रमण करते हुए पिछले गांव से आये हैं । व्याकरणशास्त्र वगैरह कुछ भी नहीं जानते । ब्रह्मण ने कहाउपहास मत कीजिए । सही बताइये- कहां से आये हो, कहां जा रहे हो, तुम्हारे गुरु का नाम क्या है, माता-पिता कौन है ? मनोवेग ने कहा- यदि आप विचारवन्त हैं तो सुनिये, मैं कह रहा हूँ ॥1॥ वृहत्कुमारिका कथा साकेत नगर में बृहत्कुमारिका नामक मेरी माता को मेरे नाना ने मेरे पिता को दी। विवाह के समय बजे हुए वाद्यों की आवाज सुनकर एक हाथी उस स्तंभ को तोड़कर भाग निकला। उससे घबड़ाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। वर भी भागा। भागते समय उसके धक्के से वधु नीचे गिर पड़ी और बेहोश हो गई। लोगों के आक्षेप के भय से मेरा पिता कहीं भाग गया और अभी तक नहीं आया। लगभग डेढ माह बाद पिता के स्पर्श मात्र से उत्पन्न Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० हुआ गर्भ दिखाई देने लगा। मेरी मातामही ने पूछ मेरे कुल में यह किसका लांछन है ? उसने उत्तर दिया- मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है ॥ 2 ॥ हाथी के भय से भागते समय वर के अंगस्पर्श के सिवाय आज तक मैंने किसी भी परपुरुष का स्पर्ष नहीं किया । प्रसवकाल समीप आ गया। इसके बाद मेरे नाना के घर कितने ही तपस्वी आये । आहार ग्रहण के बाद मेरे नाना के पूछने पर उन्होंने कहा कि इस देश में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा । इस कारण हम लोग उस स्थान पर जा रहे हैं जहां सुभिक्ष है । उन्होंने यह भी कहा कि तू भी हमारे साथ चल । यहां भूखों क्यों मरता है । मैंने भी सोचा, यहां तो बारह साल का दुर्भिक्ष पड़ेगा। मैं गर्भ से निकलकर भूख से क्यों पीडित होऊँ । फलत: दुष्काल तक मैं गर्भस्थ में ही रहा । दुर्मिक्ष दूर होने पर तपस्वी मेरे घर आये और नानाको बताया कि अब वे अपने देश वापिस जा रहे हैं। उनके वचन सुनकर मैं भी गर्भ से बाहर निकलने लगा । उस समय मेरी माता चूल्हे के समीप बैठी थीं। प्रसव वेदना से वे वही अचेत हो गईं। मैं गर्भ से निकलकर वहीं चूल्हे की राख में गिर गया । बारह वर्ष का भूखा होने के कारण मैंने माता से भोजन मांगा। उस समय मेरे नाना ने उनसे कहा- आपने ऐसा बालक कभी देखा है जो उत्पन्न होते ही भोजन मांगे ? उन्होंने कहा- यह अपने घर में अमंगल है। इसे घर से बाहर कीजिए । अन्यथा घर में निरन्तर विघ्न होते रहेंगे। यहां तू मुझे बड़ा दुःखदायी है । अतः तुम अब यम के भोजन देंगे ॥ 4 ॥ तब मेरी माता ने कहा घर जाओ । वे ही तुम्हें घनघोर तपस्या दूसरा विवाह कर कि यदि पहला विवाह कर सकती है ( 5 ) | तत्पश्चात् मैं अपने देह में भस्म लगाकर शिर मुड़ाकर घर से निकल गया और तपस्वियों के पास पहुंच गया । उनके साथ रहकर मैंने की । एक दिन मैं साकेत गया तो वहां देखा कि मेरी मां ने लिया है। इस विषय में तपस्वियों से पूछा तो उन्होंने कहा पति मर जाता है तो अक्षतयोनि वह स्त्री दूसरा यदि पति विदेश गया हो तो प्रसूता स्त्री आठ वर्ष वर्ष तक अपने पति के आने की प्रतीक्षा कर दूसरा (विशेष परिस्थिति में पांच विवाह करने में भी दोष नहीं है, जैसा द्रोपदी ने किया था ) | व्यासादि ऋषियों के ये वचन सुनकर मैंने अपनी माता को निर्दोष मान लिया। फिर मैंने एक वर्ष तक पुनः तपस्या की। बाद में तीर्थयात्रा करते हुए आज आपके नगर में आया हूँ । यही मेरा परिचय है ( 6, 1 तक और अप्रसूता चार विवाह कर सकती है। - मेरी इन बातों को सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- तू ये असंभव और आगम विरुद्ध बातें क्यों कर रहा है ? मनोवेग ने कहा- ये विरुद्ध नहीं हैं, ऋषि भाषित हैं । आप यदि सुनना चाहें तो मैं सप्रमाण बता सकता हूँ, पर मैं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयभीत हूँ। आप निष्पक्ष हो सुनें तो कहूंगा । ब्राह्मणों ने कहा- बताओ, यह सब कहां तक ठीक है (7) । मनोवेग ने कहा- पुराण, मानवधर्म (मनुस्मृति में कथित धर्म), अंग सहित वेद और चिकित्सा ये चार आज्ञासिद्ध है। तर्क से इनका खण्डन नहीं करना चाहिए । ये मनु, व्यास ऋषि के वचन हैं। इनका खण्डन करते वाला ब्रह्मघाती होता है । सदोष वचनों में प्रश्न करना निषिद्ध है। ब्राह्मणों ने कहा- मात्र वचन ले कहने में पाप नहीं लगता । तीक्ष्ण खड्ग' कहने से जिव्हा नहीं जलती और उष्ण अग्नि कहने से मुख नहीं जलता। अतः तुम निर्भय होकर पुराण वचनों का अर्थ करो। हम उसे विचार पूर्वक ग्रहण करेंगे (8)। भागीरथी और गांधारी कथा मनोवेग ने कहा- भागीरथी नाम की दो स्त्रियां एक ही स्थान पर सोती थीं। उन दोनों के स्पर्श मात्र से एक गर्भवती हो गई और उसका भगीरथ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । यदि स्त्री के स्पर्श मात्र से गर्भ रह सकता है तो पुरुष के स्पर्श मात्र से मेरी माता को गर्भ कैसे नहीं रह सकता? इसी प्रकार गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र के साथ निश्चित हुआ। उसके दो माह पूर्व ही वह रजस्वला हो गई। चतुर्थ दिन उसने स्नान करके फनस वृक्ष का आलिंगन किया । फलतः वह गर्भवती हो गई। वृद्धिंगत उदर देखकर विवाह तुरन्त कर दिया गया। उदरस्थ फनस फल से ही एक सौ पुत्र उत्पन्न हुए (9)। ___ मनोवेग के कहने पर ब्राह्मणों ने यह स्वीकार कर लिया कि उनके पुराणों में इस प्रकार का वर्णन मिलता है। तब मनोवेग ने कहा- यदि फनस के आलिंगन से पुत्रों की उत्पत्ति हो सकती है तो मेरी माता के पुरुष के स्पर्श मात्र से पुत्र की उत्पत्ति को आप असत्य कैसे मान सकते हैं ? जहां तक बारह वर्ष तक माता के गर्भ में रहने का प्रश्न है, वह भी व्यर्थ है। कहा जाता है, अर्जुन ने सुभद्रा को चक्रव्यूह की रचना का वर्णन किया था जिसे अभिमन्यु ने सुना था, तब मैंने तपस्वियों के वचन क्यों नहीं सुने ? (10) मय ऋषि कोपोन कथा और मंदोदरि इसी तरह बारह वर्ष तक गर्भ में रहने वाली बात भी प्रमाणित हो जाती है । एक समय मय नामक मुनि ने अपनी कोपीन एक तालाब में धोई। उस कोपीन में लगा हुआ वीर्य जल में गिर गया जिसे एक मेंढकी ने पी लिया। उसके पीने से मेंढकी गर्भवती हो गई । यथासमय उसके गर्भ से एक सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई (11) । परन्तु मेंढकी ने उसे कमल के पत्ते पर रख दिया यह सोचकर कि यह शुभलक्षणा कन्या उसकी जाति की नहीं। जब मय (यम) मुनि वहां आया तो उसने उस सुंदरी को तुरन्त है। पहचान लिया कि यह मेरे वीर्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ से उत्पन्न हुई है । ऐसा समझकर उस पुत्री को ग्रहण किया और उसका ढंग से पालन-पोषण किया । तरुणी होने पर उस कन्या ने रजस्वलावस्था में पिता के वीर्य से मैली कोपीन को पहिनकर स्नान किया। स्नान करते समय उस कोपीन में लगे हुए वीर्य का एक बिन्दु उसके गर्भ में चला गया और वह गर्भवती हो गई। मुनि ने यह जानकर उस कन्या का गर्भ अपने तपोबल से स्तंभित कर दिया ( 12 ) । वह गर्भ सात हजार वर्ष तक उस कन्या में थमा रहा। बाद में उस सुन्दरी को लंकाधिपति रावण ने मंदोदरि के नाम से स्वीकारा। उसी से फिर इन्द्रजीत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ( 13 ) । अर्थात् इन्द्रजीत वस्तुतः सात हजार वर्ष पूर्व ही गर्भ में आ चुका था । मनोवेग ने कहा कि जब वह सात हजार वर्ष तक गर्भ में रह सकता है तो क्या मैं बारह वर्ष नहीं रह सकता ? तुम दूसरों के दोष मानते हो पर स्वयं के दोष को नहीं देखते । यह सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- यह बात भी हम स्वीकार किये लेते हैं । पर तुम यह बताओ कि उत्पन्न होते ही तुमने तपोग्रहण कैसे किया ? तथा तुम्हारी मां परिणीता होते हुए भी कन्या कैसे कहलायी ? मनोवेग ने उत्तर दिया- सुनिए । पराशर ऋषि और योजनगन्धा कथा पराशर नाम के ऋषिवर ने कभी पूर्वकाल में किसी कार्यवश गंगा नदी को पार किया। नौका चलाने वाली धीवर बालिका थी जो अत्यन्त सुदर नेत्रां वाली पीनस्तनी थी । उसका नाम मत्स्यगंधा था । पराशर उसके रूप पर आसक्त हो गये, मदन बार्णों से विद्ध हो गये और उससे रति-याचना करने लगे । धीवर कन्या सत्यवती तपस्वी के अभिशाप के भय से इस नीचकृत्य करने के लिए तैयार तो हो गई पर उसे शर्म और निन्दा का भय बना ही रहा । इसे दूर करने के लिए पराशर ने दिन में ही अपने तपस्तेज के प्रभाव से घनघोर अंधकार भरी रात्रि कर दी और मत्स्यगंधा के स्थान पर उसका शरीर सुगन्धित कर दिया और वह योजनगन्धा हो गई । वह जटा - जूट से अलकृता, उत्तमांगी, विद्रुम - कुण्डला भूषणों से संसक्ता, ब्रह्मसूत्रधारिणी भी बन गई और फिर उन्हीं पराशर ऋषि ने स्वतन्त्रता पूर्वक उससे संभोग किया। योजनगन्धा ने पराशर ऋषि से वर मांगा तब वह अक्षतयोनि बनी रहो ( 14-15 ) । उसी धीवर कन्या से व्यास ऋषि का जन्म हुआ। बाद में उसी का विवाह भीष्म पितामह के पिता महाराजा शान्तनु से हुआ । व्यास को ही द्वैपायन और कृष्ण कहने लगे । योजनगन्धा किंवा सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य निःसंतान मरे । अतः माता की आज्ञा से विचित्रवीर्य की अम्बिका और अम्बालिका नामक विधवा पत्नियों से नियोग कर इन्होंने क्रमशः धृतराष्ट्र और पाण्डु को उत्पन्न किया । व्यास तपस्वी बन गये । पाण्डु ने कुन्ती का वरण किया । वरण करने के पूर्व ही कुन्ती ने सूर्य के सहवास से कर्ण को उत्पन्न किया । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोवेग ने कहा- व्यास जी जन्म लेते ही तपस्वी हो गये तो मैं तपस्वी क्यों नहीं हो सकता ? व्यास जी के उत्पन्न हो जाने पर भी योजनगन्धा 'अक्षतयोनि' बनी रही । कर्ण को उत्पन्न करने पर भी कुन्ती कन्या बनी रही तो मेरी माता कन्या रहे इसमें आपको संदेह क्यों हो रहा हैं ? (15) उद्दालक और चन्द्रमती कथा पूर्वकाल में उद्दालक नामक ऋषि ने अपने तप के प्रभाव से सुरेन्द्र को भी कंपित कर दिया था। एक बार उनका वीर्य स्वप्नावस्था में स्खलित हो गया जिसे गंगाजी में कमलपत्र पर स्थापित कर दिया गया। उसी दिन रघुराजा की पुत्री चन्द्रमती रजस्वला होने के बाद चतुर्थ स्नान करने के लिए गंगास्नान को आयी। उसने स्नान करते समय वह वीर्यसहित कमल संघ लिया जिससे तत्क्षण गर्भाधान हो गया (16)। यह वृत्तान्त चन्द्रमती की माता ने रघुराजा से कहा। उसने क्रोधवश चन्द्रमती को जंगल में छुड़वा दिया। वहां उसने तृणबिन्दु नामक ऋषि के तपोवन में नागकेतु नामक पुत्र को जन्म दिया और उसी समय अपने पिता को खोजने की आज्ञा देकर उसे मंजूषा में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया । सयोगवशात स्नान करते समय उद्दालक ने मंजूषा को देखा और उसे पकड़कर खोला तो पाया कि वह उसी का पुत्र है। चन्द्रमती भी पुत्र को खोजती हुई वहीं पहुंच गई । उद्दालक ने उससे विवाह करने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु चन्द्रमती पिता की अनुमति पूर्वक ही विवाह करने को तैयार हुई। उद्दालक ने तुरन्त रघु के पास जाकर स्वीकृति ले ली और पुनः कुमारी करके चन्द्रमती के साथ विवाह कर लिया । यह कथा कहने के बाद मनोवेग ने कहा कि जब पुत्र होते हुए भी चन्द्रमती कन्या रह सकती है तो मेरी माता को कन्या मानने में आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए (17)। बाद में वादशाला से निकलने पर मनोवेग ने अपने अभिन्न मित्र पवनवेग से कहा- आश्चर्य है, ये पुराण परस्पर विरुद्ध और असंभवनीय बातों पर कोई विचार नहीं करते । फनस वृक्ष के आलिंगन से यदि स्त्री के पुत्र होता तो मनुष्य के स्पर्शमात्र से वेलें भी फलने लगतीं । गौ के संग से गौ का गर्भवती हो जाना, मेंढकी से मनुष्य की उत्पत्ति होना, शुक्र के स्पर्श मात्र से सन्तान होना, सात हजार वर्ष तक मंदोदरि द्वारा गर्भ को बनाये रखना, रतिकाल में ही पुत्र का उत्पन्न होना और उसे जंगल में भेज देना, शुक्र सहित कमल के सूंघने से गर्भाधान हो जाना, आदि जैसी बेतुकी बातें इन पुराणों में ही मिलती हैं। ये सब उपहास के कारण हैं। अपनी विवेक बुद्धि से इन कथाओं की सत्यता-असत्यता पर गंभीरता पूर्वक विचार करो। यह सुनकर पवनवेग निरुत्तर हो गया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ८. अष्टम संधि कर्णोत्पत्ति कथा मनोवेग ने पवनवेग से कहा- जैन पुराणों के अनुसार कर्ण की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है । सोमप्रभ नाम का एक राजा था। उसके दो पुत्र थेशान्तनु और विचित्रवीर्य । विचित्रवीर्य के तीन पुत्र हुए- जात्यन्ध धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर । पाण्डु पाण्डुरोग से पीड़ित थे और रति संसर्ग करने की उनकी क्षमता नहीं थी । एक दिन किसी मनोहर उपवन में क्रीड़ा करते हुए उसने लता मण्डप में पड़ी हुई एक काममुद्रिका ( अंगुठी) देखी। पाण्डु उसे अपनी अंगुलि में डालकर देख ही रहा था कि उसका मालिक विद्याधर चित्रांगद वहां आ पहुंचा । पाण्डु ने तुरन्त उसे वापिस कर दीया ( 1 ) । पाण्डु ने पूछामित्र, तुम खिन्न मन दिखाई दे रहे हो, शरीर भी कृश लग रहा है । इसका कारण क्या है ? उत्तर में पाण्डु ने कहा- मित्र, सूर्यपुर राजा अन्धकवृष्टि की अतिसुन्दरी कन्या कुन्ती है। पहले उसने उसका विवाह मेरे साथ करने का निश्चय किया था परन्तु मुझे पाण्डुरोग देखकर अब उसका विचार बदल गया है । अब मैं उसकी वियोगाग्नि से संतप्त हूँ । तब चित्रांगद ने कहा मेरी इस काममुद्रिका को पहन लो जिससे तुम कामदेव के समान सुन्दर होकर उसका उपभोग कर सकते हो । जब वह गर्भवती हो जायेगी तो अन्धकवृष्टि राजा उसे तुम्हें दे देंगें (2) 1 पाण्डु उस अंगूठी को पहिनकर अपने ससुर के घर गया । वहां प्रच्छन्न होकर कुन्ती से मिला । कुन्ती उसे देखकर कंपित हो गई । सुन्दर शरीर देखकर अनुरक्त हो गई । पाण्डु ने उसका सात दिन तक उपभोग किया जिससे कुन्ती गर्भवती हो गई । तब पाण्डु वहां से वापिस आ गया । कुन्ती को गर्भवती जानकर उसकी माता ने गुप्त रूप से उसकी प्रसूति कराई । सुन्दर लक्षणों से युक्त पुत्र हुआ जिसे उसने मंजूषा में रखकर गंगाजी में प्रवाहित कर दिया । उसे चंपापुर नरेश आदित्य ने पकड़ लिया। उद्घाटित सुन्दर बालक दिखा । वह अपने हाथों से अपने कर्ण पकड़े हुए था । आदित्य पुत्रहीन था । अतः उसने उसका 'कर्ण' नाम रखकर उसे अपना पुत्र स्वीकार कर लिया । आदित्य के देहावसान के बाद चंपापुर का राजा कर्णं ही हुआ । इधर कुन्ती को पाण्डु में आसक्त जानकर उसका विवाह पाण्डु के साथ कर दिया गया । माद्री का भी विवाह पाण्डु के साथ हो गया । करने पर उसे एक पाण्डव कथा धृतराष्ट्र का विवाह गान्धार नरेश की पुत्री गांधारी के साथ हुआ । दुर्योधनादिक सौ पुत्र धृतराष्ट्र और गांधारी से हुए और युधिष्ठिर, भीम और Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन कुन्ती से तथा नकुल और सहदेव माद्री से उत्पन्न हुए । आदित्यज कर्ण के साथ सौ पुत्र प्रतिनारायण जरासिन्धु के अनुयायी थे तथा पंच-पाण्डव नारायण श्रीकृष्ण की सेवा में रहते थे । दुर्योधनादि को पराजित कर पाण्डवों ने अपना राज्य वापिस लिया (4)। चिरकाल तक राज्य करने के बाद उन्होंने जैनदीक्षा ग्रहण कर ली । सुख-दुःख मान-अपमान और शत्रु-मित्र से समभावी होकर शान्त चित्त से बावीस परीषहों को और भयंकर उपसर्गों को सहते हुए शत्रंजय पर्वत से युधिष्ठिर. भीम और अर्जुन ने मोक्ष प्राप्त किया तथा नकुल और सहदेव सर्वार्थ सिद्धि पहुंचे । वे भी दूसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेंगे । इस प्रकार कर्ण की उत्पत्ति-कथा उपलब्ध होती है। वह सूर्य का पुत्र नहीं है। यदि धातु रहित देवों के द्वारा स्त्रियां नर को उत्पन्न करती हैं तो पाषाण के द्वारा पृथ्वी में धान्यादिक उत्पन्न होना चाहिए । संसार में सभी प्रकार के संबंध होते हैं, अघटित संबंध नहीं होते । स्त्री का संविभाग अविश्वसनीय है। योजनगन्धा धीवरी का पुत्र व्यास दूसरा होगा और सत्यवतो पुत्र व्यास दूसरा होगा । नाम साम्य के कारण लोगों ने अलीक को अपना लिया (5)। महाभारत कथा समीक्षा महाभारत में व्यास ऋषि ने कदाचित् यह सोचा होगा कि विरुद्धार्थ प्रतिपादन करने वाला उनका बनाया असंबद्ध शास्त्र महाभारत भी प्रसिद्ध हो जायेगा। ऐसा सोच कर व्यासजी ने गंगा के किनारे अपना ताम्रपत्र बाल पूज में गाडकर स्नानार्थ गंगाजी में उतर गये । उनका अनुकरण कर बहत लोग इसी तरह बालपूञ्ज बनाकर गंगास्नान करने लगे। गंगास्नान से वापिस आने पर व्यासजी ने असख्य बालुकापुञ्ज देखे और अपना ताम्रभाजन नहीं खोज सके । समस्त लोक को मूढ समझकर उन्होंने श्लोक पढ़ा कि जो लोग परमार्थ का विचार न कर दूसरों का अनुकरण करते हैं वे मेरे ताम्रभजन की तरह अपना कार्य नष्ट कर लेते हैं। इस मिथ्याज्ञानी संसार में शायद ही कोई विचारवान होगा । अतः मेरा यह विरुद्ध शास्त्र भी लोक में आदरणीय हो जायेगा। यह सोचकर व्यास जी बड़े प्रसन्न हुए (6) । यह कहकर मनोवेग ने हंसकर पुनः कहा पवनवेग से कि इसी प्रकार की कुछ और पौराणिक कथायें सुनाता हूँ। यह कहकर मनावेग ने रक्ताम्बर भेष धारणकर पंचम द्वार से पटना में प्रवेश किया और वादशाला में जाकर भेरो बजाकर स्वर्णासन पर बैठ गया । ब्राह्मण के आने पर उसने वही पूर्ववत् अज्ञानता बताई। उनके आग्रह पर उसी प्रकार पुनः मनोवेग ने अपनी बात कही (7)। शृगाल कथा हम दोनों पूर्व देशवर्ती विक्रमपुर के उपासक है, भगवान बुद्ध के भक्त हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन बौद्ध भिक्षुओं ने बिहार में अपने चीवर सूखने डाल दिये और हम दोनों को लाठी देकर उनकी रक्षार्थ खड़ा कर दिया। इतने में दो शृगाल आये । उनको देखकर हम लोग भयवीत होकर स्तूप (टीले) पर चढ़ गये । हमारा चिल्लाना सुनकर बौद्ध भिक्ष दौड़े पर शृगाल हम दोनों सहित उस टीले को लेकर आकाश में उड़ गये (8) । बत्तीस योजन दूर पहुंच कर उन शृगालों ने टोले को जमीन पर रखा ओर हम लोगों का भक्षण करने के लिए उद्यत हुए । इसी बीच दो शस्त्रधारी शिकारियों को उन्होंने देखा और भयभीत होकर वे वहां से भाग गये। तत्पश्चात हम लोग उन शिकारियों के साथ शिव नामक देश में आकर विचार करने लगे कि न देश जानते हैं, न विदेश । यहां क्या करेंगे ? इससे तो अच्छा यही है कि हम बद्ध भाषित तप करना प्रारभ कर दें । रक्त चीवर हैं ही, शिर पर बाल भी छोटे छोटे हैं। इन्हीं के माध्यम से घर घर भोजन करते रहेंगे। यह सोचकर वैसा ही करते-करते इस नगर में बहुत समय के बाद पहुंच पाये। यह सुनकर ब्राह्मणों ने कहा कि तुम लोग तपस्वी होते हुए भी झूठ बोल रहे हो। मनोवेग ने कहा- यदि आप हमारे इन वचनों को झूठ मानते हैं तो आपके पुराणों में भी इसी तरह जो असत्य और बेतुकी बातें हैं उन्हें भी झूठ मानना पड़ेगा । ब्राह्मणों ने कहा- यदि ऐसा है तो तुम निर्भय होकर कहो (9) । मनोवेग ने तब कहा- सुनो। लक्ष्मण - सीता सहित भगवान राम ने वनवास स्वीकार किया। खर दूषणादि राक्षसों को मारकर वे वन में रहते थे। तब रावण ने छद्मवेषी स्वर्ण हिरण का रूप धारणकर रामचन्द्रजी को लुभाकर, सीता का हरण कर लंका चला गया। बाद में बलशाली बाली को मारकर वानरों सहित सुग्रीव को राजा बनाया। सीता की खोज में हनुमान को भेजा। हनुमान ने लंका में सीता को देखकर रामचन्द्रजी से कहा । रामचंद्रजी ने हनुमान को लंका के विध्वंसन का आदेश दिया। बंदरों ने बड़े बड़े पर्वतों और शिलाखण्ड़ों को उखाडकर सेतु बनाया और सुग्रीव सेना सहित श्रीलंका में प्रवेश किया (10)। मनोवेग ने कहा- रामचन्द्र जी का चरित्र रामायण में इसी प्रकार है या नहीं ? ब्राह्मणों ने कहा- रामायण की इस कथा को कौन अस्वीकार कर सकता है ? तब मनोवेग ने कहा- पंडितवर, एक-एक बंदर पांच-पांच पर्वतों लीला के साथ आकाशमार्ग में ले जायें तो बड़े-बड़े शृगाल यदि एक छोटे-से टीले को उठाकर आकाश में ले जायें तो क्या उसे असत्य मानेंगे ? तुम्हारा कथन सही है और हमारा कथन झूठा है, यह विचारशून्यता का ही द्योतक है। इसी तरह न सुग्रीव वानर था और न रावण राक्षस था। ये सभी वानरवंशी और राक्षसवंशी थे (11)। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याधर वंशोत्पत्ति कथा इसके बाद लेखक ने राक्षस वंशादि के विषय में कुछ विस्तार से कहा है। प्रथम जिनेश्वर को प्रणामकर भरत ने राज्य संचालन का प्रारंभ कर दिया। भगवान आदिनाथ भी देश-देशान्तर भ्रमण करते रहे। कच्छ, महाकच्छ आदि देशों के राजा उनकी स्तुति करने आते रहे। उन्होंने भगवान से उपदेश आदि देने की प्रार्थना की। लोगों के आने से कोलाहल उत्पन्न हुआ जिससे धरणेन्द्र का आसन कंपित हो गया। वह समझ गया कि यह भगवज्जिनेन्द्र के आने का संकेत है । धरणेन्द्र अपने विद्याबल से सुन्दर रूप धारणकर भगवान के पास पहुंचा । सुर, नर, विद्याधरों ने भगवान की पूजा की । इक्ष्वाकुवंश की उत्पत्ति भ. आदिनाथ से ही हुई । वहां नमि, विनमि को धरणेन्द्र ने विद्यायें दी । इन दोनों के वंश में उत्पन्न पुरुष विद्याधारी होने के कारण विद्याधर कहलाये। इसमें विद्युदृढ, दृढ रथ आदि संकडों विद्याधर हुए (12)। राक्षस वंशोत्पत्ति कथा इसके बाद ऋषभदेव का युग समाप्त हुआ और अजितनाथ का युग आया । अजितनाथ के ही पुत्र सगर चक्रवर्ती थे। इक्ष्वाकुवंश के समाप्त होने पर उससे राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई। भरतक्षेत्र के विजयाध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है। उसमें पूर्णधन नामक विद्याधर राजा था। उसने विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचन से उसकी कन्या उत्पल मती मांगी पर उसने वह कन्या सगर को दे दी । सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन को विद्याधरों का अधिपति बना दिया। सहस्र यन ने पूर्णमेघ को मार डाला और उसके पत्र मेघवाहन को निष्कासित कर दिया। मेघ वाहन भयवीत होकर अजितनाथ के समवशरण में पहुंचा। इन्द्र ने मेध वाहन से उसके भय का कारण पूछा। मेघवाहन ने कहा-सगर का सहयोग लेकर सहस्रनयन ने मेरे वंश का उन्म लन कर दिया है और इसी भय से मैं हंस-विमान से उडकर यहां आया है। इस बीच मेघवाहन का पीछा करते हुए सहस्रनयन भी समवशरण में पहुंच गया अहंकार के साथ । परन्तु भ. का प्रभामण्डल देखकर उसका अहंकार चूर-चूर हा गया। उसने अजितनाथ को प्रणाम किया। सहस्रनयन और मेववाहन दोनों पारस्परिक वैरभाव को छोडकर भगवान के चरणों में बैठ गये । तब गणधर ने भगवान से इन दोनों के वैर का कारण पूछते हुए उनके भवान्तरों को जानने की इच्छा व्यक्त की । अपने भवान्तर जानकर मेंघवाहन और सहस्रनयन दोनों परस्पर मित्र बन गये। राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम भी मेव वाहन से स्नेह करने लगे (3-14)। राक्षसेन्द्र भीम और सुभीम ने स्नेहवंश मेघवाहन को श्रीफल जैसे आकार वाली श्रीलंका का राज्य सौंप दिया। यह श्रीलंका तीस योजन लंबी और छः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ योजन चौड़ी नगरी है जिसमें राक्षसवंशियों का निवास है। उन्होने उसे हार, अलकार और राक्षसी विद्या भी दी। इन सभी को लेकर वह त्रिकूटाचल के नीचे बसी श्रीलंका में पहुंचा और वहां राज्य करने लगा। राजा रतिमयूख की पुत्री सुप्रभा से उसका विवाह हुआ और उससे महारक्ष नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कालान्तर में मेघवाहन ने महारक्ष को राज्याभिषिक्त कर जैन दीक्षा धारणकर ली। महारक्ष की पत्नी विमलाभा से तीन पुत्र हुए- अमररक्ष, उदधिरक्ष और अनुरक्ष। महारक्ष की इसी सन्तान-परम्परा में मनोवेग नामक राक्षस के राक्षस नामक प्रभावशाली पुत्री हुआ जिससे राक्षस वंश की उत्पत्ति हुई। राक्षस से आदित्यकीर्ति और वृहत्कीर्ति हुए। इसी परम्परा में मुनिसुव्रत तीर्थ काल में सुग्रीव, भाली, सुमाली, दशानन (रावण), कुम्भकर्ण, विभीषण, चन्द्रनखा, इन्द्रजीत और मेघवाहन आदि विद्याधर भी हुए (1)। वानर वशोत्पत्ति कथा विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघपुर नामक नगर था। उसका अतीन्द्र नामक राजा था। उसका श्रीकण्ठ नामक पुत्र था और महामनोहरदेवी नामक बहिन थी। इसी तरह रत्नपुर नगर में पुष्पोत्तर नामक राजा था और उसका पदमोत्तर नामक पुत्र और पदमाभा नामक पुत्री थी। श्रीकण्ठ ने अपनी बहिन पद्मोत्तर को न देकर विमलकीति को दी। इससे पुष्प तर क्रोधित हो गया। पारस्परिक दर्शन से श्रीकण्ठ और पद्माभा में प्रेम हो गया। यह जानकर पुष्पोत्तर और भी क्रोधित हो उठा और उसका पीछा किया। श्रीकण्ठ उसे आते देखकर अपने बहनोई विमलकीर्ति (कीतिधवल) की शरण में श्रीलंका पहुंचा। विमलकोति के प्रयास से युद्ध टल गया और दोनों का विवाह हो गया। तब श्रीकण्ठ से विमल कीर्ति ने कहा- विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे अनेक शत्रु हैं । अत : अब तुम यहीं रहो। यह कहकर महाबुद्धिमान आनन्द नामक मन्त्री से विचार - विमर्श कर उसे वानरद्वीप दे दिया। श्रीकण्ठ ससैन्य वानरद्वीप पर राज्य करने चल पड़ा । वानर द्वीप के मध्य किष्कु नामक पर्वत मिला। उसपर विविध प्रकार के सुन्दर वृक्ष दिखाई दिये। श्रीकण्ठ वहां इच्छानुसार क्रीड़ा करता रहा । तदनन्तर वहां उसने क्रीडा करते हुए प्रसन्नचित्त अनेक वानरों को देखा। उनके साथ भी उसने अपना समय बिताया। बाद में उसी पर्वत पर उसने स्वर्गपुरी जैसा किष्कपुर नामक नगर बसाया और वहीं पद्माभा प्रिया के साथ राज्य करने लगा (16)। तदनन्तर श्रीकण्ठ ने वज्रकण्ठ को राज्य देकर मनिदीक्षा ले ली। इसी वंशपरम्परा में अमरप्रभ नामक राजा हुआ । उसने गुणवती से विवाह किया। विवाह के समय अनेक प्रकार के चित्रों के साथ वानरों के भी विविध चित्र विद्याधरियों ने बनाये। उन वानरों के चित्रों को देखकर गुणवत्ती भय से Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंपित हो गयी, मछित हो गयी। उसकी यह अवस्था देखकर अमरप्रभ ने वानरचित्र बनाने वाले को दण्डित करना चाहा पर वृद्ध मन्त्री ने यह समझाया कि ये वानर कुलपरम्परा से मांगलिक चिन्ह के रूप में प्रयुक्त होते आये हैं। इन्हीं के नामपर वानरद्वीप है। श्रीकण्ठ इन वानरों से अत्यन्त प्रेम करते थे। अमरप्रभ यह सुनकर सन्तुष्ट हुआ और वानरों के चिन्ह बनवाकर मुकुट में धारण किया, ध्वजाओं में चित्रित किया। अमरप्रभ के पुत्र कपिकेतु आदि ने भी वानरों को मांगलिक प्रतीक मानकर उनका आदर किया । इसी से वानरवश चला। रावण सुग्रीव, नमि, बिनमि आदि विद्याधर इसी वानरवंश से संबद्ध है (17)। किष्किन्धा नगरी में वालि, सुग्रीव विद्याधर थे। उनकी श्रीप्रभा नामक बहिन थी। श्रीप्रभा को रावण अपनाना चाहता था पर वाली तैयार नहीं हुआ। युद्ध का समय आया तो उसने संसार के स्वभाव का परिज्ञानकर जैन दीक्षा धारण कर ली। फिर सुग्रीव ने श्रीप्रभा को रावण के पास पहुंचा दिया । खरदूषण ने रावण की बहिन चन्द्रनखा का अपहरण कर लिया। एक बार मुनि बाली के प्रताप से रावण का पुष्पक विमान आकाश में रुक गया । तब दशानन ने कैलाश पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंकना चाहा । पर बाली मुनि ने पर्वत को अपने पैर के अंगठे से दबा दिया जिससे दशानन विचलित हो गया। चूंकि संसार को अपने शब्द से शब्दायमान कर दिया था, इसलिए दशानन को तभी से रावण कहा जाने लगा। बालो का यह प्रभाव जानकर दशानन ने उसे प्रणाम किया और विपत्ति से मुक्ति पाई । अग्निशिख नामक राजा ने सुग्रीव के साथ अपनी पुत्री सुतारा का विवाह किया। साहसगति विद्याधर भी तारा के साथ विवाह करना चाहता था पर उसकी अल्पायु जानकर अग्निशिख ने उसे तारा नहीं दी। बाद में रावण के साथ सहस्ररश्मि का युद्ध हुआ और फिर सहस्र रश्मि ने मुनिदीक्षा धारण कर ली। बाली जैसे महामुनि द्वारा सुग्रीव की पत्नी तारा के हरण को बात जो वैदिक पुराणों में कही गई है, कहां तक ठीक है ? सहसगति ने सुतारा को पाने के लिए हिमवत् पर्वत पर विद्या-सिद्धि प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया (18)। एक दिन जब सुग्रीव वनक्रीड़ा के लिए गया था सहस्रगति ने विद्याबल से उसकी प्यारी पत्नी तारा का हरण करने का विचार कर सुग्रीव जैसा ही रूप धारण कर तारा के पास पहुंच गया। इतने में सुग्रीव भी वहां वनक्रीड़ा से वापिस हो गया। वहां वह अपने ही समान कृत्रिम सुग्रीव को तारा के पास बैठा देखकर क्रोधित हो गया। दोनों युद्ध की तैयारी करने लगे। सभी लोग समरूप देखकर किंकर्तव्य विमूढ हो गये । अंग कृत्रिम सुग्रीव के पास गया और अंगद अपनी माता तारा के कहने पर सत्य सुग्रीव के पास गया। सात सात अक्षौहिणी सेना दोनों के पास पहुंच गई। बालि के पुत्र चन्द्ररश्मि (ससिकिरण) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ने यह प्रतिज्ञा की कि जो भी तारा के भवन -द्वार पर जायेगा वह मेरी तलवार से मार दिया जायेगा । यह सुनकर सत्य सुग्रीव विराधित के माध्यम से राम के पास पहुंचा। राम ने उसकी सहायता का वचन दिया। कृत्रिम सुग्रीव के साथ राम, लक्ष्मण और सत्य सुग्रीव का युद्ध हुआ । कृत्रिम सुग्रीव ने सत्य सुग्रीव को घायल कर नगर में प्रवेश किया। फिर उसका युद्ध राम से हुआ । राम को देखकर ही उसकी वैताली विद्या लुप्त हो गई और वह यथार्थं सहसगति के रूप में आ गया और राम के साथ युद्ध करने लगा । राम ने अन्ततः उसका वध कर दिया । सुग्रीव को तारा मिल गई और वह उसके साथ रमण करने लगा । रमण करते करते 'सात दिन में सीता को खोज निकालूंगा' यह प्रतिज्ञा भी वह भूल गया । लक्ष्मण ने जाकर उसको उसकी प्रतिज्ञा का स्मरण कराया । इसके पूर्व सुग्रीव से खर-दूषण का युद्ध हुआ था और सुग्रीव पाताललका चला गया था । बाद में वह राम के पास सहायतार्थ आया था। जाम्बूनद ने उसकी सहायता की थी (19–21)। इस प्रकार परदुःख हारक राम के कारण सुग्रीव को अपनी पत्नी से पुनर्मिलन हुआ। राम ने विट सुग्रीव को मारकर सत्य सुग्रीव का दुःख हरण किया । परदारारमण का वैसा ही फल होता हैं जैसा विट सुग्रीव को मिला । ताराहरण इसी रूप में प्रसिद्ध है । पवनवेग को वैदिक पुराणों में प्रसिद्ध ताराहरण अयुक्त प्रतीत हुआ । वानर उनका हरण करें यह तथ्यसंगत नहीं लगता ( 22 ) । I संधि ९. नवम मनोवेग ने पवनवेग से कहा कि इसी तरह की कुछ ओर वेतुकी पौराणिक कथायें तुम्हें बताता हूँ । यह कहकर उसने श्वेताम्बर वेष धारणकर पटना नगर के छठे द्वार से प्रवेश किया और भेरी बजाकर सिंहासन पर बैठ गया । ब्राह्मण वाद करने आये और उससे नाम, गुरु, देश आदि के विषय में पूर्ववत् पुछने लगे और मनोवेग ने पूर्ववत् ही उत्तर दिया । ब्राह्मणों के आग्रह करने पर मनोवेग ने अपनी कथा सुनाई । कविट्ठखादन] कथा हम लोग ग्वाले के लडके हैं। किसी भय से भयवीत होकर स्वयं ही यह तप ग्रहण किया है । हमारे पिता आभीर देश के मोट्टणु गांव के रहने वाले हैं और भेड़ों (गुटुरधेनु) को पालने का व्यवसाय करते हैं। एक दिन भेड़ों की रक्षा करने वाला नौकर ज्वरग्रस्त हो गया तो हमारे पिता ने हम दोनों भाइयों को वन में भेजा ( 1 ) । उस वन में एक सुंदर कवीठों से लदा कवीठ वृक्ष देखा । मैंने अपने भाई से कहा- तुम भेड़ों को देखो, मैं कवीठ खाकर आता हूँ और तुम्हें भी ले आऊंगा | भाई के चले जाने पर मैंने देखा कि कवीठ का पेड़ बहुत Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ ऊंचा है। उस पर चढ़ना संभव नहीं है । तब मैंने अपने हाथ से शिर को काटकर पेड़ पर फेंक दिया। शिर ने कवीठ खाकर मेरी क्षुधा तृप्ति की और बहुत सारे फल दांतों को तोड़े बिना ही नीचे गिरा दिये । मेरी क्षुधा - पूर्ति देखकर शिर पेड़ पर से नीचे गिरकर मेरे शरीर में पुन: जुड़ गया। फिर मैं उन कवीठों को लेकर भाई को खोजने निकल पड़ा। वहां देखा तो भाई सो रहा था और भेड़ों का कुछ भी पता नहीं था ( 2 ) | भाई को जगाकर मैंने पूछा तो उसने कहा- मुझे भेड़ों के विषय में कुछ भी पता नहीं है । मैं तो यहां पेड़ के नीचे सो गया था। इसी बीच भेड़ें कहां गईं, नहीं मालूम । यह जानकर मैं बहुत भयभीत हो गया और भाई से कहा कि अब हम लोग घर कैसे जायेंगे बिना भेड़ों के । पिताजी कोवित होंगे और पीटेंगे | अतः अपने देश न जाकर श्वेताम्बर साधु का भेष धारण कर, शिर मुड़ाकर, कंबल और लाठी ( करदण्ड) लेकर आज हम आपके नगर में आये हैं । यह हमारा कुल परम्परागत धर्म है। इसमें पूरा सुख भी है । ब्राह्मणों ने कहातुम लोग तपस्वी का भेष धारण किये हो और असत्य बोलते हो ( 3 ) । रावण दस शिर कथा श्वेतपटधारी मनोवेग ने कहा- रावण ने त्रिलोकाधिपति शिव की विविध भावों से अर्चना की और अपने नौ मस्तक काटकर वर याचना की । फिर वीस हाथों से उसने दिव्यनाद हस्तक नामक संगीत पैदा किया। तब महादेव ने पार्वती की ओर से अपनी दृष्टि हटाकर उसकी ओर देखा और वरदान दिया । रावण ने उसी से अपने शिरों को अपने कंधों पर चिपका लिया ( 4 ) | रामायण में यह सब लिखा है या नहीं ? जब रावण के कटे हुए नौ शिर संघटित हो सकते हैं तो क्या मेरा एक शिर संघटित नहीं हो सकता ? यदि शिव में शिर जोड़ने की शक्ति होती तो तपस्वियों द्वारा काटा गया अपना लिंग नहीं जोड़ लेते ? यह सब मात्र भ्रम है ( 5 ) । दधिमुख और जरासन्ध कथा मनोवेग ने पुनः अन्य पुराणों की भी इसी तरह की वेतुकी बातों को स्पष्ट किया । उसने कहा - श्रीमित्रा नामक ब्राह्मणी के दधिमुख नामक पुत्र था । उनका केवल मस्तक था, हाथ-पैर नहीं था । वह श्रुति-वेद का ज्ञाता और धर्म का आचरणक था । एक दिन अगस्त्य मुनि को आया हुआ देखकर उसने उनसे विनम्र अनुरोध किया कि हे मुनिवर, आप कृपया मेरे घर भोजन कीजिए | अगस्त्य मुनि ने कहा- तुम्हारा घर कहां है ? घरवाला वही कहलाता है जिसमें महिला हो । तुम्हारे पिता का घर तुम्हारा घर नहीं है । अतः कुमारावस्था में दान नहीं दिया जा सकता है । तब दधिमुख ने अपने माता-पिता से कहा कि वे उसका Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह कर दें। माता-पिता ने कहा-तुम्हें अपनी पुत्री कौन देगा? फिर भी प्रयत्न करके बहुत सारा धन-पैसा देकर किसी निर्धन की पुत्री के साथ विवाह कर दिया (6) । दधिमुख ने माता-पिता से कहा- मैं तो अशरीरि होने के कारण कुछ कर नहीं सकता अतः उसका भरण-पोषण आपको ही करना होगा । माता-पिता ने कहा-जो हमारे पास अर्थ संचित था वह तुम्हारे विवाह में समाप्त हो गया। अतः अब तुम अपनी पत्नी का भरण-पोषण स्वयं करो। दधिमुख ने अपनी पत्नी से कहा- माता-पिता ने अपने को घर से निकाल दिया है। अब बाहर रहकर जीवन व्यतीत किया जाये । असम्मान पूर्वक जीना भी कोई जीना है। यह सब सोचकर पत्नी ने दधिमुख का मस्तक छीके में रखकर सभी को दिखाते हुए नगर-ग्राम में घूमने-फिरने लगी और भोजन-वस्त्र मांगती हुई उज्जयिनी नगरी में पहुंची। वहां अपने पति सहित उस छींके को कैरों की झाड़ी पर अथवा जुआड़ी घर की खंटी पर (टिंटामंदिरु) रखकर वह नगर में भिक्षा के लिए चली गई। इसी बीच बहां दो जुआरियों में युद्ध हो गया। दोनों ने एक दूसरे के शिर काट दिये (2)। दोनों जुआरियों के वे सिर नीचे गिर गये । उनकी तलवारों के लगने से दधिमख का छींका भी नीचे कटकर गिर गया। वह गिरते ही एक घड़े पर निःसंधि रूप लग गया। शिर के जुड़ जाने से वह काम करने में भी समर्थ हो गया। मनोवेग ने कहा कि क्या वाल्मीकि का यह वर्णन सही है ? ब्राह्मणों ने कहायह बिलकुल सही है। तब मनोवेग ने कहा-यदि दधि मुख का शिर जुड़ सकता है तो मेरे शिर के जुड़ने में आपको सन्देह क्यों हो रहा है ? रावण ने तलवार से अंगद के दो टुकड़े कर दिये फिर हनुमान ने उन्हें कं से जोड़ दिया एक दानपति ने पूत्र-प्राप्ति के निमित्त देवी की उपासना की। देवी ने प्रमन्न होकर एक गोली दी और कहा कि यदि इस गोली को तुम अपनी पत्नी को खिला दोगे तो उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी (8)। ___ दानवेन्द्र की दो पत्नियां थीं। उसने दोनों को आधी-आधी गोली दे दी। फलतः दोनों गर्भवती हो गई । पूर्णमास होने पर उन्हें अर्धाग-अर्धाग पूत्र हए । तब उन दोनों ने उन्हें निरर्थक समझ कर फेंक दिया। जरा (बुड्ढी) नाम की देवी ने उन दोनों खण्डों को मिलाया तो दोनों खण्डों से एक पुत्र हो गया। वह बडा प्रसिद्ध योद्धा बना । उसी को जरासन्ध राजा के नाम से लोग जानने लगे (9-10)। पौराणिक कथाओं की समीक्षा हे ब्राह्मणों, जब घाव रहित शरीर के दो भाग जुड़कर एक हो गये तो मेरा मस्तक उसी समय का कटा होने पर भी क्यों नहीं जुड़ सकेगा? पार्वती का पुत्र कार्तिकेय (षडानन) छः भागों से जोड़कर बनाया गया है तब मेरे कट Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ हुए शिर का जुड़ना संभव क्यों नहीं ? अंगद, जरासंध आदि कथाओं में कहां तक प्रामाणिकता हो सकती है ? तुम्हारी बात सही और मेरी बात गलत, ऐसा क्यों ? ब्राह्मणों ने कहा- यह मान भी लिया जाये, पर यह कैसे हो सकता है कि तेरा शिर (मुण्ड ) वृक्ष पर फल खाये और नीचे तेरा पेट भर जाये? मनोवेग ने कहा- इस लोक में विप्र श्राद्ध के समय भोजन करते हैं और परलोक में अशरीरी पिता, पितामहादि की तृप्ति होती है तो मेरा शरीर मुण्ड के अधिक निकट रहते मेरी तृप्ति और उदर पूर्ति क्यों नहीं हो सकती ? कविट्ठखादन भी कैसे असत्य कहा जा सकता है ? रावण आदि की कथायें भी इसी तरह असंबद्ध प्रलापमात्र हैं ( 11 ) । श्वेतपटधारी मनोवेग की ये बातें सुनकर विप्रगण गंभीरता पूर्वक उनपर विचार करने लगे । निरुत्तर भी हो गये और सोचने लगे- सुशास्त्र, सुधर्म और सुलिंग (सुदेव) मोक्ष के कारण हैं। जहां स्वभावतः विरोध हो वहां इनमें मेल कैसे हो सकता है ? जहां सुधर्म होता है वहां कर्म नहीं रहता, जहां अहिंसा होती है वहां हिंसा भाव नहीं होगा । अठारह दोषों से मुक्त अपरिग्रही सुदेव सम्यग्ज्ञानधारी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । जिन्हें स्व और पर का भेदविज्ञान नहीं होता तथा सुदेव, सुशास्त्र, सुगुरु उपलब्ध नहीं होते उन्हें सांसारिक दुःखों से मुक्ति नहीं मिल पाती ( 12 ) | यह निश्चित जानकर व्यक्ति कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को छोड़ देता है, उनकी भक्ति से दूर हो जाता है । नरकतिर्यंच गति के दुःख भी उससे छूट जाते हैं । जहां जिनदेव और जिनगुरु तथा जिनशास्त्र हैं वहां व्यक्ति मोक्ष पा लेता है । मोक्ष का लक्ष्य बनाये बिना रक्तवस्त्र पहिनना, जटाजूट धारण करना, मासोपवास करना, चंद्रायण व्रत रखता, दण्ड धारण करना, शिर मुंडन करना आदि सब कुछ मात्र शरीर को प्रताड़ना देना है । सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती (13)। पुराणों में इसी तरह की और भी बेतुकी बाते हैं । सौधर्म स्वर्ग के निर्दोष इन्द्र को दूषित बता दिया जबकि इन्द्र नामका कोई विद्याधर दूषित हुआ था । जो सौधर्म स्वामी इन्द्र सत्तावीस कोटि देवों द्वारा पूजित है, सभी सुर-असुर जिसकी सेवा करते हैं वह अहल्या से दूषित कैसे हो सकता है ? और फिर देव और मनुष्यनी का संबन्ध कभी नहीं हो सकता । सहस्रयोनि की बात कहना भी विचित्र लगता है । कुन्ती द्वारा कर्ण को सूर्य के संपर्क से पैदा करना आदि कथन भी इसी प्रकार असत्यता से भरे हुए हैं ( 14 ) । इक्ष्वाकुवंशीय प्रतिवासुदेव जरासंध अतुल तेजधारक था, वालि भी चरमदेही थे जिनका राम द्वारा वध बताया गया। एक समय कैलाश पर्वत पर वालि मुनि ध्यानस्थ थे । वहीं से रावण का विमान निकला और वह अटक गया। इसके Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૪ कारण रावण विद्याबल से कैलास पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंकने के लिए तत्पर हुआ । वालिमुनि ने अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया जिससे दुःखी होकर रावण रो पड़ा। ऐसे वालिमुनि तथा रावण के विषय में व्यास ऋषि ने काफी ऊटपटांग लिख दिया है ( 16 ) | भय से कंपित हो गई। उसने रावण की यह अवस्था देखकर मंदोदरि अपने पति रावण की ओर से क्षमायाचना की। रावण की मानकषाय का यह फल था । वाली चरमशरीरी था । उसके विषय में सुग्रीव की पत्नी की ओर कुदृष्टि रखने जैसी बात को जोड़ देना निश्चित रूप से असत्य कथन है । रावण बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय हुआ और रुद्र चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के समय हुआ । इन दोनों का सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ( 17 ) ? धर्म का महत्त्व क्या है ? उत्तम क्षमा से इसी तरह हरि और हर में भी भेद नहीं किया । यदि हिंसा से ही स्वर्गमोक्ष मिलता है तो लोग दुःख सहन क्यों करेंगे ? यदि वृक्ष के नीचे ही फल मिल जाता है तो वृक्ष पर चढ़ने की आवश्यकता ही धर्म होता है । मार्दव से अभिमान का दमन होता है, आर्जव से कुटिलता, सत्य से हितभाषी दिखनेवाला असत्य कथन, शौच से लोभकषाय, संयम से जीवरक्षा, सम्यक् तप से निरर्थक आतपन, त्याग से आरंभ, आकिंचन से शरीर मोह, ब्रह्मचर्य से कामवासना शान्त होती है । इस प्रकार जिनमुनियों के संसर्ग से निर्मल दस धर्मों की उत्पत्ति होती | अतः व्यक्ति को हिंसा आदि भावों से दूर रहना चाहिए ( 8 - 20 ) 1 बारह भावनाओं का अनुचितन शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए आवश्यक है । यह जीव नव मास तक गर्भ में रहा और फिर इसी प्रकार जन्म-मरण की प्रक्रिया में दौड़ता रहा । अनेक बार स्वर्ग में पहुंचा, क्षीरसमुद्रजल लाकर अभिषेक किया, समवशरण में गया फिर भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाया। सुर-तर जिनके पंचकल्याणक करते हैं, चौतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य जिनके होते हैं, जो त्रिभुवन के नेत्र हैं, निर्मल मणि रत्न हैं, अज्ञानान्धकार के विनाशक है, षड्रिपुओं को जिन्होंने दूर कर दिया है ऐसे जिनेन्द्र देव की उपासना शाश्वत सुखदायी हैं ( 21-25) ) | १०. दसम संधि कुलकर व्यवस्था पुनः उपवन पहुंचकर मनोवेग ने मित्र पवनवेग से प्रश्न किया-धर्म क्या है ? मनोवेग ने उत्तर दिया- सुनो। इस भरतक्षेत्र में दो काल होते हैंउत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । प्रत्येक काल के छः भेदे होते हैं- सुखमा- सुखमा, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखमा, सुखमा-दुःखमा, दुःखमासुखमा, दुःखमा, व दुःखमा-दुःखमा। ये भेद उत्सपिणीकाल के हैं और इन छहों काल के व्यतीत हो जाने पर एक कल्पकाल होता है । अवसर्पिणी काल में इनका क्रम उल्टा हो जाता है। प्रथम तीनों कालों में व्यक्ति का जीवन कल्पवृक्षों पर निर्भर रहता था। अतः इसे भोगभूमि कहा जाता है। यहां अत्यन्त सुन्दर स्त्री-पुरुष युगल पैदा होता है और उसके उत्पन्न होते ही उसके माता - पिता काल कवलित हो जाते हैं। तीसरे काल के अंत में जब एक पत्य का आठवा भाग शेष रह जाता है तो उस काल में चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं । वे कर्मभूमि की व्यवस्था बताते हुए असि मसि, कृषि, वाणिज्य विद्या और शिल्प की शिक्षा देते हैं। चौदह कुलकरों के नाम है- प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाह, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित और नाभि राजा । अंतिम कुलकर नाभिराजा और मरुदेवी से ऋषभनाथ नामक प्रथम तीर्थकर हुए (1) । तीर्थंकर ऋषभदेव और संस्कृति संचालन पहले जीव युगल रूप में उत्पन्न होते थे और वैसे ही च्युत होते थे। वे युगल 49 दिनों में समस्त भोग भोगने में समर्थ हो जाते थे। कल्पद्रुम धीरे-धीरे समाप्त होते गये और अंतिम कुलकर ऋषभदेव ने कर्मभूमि का पाठ पढ़ाते हुए षडविद्याओं की शिक्षा दी । इन्द्र ने कच्छ राजा की नन्दा और सुनन्दा के साथ उनका विवाह कर दिया। उन दोनों स्त्रियों से उनको ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दो कन्यायें तथा सौ पुत्र हुए (2) । अठारह कोडाकोड़ी सागर तक उन्होंने राज्य किया। एक दिन भगवान के सन्मख देवियों का नृत्य हो रहा था। उस समय नाचते-नाचते नीलांजना देवी अदृश्य हो गई, चल बसी। यह देखकर भगवान ऋषभदेव को संसार से वैराग्य होगया। फलतः अपने राज्य को भरत के लिए समर्पित कर निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली। दुस्सह परिषहों को झेलते हुए उन्होंने निवृत्ति मार्ग की सार्थकता पाई (3) । भगवान के साथ ही अन्यान्य राजाओं ने भी तपग्रहण किया। परन्त थोडे ही समय बाद पथभ्रष्ट होने लगे । उनका आचरण शिथिल हो गया। किसी देवता ने उन्हें उनके दिगम्बर स्वरूप का ध्यान कराकर इस शिथिलता से मक्त होने का आग्रह किया । यह सुनकर कितने ही नरेन्द्र अपने घर वापिस हो गये, कितने ही अप्राशुक जलादि पीते हुए संकोचवश पाखण्ड भेष मे ही बने रहें और कछेक भरत चक्रवर्ती के भय से भगवान का साथ नहीं छोड़ सके । कच्छ महाकच्छ राजा ने पाण्डित्य के गर्व से कन्दमूल भक्षण करना, बक्कल पहिनना ही तापसीय धर्म बताया। मारीचिने सांख्यमत की प्ररूपणाकर कपिलादि शिष्यों को उपदेश दिया। इस प्रकार 363 मिथ्यात्व प्रचलित हो गये। भगवान ऋषभदेव ने यह सब देखकर शुद्धान्न ग्रहण करने का मानस बनाया। पूर्वजन्म के प्रभाव Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने आहारविधि पूर्वक उन्हें इक्षुरस का भोजन कराया। उस समय भरत चक्रवर्ती ने रत्नत्रय से युक्त उत्तम श्रावकों को ब्राह्मण वर्ण के रूप में स्थापित किया । परन्तु कालान्तर में वे अपने कुलधर्म को भूल गये और पाखण्डमय आचरण करने लगे । अश्वमेध, नरमेध, राजसूय आदि यज्ञ करने लगे । सारस, मेरुण्ड आदि पक्षियों को मारकर भक्षण करने लगे, रोहित मच्छ आदि को भी मारकर खाने लगे। गोमेध, पशुमेध, पशुहोम आदि हिंसक कार्यों में प्रवृत्त हो गये । अभक्ष्य भक्षण मद्यपान, परदारासेवन आदि जैसे गहित कार्य करने लगे। वेद अक्षुण्ण प्रमाण हैं, अविनाशी हैं यह मानने लगे । वासुदेव कृष्ण के शव को छः माह तक भ्रातृमोह के कारण छ: माह तक रखे रहे, इसलिए कंकालव्रत प्रारंभ हो गया । इसी प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ की तीर्थ में शुद्धोदन राजा हुए। उन्होंने भी अशुद्धाहार लेना प्रारंभ कर दिया। मछली, मांस आदि भक्षण करना भी उन्होंने विहित मान लिया। फिर जिन शासन से पृथक् होकर उन्होंने बौद्धधर्म की स्थापना की (4-10)। पवनवेग का हृदय परिवर्तन ___इस प्रकार धर्मपथ पाकर और मिथ्यात्व का वर्णन सुनकर पवनवेग ने मनोवेग से कहा- मित्रवर, अभी तक मैं अन्धकार में था। अब मुझे विवेक रखना होगा। तुम मेरे परममित्र हो, परमस्वामी हो, बंधु हो, गुरु हो, मेरा मिथ्यात्व तुमने दूर कर दिया है, दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति तुम्हारे कारण हुई है, मैं अब जैन धर्म ग्रहण करना चाहता हूँ। वे लोग धन्य हैं जो जिनेन्द्र के गुणों का श्रवण करते हैं, जिनधर्म का पालन करते हैं और विमल चित्त में परोपकार के भाव को लिये रहते हैं। यह सोचकर उन्होंने उज्जयिनी नगरी में केवलज्ञानी मुनि के पास पहुंचने का निश्चय किया (12) । यह निश्चय कर दिव्याभूषणों से युक्त वे दोनों दिव्य विमान से निर्मल ज्ञानी मुनिचंद्र (जिनमति?) के पास पहुंचे। उन्हें प्रणामकर वे उनके पास बैठ गये । मनोवेग ने मुनिराज से कहा- यह हमारा परममित्र पवनवेग है । पाटलिपुत्र में वेद-पुराणों की सत्य-असत्य कथाओं को सुनकर मिथ्यात्व की ओर से इसका मन विरक्त हो गया है और इसने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया है। अब इसे ऐसा उपदेश दीजिए जिससे यह व्रताभरण से भूषित हो जाये (13) । मुनिवर ने उसके निवेदन पर पवनवेग को श्रावकवतों का वर्णन किया। श्रावकव्रत हे पवनवेग, तुम अब श्रावकवतों को ग्रहण करो। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पंचाणुव्रतों का पालन करो। पंच उदम्बर फलों Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. (वड़, पीपर, कटहल, गूलर, उमरफल) को मत खाओ। मधुभक्षण, मद्यपान तथा मांस भक्षण मत करो, इन आठ मल गुणों का पालन करो। दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्ड व्रत तथा चार शिक्षाक्तों को ग्रहण करो । चार शिक्षाव्रतों में प्रथम है-जिनवन्दना । संयम धारण करने के लिए तथा शुद्ध भाव प्राप्त करने के लिए उत्तर दिशा में मुंह करके जिन प्रतिमा के सामने खड़े होकर क्रियापूर्वक जिनवन्दना करो। यही सामायिक है। दिन में तीन बार सामायिक करना उसका उत्तम प्रकार है और दो बार तथा एक बार सामायिक करना क्रमशः मध्यम तथा जघन्य प्रकार है। सप्तमी और त्रयोदशी के प्रातःकालीन भोजन के बाद अष्टमी और चतुर्दशी का उपवास करना, रात्रिभोजन न कर प्रोषधोपवास करना । कृषि वाणिज्य से मुक्त रहना भी उपवास है। प्रोषधोपवास का तात्पर्य है- पर्व के दिनों चारों प्रकार का आहारत्याग करना और प्रोषध का अर्थ है- दिन में एक बार भोजन करना। श्रावकों और मुनियों को शुद्धाहार देना अतिथिसंविभागवत है । इस प्रकार तीन शिक्षाक्त हैं (14)। भूमिशयन, स्त्रीपरिहरण, जिनमदिर गमन, जिनपूजन भी इन व्रतों के पालन करने के लिए आवश्यक है- स्नान कर, प्रासुक जल लेकर, शुद्ध वस्त्र पहिन कर अष्टविध पूजन करना चाहिए। भोगोपभोग परिमाण व्रत चतुर्थ शिक्षावत है। मरणकाल में बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर शुभ भाव से मृत्युवरण करना सल्लेखना है। इसे भी चतुर्थ शिक्षाव्रत माना जाता है। रात्रिभोजन त्याग भी चार शिक्षाक्तों में संमिलित किया जाता है (15) । मधु बिन्दु का उदाहरण पीछे दिया है । ससार में यथार्थ सुख नहीं है, मधुबिन्दु जैसा क्षणिक सुख मात्र है, सुखाभास है । परद्रव्यहरण में मृत्यु हो जाती है, परदारारमण में दुःख प्राप्त होता है, बहुपरिग्रही होने पर निद्रा नहीं आती। यह सब इहलोक के दुःख हैं । परलोक के दुःखों का वर्णन ही क्या किया जाये! वे तो इहलोक के कृत्यों पर निर्भर करते हैं। यह सुनकर पवनवेग ने सहर्ष श्रावकव्रत ग्रहण किये। ११. ग्यारहवीं संधि ___ इन श्रावकव्रतों का फल है अमित सुख और शान्ति । इसका उदाहरण यह दिया गया है । जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र में मेवाड़ नाम का एक देश है। वह बड़ा सुन्दर है । उसमें उज्जयिनी नाम की एक सुन्दर नगरी है। उसमें पांच सौ विशाल जिनमंदिर है । उस नगरी में वानरकुल स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करते हैं । मनमोहक निर्झर हैं, कामिनियां क्रीड़ारत है, चित्ताकर्षक कूप-तड़ाग हैं (2)। वहां प्रचंड नामक राजा और उसकी प्रियगौरी नामक महारानी थी। उसके श्रीपाल नामक मन्त्री और उसकी धनमति नाम की पत्नी थी। वह एक दिन Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ रात्रि में जिनमंदिर के दर्शन करने गई । फिर पुत्रों ने रात्रिभोजन मांगा पर धनमति ने उन्हें रात में भोजन नहीं दिया बल्कि उन्हें रात्रिभोजन त्याग का आग्रह किया । फलतः उन्हें कालान्तर में विपुल संपत्तिलाभ हुआ (3)। एक रथनपुर नामक सुन्दर नगर है। प्राकार और गोपुरों से सुसज्जित है। पर वहां एक दोष है और वह यह कि जिनधर्म का पालन लोग वहां नहीं करते हैं, विषयासक्त है। वहां का राजा प्रचण्ड है जो शत्रुओं के लिए वज्रदण्ड है। वहां एक वणिक् आया जिसके पास अपार धनसंपत्ति थी। उसी नगर में एक वेताल आया जो कपाल आदि धारणकर नृत्य करता था। उसने वणिक् को फुसलाकर उसे रात्रिभोजन कराकर उसके सारे धन का अपहरण कर लिया (4-6)। वणिक् ने यह वृत्तान्त राजा से कहा । राजा ने उस वेताल को दण्डित किया और वणिक् ने रात्रिभोजन का त्याग किया। रात्रिभोजन करने से पशु-पक्षी योनि मिलती है। जन्म-जन्मान्तर तक दुःख प्राप्त होते हैं। इस संदर्भ में यहां अनेक छोटी-छोटी कथायें दी गई हैं (8-10) । अतिथिदान व्रत कथा के संदर्भ में नागश्री द्वारा दिये गये मुनियों को आहारदान का फल वणित है। पंचणामोकार मंत्रस्मरण के फल का भी उल्लेख है । अभयदान, औषधिदान आदि से संबद्ध कथायें भी यहां संक्षेप में है। ये कथायें अन्तर्कथाओं में जुड़ी हुई हैं (11-22)। बाद में शिक्षाव्रतों की महिमा का आख्यान करते हुए मानव जीवन में जिनधर्म की उपयोगिता के संदर्भ में कवि अपने विचार व्यक्त करते हुए कहता है कि उसका पालक अहिंसक, विनयी और भेदविज्ञानी होता है (23-25)। अन्त में हरिषेण कवि ने अपनी प्रशस्ति और धर्मपरीक्षा लिखने का उद्देश्य स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है- मेवाड़ में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) का मैं निवासी हूं उजौर (ओजपुर) से उद्भूत धक्कड़ मेरा वंश है। इसी वंश में हरि नामक एक कलाकार थे। उनके पुत्र गोवर्धन हुए और गोवर्धन का पुत्र में हरिषेण हूं। मेरी माता का नाम गुणवती है। यहीं कवि ने अपने दो विशेषण दिये हैं- गुणगणनिधि और कुल गगन दिवाकर । मैं किसी कारणवश चित्तौड़ से अचलपुर पहुंचा और वहीं छन्द-अलंकार का परिज्ञान कर धम्मपरिक्खा की रचना की । कवि ने स्वयं को 'विषुह-कइ-विस्सुउ' भी कहा है (26)। इसके पूर्व के कडवक में कवि ने सिद्धसेन की धरणवन्दना की है। धम्मपरिक्खा की रचना वि. सं. 1044 में हुई। बुध हरिषेण ने सोचा कि जो किसी ग्रन्थ की रचना करे, भगवान की भक्ति करे, परदुःख दूर करे वह धन्य है। यही सोचकर धम्मपरिक्खा की रचना की है । जो उसे भक्तिभाव से पढेगा, निर्मलचित्त होकर श्रवण करेगा उसका मन शान्त हो जायेगा (27) । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार बुध हरिषेण कृत धम्मपरिक्खा की ग्यारहवीं संधि यहां समाप्त हो जाती है। ५. कथावस्तु का महाकाव्यत्व भाषा और शैली हरिषेण ने अपनी धम्मपरिक्खा ग्यारह सन्धियों में पूरी की है। प्रत्येक संधि में लगभग सत्रह से सत्तावीस कडवक हैं और कुल कडवक है 238 - 1-20, II - 24, III - 22, JV - 24, v - 20, VI – 19, VII - 18, VIII - 22, IX - 25, X - 17, और XI - 27. इन कड़वकों का कुल ग्रन्थ श्लोक प्रमाण है 2070. इनमें पौराणिक आख्यानों की समीक्षा करने का मूल उद्देश्य आदि से अन्त तक रहता है । इस दृष्टि से सारी सन्धियां विषय की अपेक्षा से पारस्परिक गुथी हुई हैं। उनमें नायक कोई एक ही व्यक्तित्व भले ही न हो पर अन्तर्कथाओं में विभिन्न नायकों के व्यक्तित्व को स्पष्ट अवश्य किया गया है । ये नायक पौराणिक क्षेत्र में विश्रुत हैं। काव्य में शान्त रस है, छन्दों में वैविध्य है, चतुर्पुरुषार्थों की यथास्थान भूमिका है, सज्जन-दुर्जत प्रशंसा है, प्राकृतिक चित्रण है । इन सारी दृष्टियों से धम्मपरिक्खा को महाकाव्य की श्रेणी में बैठाने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा है। महाकाव्य की पारंपरिक परिभाषा के सांचे में एकाध बिन्दु पर भले ही हमारा निष्कर्ष मेल न खाता हो पर समग्र दृष्टि से देखे जाने पर प्रस्तुत ग्रन्थ को महाकाव्य की संज्ञा दी जा सकती है। विजयार्धपर्वत, (1.3), वैजयन्ती नगरी (1.4), अवन्ति देश (1.9), उज्जगिनी नगरी (1.10-11), पाटलिपुत्र वर्णन (1.18), मनोवेग और पवनवेग का रूप वर्णन (2.2-3) जिनेन्द्र गुणों की विशेषतायें (5.18-20), मेवाड़ वर्णन (11.1) आदि प्रसंगों में सुन्दर काव्यत्व दिखाई देता है । धम्मपरिक्खा की भाषा परिमार्जित और शैली प्रभावक है। जिस विषय को एक श्लोक में अमितगति ने कहा है उसी को हरिषेण ने एक पद में कह दिया है । कवि की यह संक्षिप्त शैली कही दूभर नहीं हुई बल्कि उसने अनावश्यक विस्तार को कम किया है । लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों का प्रयोग करके काव्य में और भी सरसता ला दी है। इसलिए यह काव्य 'मनोहर' बन गया है । सुरबिन्दु (45), एवं (4.6), गुरुचरणारविन्द (2-23) जैसे कुछ संस्कृत शब्द भी यथावत् इस महाकाव्य में प्रयुक्त हुए है। धम्मपरिक्खा की रचना प्रमुख रूप से सोलह मात्रिक पज्झटिका (पद्धडिया) छदों में हुई है। बीच-बीच में भुजंगप्रयात, रजओ आदि छन्दों का भी प्रयोग हुआ है । समवृत्त मात्रिक और वाणिक छन्दों ने काव्य में और भी सरसता ला दी है । घत्ता के साथ ही कहीं-कहीं ध्रुवक भी मिल जाते हैं। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. मिथकीय कथा तत्त्व तथा कथानक रूढियां धम्मपरिक्खा में कोई एक कथा नहीं है बल्कि अनेक ऐसी कथाओं का आकलन है जो या तो पौराणिक हैं या फिर उन्हें अविश्वसनीय सिद्ध करने के लिए कल्पित कथाओं का आश्रय लिया गया है। ये पुराकथायें लोकानुभूति और अलौकिकता से संश्लिष्ट रहती हैं। धीरे-धीरे अन्धविश्वास और अतव्य से उनकी कथारूपता दबती चली जाती है और रहस्यात्मकता तथा लाक्षणिकता का आवरण बढ़ता चला जाता है। प्राचीन साहित्य में उपलब्ध देवता, राक्षस. गन्धर्व, यक्ष, किन्नर आदि से संबद्ध कथानक इसी कोटि में आते हैं । इन्हीं को आज मिथक कहा जाने लगा है। उनका आविर्भाव भले ही विवादग्रस्त हो पर इसमें किसी को संदेह नहीं होगा कि जब इस प्रकार की पुरा कथाएँ भाषा का माध्यम लेती हैं तब वे एकांगी, तर्कहीन और मिथ्या जान पड़ती है। पौराणिक कथाएं, निजन्धरी कथायें और दन्त कथायें ऐसी ही मिथकीय कथायें हैं जिन्हने प्रतीक विधान और बिम्बयोजना के परिपुष्टि में सप्रेषणीय तत्त्व को आगे बढ़ाया है। श्रीमती लेंगर ने ऐसी कथाओं को धर्म के साथ जोड़कर उनकी अति. प्राकृतिकता को स्वीकार किया है। कतिपय विद्वानों ने ऐसी कथाओं के पीछे ऐतिहासिकता को भी खोजने का आग्रह किया है । ऐसी ही कथाओं को साहित्यकार अपनी कल्पनाशक्ति से समृद्ध कर उन्हें अभिव्यक्ति का साधन बना लेता है। सारे वैदिक आख्यान ऐसे ही मिथकीय तत्त्व हैं जिनपर साहित्य की एक लम्बी परम्परा खड़ी हुई है। जैन और बौद्ध साहित्य में भी ऐसी कथाओं की कमी नहीं है । सृष्टि, मुत्यु, लिपि, पर्वत, नगर, जगत, जीवन, पशु, पक्षी आदि से संबद्ध कथायें लगभग सभी धर्मों और धर्मग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं। उन्हीं कथाओं पर विशाल महाकाव्यों किवा प्रबन्काव्यों की रचना होती रही है। भक्ति तत्त्व से आदृत होकर इन कथाओं ने जन साधारण में अपनी लकप्रियता भी पा ली है। वैदिक साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि मूलतः तीन देव थेब्रह्मा, विष्णु और महेश । इन तीनों देवताओं के साथ शक्ति के रूप में क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी तथा गौरी संबद्ध है । बाद में यजुर्वेद में देवताओं की संख्या बारह हो गई है- अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वात, वसव, रुद्र, आदित्य, मरुत, विश्वदेव, इन्द्र, वहस्पति और वरुण । यहीं फिर अवतारकल्पना ने जन्म लिया। इन सभी से नतन कल्पनाओं के साथ मिथक कथाएँ बनती रहीं। पशु, पक्षियों का संबन्ध भी प्रतीकात्मक रूप में उनसे जुड़ता गया । स्वर्ग, नरक तथा विचित्र भौगोलिक चित्रण ने एक नयी परम्परा प्रारम्भ कर दी। इन सभी मिथक प्रथाओं ने मिलकर नैतिक-अनैतिक तत्त्व की व्याख्या समाज को दी और Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक तत्वों से मिश्रित होकर समाज रचना में अमूल्य सहयोग दिया। हरिषेण की धर्मपरीक्षा में ऐसी ही मिथक कथाओं का बाहुल्य है। उनका विश्लेषण करनेपर निम्नलिखित प्रमुख मिथकीय कथातत्त्व तथा कथानक रूढियां दृष्टिगत होती है 1. अप्राकृतिक, अतिप्राकृतिक तथा अमानवीय तत्त्व 2. आश्चर्यकारी कल्पनायें 3. लोक-मनोरंजक चित्रण 4. लोक-कथाओं का रूपान्तरण 5. लोकानुरंजन 6. कौतुहल प्रदर्शन 7. कामुकता और शृंगारिकता 8. अन्तर्कथात्मकता 9. पूर्वजन्मसंस्कार 10. लोक जीवन चित्रण 11. लोककल्याण भावना 12. धर्म श्रद्धात्मक तत्त्व की पृष्ठभूमि में अताकिकता 13. उपदेशात्मकता 14. परम्परा का संवर्धन 15. लोक विश्वास 16. तंत्र मंत्रात्मकता 17. ऋद्धि-सिद्धि और चमत्कार प्रदर्शन 18. अविश्वसनीयता और अतिरंजनता 19. लोकचित्त को आन्दोलित करना 20. मिथ्यात्व का स्पष्टीकरण 21. सज्जन-दुर्जन संगति का फल इन मिथकीय तत्त्वों के आधार पर धम्मपरिक्खा में समागत कतिपय वैदिक आख्यानों को यथारूप में प्रस्तुत करना उपयोगी होगा। इस दृष्टि से अब हम इन आख्यानों पर किञ्चित् प्रकाश डालते हैं। ७. वैदिक आख्यानों का प्रारूप मण्डप कौशिक कथा (4.7-12) इस कथा का संबन्ध 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति सिद्धान्त' से है जो आरण्यक और उपनिषदों में प्रतिफलित हुआ। मण्डप कौशिक मूलतः ब्रह्मचारी थे पर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ वृद्धावस्था में इस सिद्धान्त के कारण ऋषियों ने उनको निष्कासित कर दिया । फलतः किसी विधवा से उन्होंने संबन्ध किया और उससे छाया नाम की सुन्दर कन्या हुई । इसी प्रसंग में शिव का और गंगा शारीरिक सम्बन्ध बताया है । पुराणों के अनुसार छाया विश्वकर्मा की पुत्री और संज्ञा की अनुचरी थी। संज्ञा सूर्य की पत्नी और यम तथा यमना की माता थी। सूर्य का तेज न सहन करने के कारण वह अपने पुत्रों को छाया के पास छोड़कर पिता के घर चली गई । छाया ने इन पुत्रों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । फलतः उसे उसने विकलांग होने का अभिशाप दिया। पुराणानुसार गंगा हिमालय की पुत्री है । ऐसी प्रसिद्धि है कि गंगा पहले स्वर्ग में थी। सगर के पुत्रों की रक्षा की दृष्टि से भगीरथ उसे पृथ्वी पर ले आये । इसलिए उसे 'भागीरथी' कहा गया । गंगा जब स्वर्ग से गिरी थी तब पृथ्वी बह न जाये यह सोचकर शंकर ने उसे अपनी जटा में रोक रखा था । गंगा को इसी से शंकर की पत्नी कहा गया है । तिलोत्तमा कथा (4.13) विश्वकर्मा ने ब्रह्मा की आज्ञा से विश्व सुन्दरी अप्सरा तिलोत्तमा का निर्माण किया। इन्द्र ने उसे ब्रह्मा के पास उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। तिलोत्तमा ने अपने रूप से ब्रह्मा को आकृष्ट कर लिया। मत्स्यपुराण के अनुसार इनके चार मुख थे जिनसे नर्तकी तिलोत्तमा के रूप को निहारते थे। उसके आकाश में जाने पर उन्होंने अपना पंचम मुख गधे का बनाया । देवों ने उपहास किया तब उन्हें खाने के लिए ब्रह्मा ने कोपवश इसी पंचम मुख का उपयोग किया । यह देख कर महादेव ने उस मुख को काट दिया । बाद में कहा जाता है कि ब्रह्मा ने रीछनी के साथ संभोग किया जिससे जांबव नामक पुत्र हुआ । ब्रह्मा के साथ ऐसी अनेक कथायें जुड़ी हुई हैं । कहा जाता है, सरस्वती, सावित्री, गायत्री श्रद्धा और मेघा इन पांच पुत्रियों में से सर्वाधिक सुन्दरी पुत्री गायत्री पर वे आसक्त हो गये। वह मगी बनकर भाग गई । ब्रह्मा फिर मृग बनकर उसके पीछे दौड़े । तब शिव ने म गबधिक का रूप धारण कर उन्हें रोका (ब्रह्मपुराण, 102) । अन्ततः पुत्री गायत्री ब्रह्मा की पत्नी बनी (भागवत. 1-18.14; 3-8, 22-32; 9-1.24; 29-44; 10-3.6, 8.13-26)। 1. भागवतपुराण, 8-13 8-10; मत्स्य. 11.5-9; 248.73; वायु. 84.39-77. 2. ब्रह्मा. 3.59: 32-77; भागवत. 6-6-41. 3. वायु. 42.39-40; 71-5; 4. महाभारत, आदिपर्व, 210.4-83; 5. भागवत. 1-3.2; मत्स्यपुराण. 1.14; 2.36; 260.40; महाभारत, वनपर्व, 276.6-7; पौराणिक कोश Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र भी तिलोत्तमा के रूप से मोहित होकर सहस्रनेत्र हो गये (महाभारत, आदिपर्व, 210.27) । गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या पर इन्द्र ने बलात्कार किया था। फलत. विश्वामित्र के शाप से उनके अण्डकोश समाप्त हो गये (महा. शान्तिपर्व 342.23)। यम ने भी छाया तथा सप्तर्षियों की पत्नियों का उपभोग किया (महा. वनपर्व, 224-33-38) । यमराज, मरुत और अग्निदेव भी कामवासना से दग्ध हुए बिना नहीं बच सके । शिश्नश्छेदन कथा (5.1) ___ ब्रह्मा महादेव के विवाह में पुरोहित बने। वहां पार्वती के करस्पर्श मात्र से उनका वीर्यस्खलन हो गया (महा. अनु. 85-9-192)। महादेव ने ऋषिकन्याओं के नृत्य करते समय उनका आलिंगन किया जिससे कुपित होकर ऋषियों ने उनका शिश्नच्छेदन कर दिया (महा. सौप्तिक, 17.21) । अग्नि और वायु ने शिव के वीर्य को धारण किया (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 36.5-29)। इसी तरह अहल्या ने इन्द्र को, छाया ने यमराज ओर अग्नि को और कुन्ती ने सूर्य को कामवासना में प्रवृत्त किया। खरशिरश्छेदन कथा (5.6-7) इस कथा का सम्बन्ध रुद्र से है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा की भौहों से उत्पन्न ये एक क्रोधात्मक देवता हैं जिनसे भूत, प्रेत, पिशाचादि उत्पन्न माने जाते हैं । इनकी संख्या ग्यारह है- अज, एकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, त्रयम्बक, महेश्वर, वृषाकपि, शम्भु, हरण और ईश्वर । गरुण और कूर्मपुराण में कुछ और ही नाम मिलते हैं । शिवपुराण (7.24) के अनुसार दैत्यों को समाप्त करने के लिए शिव ग्यारह रुद्रों के रूप में वसुधा के गर्भ से उत्पन्न हुए। ये ग्यारह रुद्र है- कपाली, पिंगल, भीम, विलोहित. शस्त्रभृत, अभय, अजपाद, अहिबध्न्य, शंभु, भव और विरूपाक्ष । खरशिरश्छेदन कथा का सम्बन्ध कदाचित अन्तिम रुद्र से रहा है । इस कथा में आयी चतुर्मुख और पंचममुख की कल्पना तिलोत्तमा के रूप को देखने के प्रसंग में उल्लिखित कर ही दी गई है (महाभारत, आदिपर्व, 210-22-28) उसी का कुछ परिवर्तित रूप इसमें मिलता है। राजसूय यज्ञ से पूर्व जरासंध को जीतना आवश्यक था। युधिष्ठिर जब निरुत्साहित दिखे तो अर्जुन ने तदर्थ उत्साहित करने के लिए गाण्डीव धनष के द्वारा तीक्ष्ण बाणों से पृथ्वी को भेदकर रसातल में जाकर दस करोड़ सेना सहित शेषनाग और सप्तषियों को ले आये (महाभारत, सभापर्व . 16.3) इसी का उल्लेख हरिषेण ने किया है (5-13) । - ऋग्वेद (7.33-13) के अनुसार अगस्त्य ऋषि मित्र-वरुण के पुत्र थे । उर्वशी को देखकर जब वे कामपीड़ित हुए तो उनके वीर्यपात से अगस्त्य ऋषि का जन्म Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ । हुआ (महा - शान्ति, 342.51 ) सन्तान पाने की कामना से उन्होंने लोपामुद्रा को उत्पन्न किया और उसी को बाद में अपनी पत्नी बनाया। उसी से दृढस्यु पुत्र का जन्म हुआ (महा - वनपर्व, 96-99 ) । तारक तथा दूसरे असुरों द्वारा संसार का कष्ट देखकर एक बार अगस्त्य समुद्र को चुल्लु में भरकर पी गये जिससे उनका नाम 'समुद्रचुलुक' और 'पीताब्धि' पड़ गया (भागवत. 4-1-36; महा. वन 105.3-6 ) । कमण्डल और घट से इनकी उत्पत्ति हुई थी । सृष्टि को उन्होंने कमण्डलु में समाहित कर लिया था ( भाग. 6 - 18.5; ब्रह्मा, 4–5–38; मत्स्य . 61.21-31; 2 1.29; 202.1 ) ब्रह्मा की मूर्ति चतुर्मुख, पद्मासनासीन और सरस्वती तथा सावित्री से युक्त होती है ( मत्स्य. 260.40 266.42; 284.6) 1 भागीरथी और गांधारी कथा (7.9-10 ) भगीरथ राजा अंशुमन के पुत्र दिलीप का पुत्र था । अपने पितरों- सगरपुत्रों का उद्धार करने के लिए वह गंगा को पृथ्वी पर ले आया । उसी गंगा ने पाताल लोक में पहुंचकर सगर पुत्रों का उद्धार किया । भगीरथ की पुत्री होने के कारण गंगा भागीरथी कहलाई । वही भागीरथी राजा के उरु पर बैठने के कारण उर्वशी कहलाई । भगीरथ की उत्पत्ति दो स्त्रियों के परस्पर स्पर्श मात्र से हुई थी (महा. वन, 25 108.9; शिवपुराण 11.12; भागवत. 9.9.2-13; ब्रह्मा. 3.54.48-51; वायु 47.49 आदि.) । गांधारी के विषय में ऐसी ही कथा प्रचलित है । गांधारी फनस वृक्ष का अलिंगन करने से गर्भवती हो गई । व्यास से सौ पुत्रों की याचना वह पहले ही कर चुकी थी। गांधारी के गर्भ से एक मांस पिण्ड का प्रादुर्भाव हुआ जिसके सौ टुकड़े किये गये और उन्हीं टुकड़ों से दुर्योधन आदि सौ पुत्रों की उत्पत्ति हुई ( महा. आदि. 114 - 8; 115 119; भाग 9.22.26; मत्स्य. 50.47-48; आदि) । मंदोदरि मय दानव तथा रंभा की पुत्री थी । पुराणानुसार मय एक प्रसिद्ध दानव था ( वाल्मिकी रामायण, 52.8 - 12 ) । उसकी वीर्य मिश्रित कोपीन का जलपान करने से मेंढकी गर्भवती हुई जिसे कहा जाता है मय सात, हजार वर्ष तक स्तम्भित किये रखा। बाद में उससे मंदोदरि उत्पन्न हुई ( भाग. इसी से फिर वही इन्द्रजित 7.18 ) । वही बाद में रावण की पत्नी बनी। नामक पुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ (महा. वन पराशर ऋषि और योजनगंधा ( 7.14-15 ) 285.8 ) । . पराशर ऋषि वसिष्ठ के पौत्र और शक्ति तथा अदृश्यन्ती सत्यवती के पुत्र थे । बारह वर्षों तक माता के गर्भ में रहकर उन्होंने वेदाभ्यास किया था जन्म Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेते ही वे तपस्वी हो गये थे (महा. आदि. 176-15)। धीवर कन्या सात्यकी पर आसक्त होने के कारण उन्होंने उसे मत्स्यगन्धा से योजनगन्धा और अक्षतयोनि का वरदान दिया। इसी के गर्भ से व्यास ऋषि का जन्म हुआ। इसी का विवाह भीष्म पितामह के पिता शान्तनु से हुआ (महा. आदि. 63.70-84; ब्रह्मा. 4.4.65-6; वायु. 61.47 आदि। उद्दालक और चन्द्रमती कथा उद्दालक आयोदधौम्य ऋषि के शिष्य अरुणि पांचाल का ही दूसरा नाम है । इन्हीं का पुत्र अष्टावक्र था । स्वप्न में स्खलित हुए इनके वीर्य को गंगा में एक कमल पर रख दिया गया जिसे रघु की पत्नी चन्द्रमती ने सूंघ लिया जिससे तत्क्षण गर्भाधान हो गया। उससे तृणबिन्दु ऋषि के आश्रम में नागकेतु का जन्म हुआ। कहा जाता है उद्दालक ने वहीं चन्द्रमती मे उसको कुमारी बनाकर विवाह कर लिया (महा. आदि. 3.21-32; वन, 132.1-9; वायु. 41.44; वाल्मीकि रामा उत्तरकाण्ड, सर्ग 2.3)। रावण की दसानन कथा (7.16-17) ___रावण विश्रवा का पुत्र था। तपस्या से प्रभावित होकर इसे शिव से दश शिर मिले (महा. वन. 275.16-251। यही शिर उसने अपने कंधों पर चिपका लिये । उसने अपनी ही पुत्र वधु नलकूबर की पत्नी रंभा से हठात् संभोग किया। इसी तरह पुंजिकस्थला नामक अप्सरा से भी बलात्कार किया जिसके कारण ब्रह्मा ने उसके सिर के सौ टुकड़े हो जाने का अभिशाप दिया (वा. रा. युद्ध काण्ड, 13.11-14, सर्ग 111) ८. जैन पौराणिक विशेषतायें हरिषेण ने धर्मपरीक्षा में पौराणिक कथाओं की यथास्थान जैन दृष्टिकोण से समीक्षा की है। अमितगति की धर्मपरीक्षा में यह समीक्षा और अधिक गहराई से मिलती है। उदाहरणार्थ- विष्णु पर प्रश्नचिन्ह (H. 3.21; A. 10.21-40; विष्णु की कामुकता (H. 4.9-12; A. 11.26-28), ब्रह्मा और तिलोत्तमा का सम्बन्ध : H. 4.13-16; A. 11.29-47), ब्रह्मा और विष्ण की कथाओं पर प्रश्नचिन्ह (H. 3. 16-20; A. 13.37-102; 15. 56-66), राम कथा समीक्षा (H. 8.11; A. 16.1-21). पौराणिक कथाओं की व्याख्यात्मक समीक्षा (H. 9.4-5; A. 16.44-57; H.9.11-12; A. 16.58-84; H. 9.14; A. 16.99-100; H. 9.18-25; A. 16. 102-104; 17 वां परिच्छेद । इनमें की गई पौराणिक समीक्षा को विषयवस्तु में पाठक देख सकते हैं। उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। इस समीक्षा को देखने से इतनी बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जंनाचार्यों Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ने वैदिक पुराणगत अतिरंजित तत्वों को व्यावहारिक स्तर पर खड़े होकर नकार दिया है और उन्हें मानवीय तत्वों के आधार पर मोड़ दिया है । इतना अवश्य है कि महापुरुषों की व्यक्तित्व-शृंखला से जुड़कर इन कथाओं ने विद्याधरी कथाओं के रूप में अतिरंजित तत्त्वों को किसी सीमा तक बनाये भी रखा है। इस अस्वाभाविकता को दूर करने के लिए आचार्यों ने पूर्वोपार्जित कर्मों के फल को प्रदर्शित किया है। पौराणिक आख्यान महाकाव्यों के साथ ही प्रेमाख्यानक काव्यों की भी इसी से मिलती-जुलती एक लम्बी शृंखला जैन साहित्य में मिलती है। __ लगभग सारी पौराणिक कथाओं का आकलन रामायण और महाभारत के आख्यानकों में समाहित हो जाते हैं। रामायण को पद्मचरित तथा महाभारत को हरिवंश अथवा पाण्डव पुराण के रूप में व्याख्यायित किया गया है । त्रेसठ महाशलाका पुरुष तथा विशिष्ट जैन नायक-नायिकाओं के चरित भी इन्हीं पौराणिक कथाओं की सीमा में आ जाते हैं। महाभारत के पात्रों में हरिवंश कुलोत्पन्न बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्ण तथा उनके समकालीन पाण्डव और कौरवों का वर्णन है तथा रामायण के पात्र उनसे पूर्ववर्ती बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के काल में हुए हैं। महाभारत कथा की अपेक्षा रामकथा में परिवर्तन जैन परम्परा में अधिक हुआ है। अतः उस पर कुछ विशेष चर्चा आवश्यकता है। दधिमख और जरासन्ध कथा (9.6-10) दधिमुख नामक एक ब्राह्मण पुत्र (या नागवंशी) था। उसका केवल मस्तक था, हाथ-पैर नहीं थे । अगस्त्य मुनि के आग्रह पर उसने किसी तरह निर्धन कन्या से विवाह किया। वह कन्या उसको छीके पर रखकर भिक्षा मांगने लगी। जरा नाम की राक्षसी ने उस मस्तक के दोनों खण्ड़ों को जोड दिया जिससे उसका नाम जरासन्ध हो गया। (भाग. 9.22-8; 10.50-21: 71-3; 72-42; चण्डकौशिक मुनि द्वारा कृपा पूर्वक दिये गये फल का माताओं द्वारा भक्षण किये जाने पर पर उसका जन्म हुआ था (महा. सभा. 17.29) । बृहद्रथ ने आम दिया जिसे चण्डकौशिक ने आधा-आधा अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फलतः दोनों ने आधे-आधे बालक को जन्म दिया। दोनों ने उन्हें चौराहे पर फिकवा दिया। उन्हीं दोनों को जरा राक्षसी ने जोड़ दिया (महा. सभापर्व, 14.29-70)। 1. इन सभी के उद्धरणों के लिये देखिए- महाभारत की नामानुक्रमणिका, गोखपूर, सं. 2016; पौराणिक कोश, वाराणसी; भारतीय मिथक कोश, डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति, दिल्ली, 1986; वैदिक कोश-सूर्यकान्त, वाराणसी, 19631 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजधरी कथायें पौराणिक संदर्भो में इन आख्यानों को देखा जाये तो पाठक को पुराणों के स्वरूप का सहजता पूर्वक आभास हो जायेगा। उनमें अतिरंजनाओं से भरी घटनाओं का बहुल्य है जिनपर विश्वास करना कठिन हो जाता है । मनोवेग ने ऐसे ही कतिपय आख्यानों का उल्लेख किया है और उनका खण्डन करने के लिए निजंधरी अथवा उन्हीं से मिलती-जुलती कल्पित कथाओं की रचना कर मनोवेग ने वादशालाओं में विप्रों के सामने प्रस्तुत की । ऐसी कथाओं में मार्जार कथा (4:3-7), जल शिला और वानर नृत्य कथा (5.8-9), कमण्डलु और गजकथा (5.10-12), वृहत्कुमारिका कथा, (7.2-6), और कविट्ठ खादन कथा (9.1-3) प्रमुख कथायें हैं । मनोवेग ने इन कथाओं की समीक्षा करने के पूर्व दस मूर्ख कथायें प्रस्तुत की। ग्रन्थ की प्रारम्भिक, द्वितीय और तृतीय सन्धियों में और उन्हें मधुबिन्दु का दृष्टान्त देकर मिथ्यात्व भाव की भूमिका पर संपुष्ट किया। जैन साहित्य में राम कथा धम्मपरिक्खा में राम-रावण कथा का भी उल्लेख आया है । आदिकवि वाल्मीकि के शब्दों में "रामो विग्रहवान् धर्मः" राम धर्म की प्रत्यक्ष मूर्ति हैं। इस धर्म मूर्ति का पौराणिक व्यक्तित्व सौजन्य और शौर्य-वीर्य के कारण जनमानस का श्रद्धास्पद प्रेरणास्रोत रहा है। ऐसे अजेय व्यक्तित्व को किसी धर्म, समाज अथवा राष्ट्र की कठोर सीमा में बांधना हमारा कदाग्रह होगा । इसलिए रामकथा देश-विदेश के कण कण में मिश्रित हो चुकी है और उसका ऐक्य रूप पाना संभव नहीं है। भारतीय साहित्यकार ने हर नये युग में उसे नया काव्यात्मक परिधान दिया और प्रतीक का एक ऐसा लोकप्रिय माध्यम बनाया जिसे यथेच्छ कल्पनाओं की कूची से युगधर्म के अनुसार चित्रित किया जा सके। जैन परम्परा में 63 शलाका पुरुष माने जाते हैं जिनमें 24 तीर्थंकर 12 चक्रवर्ती, 9 वलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रति-वासुदेव परिगणित हैं। इनमें राम, आठवें बलदेव और लक्ष्मण, आठवें वासुदेव तथा रावण, आठवें प्रतिवासुदेव हैं । वासुदेव सदैव प्रतिवासुदेव का घातक हुआ करता है । जैनाचार्यों ने रामकथा पर पर्याप्त साहित्य सृजन किया है । इसमें यतिवृषभ की तिलोय पण्णत्ति, विमलसूरि का पउमचरिय, संघदास की वासुदेवहिण्डी, रविषेण का पद्मपुराण, शीलाचार्य का च उपन्नमहापुरिसचरिय गुणभद्र का उत्तरपुराण, हरिभद्र का वृहत्कथाकोष, पुष्पदन्त का महापुराण, भद्रेश्वर की कहावली, और हेमचन्द्र का त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित प्रमुख हैं । हिन्दी में तो और अधिक लिखा गया है। इन ग्रन्थों में रामकथा के मुलतः दो रूप मिलते हैं Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम रूप विमल सूरि के पउमचरिय में मिलता है जिसका अनुकरण रविषेण, स्वयम्भू, शीलाचार्य, भद्रेश्वर, हेमचन्द, धनेश्वर, देवविजय और मेघविजय ने किया है और द्वितीय रूप मिलता है गुणभद्र के उत्तरपुराण में जिसका अनुसरण पुष्पदन्त और कृष्णदास ने किया है। इन दोनों रूपों की संक्षिप्त कथा क्रमशः इस प्रकार है । इनमें प्रथग रूप इस प्रकार है __ श्रीलंका के राजा रत्नश्रवा के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम थे। रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण तथा पुत्री का नाम था चन्द्रनखा। ये सभी राक्षसवंश के थे। राक्षस नहीं थे, विद्याधर जाति के मानव थे। इन्द्र, वरुण आदि देवता भी यहां विद्याधर ही बताये गये हैं। रावण का सम्बन्ध मन्दोदरि से और चन्द्रनखा का सम्बन्ध खरदूषण से होता है। चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा के साथ हनुमान विवाहे जाते हैं। इन सभी को जैन धर्म का पालन करनेवाला बताया गया है। रावण की मृत्यु दशरथ व जनक की सन्तान के हाथ होगी यह जानकर विभीषण दोनों को मारने आता है। इधर नारद दशरथ और जनक दोनों को सचेत कर देते हैं। फलस्वरूप वे अपने पुतले महल में छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। विभीषण उन्हें सही मानकर मारकर चला जाता है । दशरथ कैकेयी के स्वयम्बर में जाते हैं और उसे अपनी पत्नी बनाते हैं। बाद में होने वाले युद्ध में कैकेयी दशरथ की भरपूर सहायता करती है। इसलिए दशरथ उसे एक वरदान देते हैं । जनक के भामण्डल नाम का पुत्र और सीता नाम की पूत्री होती है। चन्द्रगति नाम का विद्याधर भी मण्डल को हर ले जाता है। यवक होने पर नारद सीता के प्रति मोह उत्पन्न कराता है । चन्द्रगति जनक से भी मण्डल के लिए सीता की याचना करता है। जनक इसके पूर्व ही उनके यज्ञ की रक्षा करने वाले दशरथ पुत्र राम को सीता देने का संकल्प कर च के थे। इस असमंजस को दूर करने के लिए चन्द्रगति एक धनुष देकर सीता स्वयम्बर का आयोजन कराता है । उसमें राम धनुष चढ़ाकर सीता का वरण करते ह। साथ ही सीता और भामण्डल का बहिन-भाई के रूप में मिलन होता है। दशरथ और भरत को दीक्षित होता जानकर दोनों से संयोग बनाये रखने की दृष्टि से कैकेयी दशरथ से वर प्रदान के उपलक्ष्य में भरत को राज्य देने के लिए कहती है। राम भरत को समझाकर उसे राज्याभिषिक्त करते हैं और स्वयं लक्ष्मण तथा सीता के साथ वनवास के लिए प्रस्थान करते हैं। अपराजिता और सुमित्रा का पुत्र-वियोगजन्य दुःख देखकर कैकेयी सन्तप्त हो जाती है और राम को लौटाने का प्रयत्न करती है । परन्तु राम प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं। इसी वनवास में अनेक राजाओं का मान मर्दन करते हुए वे दण्डकारण्य पहुंच जाते Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ हैं । लक्ष्मण की वीरता तथा सुन्दरता से प्रभावित होकर उसे अनेक राजा अपनी कन्या दान करते हैं । एक समय दैविक तलवार की शक्ति देखने से लक्ष्मण झुरमुट काटता है परन्तु असावधानता वशात् शम्बुक का शिर कट जाता है । शम्बुक की माता चन्द्रनखा दुःखित होती है परन्तु राम-लक्ष्मण के रूप को देखकर मोहित हो है और प्रणय प्रस्ताव रखती है । असफल होने पर ख दूषण से युद्ध होता है । रावण भी सहयोग के लिए पहुंचता है। सीता के रूप पर मुग्ध होकर वह सिंहनाद कर उसे हरण कर लेता है। सीता न पाकर राम विहवल हो जाते हैं । इधर विट- सुग्रीव को पराजित कर वानर सुग्रीव को उसकी पत्नी तारा वापिस कराते हैं । सुग्रीव के आदेशानुसार हनुमान सीता की खोज करने लंका जाते हैं | लक्ष्मण द्वारा रावण का वध होता है और राम, लक्ष्मण तथा सीता अयोध्या वापिस पहुंचते हैं । तत्पश्चात् भरत और कैकेयी जिन दीक्षा ग्रहण करते हैं। राम स्वयं राज्यासीन न होकर लक्ष्मण को अभिषिक्त करते हैं । कुछ समय बाद सोता गर्भवती होती है परन्तु लोकापवाद से उसका निष्कासन कर दिया जाता है । संयोगवश पुण्डरीकपुर का राजा सीता को वहिन रूप में पालन, पोषण तथा संरक्षण करता है। वहीं लवण और अंकुश का जन्म होता है । कालान्तर में राम से इन दोनों बच्चों का युद्ध होता है और उसी के अन्त में पिता-पुत्र मिलन हो जाता है । सीता अग्नि परीक्षा में निष्कलंक सिद्ध हो जाती है परन्तु वह गृहस्थावस्था में प्रविष्ट न होकर जिन दीक्षा धारण करती है और तपकर सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न होती है । लक्ष्मण के आकस्मिक मरण से राम उन्मत्त से हो जाते हैं और लक्ष्मण का शव लेकर इधर उधर भटकते हैं । मनोद्वेग शान्त होने पर जिन दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। इन्हीं प्रसंगों में अनेक उपकथायें आती हैं जिनका अनेक दृष्टियों से महत्व उपलक्षित होता है । रामकथा की दूसरी परम्परा मिलती है गुणधर के उत्तरपुराण में जिसका अनुगमण किया है पुष्पदन्त और कृष्णदास ने । इस परम्परा के अनुसार दशरथ की चार पत्नियां थीं । प्रथम सुबाला और कैकेयी ये दो पत्नियां थीं जिनसे क्रमशः राम और लक्ष्मण उत्पन्न हुए। बाद में दो विवाह और हुए जिनसे भरत और शत्रुघ्न पैदा हुए । सीता जन्म के विषय में यहां बताया गया है कि रावण ने एक समय afar की पुत्री मणिमति की तपस्या में विघ्न उपस्थित करने का प्रयत्न किया । मणिमति ने निदान बांधा कि मैं आगामी जन्म में मन्दोदरि की पुत्री होऊं और रावण के वध का कारण बनूं । ज्योतिषियों से यह बात जानने पर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण उस बालिकाको मञ्जूषा में रखकर मारीच से मिथिला में गड़वा दिया । किसी को हल चलाते समय वह मंजूषा मिली । जनक ने उस बालिका को पाला-पोसा और सीता नाम रखा। बाद में यज्ञ रक्षा करने के बाद राम का सम्बन्ध सीता से होता है । वनवास काल में रावण सीता का रूप देखकर मुग्ध हो जाता है । मारीच स्वर्णमृग का रूप धारणकर राम को दूर भगा ले जाता है। इस बीच रावण सीता का हरण कर लेता है । अन्त में सीता के आठ पुत्र बतायें हैं। वहां सीता त्याग का तो कोई उल्लेख है ही नहीं । यह अवश्य बताया है कि जिन दीक्षा लेकर सीता स्वर्ग गई और राम ने निर्माण पाया । दोनों जैन परम्पराओं में भेदक तत्व 1. विमलसूरि के लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र हैं, तथा भरत कैकेयी के, परन्तु गुणधर ने लक्ष्मण को कैकेयी सुत बताया है । विमलसूरि ने राम को अपराजित पुत्र लिखा है परन्तु गुणधर ने सुबला पुत्र । 2. विमलसूरि की सीता जनकपुत्री है परन्तु गुणधर ने सीता को मन्दोदर से उत्पन्न लिखा है । 3. विमलसूरि के राम एक ही पत्नी वाले हैं परन्तु गुणधर ने राम के सात विवाह और करवाये हैं । 4. विमलसूरि ने वाल्मीकि की तरह राम का राज्याभिषेक और कैकेयी के कारण उनका वनवास लिखा है परन्तु गुणधर ने इन दोनों प्रसंगों को प्रायः छोड़-सा दिया है । 5. विमलसूरि ने सीता हरण का कारण रावण का उनके रूप पर मुग्ध हो जाना बताया परन्तु गुणधर ने इस प्रसंग को उपस्थित करने में नारद को कारण रूप में उपस्थित किया है । 6. सीता की अग्निपरीक्षा का उल्लेख विमलसूरि ने तो किया है परन्तु गुणधर ने सीता-त्याग का प्रसंग ही नहीं रखा । 7. विमलसूरि की सीता, लवण और अंकुश इन दो पुत्रों की माता है परन्तु गुणधर ने सीता के आठ पुत्र बताये हैं । वैदिक परम्परा और जैन परम्परा में कुछ मूलभेद 1. सीता का एक सहोदर भामण्डल था जो अज्ञानता और परिस्थितियोंक्श सीता से ही विवाह करने का इच्छुक था । वाल्मीकि रामायण में यह प्रसंग है ही नहीं । यज्ञरक्षा के पुरस्कार स्वरूप जनक ने राम को सोता देने का निश्चय पहले 2. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही कर रखा था। सीता-स्वयम्बर तो बाद में हुआ। वैदिक रामायण में ऐसा नहीं है। 3. राम का वनवास स्वेच्छानुसार सोलह वर्ष का था परन्तु वाल्मीकि के रामायण में वनवास का कारण कैकेयी की आपत्ति थी और यह वनवास चौदह वर्ष का था। 4. राम वन-गमन पर दशरथ ने जिन दीक्षा ली, उनकी मृत्यु नहीं हुई। जबकि वैदिक रामायण में दशरथ की मृत्यु बतायी गई है। 5. वनमाला आदि अनेक उपाख्यानों का वाल्मीकि रामायण में अभाव है। 6. जैन रामायण में शूर्पणखा के स्थानपर चन्द्र नखी नाम दिया है और उसे रावण की बहन तथा खरदूषण की पत्नी बताया है। नाक काटने का प्रसंग भी वहां नहीं मिलता। 7. जैन परम्परा में लंका दहन का उल्लेख नहीं है। 8. कैकेयी का स्वयम्बर, राम द्वारा अनेक राजाओं को अपने आधीन करना तथा लव-कुश का राम से युद्ध होना वाल्मीकि रामायण में नहीं। जैन परम्परा की कुछ मूल मूत विशेषतायें जैनाचार्यों ने इन परम्पराओं को अतर्कसंगत और अविश्वसनीय घटनाओं से दूर रखने का प्रयत्न किया और उन्हें यथार्थवाद के आधार पर बुद्धिसंगत बनाया। इसके साथ ही मानव-चरित्र को अधिक से अधिक ऊंचा उठाने का भी संकल्प किया। १. यथार्थवाद ___ 1. रावण वस्तुतः राक्षस नहीं था, वह तो हम आप जैसा मानव था । उसका मल वंश विद्याधर था जो विद्याओं का स्वामी था, आकाशगामिनी आदि अनेकानेक विद्यायें जिन वंशजों के पास रहा करती थी। इसी वश से राक्षस और वानर वंश का उद्भव हुआ । 2. राक्षस वंश की उत्पत्ति तब हुई जब विद्याधर वंशीय राजा मेघवाहन को लंकादि द्वीपों का राज्य दिया गया। इन द्वीपों की रक्षा करने के कारण उसके वंशजों को राक्षस वंशीय कहा गया है। 3. हनुमान वगैरह कोई बन्दर नहीं थे । ये तो विद्या सम्पन्न मानव थे जो वानर कूल में उत्पन्न हुए थे। इस वंश का प्रारम्भ अमरप्रभ से हुआ है जिसने वानर आकृति को राज्यचिन्ह की मान्यता दी और उस राज्यचिन्ह को अपने मकट आदि में अंकित कराया। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ 4. रावण के दश मुंह नहीं थे किन्तु उसके हारमें उसी को दश आकृतियां दिखाई दी थीं। इसीलिए दशानन नाम पड़ा । 5. दशरथ के साथ कोई देवासुरों का संग्राम नहीं हुआ। वह संग्राम तो कैकेयी स्वयम्बर के बाद उसमें पराजित राजकुमारों से हुआ था । 6. सीता की उत्पत्ति न पृथ्वी से हुई, ने किसी कमल से और न अग्नि अथवा किसी ऋषि से । वह तो शुद्ध वीर्यं रजजात कन्या थी । 7. हनुमान ने कोई पर्वत नहीं उठाया था । वे तो विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सक को घायल लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए ले आये थे । 8. ये मात्र अन्धविश्वास और भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली कथायें हैं fe कुम्भकर्ण छह माह सोता था और करोड़ों महिष खाता था । कूर्म ने यदि पृथ्वी को धारण किया तो उस समय उसके स्वयं का आधार क्या रहा होगा ? राम यदि त्रिभुवन भर माप करके भी अधिक होते हैं तो रावण सीता को कहां ले जा सकता है ? रावण का पुत्र इन्द्रजित अपने पिता से किस प्रकार अवस्था में बड़ा रहा ? विभीषण आज भी कैसे जीवित है ? इस प्रकार के और भी अनेक प्रश्न हैं । वस्तुतः ये कथायें निराधार हैं । सच बात तो यह है कि इस प्रकार की कथाओं का आकलन वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों धाराओं में मिलता है । यह सब शायद भक्तिवश ही होता रहा होगा | २. मानव चरित्र जैनाचार्यों ने स्त्री-पुरुष के चरित्र को परिस्थितियों के अनुसार निखारने का प्रयत्न किया है । उदारता दशरथ को अपयश से बचाने के लिए राम स्वेच्छा से वनवास जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं। भरत के लिए भी जिन दीक्षा धारण न कर प्रजा पालन करने के लिए आदेश देते हैं । विद्या साधन में मग्न रावण को विभीषण के सुझाने पर भी डिगाते नहीं । अग्नि परीक्षा के बाद क्षमायाचना करते हैं । वालि-वध का प्रसंग उपस्थित ही नहीं होने देते । लक्ष्मण भरत वगैरह को नष्ट करने के लिए कहते हैं परन्तु राम ऐसा न करने के लिए लक्ष्मण को समझाते हैं । विन्ध्य के पार जलशून्य प्रदेश में एक ब्राह्मण ने सीता से राम मादि सभी के गृह प्रवेश के समय भला-बुरा कहा । लक्ष्मण जब उसे मारने तैयार हो जाते हैं तब राम कहते हैं कि श्रमण ब्राह्मण आदि हन्तव्य नहीं हैं समजा व बह्मणा वि गो पसु इत्थी या वालया वुड्ढा । जइ विहु कुणन्ति दोसं तह विय ए ए न हन्तब्वा ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह राम वालिखिल्य राजा से रुद्रमति नामक म्लेच्छ राजा को बन्धन मुक्त करने के लिए कहते हैं। भ्रातृत्वभक्ति अतिवीर्य भरत से यद्ध करना चाहता था। वनमाला ने आकर राम को इस बात की सूचना दी । राम चिन्तित हो उठे । वनमाला ने सान्त्वना दी और जाकर अतिवीर्य को नृत्य करते समय पकड़ लिया। राम उसे जिनमन्दिर में ले आये। जिन भगवान की पूजन की और उससे कहा- तुम भरत के भृत्य रूप रहकर कौशल में रहो- "भरहस्स होहि भिच्चो. गच्छ तुम कोसला नयरी।" भाई के प्रति यह ममत्व प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बनाये रखना बहुत बड़ी बात है । लक्ष्मण भी इसी प्रकार राम के प्रति और गुरुजनों के प्रति भी सदैव विनयी रहते हैं। अन्य विशेषतायें ___ रावण को भी जैनाचार्यों ने एक प्रखर विद्वान और धार्मिक नेता के रूप में चित्रित किया है। उपरम्भा का प्रणय-प्रस्ताव ठुकरा कर रावण एक आदर्श प्रस्तुत करता है। रावण का व्रत था- "अपसन्ना परमहिला न य भोत्तव्वा सुरूवा वि" । इसीलिए सीता का हठात् उपभोग उसने नहीं किया। जैनाचार्यों ने वालि और सुग्रीव के बीच कोई स्त्री विषयक संघर्ष का उल्लेख नहीं किया। इसलिए वालि पर कोई चारित्र विषयक लाञ्छन नहीं है। हनुमान के चरित को भी उनके कार्यों से उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न किया गया है। कैकेयी अपने वियोगी जीवन को स्वस्थ बनाये रखने के लिए भरत को राज्याभिसिक्त करने का प्रस्ताव करती है। परन्तु परिणाम देखकर अत्यन्त पश्चात्ताप करती है। अन्ततः राम को वापिस बुलाने के लिए जाती है और राम से नारी स्वभाव की चंचलता का आख्यान करती है। सीता का चरित भी उन्नत है। अग्नि परीक्षा के समय राम को उद्बोध करती है। राम के सादर आग्रह करने पर भी गृहस्थावस्था में न आकर जिनदीक्षा ले लेती है। ३. जैनत्व समूची रामकथा को जिस प्रकार वाल्मीकि ने हिन्दुत्व से रंग दी है उसी प्रकार जैनाचार्यों ने जैनत्व उसमें कूट कूट कर भर दिया है। राम दर्शन के समय कपिल से कहा जाता कि जो अणुव्रत धारण करने वाला हो, जिसे जिन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रोक्त धर्म में विश्वास हो, सुशील हो, राम उसका अनेक द्रव्यों द्वारा सन्मान करते हैं - सो पूइज्जयि पुरिसो पउमेण अणेगदव्वेणं, पउमचरिय-35-38. जिनभक्त वज्रकर्ण का राम-लक्ष्मण ने पक्ष लिया। पउमचरिय में कहा गया है कि रामगिरि जिसे हम आज रामटेक के नाम से जानते हैं, पर रामचन्द्र जी ने जन चैत्यालय बनवाये थे। इस नगर का परिकर मन हर था जो वंशस्थलपुर के स्वामी सुरप्रभ के अधिकार में था। दण्डकारण्य में जैन शासनधारी मुनियों का आवास बताया गया है। जरायु ने भी, कहा जाता है, जैन व्रत लिये थे। रावण भी प्रतिदिन जिनेन्द्र पूजन करने वाला महाविद्वान महात्मा था। जैनधर्म विश्व को जड़-चेतन रूप से अनादि-अनन्त मानता है किन्तु उसका विकास कालचक्र के आरोह-अवरोह क्रम से उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप में परिवर्तनशीलता लिये हुए है। इसी क्रम में वंशों, मनुओं और वंशानुचरितों का भी वर्णन जैन परम्परा में मिलता है । लोक स्वरूप का वर्णन भी इसी प्रसंग में जैनाचार्यों ने अपने पौराणिक ग्रन्थों में किया है। लोकतत्वों को अपनी परम्परा में रंग देने की यह परंपरा उस समय सभी संप्रदायों में प्रचलित थी। जैनाचार्यों ने भी इस परम्परा का अच्छा अनुकरण किया है । वह इतिहास-संमत कहां तक है, कहना कठिन है। ६. समसामायिक अवस्था कवि की समसामायिक अवस्था उसके साहित्य में प्रतिबिम्बित हए बिना नहीं रहती। हरिषेण की धम्मपरिक्खा यद्यपि विवरणात्मक रचना है जिसमें उन्होंने पौराणिक आख्यानों की समीक्षा की है फिर भी यत्र-तत्र समसामायिक अवस्था का चित्रण उपलब्ध हो जाता है। उसमें उन्होंने अपनी यात्रा के प्रसंग में भौगोलिक स्थिति का चित्रण कर पर्वत और वनों, तथा देशों और नगरों के सामान्य रूप को प्रस्तुत किया है तो साथ ही सामाजिक और धार्मिक स्थिति के ऊपर भी किञ्चित् प्रकाश डाला है। दसवीं-ग्यारहवीं सदी का भारत किस अवस्था में था, विशेषतः धार्मिक क्षेत्र में, इसकी एक झलक धम्मपरिक्खा में दिखाई दे जाती है। कथा का प्रारम्भ अजातशत्रु से होता है। यहां उसे जितशत्रु कहा गया है। हम जानते हैं, जैनधर्म का उपलब्ध यथार्थ इतिहास मगध से आरम्भ होता है। महावीर और बुद्धकालीन राजा श्रेणिक बिम्बिसार राज्यक्रान्ति के उपरान्त शिशु नागवंश का प्रथम नरेश हुआ जो तीर्थंकर महावीर का अनन्य भक्त था। महावीर का उपदेश राजग्रह की पर्वत शृंखलाओं में से एक पर्वत विजयाई पर होता रहा । श्रेणिक उसी मगध का सम्राट् था। वैशाली नरेश चेटक की पुत्री उसकी महारानी चेलना का पुत्र अजातशत्रु कुणिक हुआ जिसने कोशल, कौशाम्बी, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्स आदि देशों पर कुशलता पूर्वक आधिपत्य किया। अवन्ती राजा चण्डप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से वत्सनरेश उदयन ने विवाह किया था। पंचम-चतुर्थ शती ई. पू. में अवन्ती जनपद मौर्य साम्राज्य में संमिलित था और उज्जयिनी मगध साम्राज्य के पश्चिम प्रान्त की राजधानी थी। मध्यकाल में यह नगरी मालवा प्रदेश की राजधानी बन गई। इस नगरी से जैन संस्कृति का गहरा संबन्ध रहा है। हरिषेण ने जितशत्रु को अवन्ती का सम्राट् बनाया है और उसी के पुत्र परम जिनभक्त मनोवेग को धम्मपरिक्खा का नायक बताया है। नायक इस अर्थ में कि अपने अभिन्न मित्र पवनवेग को सम्यक्त्व मार्ग पर लाने के लिए वह प्रारंभ से अंत तक प्रयत्न करता है । इसी अवन्ती प्रदेश की उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती वन में मनोवेग ध्यानस्थ जैन मुनि से पवनवेग को धर्मान्तरित करने का मार्ग जान-समझ लेता है और फिर दोनों मित्र तदनुसार पाटलिपुत्र पहुंचते हैं। इस घटना के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि जितशत्रु (अजातशत्रु) का राज्य मगध और अवन्ती पर समान रूप से था। सारी कथा पाटलिपुत्र के इर्दगिर्द घूमती रहती है। दोनों प्रदेशों में जैन संस्कृति समृद्ध रूप में प्रतिष्ठित ज्ञात होती है। मनोवेग और पवनवेग दोनों पाटलिपुत्र की चारों दिशाओं में स्थित वादशालाओं में जाकर वैदिक-पौराणिक आख्यानों की समीक्षा और परीक्षा करते हैं । इसी दौरान मनोवेग मलयदेश, आभीरदेश, रेवा नदी, सौराष्ट्र प्रदेश, मथुरा, अंग, चंपापुरी, चोल द्वीप, साकेत आदि प्रदेशों और नगरों का वर्णन करता है और पाटलिपुत्र में ही पवनवेग का हृदय परिवर्तन कर मनोवेग अपने उद्देश्य को पूरा कर लेता है। इसी संदर्भ में आचार्य ने जैन तत्वदर्शन को प्रस्तुत किया है। १०. जैन धर्म-दर्शन आप्तस्वरूप धम्मपरिक्खा का मूल उद्देश्य आप्त-स्वरूप की मीमांसा करना रहा है। पौराणिक आख्यानों के आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, पाराशर आदि महादेवों और ऋषियों की विषय वासनाओं की समीक्षा कर उन्हें आप्त स्वरूप की सीमा से बाहर कर दिया है। आप्त का अर्थ है- निर्दोष, परम विशुद्ध, केवलज्ञानी वीतराग परमात्मा । हरिषण ने कामवासना आदि से मुक्त देव को 1. आप्तेनोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिनः । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार, 5; नियमसार, 1-5; Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ 1 आप्त कहा है । उसमें क्षुधा, तृषा, बुढापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निद्रा और आश्चर्य ये अठारह दोष नहीं रहते हैं । वे भामण्डल, दुन्दुभि, चामर आदि अतिशय गुणों से अलंकृत होते हैं। उनके गुणों का अनुस्मरण और पूजन साधक के कर्मों का विनाशक होता है । इस संदर्भ में महाकवि ने क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दस धर्मों का तथा अनित्य, अशरण, संसार आदि बारह भावनाओं का वर्णन किया है । " श्रावक व्रत पवनवेग का हृदय परिवर्तन होने के बाद उसे श्रावक व्रतों का स्वरूप समझाया जाता है । कथा का प्रारंभ और अन्त उज्जैयिनी से होता है । यहीं मुनिचन्द्र ने उसे श्रावक व्रत दिये और फिर जैनधर्म में दीक्षित कर लिया । पवनवेग ने स्वयं धर्म के सम्यक् स्वरूप को समझकर दीक्षा लेने का आग्रह मुनिवर से किया । इस प्रसंग में बारह व्रतों का जो वर्णन धम्मपरिक्खा में मिलता है वह उसकी परम्परा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है । नवम संधि में अष्ट मूल गुणों का उल्लेख है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस और मधु का त्याग। जैसा हम जानते हैं, अष्टमूल गुण परम्परा समन्तभद्र से प्रारंभ होती है। उनके पूर्ववर्ती कुन्दकुन्द ने पृथक् रूप से उसका कोई उल्लेख नहीं किया । पूज्यवाद अकलंक और विद्यानन्द ने भी कुन्दकुन्द का अनुकरण किया। संभवतः समन्तभद्र के समय मद्य, मांस, मधु का सेवन अधिक होने लगा होगा । रविषेण ( वि सं . 734) ने दोनों का समन्वय कर श्रावक व्रतों के साथ ही मद्य, मांस, मधु का वर्णन किया और द्यूत, रात्रिभोजन तथा वेश्यागमन को भी छोड़ने का आग्रह किया । हरिषेण ने रात्रिभोजन त्याग पर भी समान रूप से बल दिया है। ग्यारहवीं सन्धि में तो रात्रिभोजन कथा का भी वर्णन किया है । अष्टमूल गुण परंपरा से ही विकसित होकर षट्कर्मों की स्थापना की गई । भगवज्जिनसेनाचार्य ने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को श्रावक के कुलधर्म के रूप में स्थापित किया है । हरिषेण ने इनका यथास्थान विवेचन किया है । पर इससे अधिक उन्होंने शिक्षाव्रतों को अधिक महत्व दिया है । कुन्दकुन्द ने सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना को शिक्षव्रत माना है | भगवती आराधना में सल्लेखना के स्थानपर भोगोपभोग परिमाणव्रत और कार्तिकेय ने देशावकाशिक रखा । उमास्वामी ने सामायिक 1. धम्मपरिक्खा, 4-23; 5.18-20; 9.13, 18-25. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोषधोपवास, उपभोग, परिभोग, परिमाण और अतिथिसंविभाग व्रत दिये। हरिषेण ने शिक्षाक्तों का नामोल्लेख किया है- सामायिक, प्रोषधोपवास, रात्रिभोजन-त्याग और भोगोपभोग परिमाणवत । लगता है, आचार्य ने जिामंदिर दर्शन को स्वतन्त्र स्थान देकर उसको अधिक महत्व दिया है। भमिशयन, स्त्रीपरिहरण, जिनपुजन और सल्लेखना का भी यहां उल्लेख हुआ है। इनमें सल्लेखना को भी चतुर्थ शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार है। ११. धम्मपरिक्खा का व्याकरणात्मक विवेचन धम्मपरिक्शा शौरसेनी किंवा नागर अपभ्रंश में लिखो कृति है। उसकी संक्षिप्त विशेषतायें इस प्रकार हैंप्रयुक्त स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, हस्व ए, ओ, म्हस्व ओ, अनुस्वार एवं अनुनासिक प्रयुक्त व्यंजन : क, ख, ग, घ, त, थ्, द्, ध्, न. प, फ, ब, भ्, म्, य, र, ल, व् स्, ह भाषाविज्ञान की दृष्टि से इन्हें हम इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं1) खण्डात्मक स्वनिम .. . 1) स्वर : ii) व्यं जन 2) अधिखण्डात्मक स्वनिम i) अनुनासिकता र ii) सुरलहर iii)बलाघात 1. खण्डात्मक स्वनिम विवेचन स्वर विवेचन F स्वरों का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया जा सकता है, यथा1) जिहवा का व्यवहृत भाग । - i) अग्र स्वर- इ, ई, ए ii) पश्च स्वर- आ, उ, ऊ, ओ iii) मध्यस्वर- अ. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) जिहवा के व्यवहृत भाग की ऊंचाई 1) संवृत- इ, ई, उ, ऊ 2) अर्धसंवृत-ए, ओ 3) अर्ध विवृत- अ 4) विवृत- आ 3) ओष्ठ की स्थिति i) वर्तुलित- ओ, ऊ ii) अक्तुलित- इ, ई, ए मात्राकाल और कोमल ताल की दृष्टि से धम्मपरिक्खा के स्वरों को तीन भागों में विसर्जित किया जा सकता हैमूल स्वर- i) -हस्व- अ, इ, उ, हस्व ए और हस्व ओ ii) दीर्घ- आ, ई, ऊ, ए, ओ iii) संयुक्त स्वर- अई, अउ, एइ, एउ iv) अनुनासिक स्वर- अनुनासिकता प्रायः सभी स्वरों के साथ उपलब्ध है। इन स्वरों के लघुतम युग्म शब्द की प्रत्येक स्थिति में मिल जाते हैं। इनके उपस्वनिम भी खोजे जा सकते हैं। इनमें बलाघात शन्य स्वर को हस्व करने की विशेष प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिए अन्त्य स्वर -हस्व हो जाते हैं । स्वर विकार 1) अ > इ = किक्किधपुर (8-21), कारणि, बहरि __ अ> उ == तुरुंगु ( 1.7), मुणइ, सम्मुहु, एक्कु __ अ> ए = एत्थंतरे, एत्थु 2. आ > अ = रज्जंग, कज्जे (4.10), अल्लवइ (3.18), दिव्वहारु (3.5), सीय (8.10) आ > उ = विणु, पुणु, पच्छुत्ताव (3.10) आ > ऊ = विणू आ > ओ = तहो इ > अ = सिरस इ > उ = उच्छु इ > ए = जे, ते > ई = अद्धसिरीहर ई > आ - आरिस ई > इ = कित्ति, अलिय (3.6) ई > ए = एरिस Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે શ . છે V उ> अ = मउड उ > इ = किंपुरिस उ > ई = धीय > ओ = पोग्गल > उ = समुहि, कुटहंसगइ (3:15), पुव्व ऊ > ए = ने उर ऊ > ओ = तंबोल, मोल्ल > अ = धय, (3.4), कय > इ = किट्ठभिच्चु (4.6), धयरट्ठ (8.1), मिच्च (4.5), णिवसेहरु (3.1), मियंकपुत्त (3.3) ऋ > उ = पुहवि, वुड्ढु, वुड्ढी ऋ > ए = गेह, णेह ऋ > रि = रिसहो (10.11), रिसि (4.16), रिच्छि (4.17), ऋ > अरि = उब्भरिय 8. ए > इ = अणिमिस, पंचिदिय ऐ > ए = केलास, कज्जे, परिहए, मेहालए, हस्त्र ए का भी प्रयोग मिलता है- सरीरे, पुरे पलोएवि पेच्छेवि, लोयणाए, ऐ > अइ = दइयस्स (49), कइलास, दइव 9. ओ > उ = अण्णुण्ण ओ > ऊ = ऊसारिय ओ > -हस्व ओ = तहो, मंजरहो, दिवसहो, ससुरहो (8.3), ओ > ए = करेमि 10. औ > ओ = कोऊहलु (8.10), पियगोरि (11.3), मोत्तिय औ> अउ = गउरिय (4.9) 11. -हस्व स्वर की दीर्धीकरण प्रवृत्ति- सीस, बीया 12. दीर्घ स्वर का -हस्वीकरण- परिक्ख, तित्थ, रज्ज, विण 13. म्हस्व स्वर का अनुस्वारत्व- दंसण, अंसु, उंबर 14. स्वर लोप___i) आदि स्वर लोप - हलं, हेट्ठामुह, बलग्ग ii) मध्य स्वर लोप - पत्ति, उदिट्ठ, पडिलिउ iii) अन्त्य स्वर लोप- अब्भासें, सहावें, रोसें, सक्खें एउ 15. आदि स्वरागम : इत्थि 16. स्वरभक्ति : आयरिय, किलेस Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. स्वरव्यत्ययः अच्छरिय, वंभचरिय 18. स्वरागमः उच्छु, करेवि, आयण्णिवि, पेक्खि वि 19. संयुक्त स्वर ii) अइ : दइव, अइस ii) अउ : कोऊहल iii) अउ : गरियः iv) एइ : देई, लेइ v) एउ : नेउर 20. अनुनासिक स्वर . i) अ : हऊँ 8.13 : तुम्हह 8.20 : ii) एँ : माणवेएँ 4.1, दोसें 4.5, अणुराएँ 4.9, छ इल्लें, राएँ iii) ई. : पलाई 4.5, हिं 4.5, हिएहि 4.5, गण’ 4.6, तेहि, जहि, एयह iv) उँ : रणरणउँ 4.9, 21. अनुस्वार स्वर ___अनुस्वार के पूर्ववर्ती स्वर प्रायः अनुनासिक होते हैं। वर्ग के सभी अन्तिम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित हो गये। अनुस्वार कहीं कहीं बहुवचन का भी द्योतक है। निरननासिकता की प्रवृत्ति भी दृष्टव्य है । जैसे- तहि 4.8 जिह, तिह .. _i) अं : वाहुदंड 4.3, णं, जं, पव्वंगु ii) इं: अहरहिं 4.23, चिधी 8.17 iii) उं : उदर 4.5, भणिउं 4.5 स्वराघात : स्वराघात के उदाहरण गइ, कित्ति अदि जैसे शब्दों में देखे जा सकते हैं । अन्त्याक्षरों पर प्रायः बलाघात नही रहता । व्यञ्जन परिवर्तन और विकार ..... 22) i) आदि असंयुक्त व्यंजन : साधारणतः आदिवर्ती असंयुक्त व्यंजन अपरिवर्तित रहते हैं। जैसे-खणु, मित्त, सरीरहे आदि। पर कुछ विशिष्ट स्थानों पर उनमें व्यत्ययता भी देखी जाती है। जैसे- दुहिता > धीय; धृति > दिही वृत 7 दिहा ii) आदि य को ज : जमहो 4.18; जमपासि 4.19; जुहिट्ठिल, 8.4; जोयण, 8.9 iii) आदि में संयुक्त व्यंजन रहने पर एक का लोप हो जाता है। जैसे-थंभु, पडिमा, धयरट्ठहो । परन्तु कहीं कहीं अपवाद भी मिलता है । जैसे-हाइ, 8.6 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ 23. 'य'श्रुति : जियारि, सीयलु. 4.9; पयासिय, वणियवरो 3 11, सयल . .. 3.11; पयडमि 4.5 . . . . . .. 24. 'वधति : वंघाडि 8.10; भयणीवइ 8.16; लिहाविय 8.17; । पोमाविय 8.17 25. संप्रसारण : i) य > इ = कोइलतमाल 3.9; कंचाइणी ii) व > उ = जिणदेउ 9.13, वासुएउ 8.4 व्यञ्जन परिवर्तन और विकारों के उदाहरण क > य = पयडमि 4.5; कुलयर 10.1, सांवय 10.4, रयणायर, पयासिय, वणियवरो 3.11, सयल 3.11. क लोप :- सउण, णउल 8.4, कोइल 4.23. आउल > ह - सिहर, सुहु, दुहु, संलिहिय 4.15, रइसुह, 4.15 ग > य = णयर 9.7, सायरमण 4.6, सरायवेणु 4.11, धीयजुयल 10.2, - णायसिरि 11.13, अणुराय > उ = माणसवेउ घ > ह = मेह. दीहंगो, पुण्णमेहु च > य = वयण 4.10, वियारविमुक्क, खे यह 4.7; सुलोयण 8.13 ज > य = भोयण 9.7, सेसभुयंगो, पोमराय, णियजीविउ ज़ > उ = राउ .. . ट > ड = घडमाण, पाडलीउत्त 10.13, कुडिलभाव 4.14, तड 4.5, कोडि ठ> ढ = मढ, वीढ > ल = कील ण - णकार प्रवृति अधिक है । जैसे- ताराहरणु 8.22, पुणु, णाम, तणउ, . जाणेविणु, आयरेण > य = जियारि, गुणवय, रयणायर, सिय, असिय, सीय 8.10, अजिय 8.14, . सीयलु 4.9, णियंव 4.16, अणुव्वय 10.14, वेयाल 11.6 त > थ = माणथंभु 8.14 त > ह = भरह 10.5 त > ड = पडिवासुएव 4.1, पडिवमण त > उ = सिक्खावउ = 10.15, कंकालवउ 10.9, विवज्जिउ 4.1, हिउमिउ त लोप = सुगओ 10.11, धणवइ 11.3, पियगुणवइ 11.26, रइसुह 4.15, __ कोऊहल 2.9, मंथरगइ उ थ > ह = णाहं 4.2, पिहुलरमणे 4.11, अमरपहु 2.16, णरणाह, द > य = सुद्धोयणु 10.10, मंदोयरि 9.17, परयारकहा 4.11, मयणानल 2,19, पायजुयलु 2.12 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ द लोप = वासुएव 10.9, सहएव 8.4, आइच्चणरेस 8.3, चित्तंगउ 8.1 द > ड = डज्झ, डहण ध > ह = परधणु, दुज्जोहण 8.4, लहु 4.2, रुहिर 4.4, दहिमुहु 9.9 ध > इढ = गोवड्ढण 1.26, वुड्ढी 9.9 न > ण = मणोहरु 8.2, अणुरत्त, 8.3, भीमसेणु 8.4, जोयण 8.9, णियेदसु 8.9, णयरी प > व = सेनावइ 9.22, कविठ्ठतरु 9.2, सुवण्णदीव 11.13, दीवंती, __ कोवजलधु, पावखलणु, गोविए 4.10, उवरि, अवहरेइ, कावालि 4.17, उवसग्गु 'प' लोप = रहणे उर 11.4, खगवइ, अमराउरि, गोउर > फ = फुल्ल, फोफल 1.8 > उ = आउण्ण, आउरिय, मणवेय रूउ, निउणमइ 3.4, वाणरदीउ 8.16, उहयसरूउ, गोउरेण फ> व = गुह भ > ह = रासह 4.16, अहिणव, सोह, बलहद्दु, लोहण > व = सवण, दवण > ज = जमहो 4.18, जमपासि 4.19, जोयण 8.9, जुहिट्ठिलु 8.4, दुजोहणु 9.14 य > उ = जिणालउ य > इ = अक्खइ, कोइल 3.9 र > ढ = आढविअ र लोप = पउ व > उ = जिणदेउ 9.13, वासुएउ 8.4, सुग्गीउ, 8.18-19 व > अ = तिहुअण व > य = जुयरायहो 3.3, गुणलायण्णहो व लोप = पइट्ठ 4.10 ष > छ = छट्ठ श > ह = दहलक्ख ण, दहविह श > स = सरीर, दस ह > भ = बंभण 10.6, वंभहो 4.12 समीकरण प्रबलतर ध्वनि अपने से दुर्बल ध्वनि को अपने में समाहित कर लेती है। इसी को समीकरण कहा जाता है। जब पश्चाद्वर्ती व्यंजन पूर्ववर्ती व्यञ्जन को प्रभावित करता है तब उसे पुरोगामी समीकरण कहा जाता है। जैसे- सुग्गीव कम्म, धम्म, जम्म आदि। इसी तरह जब पूर्ववर्ती व्यंजन पश्चाद्वर्ती व्यंजन को समीकृत करता है तब वह पश्चगामी समीकरण कहलाता है। जैसे- अग्गि, जोग्ग। कभी-कभी उष्मों का भी समीकरण होता है जैसे Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ खध, माणथंम, पासत्थ आदि । संयक्त व्यंजन का सरलीकरण करके अनुनासिकीकरण के भी उदाहरण मिलते हैं । जैसे- जिणदंसण, पडिजपइ । संयुक्त व्यंजन परिवर्तन क्त > त = रत्तंवठ, मुत्त क्ष > क्ख = रक्खस 8.12, लक्खण 8.10 क्ष > ख = खणमित्तु 4.19, खंतव्वु ज्ञ > ण = णाणावरणीय कम्म __ > पण = वण्णाण, अण्णाणुवएस ग्घ > द्ध = दुद्ध 3.4 ज्य > ज्ज = रज्जंग, पित्तज्जरेण त्य > च्च = णच्चंती 10.3, सच्च त्म > प्प = अप्पउ, अप्पणु त्स > छ = उच्छव द्य > ज्ज = खिज्जइ 9.12, विज्जाहर 8.16, उज्जाण 11.1 ध्य/ध्व > ज्झ = बुज्झइ, अज्झाण र प > प्प = कपूर द्र > ६ = महि ष्ट्र > 8 = धयरट्ठ 8.4, अंध यविट्ठि 8.2 ष्टि > हि = मुट्ठि 2.7, दुट्ठ 4.22 ष्ठि > ट्ठि = परमेट्ठि 10.3 ष्ण > ग्रह = कण्ह, विण्हु ष्क > क्ख = पुक्खर स्क > ख = खंध स्व > सो = सोच्छंद, सच्छंद 4.17 स्म > म = विभिय स्न > ग्रह = ण्हाणकज्ज 8.6 2. अधिखण्डात्मक स्वनिम इसके अन्तर्गत अनुनासिकता विवृत्ति, सुरलहर तथा बलाघात आते हैं। धम्मपरिक्खा में इसके उदाहरण खोजे जा सकते हैं। शब्दसाधक प्रणाली अपभ्रंश में शब्द-रचना तीन प्रकार से होती है1) शब्दों में पूर्व प्रत्यय (उपसर्ग) तथा परप्रत्यय लगाकर 2) दो शब्द जोडकर, समास बनाकर, तथा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3) शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा शब्दों में प्रत्ययों के योग से संज्ञा, विशेषण, क्रियाविशेषण, नाम, धातुएं आदि शब्द रूप निर्मित होते हैं और उनसे विविध भावों की अभिव्यक्ति होती है। इन्हें हम तद्धित प्रत्यय कह सकते हैं। 1) पूर्वप्रत्यय- शब्दों के पूर्व कुछ प्रत्यय लगाकर शब्द बनाये गये हैं। जैसे- अ + काल = अकाल, अ + धम्म = अधम्म, अप् + जस् = अपजस, दु + जन = दुज्जन, अ + भय = अभय, स + फल = सफल आदि। ___2) परप्रत्यय- ये प्रत्यय मूल प्रातिपादिक, व्युत्पन्न प्रातिपदिक अथवा धातुओं के बाद जोड़े जाते हैं। इनसे संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि शब्दों का निर्माणं होता है। जैसे- अल्ल : एककल्ल, नबल्ल । इल्ल : पुरिल्ल । इल्लु : केसरिल्ल । आवण : भयावण । ऊण : पच्छिऊण, हसिऊण । इसी तरह से थक्कू, मोल्लु, गल्लु. पेच्छिवि, हसेविणु, हणेवि, मुणेवि, पमोत्तूण, णिसुगविणु, पमोत्तूण, बोल्लाविय, पोल्लिउ आदि शब्द भी परप्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं। समास - रचना की दृष्टि से शब्द दो प्रकार के होते हैं- सरल शब्द और जटिल शब्द । जो रूप मुक्त है वह सरल शब्द हैं। जैसे गरु, भाइ आदि। जटिल शब्द के दो भेद हैं-1) मिश्र' शब्द, 2) समस्त शब्द या सामासिक शब्दः । पूर्व या परप्रत्यय (बद्धरूप) मुक्त रूप (मूल शब्द) में जोड़कर मिश्र शब्द बनाये जाते हैं। समस्त शब्द में एक से अधिक शब्द रहते हैं। वह प्रायः दो धातुओं, संज्ञाओं, सर्वनामों, विशेषणों, अव्ययों तथा दो विभिन्न पदों के योग से निमित हैं। पारम्परिक दृष्टि से इसे हम मुख्यतः चार प्रकारों में विभाजित कर सकते हैंअव्ययी भाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और द्वन्द । अव्ययीभाव में पहले पद के अर्थ की तत्पुरुष में दूसरे पद के अर्थ की, बहुब्रीहि में अन्य पद के अर्थ की तथा द्वन्द में सभी पदों के अर्थों की प्रधानता होती है । धम्मपरिक्खा में समास के इन चारों भेदों-प्रभेदों को देखा जा सकता है । यद्यपि वहां समस्त शब्दों का बहुत अधिक प्राबल्य नहीं है फिर भी यत्र-तत्र समासान्त पदावली मिल ही जाती है। . रूप साधक प्रणाली : : .. __रूप प्रक्रिया के अन्तर्गत संज्ञा के लिंग, वचन और कारण पर विचार किया जाता है। संज्ञा को प्रातिपदिक कहा जाता है और प्रतिपदिक में वचन लिंग, कारक आदि सूचक प्रत्यय समाविष्ट होते हैं। ये प्रत्यय दो प्रकार के हैंव्युत्पादक प्रत्ययं और विभक्ति प्रत्यय । व्युत्पादक 'प्रत्यय प्रातिपदिक के पूर्व अथवा परस्थिति में लगते हैं जबकि विभक्ति प्रत्यय शब्द की अंतिम स्थिति में ही लगते हैं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातिपदिक स्वरान्त और व्यंजनान्त दोनों प्रकार के होते हैं। उनके कारक रूपों की एक झलक हम निम्न प्रकारों में देख सकते हैं। धम्मपरिक्खा के आधारपर अकारान्त पुल्लिग के रूप निम्नप्रकार हो सकते हैं। १. देउ, देव, देवो, रिसहो देउ, देव, देवा, रिसहा २. देउ, देव, देवा देउ, देव, देवा, रिसहा ३. देवें, देवे, देवेण, रिसहेण देवहि, देवेहि, रिसहेहि ४. देव, देवस्सु, देवहो, रिसहो देवह, रिसहं ५. देवहु, देवहे, रिसहे देवहुं, रिसहुँ ६. देव, देवहो, देवस्सु, रिसहस्सु देव, देवहं, रिसहं ७. देवे, देवि, रिसहे देवहि, देवाहि, रिसहिं ८. देव, देवो, रिसहो देव, देवा, रिसहा इनके कारक प्रत्ययों को देखने से ऐसा लगता है कि इनमें मुख्यत: प्रथम, षष्ठी और सप्तमी विभक्तियां शेष रह गई है। उकार बहला प्रकृति है। निविभक्तिक पुल्लिग अकारान्त प्रयोग अधिक मिलते हैं। इनके कारक प्रत्यय इस प्रकार हैएकवचन बहुवचन १. उ, ओ २. उ,० ३. ए, एँ, ण ४. सु स्सु हो ० ० ० the heo no ६. सु स्सु हो पुल्लिग इकारान्त तथा उकारान्त आदि और स्त्रीलिंग के इकारान्त. उकारान्त आदि के रूप प्रत्यय कुछ परिवर्तनों के साथ इसी प्रकार लगाये गये हैं। सवनाम एकवचन बहुवचन १. हउँ, तुम, सो; इहु, तुहँ जे मे २. मइं, तं, तुमं, ममं जाइँ, ताइँ, अम्हे ३. मइँ, तेण, जेण, एण अम्हारिहिं, अम्हेहिं ४. ६. मझु, मम, मोर, तोर, तुम्हह, अम्हहँ, अम्हाण, तव, तहो, जासु, मम ताणं, जाणं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मइ, ममाहि ७. अहम्मि, मए ८. तुमं विशेषण १) परिमाणवाचक विशेषण गुणवाचक विशेषण रीतिवाचक विशेषण अव्यय (ii) समय वाचक iii) रीतिवाचक iv) षष्ठी रूप v) संबन्धवाचक - सहुँ संख्यावाचक शब्द - i) स्थानवाचक - एत्थु, जेत्थु, तेत्थु, केत्थु, इह, कह, कहिं, एतहि, हि इह जा, जाम, ताम, जाव, ताव, एमहि, तावहि अह, जह, किह, जेम, तेम, तह, तहा, तहो अम्हारउ, तुम्हारउ, अम्हकेरउ - १०६ am अम्हार्हितो अम्हासु, ममेसु -- जीवड, तेवडु, केवडु, एवडु, जेत्तउ, केत्तिउ, तेत्त - एहउ, जेहउ, तेहउ, अम्हारिस ऐहु, जेहु, तेहु जेम, केम, जिह, किह - एक्कु, दो, विष्णि, तिउ, तिण्णि, चउ, चयारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, दह, एयारह, बारह, तेरह, चउदह, चउदस, पण्णारह, पंचदह, सोलह, सत्तारह, अठ्ठारह, वीस, बावीस, पंचवीस, सत्तावीस, पणवीस, तीस, तेतीस, वत्तीस, चालीस, पंचास, सउसढु, चउसट्ठि, बाहत्तरि, छहत्तरि, पंचासी, सय, सहसु, लक्ख, कोडि, कोडा कोडि संख्यावाचक विशेषण - पढमु, वीउ, वीऊ, तइउ, चउत्थो, पंचमो, छट्ठो, छहो, सत्तमो, अट्ठमो, नवमो, दसमो, दहमो, एयारहमो, चलक्क, पंचहि तिहि तद्धित प्रत्यय अल्ल, आल, आर, आवण, इक्क, हण, इल, इर, उल्ल, एर, त्तण, ल क्रिया रूप अपभ्रंश में क्रियाओं के वर्तमान और भविष्य वाचक रूप अधिक मिलते हैं । भूतकाल का काम प्रायः कुदन्त शब्दों से निकाला आत्मनेपद गया है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ और परस्मैपद का भद भी यहां समाप्त हो गया है। आज्ञार्थक और विध्यर्थक रूप समान हैं। कर्मणि-प्रयोग के भी रूप मिलते हैं। धातुओं में अधिक वैविध्य दिखाई नहीं देता। कहीं-कहीं तो बिना धातुओं के ही काम चला लिया गया है। इसलिए संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से धम्मपरिक्खा ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान काल एकवचन बहुवचन प्र. पु. : भणमि, भंजमि, होमि गच्छामो, पेच्छामो द्वि. पु. : होसि, मुणहि तृ. पु. : अस्थि, हसइ, गच्छइ, उप्पज्जति, दीसंति, रमंति होइ, हवेइ, बोल्लइ भूतकाल तृ. पु. : आसि, अब्भसियउ भविष्यत काल तृ. पु. : उप्पज्जेसइ, भमेसइ, होसइ, करेसइ आज्ञार्थ द्वि. पु. । जाणाहि, भणु, करउ विध्यर्थ द्वि. पु. : देहि, देहु, पेक्खु, भणहि, करहु तृ. पु : चलंतु, सहंतु, जियंतु, होउ कर्मणि प्रयोग भणिज्जइ, दिज्जइ, किज्जइ, वुच्चइ, अच्छिज्ज इ कृदन्त वर्तमान कृदन्त- जाणंत, पइसंत, सोहमाण भूतकृदन्त - गय, गयउ, हुअ, जणिय, जंपिउ, कंपिउ, पभणिउ हेत्वर्थ कृदन्त - गंतु, गंतूण, गहिऊण, भगिऊण पूर्व कृदन्त - आयण्णिवि, अणुमण्णिवि, करिवि, पेक्खवि, पइसिवि, मेल्लिवि, मुत्तूण, पणवेप्पिणु, करेविणु, उड्डेविणु Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ इस प्रकार धम्मपरिक्खा की अपभ्रंश भाषा का विश्लेषण करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस पर एक ओर संस्कृत का प्रभाव है तो दूसरी ओर शौरसेनी प्राकृत का। इसे शौरसेनी किंवा नागर अपभ्रंश भी कहा जा सकता है। इसमें देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कुछ उदुर जैसे शब्द ऐसे भी हैं जो मराठी में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं । यह हम जानते हैं कि हरिषेण ने अपना ग्रन्थ अचलपुर में लिखा था और अचलपुर आज परतवाड़ा(अमरावती) के पास महाराष्ट्र में है। मध्यकाल में, विशेषतः 9 वीं से 12 वीं शती तक अचलपुर जैन संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र इसी के समीप अवस्थित है। अत: मराठी के विकास की दृष्टि से धम्मपरिक्खा की भाषा पर विचार किया जा सकता है । आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश के भेदों का वर्णन तो नहीं किया है पर उनके वैकल्पिक नियमों से उनकी विविधता अवश्य सूचित होती है। पश्चिमी सम्प्रदाय के हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने प्राय: शौरसेनी को अपभ्रंश का आधार माना है । आभीरों का आधिपत्य पश्चिम प्रदेश में रहा है और पश्चिमी अपभ्रंश का आधार शौरसेनी रहा है। हरिषेण ने भी आभीर देश का वर्णन किया है (2.7) । पूर्वीय वर्ग के प्राचीनतम वैयाकरण वररुचि ने भी अपभ्रंश के भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया पर क्रमदीश्वर और पुरुषोत्तमदेव के अनुसार नागर अपभ्रंश का प्रयोग क्षेत्र पश्चिमी प्रदेश रहा है। रामशर्मतर्कवागीश (16 वीं शती) ने 27 प्रकार की अपभ्रंशों में नागर अपभ्रंश को मूल माना है । इस प्रकार नागर और शौरसेनी अपभ्रंण का बड़ा सामीप्य सम्बन्ध है। लगभग समूचा अपभ्रंश साहित्य इसी भाषा में लिखा गया है। छंद योजना धम्मपरिक्खा की रचना प्रमुख रूप से पज्झटिका समवृत्त मात्रिक छन्दों में हुई है। पुष्पदन्त के समान हरिषेण ने भी कथा-वर्णन में इस समचतुष्पदी छन्द का सुन्दर प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त पादाकुलक, मदनावतार, स्रग्विणी, समानिका, मौक्तिकदाम, उपेन्द्रमात्रा, सोमराजी, अर्धमदनावतार, रासह, विद्युन्माला, तोटक, तथा दोधक आदि छन्दों का भी प्रयोग कडवकों में उपलब्ध होता है। इनमें अल्पमात्रिक छन्द कम है। समवृत्त वाणिक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दों में से भुजंगप्रयात को ही कवि ने अधिक पसन्द किया है पर उसे भी उन्होंने द्विपदी जैसा बना दिया है । अपभ्रंश के प्रबंध काव्यों में प्रायः कडवकबद्ध छन्दों का प्रयोग मिलता है । कुछ कवियों ने वर्णनों के अनुसार छदों को भी चित्रण में सजीवता लाने के लिए परिवर्तित किया है। हरिषेण ने भी इस रचनाशैली को अपनाया है। उन्होंने चतुष्पदी षट्पदी छन्दों का द्विपदी के समान भी प्रयोग किया है । समान मात्राओं वाले चार चरणों से एक छन्द बनता है। पर अन्य अपभ्रंश कविया के समान हरिषेण ने भी प्रयोग करते समय इस नियम का ध्यान नहीं रखा । उनकी पज्झटिका में दो चरणात्मक इकाइयों में भी समानता नहीं है । कहींकहीं दो छन्दों को मिलाकर तीसरा छन्द बना दिया गया है । घत्ता (सन्ध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रवा ध्रवकं घत्ता व, छंदो. 6.1) का तो प्रयोग समूचे ग्रन्थ में हुआ है। कवि ने चरणों के विषय में कोई नियम नहीं रखा । कडवक छोटे भी हैं और बड़े भी हैं। उनके चरणों में कोई एकरूपता नहीं है । पर प्रायः घत्ता के साथ ही कडवक पूरा होता है । संधि के प्रारंभ में भी घत्ता के रहने का उल्लेख हेमचंद्र ने किया है (कविदर्पण, 2.1.) हरिषेण ने इस सिद्धान्त का पालन किसी सीमा तक किया है । हरिषेण की धम्मपरिक्खा के प्रस्तुत अध्ययन से इतना तो निश्चित हो जाता है कि इस प्रबन्ध काव्य ने परीक्षात्मक शैली में व्यंग्य का मिश्रण कर एक नई विधा का विकास किया था। पौराणिक मिथक परंपरा पर गहरी चोट करते हुए तत्वविनिश्चय के लिए बेदाग वातावरण तैयार करने भी भूमिका को निर्मित करने का श्रेय भी हरिषेण को ही जाता है। जैनधर्म हठात् धर्मान्तरण के पक्ष में कभी नहीं रहा। उसकी दृष्टि में बिना हृदय-परिवर्तन हुए धर्मान्तरण का कोई तात्पर्य नहीं है। जैन सांस्कृतिक इतिहास में जितने भी धर्मान्तरण हुए हैं, वे सभी हृदयपरिवर्तन के आधार पर ही हुए हैं। इस दृष्टि से भी धम्मपरिक्खा के महत्त्व को आंका जा सकता है। धम्मपरिक्खा का प्रस्तुत संस्करण प्रथम बार प्रकाशित हो रहा है । इसकी पाण्डुलिपियां जुटाने और प्रतिलिपि करने में हमारे अभिन्न मित्र प्रो. माधव रणदिवे, भूतपूर्व पालि-प्राकृत विभाग प्रमुख, शिवाजी आर्टस Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कालेज, सातारा की सहायता अविस्मरणीय है। ग्रन्थ के संपादन में उनकी सहायता के लिए हम आभारी हैं। मेरी पत्नी डॉ. पुष्पलता जैन, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, एस. एफ. एस. कालेज, नागपुर का भी विविध सहयोग उदाहरणीय है। धम्मपरिक्खा के प्रस्तुत प्रकाशन में मानव संसाधन विभाग, शिक्षामन्त्रालय का आर्थिक अनुदान मुख्य सहायक रहा है। तदर्थ हमारा संस्थान उसका अत्यन्त कृतज्ञ है। प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन में मन्त्रालय का यह योगदान निश्चित ही प्रशंसनीय है। इसकी मुद्रण व्यवस्था में राधाकृष्ण प्रेस के श्री सेवकराम-रुक्मांगद नंदनवार बंधुओं का सहयोग भी सधन्यवाद स्मरणीय है। न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर-440 001. भागचन्द जैन "भास्कर" पालि-प्राकृत विभाग प्रमुख नागपुर विश्वविद्यालय दीपावलि : १८-१०-१९९० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मपरिक्खा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सुददेवदाए सिरीहरिसेणविरइआ धम्मपरिक्खा १. पढमो संधि ( 1 ) सिद्धि - पुरंधि िकंतु सुद्धे तणु-मण-वयणें । भति जिणु णवेवि चितिउ बुहहरिसेणें ॥ छ ॥ म - जम्म बुद्धिए कि किज्जइ तं करंत अवियाणिय आरिस चहुँ कव्व-विरयणि सयंभु वि. तिणि विजोग्ग जेण तं सीसइ जो सयंभु सो देउ पाणउ पुष्यंतु ण वि मा गुसु वुच्चइ ते एवंविह इउँ जडु माणउ कव्वु करंतु केम णवि लज्जमि तो वि जिणिदधम्म- अगुराएं करमि सयं जि णलिणि-जल- थिउ जलु मणहर जाइ कव्वु ण रइज्जइ । हासु लहहि भड रणि गय-पोरिस । पुष्यंतु अण्णाणु णिसुंभि वि । पत्ता- जा जगरामें आसि विरइय गाह-नवधि | मुह - मुहे थिय ताव सरासइ । अह कह लोया -लोय - वियागउ जो सरसइए कयाविण मुच्चइ । तह छंदालंकार विहीणउ | तह विसेस पिय-जणु किह रंजमि । 10 बुहसिरि- सिद्धसेण सुसाएं अगुहरेइ णिरुवम् मुत्ताहलु | साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडियावधि ॥। १॥ 5 14 Note: Numbers under Bracket () indicate the numbers of verses and numbers without the bracket in lines represent the numbers of lines of the verses. (1) a. begins with "ॐ नमः सिद्धेम्य: " b. begins with ॐ नमो वीतरागाय ॥ छ ॥ 2.a || १ || for || छ || la मणहर b न रइज्जइ inter. भड and रणि, 5 b अण्णाण णिसुंभु 6. b जेणा, b ताम for ताव, 7.boवियाणउं, 9.b हउ, a जउ, b माणउं b • विहूणउं, 10 b पिउजणु, 11a अणुरायइं, b हिसिरि०, 12.b नलिणिदल० । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो सुददेवदाए सिरीहरिसेणविरइआ धम्मपरिक्खा १. पढमो संधि ( 1 ) सिद्धि - पुरंधि िकंतु सुद्धे तणु-मण-वयणें । भतिज विचितिउ बुहहरिसेणें ॥ छ ॥ म- जम्म बुद्धिए कि किज्जइ तं करंत अवियाणिय आरिस चहुँ कव्व-विरयणि सयंभु वि. तिणि त्रि जोग्ग जेण तं सीसइ जो सयंभु सो देउ पहाण उ पुष्यंतु ण वि मा गुसु वुच्चइ ते एवंविह इउँ जडु माणउ कव्वु करंतु म वि लज्जमि तो वि जिणिदधम्म - अगुराएं मिस जि लिणि-जल - थिउ जलु मणहर जाइ कन्बु ण रइज्जइ । हासु लहहि भड रणि गय-पोरिस । पुष्यंतु अण्णाणु णिसुंभि वि । चडमुह - मुहे थिय ताव सरासइ । अह कह लोया-लोय - वियागउ जो सरसइए कयाविण मुच्चइ । तह छंदालंकार विहीणउ । पत्ता - जा जगरामें आसि विरइय गानवधि । साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडियावधि ॥ १॥ तह विसेस पिय-जणु हि रंजमि । 10 बुहसिरि- सिद्धसेण सुसाएं अगुइ णिरुवम् मुत्ताहलु | 5 14 Note: Numbers under Bracket ( ) indicate the numbers of verses and numbers without the bracket in lines represent the numbers of lines of the verses. (1) a. begins with "ॐ नमः सिद्धेभ्यः " b. begins with ॐ नमो वीतरागाय ॥छ । 2. ॥ १ ॥ for || छ || la मणहर b नरइज्जइ inter. भड and रणि, 5 b अण्णाण णिसुंभु 6. b जेणा, b ताम for ताव, 7.boवियाणउं, 9.b हउ, a जउ, b माणउं b ० विहूणउं, 10 b पिउजणु, 11a अणुरायई, b हिसिरि०, 12.b नलिणिदल० । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) इह जंवूतरु-लंछणदीवए भरहखेत अस्थि रवि दीवए सावयदिहियरु जिणवर वयण व ससरु सुरयवियड्ढ वहुवयणु व । विविहारामगामसीमहि ण सीमंतिणिकुलु सीमंतिहिं ।। सोहइ पुरणयरेहिं विसालउ हरगलकंदल णाइँ विसालउ । जच्चफलोहाणं दियविउलइ पिहिय दियं तुज्जाण इं विउलइ । हि मणहर खेयर विलयाहरे भमिरभ मरफुल्लिल्ललयाहरे जहिं मयघु मिराइ कलहंस इ रइरसबसई मुयहि कलहंमइ । कय गोमहिसिवसहणिग्घोसइ णंदहि बहुपयाइ जहिं घोसइ । पत्ता- तहि थि उ मज्झ पएसि गिरिवेयड्ढविसान उ । वहु सउण उलणिवासु सोहइ णाई जिणालउ ।।२॥ 10 जो उत्तंगो छत्तपयंगो दीहंगो णं सेसभुयगो। ण रणाहो इव वहु-मायंगो विविहकुसुमसरु णाई अणंगो। केसरिल्लु णावइ पंचाणणु तिलयसोह जुउ णं वेसाणगु । सुरसेविउ ग दससयलोयणु थियसारंगु णाई णारायणु । मेहु व वरणियं० रुप्पयमउ सोहइ वलहदु व धवलंगउ । कत्थ इ पोमरायर इरत्त उ सरयमेहु णं संझाजुत्तउ । कत्थ इ इंदणीलमणिसामलु णाई सुरिंदरिदु समयजलु । फलहंतरि अवलोइय मोरो देइ झडप्पं जहिं मज्जारो । जहिं रमणीयपए सहि र मणिउ किण्णरीहि सहुं चलहारमणिउ । सुन्यसुक्खु माणहि गेयंतरे हावभावविन्भमेंहिं णिरंतरे। 10 संचरंत अच्छरयणसारो जहिं सुम्मइ णेउर झंकारो। सालत्तयपयपायाउलउ जो सोच्छंदो इव पायाउलउ। 12 (2) 1.b लच्छण, b भारहखेत्तु 2.a सरसुवियठ्ठ, b सुरयवियर्छ, 5.b पिहियदियं तुज्जाणइ विउलइ ।। विविहदियतुज्जाणइं विउलई, a दियंतु उज्जाणइ, 6.a जहि, a भमिय०, a ०लयाहर, 7.a जहि, b मयघुम्मिराई, a रइरसबरइ, सुयहि, b मुहिं, 8.b वहुपयाइं ॥ bघोसइं, 9.b णंदउ०, for तहि थि उ, 10.a णाइ । (3) 1.b उत्तुंगो छित्त०, 3.b वेसायणु, 4.a थिउ, 6.a पोमराइ०, a जुत्तो for जुत्तउ 8.a जहि, 9.b जहि, bकिण्णरेहि, 10. a सोक्खु, b माणहिं गेयंतरो, a विब्भमहि, b जहि, 12.a पयउ for पय, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता- उत्तरसेढिहि सटिठ तहि णयरी उरवा गउ । दाहिणसेढिहिं अत्थि पंचास जि जणपुष गउ ॥ ३॥ तह पंचासह मज्झि सरिद्धी कामिणि व्व जणणयणपियारी जा सुरतरुउववणे जं विसालें परिहएसारसहंसख लए सियपायारमित्तिकंचलियए उप्परिय ण सोहइ सोहंती गोउरेण णं रूंदें वयणे भवणरयणणयणेहि णिहालइ मंदिरसिहरथक्कसिहित हें संचरंत माणिणि पब्भारे अइ सोहाजुय किह वणिज्जइ । घत्ता- महिहरपियउच्छंगे वसइ तरट्ठि व कंत णयरि वइजयंती सूपसिद्धी। जहि दीसइ तहिं सहइ जणेरी। अइ रेहइ णेत्ते ण वणीलें। मेहालए णं किकिणि मुहलए । पंचवण्णधयमालए धुलियए । कणयकलसउररुह दरिसंती । हसइ व तोरणमोत्ति यरयों। अहिनवतरुपल्लवकरवालइ। सोह देइ ण केससमूहें। चल्लइ णं णे उ र झंकारें। जाहि सुराहिब णयरि ण पुज्जइ । पउ भोय गुणवंती । रय गदित्ति दीवतो ॥४॥ 10 (5) तहिं आसि राउ णामें जियारि ण यदंडपहावे णिज्जियारि । पयडु वि खयरेसु ण खयरणाहु असिरोहरो वि लच्छीसणाहु । अपुरंदरो वि विवुहयण इठ्ठ परिपालि यसज्जणु णिहयदुटु । अकुमारु वि जो सत्तीपयासु बधवपरियणब्भुरि पूरियासु । अदिसागअविअणवरयदाणु अदिणेसु विउग्गपयावथाणु। 5 तणुकतिपरज्जिय छणससकु अणरायणमिय सामंतचक्कु । तरुणो वि विसयसुहरइविरत्त अइहरिसमाणमणमोहचत्तु । समसलिलसमियणियकोवजलणु जिणमुणिपमाणकयपावख लणु। 8 b जो छंदो, a omits इव, 13 a • सीढहि, b सठि, a णयरियउर. b०वण्णउं, 14.b जि संपुण्ण उ । (4) 2.b कामिणी व, a जा णयण०, b सुहइ, 3.a सुरतर०, 4.b ०हंसवमालए, 8.b भवणरयणयणेहि, a अहिणव०, 12.a पीय०, 13.a तरटठी, b रयणदित्त। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता- पयभरधरणपवीणु रज्जंगसमिद्ध दुरुज्झि यमिच्छत्तमलु। सो णिउ इंदु व अतुलवलु ।।५।। 10 5 तहो वाउवेय णामेण घरिगि पइवय णावइ परलोयकु हिणि णारी सुहलक्खणलक्खियंगि मुहणयहि जियच्छणससिकुरंगि । तहे अहिग वजोवगु वणु विहाइ अरुणच्छवि णं अंकुरि उ भाइ । अइरत्तपाणिपल्लव चलंतु वेल्लहल बाहुवल्ली ललंतु । कोमलजंघारंभा सहंतु सियआसियणयणकुसुमई ललंतु। पिहुपीणपहर फलमहंतु अलयावलि अलि उलसोह दितु । रत्ताहरविवोहल फुरंतु सच्छाउ सविन्भउ तिलयवंतु । चंदणकप्पूरहि महमहंतु खयरवर वि सयवर दिहि जणंतु। घत्ता- तहिं तें खयरणिवेण लक्खण गुणसंजत्तउ । जणिउ पुत्तु मणवेउ संगु अणंगु व वुत्तउ ।। ६ ।। 10 सो णंदणु णंदगु सज्जणाहं गावइ मसिकुव्वउ दुज्जणाहं । वट्टइ व मणोरहु वंधवाहं णं वज्जणिहाणु अवंध वाहं । आवासु समग्गसईहे जो जा उवाउ वेयासईहे। सो अबसें परतिय परिहरेइ परधणु ण कयाइ वि अवहरेइ । परजीविउ णियजीविउ गणेइ हिउ मिउ मउ सच्चु वयणु व भणेइ । 5 परिगहे पमाणसंखा करेइ विणएणप्पाण अलंक रेइ । इय पंचाणुव्वय विणयजुउ. गुणवयसिक्खावयधम्मरउ । साहइ विज्जाउ ण वल्लियउर णाणाविहपवर-गुणल्लियउ। धत्ता- सो णियतायहो गेहि अत्थसत्थु जाणंतउ । माणसवेउ कुमारु हुउ जोव्वण गुणवंतउ ।। ७ ।। 10 सहयरखेयरमणणंदणहो कीलंतहो खगबइणंदणहो । खाइयसम्मत्तविराइयहो जिणवयणरमय-अणुराइयहो । (5) 1.a तहि, 3.a सज्जणणिहय०, 4.a Page No. 4th is lost after वंधवपरिय, 10.a.b अत्तुलवलु । (7) !.b वट्ठइ, 6a from here page No.5 continues, 8.a गुणिल्लियउ, a.b सत्य सत्थ, 10.b जोवण । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 विजयाउरिखयर रायजणिउ जो णामि पवणवेउ भणिउ । सो खेयह हु उ तहो मितु विह जम्महो वि ण तुट्टइ णेहु जिह् । मिच्छादिट्ठि वि तहो आवडइ अण्णोण्णु ताह णिउ आवडइ। अह णेहु ण एक्कासिउ घडइ अह घडइ खण घि परिचलइ। ते विणि वि परमणेहि चडिया णं इंदपडिद वे वि घडिया । ते विण्ण वि सयलकलाकुसला जिणविण्हपायपंकयभसला । ते विण्णि वि मंदरकंदरेहि कीलंति विविहसरिसरवरेहिं । पत्ता- एक्कहि दिणि माणवेउ दाहिणभरहि भमंतउ । वंदणह ति करेइ जा जिणपत्रपणमंतउ ।। ८ ।। 10 (9) 5 चलंत उ बि थक्कु णिएवि बिमाणु विचितइ खेयरु ताम विमाणु । मुणीसह केवलणाणसमिद्ध सुमित्तु भवंत रणेहणिवद्ध । अमित्तु व होज्ज रउद्दसहाउ ण चल्लइ जेण विमाणु णहाउ । वियप्पे वि एम अहोमुहु जाम णिरिक्खइ दिठ्ठ मूणीसरु ताम । णरामरकिण्णर खेयरवंदु तमोहणिसुंभु फुरंतु व चंदु। णहंगयणे तु वियारविमुक्क फुरंतअणंतसुहाइं चउक्कु । विसट टु सरोरुह वीढविसण्णु अघाउ अच्छाउ सरोरु पसण्णु । सियावयवारण चामरजुत्तु दिसासु समुग्गय कित्ति महंतु । पयाणपयासियणिम्मलधम्म समाहि विसेसविणासियकम्मु । सुरासुरढोइय कुसुमदामु वियाणियछंदु वि मोत्तियदाम । पत्ता- तं केवलि पिच्छेवि णहयलउ उवयरियउ । ___ ताम अवंतीदेसु पेच्छइ सिरिपरियरियउ ।। ९ ।। 10 (8) 2.a.b संमत्त०, 3.b० जणिउं, b भणिउं, 4.b तह, a मित्त, 5.b ताहं, 6.b omits the line अह . . . घडइ to परिचलइ, 7.b परमणेह, b पडिया for घडिया, 8.b भसल, 9.a मंदरकंदरेहि, a सरवरेहि, 10.b एक्कहि, b दाहिणहरहे, 11 b त्ति करेवि, b ० पणवंतउ । () 1.a थक्क, a ताव, 4.a एव अहोमह जाव, 5.a किंणर, b किंण्णर, 6.a त्तु, a विमुक्क, a सहाइ चउक्क, 7.b विसट्ट, b विढणिसाण्णु, b अच्छाहि सरीर, 8.a समुज्जय, 9.a वियारियकम्मु, 10.a.b•कोसुमदामु, 11.a खेयरि ण in margin before णयलउ, b अवयरियउ, 12.a ताव, a सिरिपरियउ। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) 5 जहिं गिरिवर रेहइ णं सायर सज्झसविद्दुमबहुरयणायर । तीरि णीउ णावइ वररमणिउ कुडिलउ मंथरगइउ सुररमणिउ । मोत्तियहारसुत्ति पयडंतिउ पुलिणणियंवविव सोहंतिउ । जहि गोवलहिं गोविमंडलियउ रासु रमहि जोव्वणमय ललियउ । छित्तइ णाणासाससमिद्ध जहिं उववणई कुसुमफलरिद्धइं। वयकारंडहंसपरिपुण्ण जहि सरवरई भिसिणिदलछण्णइं। गोमंडलमंडियसीमंतई गामइं बहधणकंचणवंतई। जहि गोउरपायाररवण्ण णयरइं णायरणरपरिपूष्णइं । घत्ता- तहि उज्जेणि णाम वरणयरि मणोहर दिट्ट । अमराउरि व विहइ जा विवुहयणह मणि? ॥१०॥ 10 (11) णाणाके उपंतिध्वंतिउ जहि णहलग्गउ सुरहरगतिउ । सवणसहरि करिकंचणमयघर जहि सोहंति णाई सुरमहिहर । गुरुविणयाणुगामि ण य जिणवर जत्थ भव्व णर पवरामर । जहि रइकरणालिंगणकोच्छर सयल वि तिय णं मणहर अच्छर । वहुचंदणभुयंगकयराइय णं मलयायल अडइ विराइय । 5 सरयरणयणायरवेलाइ व वहु पयसावणघणमालाइव । चउवण्ण सयसुर धणुदित्ति व पंडुर दीसइ तिणयण मत्ति व । सकलसजिणअहिसेयपवित्ति व सब्बसुहं करिमुणिवइवित्ति व । घसा- तहि उत्त रहे दिसाइ माणसवेउ खण्णउ । उववणु झत्ति णिएइ णाणातरुसंछण्णउ ॥११॥ 10 (10) 1.a जहि, b सझससविद्दुम०, 2.b वररमणिउं, a मंथरगइसुर०, ___b सुरमणिउं, 3.a •णियंबबिब, 4.b omits the line जहि गोवहिं . . . ललियउ, 5.b छेत्तई, a समिद्ध इ, a उववणइ, a रिद्ध इ, 6.a oपुण्णइ जहि सरवरइ, a °छण्णइ, 7.a ०सीमंतइ गामइ बहुकणकंत्रणवंतइ, 8.a ०पायारवण्णइ णयरइ, a ०णरसंपुणइ, 9.b तहिं, b वरणयरिं, 10.b अमरावरि, b विवुहयणमणिट्ठ । (11) 1.b जहि, a णहिलग्गउ, 2.b जहिं, 3.b पररमर, 4.b जहिं, b सयलं, b inter. णं and मणहर, 5.b ०भुअंग, a ०कइराइय, b मलयाणिलभूवणराइय, 7.b ० हुत्ति for दित्ति, 8.b सव्वं, b मुणिवरवित्ति, 9.b तर्हि, b दिसाहे माणसवेडं, 10.a णिएवि, b तरुवरछण्णउ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) 5 रुह चुहंति खयरावलिसद्देहि जं रेहइ मंदहि मायंदेहिं । सिंदुवारमंदारहि कुंदहिं चंदणपिचुमंदहि मुचुकुंदहिं । तालेहि तालहिं तालू रह सालतमालतालमालू रहिं । चंदणधवअक्खहि रद्दक्ख हि फोफलिमाहुलिंगवहु दक्खहि । णालिए रजवीरक विठिहिं पुण्णायहिं णायंजण रिठेिहिं । लवलिलवंगेलाकंकोलाह कप्पूराय तिलयहिं वउलहिं । तहि ख ग णागगरामरवंदहो वंदणह त्ति करेवि मुणिदहो। सेसाण वि मुणीण पवणेप्पिY भवियह इच्छाकारु करेप्पिणु । गोत्तु ण।उ अप्प उ पयडंतउ । परमाणंदे णाई णडतउ। जाणुअसिरु ध रणियलि णिविट्ठउ ना पुच्छंतु एकु वणि दिउ। घत्ता- इह संसारि मुणिद केत्तिउ सुह दुहु पाणिहिं सामिय करुणमईहें अक्खहि महु अण्णाणिहें ॥ १२ ।। 10 (13) 5 एत्यंतरे अहिणवजलहर सरु वच्छायण्णहि भणइ मणीसरु । की वि पुरिसु कत्थाइ गच्छंतउ विज्झाडइहि भिल्लपहे पत्तउ । ता समुहितु दिट्ठ तें करिवरु णिज्झरवंतु तुंगु णं गिरिवरु । उण्णयकुंभु अण्णुण्णयपच्छउ महिघुलंतदीहरकरपुच्छ उ । पिच्छेवि मणुअरु उ णिरु रुट्ठउ धावतेण तेण अइदुट्ठउ । करिण करेण ण धिप्पइ जाहि अडइवहअडु तें दीसइ तावहिं । कासहो तं तु तेत्थु अवलंवेवि गयभएण अण्णाणउँ लंवेवि। जाम अहोमु हुं किर अवलोयइ ता गुरु अजयरु तेत्थु पलोयइ । चउकोणे सु चयारि भुयंगम दीह णाई तमतमणरयहो गम । खणिउ सिया 5 सियखुहिताकासो पारभिउ णं भवित्तिहि णासो। 10 (12) 1.b चुहंत, b सद्दहि, a मायंदेहि, 2.a सिंदुवारिमंदारेहि कुंदहि, b मचुकुंदहि, 3 b हितालहिं तालहिं, a तालू रहि, a omits oताल before मालू रहिं, 4.b चंदणधुवअक्खेहि, रुद्दक्खेंहि, b पुप्फल०, a माहुलिंगि०, b वहुदक्खेंहिं, 5 णालिएरिजंबीरिकविट्ठहि पुण्णायहि णायंजणरिट्ठिहि, 6.b लवंगएल०, a तिलयहि व उलहि, 7.a तहि, b खगणाय', 8. b भवियह, b करेविणु, 10.b जाणयसिरु, b एक्कु, 11.b inter. सुहु and दुहु, b पाणिहे, 12 a करुणामईए, a अण्णाणिहि। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत्तहि करिणा तं अलहंतें अडतउविउविसमाहउ दंतें । करिगुरु घाएँ जा तरु पेलिउ ता साहहि भामरि महु पयलिउ । पत्ता- उटिठउ महुयरिसद् णिसुणेवि उद्ध् णिरिक्खाइ। किमिणं इय चितंतु महु गलं तु ता पेक्खइ ॥१३॥ 14 (11) तो उट्ठवयणस्स उट्ठउड महुविंदु पडिउ जिणुत्तम्मि जोणिदु अइमंदु । सोसाउलहिओ ण लोहेण ण उ चलइ पाविद्ध चितेइ अण्णो वि जइ गलइ। तो महुयरी वयणसुईहि विज्झेइ इंदियवसो किं पि दुक्खं ण वज्झइ । इय एत्तियं वच्छ दुक्खं मणे मुणहिं सोक्खं पि महविदुणा तुल्लु परिगणहि । तहिं अडवि जा कहिय तं मुणहि संसारु पुरिसो वि जो जीवो करी मच्चु दुव्वारु । 5 भिल्लाण पंथो अहम्मो अडो देहु अजयरु पुणो णरउ तरु कम्मबंधो ह । कासस्स तंवो वि आउसु वियप्पेहि सियअसिय दो उंदुरा पक्ख जहि । सप्पा चयारि वि कसाया वि णिहिट्ठ वाहिउ महुयरीउ जाणेह धम्मिट्ठ । एरिसू वियाणेवि जिणधम्मु कीरेइ अइदुत्तरो जेण भवजलहि तीरेइ । धम्मेण कुलयर जिणा चक्किणो होंति छंद पि मयणावयारं पयंपति। 10 घत्ता- वरसोहग्गहो पुजु गुणलायण्णहो सायरु।। धम्में सुरणरदेहु होइ णिरोउ कलेवरु ॥१४॥ (15) धम्मेण रयणंसुजालाही रम्माइ कंचणविणिम्मियइ उत्तुंग हम्माइ। धम्मेण हरिरहा जाण जं पाण धम्मेण सियचामरा छत्त णर जाण । धम्मेण मणिकडय कुडिसुत्तकुंडलइँ धम्मेण देवंग व छाइ उज्जलइँ ।। (13) 1.b वच्छावण्णहि भणई, 2.a कत्थ वि, b गच्छंतउ हिंडइहें, a भिल्लपहु, 4.b अणुण्णय०, b घुलंतु, 5.b मणुयरूउ णिहरुठें, b अइदुढें, 6.a जावहि अडइहि अड, a तावहि, 7.a अप्पाउ, 8.a जाव अहोमह, 9.a ०णयरहो, 10.b सियासियआहतकासो पारंभिउ ण रवित्तिहे णासो, l.b अडतडि०, 12.a ०धायं जा तरु पयलिउ, b भामरिहु पयलिउ, 13.b उठ्ठिय । (14) la उट्ठउरि, b जिणु तम्मि सुत्तमि जोणिदु, 2.b पाविठ्ठ, 3.b तं for तो, a वयणसुईहि, 4.a.b मुणहि. a.b परिगणहि, 5.b अडइ, b महि, 6.b अजगरु, 7.a कास्सस्स, a वियप्पेहिं, 8a महुरीउ, b जाणेहिं. 9.a सो for जेण, 10.a चक्किणा, il.a वरसोहगु हो, b गुणलायण्णहं, 12.a कलेयरु। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मेण संपूण्णछणयं दवयणाउ उत्तुंग अइपीपीवर - यणालाउ दरपत्रकविव व्व जणजणियलालाउ जायंति पुरिसाण वहुणेहवंताउ धम्मेण सव्वाहं पुज्जा णरा होंति घत्ता - अहवा किं वहुएण जं जं सोहणु दीसइ । तं तं फल धस्स जाणहि केत्तिउ सीसइ ।। १५ ।। (16 तो लहेवि अवसरु स खयरो भइ दियपुरा णत्थि संदिटिठ्उ जिणवरिंदमग्गाणुजाइउ तं सुवि मुणिणा पयंपियं तम्मि णेवि परकयपुराणयं हे उ ण य सुदिट्ठत सोहियं कम्मबंध संसारमोक्खयं करहिता सुमइगुण विलासिणी पत्ता - इय पभणिउ णिसुणेउ वेएँ माणस उ जा विमाणे ण खं खयरो गच्छए तामावि सो झत्ति आलोविउ मित्त 'मुत्तूण मं कत्थतं अच्छिउ कील से तहा कील वावीजलो देव हम्मे वर्ण लोयणामंदिरे पम्फुल्लकंदळे हृदलदीहणयणाउ | भंगुरिय सुसिणिद्ध भसल उलवालाउ । 5 झसइंध रायस्स णं वाणमालाउ । हम्म महिलाउ गुणविणयजुत्ताउ । धम् विणा ते विवयणु वि ण पायंति मुणिण वे वि सिरसिहरकयकरो । मज्झमित्तु अइमिच्छदिठिउ । कह हवेइ सम्मत्त राइउ । कुसुमणयरु देवाण जंपियं । पयडिओ ण अ घडमाणयं । जिणमयं पमाणा विरोहियं । भासिओ ण दियवरसमक्खयं । Tas छंदु एरि विलासिणी । पणवेवि मुणिण हहो । चल्लिउ सम्मुहु गेहो ||१६|| (17) ता विमाणत्थु मित्तं सुहं पेच्छए । वाउण एंतूण आलोविउ । ताय गेहे या सव्व आउच्छिउ । वल्लिगे सरे बाहियालीथले । जोइ पट्टणे मंदिरे मंदिरे | 10 ( 15 ) 1.b जालाहि रम्भाई, b हम्माइ 2b हरिकरिन्हा पवरणर जाण धम्मेण b छत जं पाण, 3. a कुंडलइ, a उज्जलइ 4.b छणइंद०, 5.b भंगुरियसुसणिद्ध, 6 a झसवेंध गयर स णं वालमालाउ, 7a पुरिसस्स, boहवंतर 8 a सव्वाई, b धम्मं, b पावंति, 10 b जाणहिं, a कि किर for त्तिउ, b सीसई । 10 (16) la सो for स, 2. b भणई दियपुराणस्स संठिउ, a oदिट्ठउ 3 b हवेउ सम्मत्तरइउ, 5.b ण अ इअ घडमाणयं, 8a परिसु for एरिसु, 10.a तेयं, a हो । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा ण दिट्ठो सि ता एत्थ हं आइउ जा जियारी सुएण समालत्तयं अस्थि रम्म तहिं पावअग्गीवए पट्टणे पट्टणे जाव गच्छामहं पाडलीउत्तं णामं पुरं सुदरं ते विउयम्मि मे झिज्जए कायउ। मित्त जं दाहिणं भारहं खेत्तयं । भत्तिए वंदमाणी जिणाणं पए। ताव दिळं मए दिह्रिसोक्खावहं । छंदयं सग्गिणी णाम एयं वरं। 10 धत्ता - जहि चउवेयणि घोसु दियवर विदा उच्चरिउ । __छिप्पइ वडुयसएहि जण्णकम्म उवयरियक ।।१७।। (18) जहिं गंगायडि मुंडियमुंडा हरि हरि हरि उच्चरणसमत्था वंभ सालउवइट्ठपहाणा विण्हपुगणु भयव वक्खाणहि बुजहि के वि तित्थ वइसेसिउ साहिय के वि के वि गहजोइसु पुजिजय गरिहिवत्त आह वणिय अग्गिपरिग्गह दीसहि होत्तिय जत्थ के वि दिय छक्कम्मरय अक्ख मालदालणणियमिय मण धरियकमंडलभिसियतिदंडा । हाहिणि व्व वहु ण्हायपसत्था । वायजप्पवइतंडवियाणा। जण्णविहाणु के वि दिय जाणहि । मीमंसा दियगुरु उवएसिउ । के वि भणति कविलगोयरपसु । दक्खिणरि गहुय णाणाहवणिय । घडवण्णिय णाणाविह सोत्तिय । अण्णे वंभयारि तियविरय । कय कमलासण | कमलासग। 10 घत्ता- तहिं जा मित्त णिए मि इय णाणाविह चोज्जइ । उप्पणाइ सुहाइ तामरुवेय मगोज्जइ ।।१८।। (17) !.a मेत्तं, 2.a ताव, b अवलोइउ, b आलाइ उ, 3.a मेत्तु, b मत्तु, b ताय मेहो मए, 4.a बेल्लिगेहे. 5.a मदेरे मंदिरे, 8.b तहि, 9.b जामि गच्छामि हं । ताम, 10 b वरं for पुरं, ll.b दियवरिद उच्चारहि, 12.a वहुयसएहि, b उवयारिउ। (18) l.a जहि, 2.b omits one हरि, b हायसमत्था, 3.a ० उवइट्ठपहाण, 4.a मणहि for भयव, 5.a मीसंसं, 6.b संहिय, b कपिल मउहं य पसु, 7.b गरिहपत्त, b दक्खिणग्गिहुअ, 8.b दीसहि, 9.a छकम्मरय, b छक्कम्मन्या, 10.b जं before अक्खमाल०, a अक्ख-मालढालणि', b कथक मलासण, Il a तहि, b चोज्जई, 12.b उप्पणाई सुहाई। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (19) साहियवत्तो पहसियवत्ता। खगवइपुत्तो सुहिगा उत्तो। माणसवेया माणसवेया। किमहो जुज्जइ तुह मणि छज्जइ। एवं काउं मई विण जाउं। दहें चोज्ज जइ वि मणोज्जं । हो हो पुज्जइ कि वोलिज्जइ। तो मणवेउ पभणइ छेउ। पउरायरियं बहुअच्छन्यिं । तहिं पेच्छंतो तित्ति ण पत्तो। विम्हयभरिउ पइ वीसरिउ । जंहो मित्ता गुण गणजुत्ता। तं अवराहं ख मसु वराह । तो हसिऊगं मरुवेएणं । भणिओ मित्तो तं पर धुत्तो। माया णहिय अप्पाणे हिय। उज्झिय तावं ता खमभावं । गन्छइ वित्तं मित्त णिरुत्तं। जइ गच्छामो तं पिच्छामो। छंदु सकलउ पायाउलउ। घत्ता-ता माणवे उ भणेइ जा हु गमगु आसंघहि । फुडु कुसुमउरहो णेमि जइ महु वयणु ण वहि ।।१९।। तो भणिउ तेण मारुयजवेण जं भणहि जेम त करमि तेम जइ ण करमि वयणाइ मित्त ता खयररायतणएण भणिउ (20) कि जंपिएण वहुणा अगेण । हें वसियरण ण होइ केम । ता तुह सरीरु गुरु 'पायचित्त । कुसुमउरु भाय जं जेम मणिउ । (19) 2.a खगवयपुत्ता 3.b omits ote माणसवेया but writes the sign x for repetition of the same word, 5.b काउ, a मइ, 10. त for तहिं ll.b विभयभरिउ पई. 13.a पराहं, l6.a अप्पा ह हिय 21a तो for ता, 22.a फुड, b कुसुमउनहो । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततुह दरिसमि पच्चूसयालि वसिऊण अज्ज मंदिरि बिसालि। 5 तो तहि विण्णि वि गुणगणमहंत मणवेयगेहे सह सत्तवत्त । दिव्वहिं आहारहिं वहुरसेहि णं तरुआहारहि बहुरसेहिं । विहि पाविय पोसिय सुहगणाई लइयइ तंवोलविलेषणाई । धत्ता- आलिगिवि हरिसेण पंडियविज्जवियाणा। रयणिहि सहयरसुत्त हरिवल अणुहरमाणा ॥२०॥ 10 इयधम्म परिक्खाए चउवगाहि ठियाए चित्ताए। वुहहरिसेणकयाए पढमो संधी परिछेओ समत्तो। ।।१।। (20) 1.b भणिउं, 2.b भणहिं, 3.b न्हरमि, a णयणाइ, b तो, 4.b भणिउं, a जे जेव भणिउ, 5.a तह, 6.a ते, b सत्तियत्त, 7.a दिव्वहि आहारहि वहुरसेहि, 8.a सुहिमणाइ, b लइयई, a बिलेवणाइ, 10.b adds |छ।। after ॥२०॥ ll.a चउवग्गाहिट्ठियाए बुह०, a बुहहरिसेणे, 12.a परिसं, a ॥छ।।१।। श्लोक १७८ ॥ छ ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. बीओ संधि ___(1) 5 अवरहि दिगि दिणमणि उग्गमणे ते त्रिणि वि कुसुमउरहो चलिया। किकिणिरगंत जाणहि खयर गय णायरणरपउरहो ॥ छ । तहिं पुरवाहिरि अवसरहिं जाम मणहरु उववगु पेच्छंति ताम । हिंतालतालताली ललंतु कंकेल्लिवेल्लिपल्लव चलंतु । अहिणवहरियंदण लय संहंतु कप्पूरसुरहितरु महमहंतु ।। तहिं थाय वि विज्जावलवलाई णाणारयणावलि उज्जलाई। गह जाणइ जाणइ संवरे वि कमणीययं रइरूवइ करेवि। मणवेउ भणइ भाणयउ करेहि मउणेण मित्त मइ अणुसरेहि । तिह कयउ तेय संचलिय वे वि विज्जाकयखडलक्कहइ लेवि।। मणिकइयमउडकुंडल हरहिं पुरवरपइसंतह णरवराहँ। 10 जंपति सविब्भम के वि एम एरिस विक्कट्ठतणवहहिं केम । लक्खिज्जइ जणियसुमूढदेह परमत्थु अहव किं कीलएह। घत्ता- अवर भणहि जेम मणिमउडहर णरविक्कहि तणकट्ठहि।। तहो तणिय तत्ति ण वि परिहर इ जो सो पावइ कट्ठइ ॥१॥ 14 (2) इय मुणेवि परतत्ति ण किज्जइ । कज्जरंभु फल हि जाणिज्जइ । एत्यंतरे पुरवरणारीयणु वोल्लइ मयणाण लुभावियमणु । हले हले कामएउ हरएवें जणु जंपइ दड्ढ कोव णवर मार विहि रूवइ आयउ णं तो पीडइ कह महु कायउ । क वि भासइ वयंसि सुकुमारहु एयह दासिह वे उ कुमारहु । 5 आलावेण कयत्थ हवेसमि पयपक्खालणफंसु लहेसमि । का वि भणइ हले जइ विक्कइ तणु पुच्छि पयच्छमि मोल्लु जइ वि । (1) 1. b omits चलिया, 3.a तहि, a अवयरहि, a मणहर, 5.b महुमहंतु, 6.a तहि, b थाए, a °बलाइ, a उज्जलाइ, 7.b जाणइं जाणई, b कमणियइं रइरूवई, 8.a करेहि, b मई अणूसरेहि, 9.b ०कयखडं, 10.a णरवराहे कुडलवराह, ll.b सविभय, b कंट्ठ, 12.b लक्खिज्जहि, 13.b मउडधर गरविक्कहि तणं कट्टई, 14.a सत्ति, bणं वि, b कट्ठई । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीविएण सहि किं अकियत्यें जंपs अवर जासु सिरिकट्ठई भहले कील सो महु जोव्वणे अवेण सुजोव्वणसहिएँ हि अंतरगुणु फरहण सहयरु अण्ण भणइ सलोणु अइसुहव आलि आलि एहु उपरि वटुइ पियविरहेण हियवर फुट्टइ सच्चउ लोयाहाणु परिद्धउ अह जंपरनिमित्तु सई किज्जइ इवाइँ णिसुत समासए तेत् पितणकट्ट एप्पिणू ७ कवीले मणवेउ वइट्ठउ तो दियवर णिसुणिय भेरीरव १४ घत्ता - अवर भणई हलि अण्णभवे भइ तउ चरण चिण्णउ । कमोड पुच्छंतियहि कुमरिहि वसणु ण दिष्णउ ॥ २ ॥ जहिं फंसु ण एयह अत्यें । तासु जि अंगइ मज्झु मणिइ । अहो मुय घलेज्जउ सववणे । (3) किं वण्णमि सोहग्गे रहिएँ । आउलिहुल्ल हि रमइ ण महुयरु । दीसह वे विणाइँ ले माहव । जहु दंसगे रइसलिलु पयट्टइ । तल्लोवेल्लिसरीरहो वट्टइ । खोडससे व वाडउ रुद्ध उ । कम्मु अ भुत्तुकेम तं खिज्जइ । वंभसाल जा श्रिय पुव्वासए । टारी पाएप्प | इंदु व पेच्छ लोएँ दिट्ठउ । हिमाल सिहिभइरव । धत्ता - वायं अहमहमिय करमि एम सव्वं जपता । कणयासणसिहरारू जहि खयरु तहि संपत्ता ॥ ३ ॥ 10 5 ( 2 ) 1.6 कज्जाइंभु फलहिं, 2.6 लतावियमणु, 3b हररूवें, 4. b वरि, a माइ for मार, b omits कह, 5.6 वंइंसि, b एयहं कुमारहूं, 6.2 गणेमि for लहेंसमि, 7. b मणई, a मोल्ल, 8. a जहि, b एयहो, 9.a कट्ठइ, a मणिटठइ, 10.b कीलउं, b अण्णई, lla अवरे पभविउं, a अवरे भवे for अण्णभवे, 12. a मोल्ल, b कुमरेहिं, b दिण्णउं । 10 (3) 1.b वण्णें, 2.a जहि, a आमलिहुल्लाह, b भमई for रमइ, 3.b अण्णई साले, 4.b writes number 2 for the repetition of the word आलि 5.b ण after oविरहेण, 6. b खंजेसएव ण वाडउ for खोडससे व, 7.a oणिमित्त सइ 8 a बयणें, 10 b णिविट्ठउ for वउ, b लेयहिं, 11.b णिसुणेवि ० जलणसिय भइरव 12. a एवं सव्व, 13.b जहिं, a खेयर । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पुन मगवेयरूउ पिच्छेविणु अवरोप्पर पभणहि वि हत्तेविणु । अम्ह भतिभावें रंजियमजु सइ पच्छक्खी हुउं णारायणु । जय जय विहु विण्हु पर मेसर लोयणिमित्तु णिहयअसुरेसर । पुडविहि एम मणंत लुढंता सम्भावे गीयाउ पढ़ता। अवरहि भणिय काइ किर पहु विण्हु चउन्भुउ कि ण वियप्पहु। भवहि केवि एहु वंभु पहाणउ अवर भहि वंभु चउवस गउ । इयत्वेण हवे सइ संकह अह तियच्छ सो लोया संकरु । इंदु वि सो सहसक्खु पसिद्ध उ कि ससरीरु जइ वि मयरद्धउ । अज्ण भ गहि किमणेय वियप्पे एहु णउ जाणिज्जइ विणु जप्पें । तो दियपवरें एक्कें वुत्तउ सरहु णिय आगमणु णिरुत्तउ। घत्ता- कि तुम्हइ कवणु वाउ करहु भेरीघंटावायगु ।। वायं अजिगं तेहिमि कयउ कि कणयासणि रोहणु ॥४॥ 10 5 (5) चत्तारि वेय छदसणाइ इह पुरवरि रंजियवुहयणाइ । सबलु वि जगु जाणइ हम्मे हम्मे णिच्चुच्छव विरइय विविहधम्मे। तुम्हइ पुणु किं वायहु कुणेहु कि कि अउव्वु अवरु वि मुणेहु । जियसत्तुसुएण तो भणियं णाउ विण अण्णवायह मुणियं । परजाणहु वाउ पहंजणउं जो पयड उ रुक्ख विहंजगउं । वेउ वि हरि णइं धावंतयहं दसणु वि मुणहुं गियकयंतहं । इह दुण्णि वि दुग्गयतणवणं गिण्हेविणु लक्कड़भारमिणं । आइय गुरु तूर णिएवि मए वायउ णउ जायए वायं मए । एव दुहो केवडउ भणेवि णिसुणियउ सददु घंटहो हणेवि । कोउहलेण कणयास गयं आरूढ उ मि भा भूसणयं । 10 घत्ता- जइ मइ हे भासणसंहिएण तुम्हइ भावइ दुण्णउं । तो एत्थु ण अच्छामि खणु वि हउ इय भणेवि उत्तिण्णउं ॥५॥ (4) 1.b मगवरूउ, b वईणहि पियसेविणु, 2.b सइं, 3.a सिहय for णिहय, 4.a एव, a ससावे for सब्भावे, 5.a अवरहि, b किण्ण, 6.b भणहि, b पहाणउं 6.b भणहिं बंभु वि चउ, 7.b लोया भंकरु 8.a इंदु सो वि, a सरीर उ, a omits वि, 9.a अण for अण्ण, b किमणेण, b ण for ण उ, 10.b दियमउरें, Il b repeats घत्ता- 11.b के for किं, 12.b कणयासण (अमितगति धर्म 3.66) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तओ सुठु रुट्ठे भट्टेण पुट्ठ तुमि किं पयंडेण रुक्खेण भुत्ता किमुग्गीणतारुण्णगव्वेण भग्गो समत्थत्वेईण भट्टण ढाणे अलं ता इमेणालजालेण धुत्ता पत्तूण डंभं पसाडेह कज्जं तभासि तेहि रोडेहिं वृत्तं ण ण वि दोसेण हं भंतचित्तो पुणोत्तं दिएणेरिसा कत्थ दिट्ठा - यानंति एवं भुयं गप्पयाउ तो वाइइ मयतिमिर दिवायरु जाणमि परपेसणरयणरवर सहसा विरइयकज्जाण णिहि सोलह मुट्ठिहित कहाणउ दियवरु भइ तं पिजिह जाणहि ता माणवेउ भणइ सोक्खालउ भमरु णामु तर्हि विसइ गिहवइ १६ (6) घत्ता - अहवा जइ जाणहि तुहुँ मि भणु कडयमउडकेउरहरा । भारहे पुराणि रामायण विणीय कम्मकर कहिमि परा || ६ || एवं वह चेट्ठियं सिट्ठ इठं । अलंकारदप्पेण किं सपउत्तो । किमेण रूपेण उम्मग्गलग्गो । करे भं रिसद्देण हं तं णियाणे | पियट्ठाण मज्झम्मि मायाण जुत्ता । 5 किमुपाइयं अज्ज लोयाण चोज्जं । जुतं परंजेवि अठाणचित्त । खेडं लक्कडं विक्किउं एत्थ पत्तो । तणं विक्कता पुरतं पइट्ठा । फुडं छंदु एसो भुयं गुप्पयाउ । (7) तं सुणेवि पभणइ खेरु । किंतु भएण ण पयडमि दियवर । कोवजण जलियहिं अहिमा गहि | माहुजिउ दुखणहागउ | सोलह मुट्ठि कहाणउ पभणहि । अत्थि गामु मलए संगालउ | तासु पुत्तु णामे महुयरगइ । 10 ( 5 ) 1. b छद्दंसणाई, b पुरे वरे, b० बह्यणाई, 2a णिच्चुच्छवि, b हम्मे हम्मे for विविधम्मे, 3b कं वायं, a अपुब्बु, 4. णियसत्तसुएण, b तउ, a णाउ मिण, b अण्णवायहु, 5 b परजाह, विहंजणउ, 6. विहरिणइ धावंतयाहं, a मुणहु पियकतयाहं, 8. aणियेवि, a वाइउ, 9.b केवट्टउ a घंटहे, 10 b भू भासणयँ, 11. a हेमारुणे सिरिट्ठिए b माणसठिण तुम्हs, b दुण्णउ, 12.b उत्तिन्नउं । 5 ( 6 ) 1.b घुटं, a रक्खेण, 3.b ०गव्वाण, a किएण for किमेएण, 4. a करे हरिसंजेण वं हं णयाणे, 5.a धुत्तो, a जुत्तो, 6. b पमोत्तुण, a पसाहेहि, 7.a तेण रोडेण पुत्तं b यट्ठाण, 8 b भव्वचित्तो, b खड, a विक्किउ, b भयँ गप्पायाउ, 11.b जाणहिं, a तुहु, b० केउरधर, 10. भुअंग b 12.b पर । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गउ आहीरदेसु पिउरोसें भाणि तेण नियणयणहि दिट्ठउ मिरियहँ रासिउ जिह महुमंडलि छेत्तकुडुंविएण ता वृत्तउ किज्जड़ इयमुत्र विण्णत्त किज्जइ दो दो पोल्लिउ मुट्ठिउ एयहो तं विरइउ साधम्मे करणें सच्चए वोल्लिए जहि एही गइ इय चिंतंतु स एसहो गच्छइ तहि मि तेण पुणु एइउ भासिउ म अहिरदेसि सइ दिट्ठउ उसहकारणि चणय ण लब्भहि तेत् सो वि दंडतें पाविउ १७ धत्ता- तो कणवं टावण करणु तहि भगइ एहु धुत्तति । अम्हाण देसु उवहसइ खलु वंधहु किं बहु श्रुत्तें ॥७॥ यह रासिउ पेच्छिवि रोसें । जं के विण कयाए विसिट्टउ । तिह इह पुणु चणयाण य खलि खलि । 10 (8) asदोसरूवाण णिरुत्तउ । उवहासागुरुउ विरइज्जइ । सिरि दिजंतु अलिअविविवहहो । चितइ गहवइसुउ सिरहणणें । वसउ मारि तहि णउ महुयरगइ । जाता मिरियह रासिउ पेच्छइ । चणयाणं एव हुउ रासिउ । तहि मिकरणु पभगइ झुट्ठउ । तहि कहि किर रासिउ उवलब्भहिं । नियमुक्यदुखखें संताविउ । धत्ता- अवर विदहपुरि सा अस्थि जइ तुम्ह मज्झि तउ वीइमि । सच्चं चिय कहिउ ण सद्दहइ तेण दियंद ण साहमि ॥८॥ 5 (7) 1.6 पभणई, 2.b परपेसयर, 3 a गिहि and in margin अज्ञानी, a o जलियहि अहिमाणहि, 4. b तणउ, 5 b भणई, b जाहिं, b कहाणउं पर्णाह 6. b तो, 7.b णामि, a तहि, a वगहवइ, महुयरकगइ, 8.b पडरोंसे, b चणयहे, 9.b ०णयणहिं, a काया वि, a ण before सिट्ठउ, 10. मिरियह, a चणयाणं, a omits य, 11.b भणई, 12.b ध 10 (8) 1.a छेत्तकुडंविएण, b दंडुदोसरूवण, 2.2 उवहासुणुरूह, 4. विरयउ सापक्ख करणे, b सिरिहरणें, 5.b मारि णउ तहिं महुयरगई, 6.b मिरियहं 7. a तहि बि, 8 b मई, b सई b पभणई, 9 a लम्भहि तहि, a उवलब्भइ, 10 a adds वि before सो, a दंडु तें, 11.a जई, a ता for तउ 12.a सट्ठहहि, b दिइंद । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. रक्त मूढ कथा तो दिएण भासिउ सई इच्छए मूलकहाण कहेज्जसु पच्छए । कहि ता कोऊडल हो णिहाणउ जिह वित्तउ दहपुरिस कहाणउ । तं णि पुणेवि भणइ खगणंदगु दसण किरण विच्छुरियणहंगणु । इत्तु दृछ म ढउ दुग्गाहिउ पित्तवाहिपु णु चूयविरोहिउ । खीरागरुचंदण मुक्खाविय इय अण्णाण दह वि संभाविय । 5 एयह मज्झे णडम साहिज्जइ रेवादाक्खिणयडि णिसुणिज्ज इ। सामंतवरु तेत्यु वहुधणी णिवस इ गामडु वहुधण्णी । पढम घरिणि जिह णामें सुंदरि तिह रूपं सीले ण वि सुंदरि । अवर तासु मणहरतणुअंगी पीवरथण णामेण कुरंगी। पढम हीणजोवण जाणेविण इयर तरट्टि जुवाण गणेविणु। 10 रत्त विरत्तु कुरंगिहि कंतहो ण गणइ कि पि विडंतरि जं तिहि। दुच्च रियह भरियह खल खुद्दइ णिभच्छिउ णियकतु कुरगइ । हंसावराइ पवंचु करेविणु भणिय तेण णियअद्ध लएविणु । घत्ता- अवरहि घरि णिय पुत्ते सहिया अच्छहि णिए सुहभायणि । तं तिह करेवि थिय सुद्ध मई चितेविणु णियकम्म मणि ।।९।। 15 (10) गहवइ इयरए सहु अच्छंतउ इट्ठकाम भोयइ भुंजतउ। दियहि जंति ण वियाणइ जइयहु राए वि जयजत्तकय तइयहु । तेग वि सो वि हककारिउ जाणहि । भणियं पुरिल्लएण पिय तावहिं । णिच्छल्लियच पयगोरंगिए खंदावारहो जामि कुरंगिए । वणियसरिरु मयणसरजालें आवेसामि अहरेण विकालें। 5 तं णिसुणे विणु णयणजलोलिलय कवडसणेहि कुरंगि पवेल्लिय । पई विण महु विरहम्मि पलिण्णइ तणु मसणसरहि तिलु तिलु कप्पइ । वरि तुह अग्गिइ मरमि ण अच्छमि दीह वि तुय दुक्खु ण समिच्छमि । (9 1.a सइ, a मूल कहाण, 2.a adds प after ता, b कहाणउ for णिहाणउ 3.b भणइं, 5.b ए for इय, b दह दह मि, 7.b सामंतउरू, b धणी णिवसइ, 8.b जिण for जिह, 9.b वर for मणहर, 10.a मण्णेविणु for जाणेविणु, a गणेप्पिणु, 11.b गणइं, 12.b दुच्चरियइं भरियई खलखुद्दए णिब्भच्छइ, b कुरंगई, 13.a हंसावइ, a पियअद्भु, 1..b अवर है, b सहियं अच्छहि, a पिय, 15,a सुद्धमई । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ता- तापयणणवेपिगु पिउ भणइ उं मि विओयह वीहमि । परमणिलाल णिउ पर हरइ तं तुह गमणु ण ईहमि ॥ १० ॥ ( 1 1 ) इय भणेवि महल्लउ गामडेण अप्पण मुक्कु खंदावारु जाम कीलई अदि अणुरत्त चित्त भोयतंवोलविलेवणाइँ इकवि दिवस किर जहि जाम गिद्धण जाणेविणु जारएहि क्झति झाडे वि केम यिपिय-आगमणु मुणंतियाए तो संपत्तपुरिल्लएण विष्णविय णवेवि कुरंगि तेण १९ तो सुंदरि पभणइ महु मंदिरु सो कह एत्थ माइ भुँजे सइ ता कुरंग पभणड़ महु वयणें इय आण्णेवि अकुडिलभावए बहुधणी विता ताव सुच्छयउ धत्ता - तं णिसुविणु मंदिरु सुंदरहि जाएवि धुत्तिए बुच्चइ ! पिउ आयउ अक्किरंधि तुरिउ केम कुलक्कम मुच्चइ ॥११॥ (12) बुद्धा हि मुक्कु ते । जाहि समेउ कुरंगि ताम । ण मुर्णामयिकंतहो तणिय वत्त । तहो देइ णिच्च बहु णिवरुणाइँ । कणसेसु विणवि उवरियताम । तपय आगमणासं किएहि । परिपक्क पंथि थिय बोरि जेम । किउ पयसियमियतिय वेसु ताए । णियपुरिसु पुरउ पट्ठविउ तेण । वद्धाविय माए पियागमेण । तु कंतो उ णयगादिरु | रद्धरसोइ विहल जाएसइ । भुंजइ उक्कोइ मणमयणें । कय वहुरसरसोइ गयगावए । हुलहुहिं धरिणि घरु आयउ । 10 S 5 ( 10 ) 1.2 गहवई इयरएं, b सहुं, b ० कामभोयई, 2. b दियह जंत, a omits वि, b याणइ, 3.b omits वि after सो, a जावहिं, a पुरिल्लएहि पिय तावहि, 5.b आएसमि, b चकालें, 6. b कवडसणेह, 7. b मयणसरहि, 8. b गई, a दुख, 9. b. पणवेविणु, b भणई, a हउ मि, b विउयहां 10.b गि पई, b तें for तं । 15 4. a •विलेवणाइ, (ll) 1. a तहि, 2. b अप्पुणु a जाव जारेहि, a तात्र, b वर for वहु, a णिवसणाइ, 5 a जाव कणसेस, b ण, 3 उच्च रिडं, a ताव, 6. b जारएहि, 7. b मुक्की, a केव, a पथि, a जेव, 8. नियंतियार किय, b inter. पिय and तिय, 10.b विणा for विष्ण, a वद्धविय, 12b पहु for पिउ, a केंव कुलकमुच्चइ | Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरिया जातित्थु णिविट्ठउ भणिउ धुत्तणेण सवत्तिहे कानविय तहि णयण पियारए घत्ता - एत्थंतरि सुंदरि पेसिएण पुत्ते ए वि भणिज्जइ । सिद्धरसोइ वररससहिय एहि ताय भुंजिज्जइ ॥ १२ ॥ (13) कुरंगि णिविडपे गुण घडियउ अणु पियवयणु विभावइ चंचल लोयण गाइ कुरंगी कि किर पयडियाए वहुमायए इह किं खाहीस अप्पाणउ कि इह भुत्तेण वि विणु णेहें तो तहे वणें कज्जु वियारियि आसण कर हत्थ ता सुंदरि दिण्ण थालकंचोल सुभासिय अकुडिलमणहि ण मच्छरु वडिढउ कुडिलए कुडिलिए दिट्ठए दिट्ठउ । जहि रसोइ पच्चर मज्झ सवत्ति । गच्छहि मंदिर सुंदरि केरए । urasia कुडिलीकय दिट्ठी अहवा खधावारिण रिदहो घत्ता - पर सच्चहो जरियहो विरहियहो अष्णु कया विणं सच्चइ । अहियरु पयासई उण्हजरु तेणोसासु पमुच्चइ ॥ १३ ॥ (14) सुणइ ण वयणु कट्ठेणं घडियउ । ण वियाणइ अच्छंतु विभावइ । तो रूसेविणु भणइ कुरंगी । जाहि जाहि हक्कारिउ मायए । तहि तुह वल्लहाए किउ पाणउ । भुत्तु वि ण वि जीरड़ विणु णेहें । उ सुंदरि धरि माणु वियारिवि । थिय पडिवित्ति पयासिय सुंदरि । णिम्मलरयणं सुकइ सुभासिय । हो छडरसभोय वड्दिउ । चितइ किं कुरंगि महु रुट्ठी । सुरयसोवर पणयंगणविद हो । 10 5 (12) 1. b पभणई, 2b माई, 3 b पभणई, b उक्केविय, 5.b धण वि ताम, a धरणि 6. a कुडिलए for कुडिलिए, bomits दिट्ठए, 7.b भणिउं, bom जहि ... सवत्तिहे, 8. णयणणियारए, 9 b एम for एवि, 10.b सिद्धी, a सहिया । 10 ( 13 ) l.a. b कुरंगि after णिविड, b पेम्मश्रण, b सुणई, 2.2 णयण, 3. a रूसेविण्णु, 4.a बहुमाए, 5 b अप्पापउं, a कउ for किउ, 6.2 भुत्त वि 7.a कज्ज, bomits धरि, 8. b कखहत्थ, b पडिवत्ति, पयासिवि, 9.b कच्चोल, a सुकइ सुहासिय, 10.a छडरसु, ll.a सच्चउ, 12. अहियरु पियासए उन्हु गुरु, b तेणासासु विमुच्चइ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं माणिउ तं केणवि अक्खिउ तो पासत्थ भणहि भंजिज्जइ नाम पुरिल्लएण वील्लिज्जद आणिज्जउ वंजणु तहो गेहहो ताए भणिउ कुरंगि तुह द इयहो वंजणु देहि कि पि जं तुह पइ वंजणु णस्थि अक्कि ता सागय भणिउ कुरंगि काइ वोल्लिज्जइ इय कारण मइको वहो लक्खिउ । सुंदरु सव्वु काइ चितिज्जइ । भोयणु एक्कु कुरंगिए णज्जइ। ता सुंदरि गय ण णहहो । अण्णु ण रुच्चइ हें छइयहो । भुंजइ ताम कुरंगी जंपइ । पुण रवि पियवयणेण समागय । देहि कि पि जं हइ उप्पज्जइ। 10 घत्ता- णेहंधु मुवि कुरंगियए अद्धचणयसंमीसिउ । जरकसर छाणु अच्चण्हु तंहा झत्ति पडिच्छि वि पेसियउ ॥१४॥ (15) तो तं ताए णेवि तहो दिण्णउ भुंजते हि अमिउ पडिवण्णिउ । रत्तु ण-याणइ कि पि हियाहिउ कज्जाकज्जु ण मोहें मोहिउ । गम्मगम्मु ण हेयाहेयउ भक्खाभक्खु ण देयादेयउ। अहवा छणु काइ अखिज्जइ रत्ते पुणे विठ्ठ वि भक्खिज्जइ। इय सहरिसचित्तें भुंजेविणु पुच्छिउ सो सुवुद्धि वि हसेविणु। 5 कि महु णेहु ण करइ कुरंगी पइ ण भणिय काइ मि ललियंगी। किं महु दोसु ण पयडिउ केण वि भणु भणु सयल णिउणउ वियाणेवि । भगिउ तेण भो गिसुणहि गहवइ छाया इव दुगेज्झ महिलामइ । सप्पगइ व ससहावें कुडिला णवघणविज्जुलया इव चवला । जनकीला इव अमुणियचारा कि पयहो भुत्तिणहो सयरा। 10 (14) 3.b मगिउं, b कारणु मइ, 4.b ता, b भणहि, a मंदरु दप्पु b काइं, 5.a ताव, b कुरंगेए, 6.a वंजण, 7.b भणिउ, b अणु णं इच्छइ, 8.a वंजण, a ताब, .b अक्को, 10.b भणिउं, b काइं, a पेसिउ बोलिज्जइ, il.a हिंधु, b वामीसिउ, 12.a जरकसरच्छाणुं अच्छुण्हु कि तहा, a पेसिउ। (15) 1.b omits हि, b अणिउ, a पडिवण्णउं, 2.a रत्तु णय ण याणे इ, b रत्तु ण याणइ, 4 कज्जाकज्ज, a गेहें for मोहें, b मोहिउं, 4.b काइं, b_inter. विट्ठ and वि, 5.b सहरिसे, 6.b पई, b काई वि, 7.b वियारो वि, 8.a बाहि, a for घाया इव is written for explanation, 9.a •विज्जलया, Il.b तुज्झु अत्थ, 12.b जाइहिं सहुँ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता- अहवा कि वहुणा वित्थरेण तुज्झ अत्थु तुह कंतए । जारहि सहु सयलु वि विलसियउ मयणुम्माईयचित्तए ।।१५।। (16) २. द्विष मूढ कथा इय णिसुणे वि अदिण्ण पडुत्तरु ताए पडीवउ सो वि कडक्खिउ पेक्खहिं अहरु तणु वि णहमंडिउ तहि कहेवि दुव्वयणेहि ताडिउ दियवरिंद इय जाणहि रत्तं इह सोरठि धण्णधणरिद्धा होता खंधु वंकु णामंकिय बंकु मिलेवि गामभोत्तारहो खंधवंध उप्पाडणचित्तहो जाय असज्झवाहि तहो वंकहो तो सो वंकदास णामंके भणिउ ताय संसारि असारए मुय मणए सहु अत्थु ण गच्छइ धम्माधम्मु ण वर अणुलग्गउ इय जाणेवि ताय दाणुल्लउ इट्ठदेउ णियमणि झाइज्जइ गउ वहुधष्णी लहु बहुयहि घरु । मह रक्खणु गिय मुक्कु णिकिट्ठ उ । धाहावंतिहि सोलु ण खेडिउ । तेण वरहो सुवुद्धी णिद्धाडिउ । णिसुणहि दुटुं साहिज्जंतं । कोडि णरि गवइ सुपसिद्धा । अवरोप्पर गियदोसह सकिय । पीड करेइ जणही जोतारहो। असमत्थहो अणुदिणु झिज्जतही । संति अहव कहि पावकलंकहो। 10 पुतें णियकुलगयणससके । को वि ण कासु बि दुहगरूयारए । सयणु मसाणु जाव अणुगच्छइ । गच्छ जीवहो सुहदुहसंगउ । चितिज्जद सुप ते अइभरलउ। 15 सुहगइगमणु जेण पाविज्जइ । घत्ता-तं णि सुणेवि वंकें भासियउ बंकदास आयण्णहि । कालाणुरुउ मइ चितियउ पुत्तय जई तुहु मण्ण हि ॥१६।। (16) 1.b धणी, 2.a rubbed with white ink half line & other half with black ink and in the top margine the portion is written by some other person, महु रक्खर पियमणु निकिटउ. 3.a पेषहि, 4.a दुव्वयणे, b णिसारीउ, 5.a इह for इय, b जाणहि, b णिसुणहि, 6.b सोरट्ठदेसे धणरिद्धा, 7.a होता, b खंधर्वक, b णियदोसहि, 8.a णहो for जणहो, 9.b खंदकंद, 1.b कहि. 12.b भणिउं 13.b मणुएं सहुँ, b जाम. 15.b चितज्जइ i6.b इटठ, b भविज्जइ for झाइज्जइ, a जेम for जेण 17.b आयणहि. 18.b मई, a चितियउ, a जय for जइ, b तुहं मण्यहि। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ 5 (17) तो पुत्लें तं वयणु सुगविण जंपिउ णियपिउपय गणवेप्पिणु । ताय देहि आएसु ण व कनि __ सारमिण पाणहि ण सकमि । ता वंकेण पुत्तु गवतंदहो जीवं तेण पुत्त मइँ खंदहो । णउ अवयारु करेविण सक्किउ एव हि णियहिय उल्लए तक्किउ । मउ मइं पच्छिमरयणिहि गोविणु मेल्लहि कंवलीए वढेविणु। वइसारेवि तहो घेतब्भतरे णि पमहिसीउ घल्लि पासंतरे । सो पुणु मइं गोवालु गणेविणु दंडे हगइ झत्ति आवेविण । तुहुँ पुणु एविणु रोसें कंपहि मारिउ मज्झ ताउ इय जंपहि। जें णिवइ एतहो अत्थु लइज्जइ महु सग्गत्तहो दि हि उप्पज्जइ । इय वोलंतु वि पाण हि मक्कउ वृत्तु पवंचु ता सुपुरतें कउ ।। पत्ता- खंधु वि विभाडिउ राउलेण वं कु ण रयदुहु पत्तउ । अवरु वि णरु वरसंतावयरु कवणु ण तत्तउ दुक्खें ॥१७॥ 10 (18) ३. मनो मह कथा पुणरवि खगवइगांदणु भातइ मूढ कहाणु णिसुणे दिय सीसइ । इह कंठोठ्ठणयहे गुणरिद्ध उ भूयमइ त्ति विप्पु सुपसिद्ध उ । वालत्तणहो सत्थअभासे थिउ पंचास वरिस सुइघोसें । वुडढ वि विप्पहिं गणि पभणेविणु जण्ण णाम दिय सुय मग्गेविण । परिणाविउ पुणु मंदिरु सिद्ध उ दिण्णु तासु धणकणयसमिद्ध उ। 5 तहिं जण्णाए सहिउ जा अच्छइ दियडिंभहँ सुइसत्थु पयच्छइ। ता विज्जत्थि उ एक्कु समायउ जण्णु वटु णामें विक्खायउ। भणिउ तेण सो पणविय भावें सिक्खमि विज्जउ तुम्ह पसाएँ । एम भणंतु तेण सो इच्छिउ णावइ णिययमविर हु पडिच्छिउ । जण्णए जण्णवट्ठ मणे भाविउ सुहणिहाणु दइवें दाविउ । 10 घत्ता- सो विहिमि सुपेसणु जा पढइ वेउ ताम भुयमइहे । पट्ठविउ लेहु महुरादियहि जण्णविहाणा जिउणमइहो ।।१८।। (17) la पुणु for पय, 2.b पाणे हिं, 3.a णित्तंदहो, a मइं, 5.a कम्मलीए, 6.b त्तहो खेत्तब्भंतरे, b पसरंतरे, 7.a गणेविण्णु, b हणई, 8.b युणु, a मज्झ, 9a हितहो, 10.a वृत्त, 11.b खंड for खंधु, 12.a तत्तउ । (18) 2.a कंठोठणयरे, b धणरिद्ध उ, a विज्जfor विष्णु, 4.a थेरु वि विप्पहि, a पभणेप्पिणु, a पणाम, 5.b दिण्णउं तहो धणु०, 6.a तहि, 7.a जण्णवडूवइ णामें, 8.b पाएँ for भावें, a पसायं, 10.a जण्णवडुउ। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४ (19) 5 अण्णोण्णु णिरुवेवि जण्णजणु महुरादिएहि पुंडरिउ जणु। आढविउ वेत्थु गउ विप्पुजाव सहवासि णिरंकुसु जण्ण जाव । वडुएँ पिचडंती रमणभाव अहिणवजोव्वण भण जणिय ताव । खलियक्खर जंपइ वडयमई पीडइ अगंगु ण वि काइँ पई। अह तियहि को ण परिहउ करइ । पइँ गोहु भणेविणु परिहरइ। विहसेविणु तो वडुएण बुत्तु गोरीगंगा रइसोक्ख रत्तु । जे मयणें हरु देउ वि विगुत्तु तहो कि अम्हारिसु मणुयमेत्तु । इय वयणहि मयणागलु पलित्तु ते तत्तलोह जिम मिलियचित्तु । णेहेण णिरंतर भिडिय गत्त दियहेहि वेवि एक्कतु पत्त ।। इय तहु रइसुहरंजियमणाहँ चउमास विगयदोहि वि जणाहँ। पत्ता- णवरेक दिवसि जण्णाए भणिउ जण्णवडय किं दुम्मणु। णिसूणेवि तेण पडिजंपियउ णियडु अम्ह भट्टागमणु ॥१९॥ 10 (20) वट्टइ जण्णे तेण में झिज्जमिणं तिलु तिलु करवत्तें छिज्जमि । मरमि विडंविउ जइ इह अच्छमि अहव जामि तुह वयणु ण पिच्छमि । तो सा भणइ तुज्झु साहिज्जइ ललिए विरहदुक्खु जें छिज्जइ । रयणिहि मडयजुयलु आणे विणु महु तुह सयणोवरि मेल्लेविणु । भवणभंतरे सिहि जालेविणु गय उत्तरदिस घरु झंपेविण । सणिउ सणिउ सिहिमज्झि डहेविणु। णयडु जउ खरपवणु लहेविण । तं णिएवि हा हा पभणंतउ सजलकुंभु दियसत्थु पहुत्तउ । पत्ता- जंपइ जणु एवहि महिवलए जण्णवडुय जण्णामरणे । गुरुविणयसइत्तण तणिय कहा गय अइरेण अकारणे ॥२०॥ 9 (19) la अण्णेण, a.b पूंडरिउ जण्णु, 2.b आढविउ विष्णु गउ तित्थ जाम, bणिरंकुस जण्ण ताम, 3.a वडुवं, b जोवण, 4.a वडयमइ, a काइ पइ, 5.a कोण्ण, a करेइ, a परिहरेइ, 6.b गंगाणई, 8.b दइवायहि for इय वयणहि, b जिह for जिम, b•चित्त, 9.b सिडिय for भिडिय, a देयहिंहि वेवि देयंतु पुत्तु, 10.b विगयदोई, a जणाह, II.b जण्णए भण्णिउ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के वि भगति हयास हुयासण हा हा जण्णवडुय किं ण चलिउ एव भतहि सिहि उण्हाविवि अवरहिं वासरि महुरापुरवरु अहउ सो विसमाणवि जायं हा हे जण्णे मइँ मेल्लेवि कहा कि करमि कत्थ फिर गच्छमि कहि तुह ते उत्तुंग ओहर णिन्भच्छिय तामालकोइलगिर afe अहिणवअसोयपल्लवकर कि मइँ तुज्झ मरणे जीवंतें हा हा जणवडुय कुलणंदण जा लालाविलु पारिमुहु जा सरिहे पउहर सुंदरिहि जान्न पियणयणाहर हो जा चितहि चिहुरभारससरा २५ (21) पइव दढ काइँ पर भीसण | जलियजल जालहि कि पंजलिउ । विहिमि अमिलियहड़ पुंजाविवि । भूम पेसि विषहिं णरु | सोयाउरु सोयइ णियजायं । हिंगणेण वधु व मेल्लेवि । मुद्धे मुद्धे तुह मुहु जहि पेच्छमि । जिय मयच्छि विदुमरयणाहर । कहि ते पेच्छमि चिर सुणमि सर । कहि कमकमलजणियभमरायर । कंतविजय सोय संततें । 10 मइ रुयंतु साहारहिं णंदण | घत्ता - इय सो विलवंतउ पुणु वि पुणु वंभयारि वडुयं भणिउ । भो भो भूयमइ अयाणमइ णारिदेहु णारिदेहु कि वहु गणिउ ॥ १२१ ॥ (22) संभ रहि किणता विण्हु तुहु । ताकिणि हाणुजलि सुरसरिहे । ताकिण्ण होहि वढहरिहर हो । सुइमहूर किरण ता सुइहे सरा । 5 जें (20) 1. जेण तेण तं for जण्णे तेण 3.a ज्जे छज्जेइ, 4.b यल्ले विणु, 6. b भणिउं ताम, 7.b खरु, 8. b ता for तं, 9.4 वडुयजण b तेम for तेम्व, b कहा । (21) la काइ पइ, b भीसण्ण, 2 b जालेलिहि पयलिउ, 3. b युंजावेवि, 4.b inter. पेसिउ and पिप्पहिं, 5.b आयउ b समाणिवि b सोअइ, 6.b हा हा, a मइ, a कहि b बंधुव्वेल्लेवि, 7.b inter. तुह and मह, a जहि 8. a कहि, a ०णयणाहर, 9.2 तामल०, a कहि, b inter निहुर and सुणमि, 10.a जिणिय० 11.a मइ, b तुज्झु, b कंतिविउय 12.a जणवडुअ, b रुवंतु, 13.b बहुए, b गणिउं । 2.b मरनि for मरमि, b अहवा, 5. सिहिजले विणु, a णिहुव, सणिउं सणिउं सिहिमज्झ, जणामरणे, 10.b कहं for Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ . जा झायहि रमणिहे करचरणा ता कि ण विप्पच्छकम्मगुणा। 5 इय चितमूढ परिहरहि तुहँ मा पावहि णरए र उदु दुहु । जा सयलदेवणुउ परमपरु तहो पायजुयल सरु सोयहरु । तं णिसुणेवि भासइ भूयमई दिता अम्हह वि पराणगई। परसुरहु विभुसहु पियविरहु कि मणु यह होइ ण कामगहु । उरदेहलच्छि ग उरिहरहँ मूढत्तगु कि तहो हरिहरहँ। घत्ता- इय भ मे वि भरेवि दो तुवइ अट्ठिया ण जा चलियउ । गंगहे ता एक्कहे गामि तहि सो ज ण्णवट्ट तहो मिलियउ ।।२२।। (23) तेण णवेवि भणिउं पाविट्ठहो पुच्छिउ दिउ को तुहु सो पभणइ तं णिसुणेवि भट्ट रूसेविणु भणइ हयास वंचिअप्पाणउँ गुइचरणारविंद फुल्लंघउ इय भणेवि जा अग्गइ गच्छइ ताए भएण पवेविरगत्तए पइ दो हियहि खमहिं संी भासिउ पुच्छिय का तुहँ ता सा जंपिय तो पभणइ कोवें कंपंतउ जइ विग्ध यरु जगु वि सुहसंगहे एम भणेवि झत्ति णोसरि उ खमहि मझु उज्झायणि किट्ठहो । जण्ण ? कि गुरु मइ ण मुणइ । सव्व वि वडयवयगु दूसेविण । कि वक्करु पहिं पहि सम्माणउ । अच्छइ तु वयम्मि सो इह मुउ। 5 जण्ण वि विहिवसेण ता पेच्छइ । पयणिवडियए अजोइयवत्तए । अच्छ इ सामि अत्थ अविणासिउ । जाणहि जण्ण किं ण मइ णिय पिय । झछु गामु कहिं हउँ संपत्तउ। 10 तो वि णेमि जण्णं इग गंगहे। गयविवेउ मूढस्ने तरियउ। घत्ता- णिसुणेवि कि पि कासु वि वयणु अलिउ वि सच्चउ मण्णइ । सच्चु वि सइ दिठ्ठ ण सद्दहइ सो वि मूढ इह भण्णइ ॥२३॥ (22) 1.a जो for जा, b कि, a.b तुहुं, 2.b सरहि, a किण्ह, 4.b जा चितहि कंतहि चिहुरसरा, 5.b करचरण, b किण्णप्पच्छक्कंमगुणा, 6.a सूद for मूढ, a तुहु, a णरये, 7.b भूयमई, 8.a हेत्ता, b अम्हई मि पराहमइ, 9.b देवाण विद्धसहु पियविरहु, 10.b गोरीहरहँ, a हरिहरह, 11.b भणेवि दो तुंवयइ, 12.a तहो for तहिं b जण्णवटु सो मिलियउ, a जण्ण बडुउ। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ (24) ४. व्युद्ग्राही मूढ कथा पुणरवि खग णिवणंदणु पभणइ एक्कगाहि कह दिहगणु णिसुणइ । णं दुक्खारिहे दुद्धरु राणउ ता सुपुत्तु जायंधु अयाणउ । कडयमउडकुंडलकेऊरहे दिणि दिणि वंदिय णहो दिहि पुरहि । देइ जाम सो मंति पघोसइ णिव तुह सुउ वसु चाएँ णासइ । ना दुद इ पभणइ णउ भुंजइ जइ तहो णउ आह णउ दिज्जइ। 5 ताम लोहविरइ उ तहो मंतें अप्पिउ भूसणु व यकुलसंतें । भणि उ कुमार कुलग्गयभूसण मा कासु वि दिज्जसु कुलभूसण । एयह चाहँ रज्जु पणासइ लोहाहरणे इय जो भासइ । तहो पहारु इय दंडे मुच्चइ एम करेमि कुमार वुच्चइ । अह तं लोहमयं जो पभणइ तं तड त्ति सिरि दंड पहणइ। 10 पत्ता- जो गहिउ अजुत्तु वि णउ मुचइ वुहवु झाइउ रूसइ । हरिसेण वि वज्जिउ गुणरहिउ सो दुग्गाहिउ वुच्चइ ।।२४।। इय धम्मपरिक्खाए च उवग्गाहिट्ठियाए चित्ताए । वुहहरिसेणकयाए वीउ संधी परिसमत्तो ॥छ॥ श्लोक १३३०॥छ।। * ** (23) 1.a भणिउ, a ख महो, b खमहि, 2.b पुच्छइ, a परभणहि, b पभणई, a मुणहि, b मुणइ. 3.a सव्व बिडुयवयणु, 4.b भणइ, a वंचि अप्पाणउ, b पहिएहि समाणउ, a संमाणउ, 5.a.b वयंमि, b मुउ for मउ, 8.b पइ for सो 9.a तुहु, b जाणहि, b मइ, 10.b पभणइ, a कहि इउ 11. विघयरु, b सुहि संगहो, a ण्णेमि, b मई 12.a एव, a ययविवेय, 13.b मण्णइं, 14.a सच्च, b भण्णइं । (24) 1.b युणरवि, a खगवइ, b पभणई, 2.b दुखारिहि, b रागढ, a जायंध, b आयाणउं, 3.b केऊरइं, b पूरइ, 4.b ता for सो b, 5.b पभणइं, a अहारणउ, 6.a ताव, 7.a कुमार, a कुलग्गयभूसणु, b कुला गयभूसग, a कुलभूसणु, 8.a एयह चायं, b लोहाहरणइ इह, 9.6 करेपि कुमार मुच्चइ, 10.b पभणई, 11.a आयउ, 12.b सीसइ for वुच्चइ, a after ॥छ।।2811, 13.a omits चित्ताए, 14,a omits वीउ, a परिसेउ for संधी, b परिच्छेउ समत्तों ॥छ। संधि ॥2॥छ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. तइअ संधि ५-६. पित्तदूषित मूढ तथा आम्र मूढ कथा आयण्णहो पुणु अवरु वि भणमि विवरीयभाव संजणणयरु पित्तजरेण को वि ण जरियउ सक्करघयपयपाणु पियंतउ माणसदुक्खें अइ आदष्णउ जिह सो तिह अवरु वि अण्णाणिउ इय भासिउ पित्तिलाहाणउ एत्थंग विसए चंपापुरवरु तासु सच्ववाहिहरु हियत्तें पेसिउ तेग भणिउ कि किज्जइ तो तें तं वणवालहो अप्पिउ णिउ पणवेवि कयंजलि हत्थे पित्तदोसु णिक्किट्ठ। गुणदूसणु जिह दिट्ठ उ ।।छ। णवर कुसल विजहिं उवयरियउ । अइ महरु वि कडयउ भासंतउ । पभणइ णिवु काइँ महु दिण्णउ। 5 जुत्तु अजुत्तु भणइ अहिमाणिउ। णिसुणहि एवहि चूयकहाणउ । णिवसेहरु णामें तहिं परवरु । अंपयइ तुवंगहि व मित्तें। एक्कु केम किर सइँ भक्खिज्जइ। 10 ___ करि अइरेण रुक्खु इय जंपिउ । पुणु पभणेउ पसाउ परमत्थें । घत्ता- अह तं रुक्खाउ वेउ कुसलु लेविण सो वणवालु गउ । तें वरिसें तइयए अम्वतर दलकलगुंदिहि सहिउ कउ ॥१॥ (2) ता णहम्मि पक्खि को वि जाइ जाम सप्पु लेवि। ता विसस्स विदु तम्मि झत्ति पत्तु अंवयम्मि। तेण पक्कु अंबु एक्कु भूयले गलेवि थक्कु। (:) 1.b आयण्णहुँ, b मित्तहो सोसु, b णिकिट्ठउ, 2.a संजणणपर, b जिह, 3.b पित्तजणेण, a विज्जहि, 4.a पाण b कडुंयउ तारांतउ, 5.b माणसंदुक्खें अइआदण्णउं पभणइं, a ण्णिव, bणिव, b दिण्णउ, 6.b भणइं, 7.b पित्तिल्लाहाणउं णिसुणहिं एवहिं चूयकहाणउं, 8.a adds वसइ before तहि for तहिं, 10.b भणिउं, a एक्कु a सइ, 11.b inter. तें & तं, a अप्पउ, a करिइरेण, 12.b पणिउं, 13.a वेय for वेउ 14.a तइए, b फलदलगुंछहं । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं लएवि रुक्ख वालु अप्पियं पवेवि तस्स दिगु णिव्वियप्पएण अम्वयस्स मूलु छिण्णु ताम वुत्तु वाहिएण भक्खिऊण अंवयाई एम ओल्लिऊण जाम ण ताहँ वाहिओ हु पत्तु जत्थ सामिसालु। तें पुणो कुमारयस्स। भक्खियं कुमारएण। णंदणस्स अग्गि दिण्णु। अम्ह काइँ जीविएण। देहिणे मुएहु का। अम्पयाइँ खाहि ताम। छंदओ समाणिओ हु। 10 घत्ता- सयलाण वि रोयणासु मुणिउ पुणु महिवालें वुत्तउ । जं दिण्ण कुमारहि चूयहलु तं मइँ कयउ अणुत्तउ ॥२॥ अह दिण्णु काइँ कि उ चूयणासु कम्माणुसारि वुद्धिहि पयासु हा हा कुमार पच्चक्ख मार हा हा कुलगयण मियंव पुत्त कुंडु विससिहिवसु तं अंबु पक्कु पडि सवणसुद्धि विरइसण जाम इय विलविऊण मोहें सुयासु इय भणिउ आसि जं तेणतित्थु इय पच्छायावाणलपलित्तु। अवियारिउ इय जाणेवि कि पि कि पुणु भवणयलि पसिद्ध णाम वुद्धिहे फलु पयडु वियारु मणिउ जयरायहो कि दिण्णउ हुयासु । हा हा अविवेइउ हउँ हयासु। हा हा णंदण गुणरयणसार । हा हा हे सुय सुय विणयवंत । अह कि अयालि गल्लिऊण थक्कु । 5 णिउ को वि किं वि भक्ख उ ण ताम । मा करहु डाहु विसमुच्छियासु । अज्ज वि पसिद्ध तं हवइ एत्थु । उज्झइ अवरु वि अविवेयवंतु । किज्जइ ण कज्जु तिलमित्तु जंपि। 10 किज्जति धम्ममोक्खत्थ काम । विणु तेण णरु वि पसुसरिसु गणिउ । घत्ता- जो वुहु विहवे विणु कज्ज ण वि णिउणमइए परिभावइ । सो णाम मित्तु परितुट्ठमणु अंधु सलोयणु णावइ ॥३॥ (2) 2.b त for ता, a has written इक्क अंवए हलम्मि , 4.a तें for तं b जेत्थु, 5.a रायण (in marginj for तें पुणो, 6.b दिणु, 7.a सो for सुउ, b मुओ, 8.b दिणु, 9.a ताव, b वाहिएहि, a काइ, b जीविएहि, 10.a अम्मयाइ, a काइ, Il.a एव, a जाव, b खाहिं, a तम्व, 12.a ताह बाहु बहिओ, 13.b मुणिउं, b उत्तउ, 14.b जं दिगु, a मइ, b कय। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. क्षीरमूढ कथा पुणरवि पभणइ सो मइसायरु को विवणीसरु णामें सायरु पज्जलंतइ णाणामणिदीवहो दुद्धदहियघयभोयणणं दिणि दहिहंडिए भिल्लाहिउ तोमरु मिट्ठाउ व्व समप्पिउ गोरसु अमाहरु सेट्ठि कहि लद्धउ तं णिसुणेवि वणीसरु भासिउ तो वणिय पच्चत्तरु दिज्जइ जवि अजुत्तु तो वि आसंघमि एम भणेवि धेणु तो अप्पेवि लहु छोहारदीउ गउ वणियरु सुरहि सुरहि कुसुमहिं उम्मालेवि पुरउ थवेविणु कंचणभायणु जइ विताए तं वयणु पडिच्चिउ गोवि जइ विविणए णो लग्गिय तो तोमरु पभणई मइँ लक्खिय ( 3 ) ३० (4) धत्ता- तो तोमरु पभणइ सेट्ठि मह णियकुलदेवि पयच्छइ । तुह देमि परोह पुरुहउँ रयणवत्थु जं इच्छइ ||४|| (5) खीहा णिसुणि दियसायरु | जलजाणेण तरेवि सायरु | णालिएर हो गउ दीवहो । यि तह सरिसु एक्क तें मंदिणि । दिट्टु करग्गधरियधणु तोमरु | भणिउ चिलाएँ भुजेवि गोरसु । जहि माँ अइसयरसु उवलद्धउ । महु कुलदेवि पयच्छइ भासिउ । णियकुलदेवयदेहु ण जुज्जइ । तुम्ह वयणु किर कि हउ लंघमि । जणु भविणु यह चप्पेवि । एत्त मज्झण्णए सो तोमरु | पवणेपणु यियणिहि लालिवि । भइ देवि तं देहि रसायणु । तो वि ण दिष्णु तासु हियइच्छिउ । देइ दुद्ध किं कासु विमग्गिय । एसाइट्ठविओएँ दुक्खिय । 5 1.a काइ, b भूयणासु, a दिण्णुउ, 2.4 हउ, 3 a गुणणियरसार, 5. b •वसि, a अंमु for अंबु, b अयालिऊ थक्कु, 6. जाव, a ताव, 7.b सुआसु, 8. b भणिउं, b वहइ for हवइ, a b पच्छत्तावाणल०, a उज्झेवि, 10.a कज्ज, 11.b भुअणयल, किंजंति मोक्खु धम्मत्थकाम, 12.b भणिउं, b गणिउं, 14. a परितुट्ठ । ( 4 ) 1.a पुणुरबि, a खीरकहा णिसुणहे, 2 b वाणीसरु, 3b जीवहो for हो, 4.bf for घय, a तहि, b सरिस, b तं for तें, 6. b मिट्ठा उच्छ समप्पिय चिलायं, 7.a कहि, a जहि मइ, 8.b वणीसर, 10.a हउ यावत्थु । 10 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्वहारु ण देइ भणंतहँ सुमरइ वणिवर गुणई महंतहँ। 10 पत्ता- ता अच्छउ अज्ज ण मग्गियइ णियपरिवणु आणत्तउ । परपरमेसरि परमरसु अम्हहँ देइ णिरुत्तउ ।।५।। (6) णवर अवरवासरे तहो मुद्धहो देइ ण जाव ताव णिद्धाडिय जो सइँ मणइ ण पुच्छइ णाणी सुव्वे सुवगु वसइ विणु भरितए इय मुणेवि सयलु वि पुच्छिज्जइ पुच्छंतहो अण्णाणु पणासइ णाणे णरु सुहज्झाणपरायण जो अयाणु अहिमाणे भज्जइ मग्गिय तंवातं० वि दुद्धहो । चंडदंडषणचायहि तडिय। णासइ वत्थु वि सो अण्णाणी । उवलब्भ इ ण णवर विणु जुत्तिए । अलियवहाहि माणु ण रइज्जइ। हेयाहेयहँ णाणु पयासइ । झाणे सग्गमोक्ख सुहभायण । सो संसारसमुद्दि णिमज्जइ । 5 घत्ता- अह तोमरु भिल्लु अयाणगुणु वत्थु मुयइ तं चोज्ज ण वि । अच्छरिउ महंत उ एउ पुणु जुत्तु वि वज्जइ जं गुणि वि ॥६॥ 10 (7) ८. अगुरु मूढ कथा जिणवरणारविंदरयमहुयह अरु कहाणउ भासइ खेयरु । अत्थि एत्थु दिय मगहामडलु लहिं गयरहु णिउ णं अहंडलु । एक्कहि दिणि किर कीलए गच्छइ दूर आणु जाववि तो पेच्छइ । एक्कु जिणिय तुरुंगुअग्गड णरु वुच्छइ तो णियमंति णरेसरु । (5) 1.b वणिए, 2.b कि हउ व लंघमि, 3.a भणेमि, b रयणिहिं, 4.b छेहारदीउ, 5.b सुरहिं कुसुमहिं ओमालेवि, a कुसुमहि, a णियवयणहि, 6.4 थवेप्पिणु, b भणइं, 7.a परिच्छिउ, a हिययच्छिउ, b हियइच्छि, 8.b गावि, .b पभणइं, a मइ, a इठविओयं, 10.a भणंतहो, a गुणहु अणुत्तहु, ll.b मग्गियइं, 12.a अम्हइ । (6) la दुद्धहो for मुद्धहो, b मग्गिय तंवु वि. 2.b जाम ताम णिद्धाडिय, b घणघाएँ, a ताडिया, 3.a सइ, b अण्णणी, 4.b वणु, b भंतिए, b णित्तिए for जुत्तिए, 5.b मागु णउ जुज्जइ, 6.b हेयाहेयहु, 7.a णर, 8.a संसारे समुद्दे णज्जइ, 10.b जं गुणु । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पुत्तु भिच्चु वि किं भण्णइ तं णिसुणेवि मंति तहो सुच्चइ वारह वरिस जाम गुणकित्तणु तो एत्यंतरे राएँ वृत्तउ चिरसेवयणरु जं ण वि अक्खिउ जो णमुणेइ मंतित्तणु घत्ता स एवं चवंतो ओ तुट्ठ सया पंच रण्णा णिओ तेण उत्तो ण सो अत्थि जो मे सत्तंगु रज्जु तहो पंचविहु मंतु मंति जो जाणइ । चउ विज्जउ भिच्च गुणागुण वि पहुपसाय सो माणइ ||७|| (8) पुत्तं णिवेणं जया होंति गामा जणा आणयारा हा वायुवेया रहा चारुचक्का सुरूवा सुमेहा सुपुत्ता सुमित्ता अलं तेण वालं धणे सोक्खभाई विजाई सुजाई निवत्थाण वाई अवीरो वि वीरो असच्चो वि सच्चो धावि पुणो ३२ जो महु कज्जि तिणु व तणु मण्णइ । 5 हरिमेहरणंदणु हलि वुच्चइ । तुम्ह देव करइ भिच्चत्तणु । हा अमच्च पई कयउ अजुत्तउ ! तं पणीइत्थु ण उ लक्खिउ । सो कहति पहुहि पहुतणु । परिदो नियंतो । हलियस तेणं । सगमाण दिण्णा । सुही धुत्त । पोएम गा । अलं रे अणेण । तथा अत्थकामा । गया सेण्णसारा | भडा चंडतेया । धया छत्तढक्का । पिया पीणणेहा | सुबंधू विभत्ता । धणं सच्चमूलं । भाई वहाणं जाई । णिरुवी सुरूती । अधीरो वि धीरो । गुणी होड़ मच्चो । या सोसण 10 10 ( 7 ) 1.a अगुरु for अवs, b कहाणउं, 2.a fण्णउ, 3. b एक्कहिं, b जाम ता पेच्छइ, 4.b तुरंग, 5.a कहो for कि, b भण्णई, a तणु व तिणु, b मण्णई, 7 a वरिसा जाव, a तुम्हह, 8.2 राय, a पइ, 9.b ०सेवयरु, 10. कहिं, 11.a सत्तंगु रज्ज, b तहं, b मंति मंत्तु जो जाणई, 12.b भिच्च, b माणेइं । 15 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जया धम्म राई इमो सोमराई । 20 घत्ता- जो पुणु संपयभायण धम्मु ण करइ अयाणउ । सो चम्मरुक्खु अहवा हवइ णरु पसुएण समाणउ ।।८।। (9) म तुह इय जाणिवि गिण्हहि गाम तु, पहिरहि मए तुहु लच्छि सुहुँ । ता हलिणा जोइउ रायमुहु जइ तुछ देउ तो देउ महु । कोइलतमालच्छवि छित्तडउ विण्णविउ देव मइ एत्तडउ । णिउ मंत्तिहि वयणु णिएवि चवइ । पुण्णे विणु लच्छि ण संभवइ । एयहे दरिसहि तुहु अगरवणु जीवउ कट्ठइ विवकंतु भणु। 5 णिववयणु तेण परिभावियउ तहो अगरुरुक्खवणु दावियउ । पिच्छिविणु तं तरुवरगहगु चितवइ हलि उज्झिज्जतमण । वावरु ण देइ किर जो णिवइ सो पवरगाम महु अल्लवइ । 'ए उ सच्चु कयावि ण संभवइ जणरंजणाए णरवइ लवइ । अवरहि दिणि खंडे वि सयलु वणु जालेविणु कोइव वविय पुणु। 10 घत्ता- मंतें वण दहग णि पुणेवि हलि पुच्छिउ का किय वणहो किय। तें भणिउ द? छिण्णेवि मइँ पुणु पच्छा कोद्दव वविय ।। ९ ॥ (10) ता पभणइ मंति दट्ठ व्व रिउ जइ अस्थि कठ्ठ आणहि तुरिउ । ते आणिउ एक्कहत्थपमिउ सयमेव जलणु जहिं उक्समिउ । ता मंते पणिउ विविकणेविज लहइ दवं तं लइ गणेवि । (8) 3.b सुगामणि दिणा, 5.a पजोएहु गामे, 6.a पुणंतं, b अलं तं णिवेगं, 7.a अत्थिकामा, 8.a जणा याणुयारा, 13.a अणं त्तेण वालं, 14.a omits जगा पुत्तभाई, 16.b असवो विरूवि, 19.b वुणो for पुण्णो, a सुपुष्णो, 20.a इमी, 2l.a adds हवि वि, before ..म्मु, b अयाणउं, 22.a धम्मरुक्ख, b पसवेण समाण उं । (9) 1.b गेण्हहि, a तुहु, b मएं तउ, b सुहु, 2.b जोइउ, b ता for ता, 3.b मई, 4.a चवई, a संभवई, 5.a एयहु, a अगुरुबणु, b अगरवणु, b जीवइ कट्ठइं, 6 b अगररुख०, 7.a उज्झिज्झंतु०, 8.b inter. किर & जो, a णिवई, a अल्लवई, 9.a संभवइ, a लवई, 1J.b अवरहि दिग खंडिउ, b कद्दव, 11.b मंति, a सुणेवि, b पुच्छिय, 12 a सई पुणु । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ 5 विक्कंतइ पंच दिणार तेण करमेत्तहो एत्तिउ मोल्लु जत्थ मइ पावें खंडिउ काइ वणु इय पच्छुत्तावाणलजलिय उ अवरु वि जो अस्थि उ कयकिलेसु पाविय जा ता चितिउ मणेण । णीसेण वणहो को मुणइ तेत्थु । खंडिउ जइ तो किं दड्ढ पुणु । अप्पापउ सोयइ सो हलिउ । लद्धहो वि ण याणइ गुणविसेमु । घत्ता- सो अमुणियसारासारगइ हलिउ जेम दुःख हो मिलइ। अहवा पुण्णविरहियहो माणुसहो करयलाउ रयणु वि गलइ ।।१०॥ 10 (11) ९. चंदनत्यागी कथा मणिसेहरउ पुगु खेयरउ । तहो वंभणहो कह चंदणहो। पभणेइ सुहा णिसुणेहि वुहा । पयसुहयरिहे महुराउरिहे। उवसंतमणो णि उ संतमणो। तहो गाढयरो हुउ पित्तजरो। ण समेइ जरो हुय दुक्खभरो। कुलमंति तओ कयमंत जओ। पुरि पडहसरं कारवइ अरं। णिव दुक्खयरं जो हरइ जरं। तहो गामसयं आहरण जुयं । जच्छइ णिवरो ता वणियवरो। णइतीरु गओ दिट्ठउ रजओ। धोवंतु जहि चमण वि तहि। गोसीरिसयं मिलियालिसयं। दछु मुणियं वणिणा भणियं । णिवहो सयलं लद्धं समलं । कहि रे रजया तें भणिउ तया । (10) 1.b भणइ, 2.a सइ चेय for सयमेव, 3.b तो for ता, a विक्किणवि जं लहहि, b किणिवि for गणेवि, 4.b विक्कतें, a दीणार, 5.b एत्त उ, bणीसेसय, b गणइं for मुणइ, 6.5 मई, b काइं, a ज्जइ, 7.a पच्छुत्तायावाणल०, b जलिउ, a हालिउ, 8.a inter. वि & ण, b याणइं, 10.b पुण्णुरहियमाणुसहो। 15 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थ विमले तामहुरझुणी महु देहि इमं हि कुण एम अहो अवियप्पियउ वणिणावि तहो लाइउ तुरिओ हगाममणी गेहे गउ सुणिउं रुई लहुकट्ठकए दितो वि वणिउ रजओ छंदो सोयाउलओ पुणु वि भणइ मइसुइपारंगय र चत्तारि कहि वि जा गच्छहिं जो तिगुत्तगुत्तु वि बंधणचुउ आसावस वि आसविरहियउ frrie विवहु गंथपरिग्गहु कयपरयारगमणु ण वि दुज्जणु ३५ उणा जले । भासइ वणी । हुकट्ठ तुम । भासइ रजओ । भगिऊण तहो । तें अप्पियउ | घसिउं णिवहों। जरुओ सरिओ | गहिऊण वणी । एत्तहो रजउ । मई | घत्ता - इय जो विवेयवज्जिउ अबहु वत्थु अवत्थु ण वुज्झइ | सो परियट्ठो मूढमइ उतो अंतो उज्झइ ।।११।। (12) १०. चार मूर्खों को कथायें वहुकट्ठसए । ताविण मुणिउ । एसो मंदो । पायाउलओ । 20 25 30 35 मुक्खकहाणउ णिणि मुणिसंगय । ता समुहं तु एक्कु णि पेच्छहिं । समलु विणिम्मलयरु वुणथुणउ । मुक्काहरणु वि तिरयणसोहिउ । विकविहिणु विकहिय जण वि कहु । 5 तक्कंतु वि परलोए सुसज्जणु । ( 11 ) 3. b णिसुणेहु, 4. a पयरसुहयरिहे महुराउरेहि, 5a अवसंतमणे, णिबु संतमण्णे, 13.b दिट्ठो, 14 b तहो for जहि, b जहि for तहि, 15.b सोसीरसयं, 18.b भणिउं, 19.b एत्थु जे for इत्थं, b जउणाहि, 20 b महुरं, 25.a घसिउ, 28.a णियगेहगड, b गओ b रजओ, 29.a सुणियउ b रुवई, 31. bदितो वणिओ, 32.b रणउ छंदो, भणिउ मंदो, 34 a वज्जियउ वुट्टु, b` उच्चज्झइ, 35 a परियट्टो मूढमई | Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मया गोविण वहु सीसु वि ण वुत्तु लंकाहिउ । चउहि वि वंदिउ सिरिण णामतें दिण्णासीस साह भयवंते । घत्ता जोयण दिवट्ठ गणिणु भणिउ ताहँ मज्झे एक के णरेण । एकके आसीस कासु हवइ दिण्ण तेण जा मुणिवरेण ॥१२॥ (13) एक्कें भणिउ मज्झु पुणु अवरें तइएँ मज्झु मज्झु पुणु इयरें। इय कलहंत पुणु वि गय तेत्तहे गर छमाणु पहे मुणिवरु जेत्तहे । तेहिं णमेविण भणिउ भजरा दिण्णासीस कासु रिसिसारा। भणइ मुर्णिदु जासु मुक्खत्तणु जो सइँ धम्मु चरइ पंडियजणु । तं णिसुणेवि विवाउ करंतिहि महु महु मुक्खत्तणु पभणंतिहिं । 5 णायवियारसारु णर भरियउ। पट्टण एक्क तेहिं अणुसरियउ। भणिय सिट्ठ सुत्रुद्धिए भल्लहु अम्ह विवाउ पियारिवि घल्लहु । तहिं पुच्छ्यि कारणु समवाएँ तेहि भणिउ मुक्खत्तविवाएँ । घत्ता- णायरणरणियरें पुणु भणिउ अणुपरिवाडिए वज्जरहु । तुम्हहँ मुक्खत्तु परिक्खियइ अण्णोष्णु जि मा कलि करहु ।।१३।। 10 प्रथम मर्ख कथा तो तहु मज्झि एक्कु पडिपिउ दो पियाउ मह हउ दोहि वि पिउ । एक्क दिवसि किर गिद्दए भुत्तउ रयणिहिं जा उत्ताणउ सुत्तउ । (12) I.b पुणु खगु पभणई, b दिय• for गुणि०, 2.b चत्तरि कहि मि, a गच्छहि, a एक्क, 3.a तिगुत्तु, b बंधणं, b तुउ for थुणउ, 4.b आसारहियउ मुत्ताहरणु वि तिरयणसहियउ, 5.a णिग्गंत्थु, विहीणु कहिय जिणविक्क हु, 6.a परयारु, 7.b चहुँ मि वंदिउ, 8.b दिणासीस ताहं, 9.a गंप्पिणु, b भणिउं, 10.a हवइं, a मुणि परिणा। (13) 1.b भणिउं मज्झु मह इयरें, a तइए, 2.b कलहंत गइय पुणु तेत्तहो, 3.a तेहि गवेविणु, b भणिउं, 4,a भणई, b मुक्खस्तूणु, ३ जे सइ, b धरइ for चरइ, 5.a विवा for विवाउ, a करतहिं, a writes महु three times, a मुक्खत्तु भणंतहि, 6.b ०सार, a तेहि, 7.b adds व before सिट्ठ, a छिद्ध for सिट्ठ, b सद्धिए भल्लहु, b वियारवि, 8.a तहि, a विसवाएं for समवाएं, a तेहि, b भणिउं, 9.b भणिउ, a वज्जरई, 10.a तुम्हह, a अण्णोष्ण । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता दोण्णि वि दो भय चप्पेविणु दीवयवट्टि णवर पजलती णिवडिय मज्झु वामणयणुल्लए वामकरेण वट्टि जइ फेडमि अह इयरेण कंता रूसइ तो वरि अक्खि जाउ सयसकरु इय चितंतहो कुट्टउ लोयणु मज्झु अहिउ सरिसु वि जइ णियडउ सुत्तउ महु पासहिं आवेविणु । उप्परि उंदरे पणिज्जती। ता मइँ चितिउ णियहिय उल्लए। 5 तो हट्ठा पिय णेहहो तोडमि । णिहुयच्छंतहो लोयण णासइ । विहडिउ णहु हे इ अइदुक्करु । हउँ जणि भणिउ विसमअवलोयणु । अत्यि मुक्खु तो अप्पउ पयडउ। 10 घत्ता- एम भणेवि जा थक्कु तहिं णिय मुक्खत्ता चिट्ठउ । __ मुक्खत्तणु पयडहु अवरु णरु णायरसहहिं पविठ्ठउ ।।१४।। (15) द्वितीय मूर्ख कथा तेण भणिउ मज्झ उ वि खपिरिच्छिउ दो महिलाउ णाम सारिच्छिउ । खरि दाहिणउ पाउ पक्खालइ लामउ रिच्छिका लइय वोलइ । तावेक्कहि दिणि खरी आवेप्पिण गय दाहिणउ चरण धोवेप्पिण । सो मइँ जा वामोवरि दिण्णउँ रिच्छिए रूसेवि मुसलें भिण्णउँ । एत्थंतरि खरि मम्म विघट्टइ तुह घरे वोडमडप्फरु वट्टइ। 5 जेण तेण णिय पइ अवमाणहिं अडतडविडविवणे विड माणहिं । ता रिच्छिए पभणि उ तुह कित्तणु चच्चरगोउररमणिसइत्तणु । जाणेवि अवरु कंतु सिरु मुंडे वि वल्लहु घल्लइ णास विहंडेवि । एव भणंत भणिय जइ सकहि रक्खहि पाउ एहि मा थक्कहि । इय कोवेण वामचरणुल्लउ भग्गु खरिए हउँ थिउ णं कल्लउ। 10 घत्ता- तहो दिवसहो लग्गि विहडउ जणेण कुंटहंसगइ भासिउ । पयडउ अप्पाणउ अत्थि जइ अवरु मुक्खु महु पासिउ ।।१५।। (14) 1.a ताह for तहु, a मज्झि बि एकु पजंपिउ, b महु हउं, b मि for वि, 2.a रयणिहि, b उत्ताणउं, 3.a भुव for भुय, a पासउ, 4 a पयलंती, b उंदुरे, 5.a तो मइ, 6 .a adds को before कंता, 8.a वर, 9.a भणिउं, 10.b जो for जइ, 11. एव, a तहि, 12.b पइट्ठउ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय मूर्ख कथा तइएण भागिउ मुक्खत्तु मझु सयणयले माणमोणण जाम जो वोल्लइ सोधयपोलियाउ इय होउ एम ताए भणिउ घरदव्वु सव्वु वत्थइ णियाइ णिवसणहि पत्तए ताए भणिउ चोरेहिं हरिउ णिवसणु वि जाम ता मइँ जंपिउ पिए देहि ताउ णिसुणहु साहमि ण उ करमि गुज्झ । अच्छइ महु पिय मइँ भणिय ताम । हारइ सखंड दह पोलियाउ। एत्तहि चोरहि घरे खत्तु खणिउ । कण्णाहरणाइ मि केडियाइ। पिल्लज्ज कत्थ धुत्तत्तु मुणिउ। . मोणउ ण मिल्लहि तो वि ताम । हारियउ जाउ दह पोलियाउ । 5 घत्ता- गय तक्कर सयलु अत्थु हरिवि महु धुत्तहिं विरइज्जइ । वोदो ति णाउ जणवय पयडु जं तुम्हे हिं वि मणिज्जइ ।।१६। 10 (17) चतुर्थ मूर्ख कथा पुणु चउथउ णरु णियमुक्खत्तणु भणइ जडत्तगव्वरं जियमणु । जणियाणंद पवरपियसुरयहो हउ संचलिउ जाव सासु रयहो । (15) 1.b भणिउं, b खररिच्छउ, b सरिच्छउ, 2.b दाहिणउं, b वामउं, a.b लुइय, 3.b तावेकहि, b आवेपिण, b दाहिणउ, b धोवेविणु, 4.a मइ, b inter. मई and जा, b ईसिवि for रूसेवि, 5.b omits खरि, a खरि मणु वि पयट्टइ तुह धडवोडे, 6.a अवमाणहि, a has written in margin by other person जुत्ताजुत्तउ किंपि ण याणहि for अडतड० etc. 7.b पभणिउं, a चच्चरगोवयरमणे सयत्तणु, 8.a कउ तह अप्पइ for वल्लहु घल्लइ, 9.b भणंति, 10.a हउ ll.a जणेणा। (16) |.a मज्झ, b णिसणहु साहमि णं उं, 2.a मइ, 3.b घयवोलियाउ, 4.a इउ, b adds ता before ताए, b भणिउ, b चोरहिं. 5.b वत्थई णियाई, b फेडियाई, 6.bणिवसणेहिं पंतए. b भणिउं, b कंत धत्तुत्तु मुणिउं, 7.a चोरेहि, a ज्जाम, b मोणवउ, 8.a मइ, a ज्जाउ, 9.a धुत्तहि, 10.b वोदि, a ति for त्ति, bणाउं, a तुम्हेहि, bomits वि। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता सिक्खविउ णवर णियमायए पुत्त तित्थु ववहरिय एमायए । जेमिज्जइ ण अहव जे मिज्जइ इट्ठिए तोवि लेवि छड्डिज्जइ । इयाणि सुणेविणु गउ तहि पत्तउ तद्दिणे जिमिउं ण जइ वि पवुत्तउ। 5 अवरहिं दिणि णारिहिं णिरतरु एंतिहिं जंतिहिं लद्धण अंतरु । रयगिहि किर सालय भुंजावहि मइ तहुँ दिण्णु पडुतरु तावहि । भुक्ख ण अत्थि केम जेमिज्जइ अरुइ भुत्तु अइदुक्खें जिज्जइ । सासुयाए तं वयणु सुणेविणु तंडुलधरियसलिलि वोलेविणु । मम्गेसइ जव्वेलइ भोयणु रंधेसमि तत्वेलए ओयणु। 10 घत्ता- रयणिहि विरामे पीडिउ छुहए जा किर पासु णिरिक्खमि । ता मंचयतले तदुलु भरिउ ससलिलु भायणु पेक्खमि ।।१७।। (18) तहिं अवसरि वाहिरि गय मह पिय वियणु वि जाणेवि मइँ वि रइय किय । असहंतेण तेण भुक्खाउहु तंदुलेहिं चप्पेवि भरियउ मुहु । ता सहसा पिययम संपत्ती महिलारूवें णाइँ भवित्ती। हउ वि गरुयलज्जए तुण्हिक्कउ तडिया वोलणयणु ता थक्कउ । वोल्लावंतिहे जाव ण वाल्लिउ तावंगुलिए गल्लु महु पिल्लिउ। 5 महु मरणासंकि भयवेविर ण? कज्ज पभणइ गग्गिरगिर । दीसहि माय णयणआयंविर तुह जामायहो कि जायउ किर । णउ जाणिज्जइ दोसु ण कारण तं णिसुणिवि मिलियउ णारीयणु । कवि जंपइ संपइ हलि जायउ कुलदेवयहि दोसु मइँ णायउ। कण्णमूल पभणिज्जइ एक्कए गंडमाल भासिय अवरेक्कए। 10 (17) I.a चउत्थ, b भणइं, 2.b हर्ष, b जाम for जाव, 3.b पियमायए, 4.b inter. ण and अहव, a छंडिज्जइ, 5.a तहि, 6.a अवरहि, a एंतिहि जंतिहि, 7.a रयणिहि किल, a तहु दिणु, b तावहि, 8.b @जिज्जइ for जेमिज्जइ, a भत्त, 10.a जहि वेलए for जव्वेलइ । (18) 1.a तहि, b थियणु वि त्ताणेवि, a मइ विरय, 2.a भित्तु for तेण, a मंदुलेहि, b मुहु, 3.a महिलरूवं णाइ, b विभत्ती for भवित्ती, 4.b हउं मि, 5.b जाम for जाव, 6.b मरणासंकिय, b कज्ज, b गग्गरगिर, 7.b दीसहि माइ, 8.a तें for तं, 9.a मइ, 10.a कण्णमूलु, 11.b कण्णहं सूयउ, a सुणह गल्ल, a संलवई, 12.a अल्लवई, b अल्लवई। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० घत्ता- क वि भासइ कण्णह सूइयउ सूणगल्ल क वि संलवइ । अमुगंतु वि जाम हु महिलयणु णाणावाहिउ अल्लवइ ।।१८॥ (19) वाहिउ केडमि इय जंपतउ सत्थविज्ज ता तहि संपत्त उ । महिलयणेण ता मुहउ दाविउ पेक्खेवि महु सरीरु तें भाविउ । जुत्तिविहीणु का किर सीसइ । एयहो वाहि मणावि ण दीसइ । तंदुल भायणि खोज्जु णिएविणु थट्ट कवोलजुयलु पेक्खेविणु । ते ण णिउणु लक्खेवि भणिज्जइ तंदुलवाहि एह जाणिज्जइ। एयइ वाहिए ण उ जीविज्जइ ता महु सासुयाए वोलिज्जइ । देमि जमलि तुह पुण्णहि आयहो वाहि पणासहि महु जामायहो । ता महु वे वि गल्ल तें फाडिय रत्तलित्ततंदुल दवखालिय। किमि भणे वि लोयहो साहेविणु तुरिउ विणिग्गउ जमलि लएविणु। महु धुत्तेहिं णामु विरइज्जइ गल्लफोडि लोएँ जाणिज्जइ। 10 घत्ता-प्रम चउहि वि पणिउ सुणेवि णायरणर सह जंपइ। तुम्हह मुक्खत्तु विसेसु जइ सइँ अमरगुरु वियप्पइ ।।१९।। (20) इय चत्तारि कहियं जे मइ णर अस्थि एत्थु तो कह वि ण साहमि अवरु वि जासु ण लिंगरगहणउ जणरंजणु णाउ य जुयलुल्लउ तो विप्पेहिं वुत्तु पइँ जारिसु जुत्तिजुत्तु मण्णहु मा वीहहि तो खयरेण भणिउ अवहारहि लच्छि वत्थु मणिमउडंकियसिरु हरि सव्वण्हु सव्व जुय संठिउ ता सिरसि हर चडाविय हत्थें ताह सरिसु जइ एक्कु वि दियवर । सव्वु वि अलिउ भगंतहो वीहमि । चट्टभट्टपोत्थयसंगहणउ । को वि ण वयणु भणइ तहो भल्लउ । भणिउ ण को वि अत्थि इह तारिसु। 5 विहडइ ज ण कि पि तं साहहि । विउणवुद्धि महु वयणु वियारहि । जणु दलिद्ददमणु पय ण य सुरु । अत्थि अहव ण पुराणहि दिट्ठउ । भणिउ दिएण अत्थि परमत्थें। 10 (19) 1.b वाहिउं, 2.b मुहउं, a भासिउ for भाविउ, 3.b जुत्तुविहीगु, a मणवि, 4.a खोज्ज, b पेच्छेविणु, 5.a एण for एह, 6.a तो for ता, b वोणिज्जइ, 7.a देवि, a पुणहि, a पणासइ जइ जामायहो, 8.b फाडिया, 10.a धुत्तेहि, 11.b चउर्ल्ड मि पणिउं, 12.b मुक्खत्त, a सइ। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धत्ता- णिसुणे विणु मणवेएँ भणिउ जइ एरिसु हरि वुत्तउ । तो गंदगोट्ठि गोवालु हुउ कि पहु गुगहि विउत्तउ ।।२०।। (21) पडसुएँ पहिउ णियसामिहिउ डु उ हूउ दुज्जोहणपासं कयमहिपास कीस गउ । णं वामणरूवेणं कयकवडेणं वलि वसू हं पत्थि उ सरपहणा कि दणरि उणा दिण्णसुहं। अविरलसखाएँ सन्तुणिवाएँ पत्थरहो होउँ सरहिणा खेडि उ विहुणा कीस अहो। तहो एसा कीला वज्जियवीला जइ भणहु आणिय कट्ठाणं ता म्हाणं तह मुणहुँ । अहवा कस्सा वि हु आणए सो अम्हारिसु माणुसु कम्मपरावसु कि वि हु संचरइ करइ। 5 पुच्छिउ तुम्हहि जिह भासिउ मइ तिह घडइ ण घडइ य दिज्ज उ मह दिय जंदयणं पडिवयणं । तो तेण दिएसें वि हु गिय सीसें खगु अम्हेहि पुराणे पयडियणाणे हरि भणिउ सुणिउ। एयारिसउ अम्हइ वंचिय किं करहु पडिउत्तरु दाउं वायं कार णउ तरहु । अम्हाण वि पट्टइ कह वि ण तुइ ज णाणिउ विदो मत्ता छंदो एस भंति मणो जभो। घत्ता .. तो मच्छु कुम्म किडिणरहरि वि वामणु रामु तिवारह। 10 होएविणु जम्मणमरणदुहु देउ णिरंजणु सहई कर हं ।।२१।। (22) परमप्पउ कि रसरुहिरमंस मेयमिज्जसुक्कं तदस । दूसिउ सरोरु कल्प वि हवेइ . णिक्कलु वि कहि वि किं डहु सहेइ । (20) 1.b रयरत्ताइ for इय चत्तारि, b मई, b ताहं, b जइक्कु वि णरवर, 2.a कहि वि, a सव्व वि, 3.a संसगहणउ, 4.b भणइं, 6.b मण्णहुं मा वीहहि, a जण्ण, b साहहिं. 7.b वृत्तु for भणिउ, b अवराहहि, b वियारहिं, 9,a सव्वण्ह. b जण for जुय, b पुराणाहिट्ठिउ, 10.b भणिउं, 12.a गुणहि विक्षुत्तउ । (21) 1.b दुज्जोहणपासें कयमहिपासें, 2.b वा वणरूवेणं, b सुरपहुण किं दंणुरिउणा, 3.a पत्थणहो is written in margin. 4.b कट्ठतणं, 5.b तो for तहो, b तो for ता, b इय for तह, 6.a कम्मा for कस्सा , a संचरई, b काम'परव्वसु. 7.b जिह मई भासिउ तिह. 8.a अम्हेहि, a पयडिउ णानों, 9.b च्चिय; b वत्ताछंदो, 10.b वावणु, ll.a किरह for करहं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु ण पुच्छइ णरु कया वि तह पत्थइ ण कयत्थउ सया वि। ण मरेइ अमरु ण वि य हवेइ भयवज्जिउ णउ पहरणइ लेड़। सव्वंगु ण गच्छइ वाहणेण अइ तित्तु करइ कि भोयणेण । 5 जो लच्छिणाहु सुरपहु अमिच्चु सो होइ केम किर परहो भिच्चु । इय कारणेण णउ विण्हु होइ सवण्णु अवरु जइ होइ को वि । जरमरणरोयभयजम्ममुक्कु पुवावरवयणविरहचुक्कु। तं कइ वि गवेसहु णाणदेहु जडवाइय तुम्हइ जाहु गेहु । तं णिसुणेविणु कंटइयगत्तु सुहिवयणकमलु पुणु पुणु णियंतु। 10 घत्ता-णिग्गउ मणवेउ सुवद्धि लहु विप्प णिरुत्तर करेवि तहि । हरिसेणासाइ विविहफलु गउ पुव्वुत्तुज्जाणु जहि ।।२२॥ इय धम्मपरिक्खाए चउवगवहिट्टियाए चित्ताए। वुहहरिसेण कयाए तइआ संधी परिसमत्तो॥३॥छ।। * * * (22) 2.b कहिं मि, 3.a परु for णरु, 4.bणा वि, b पहरणइं, 6.b आमच्चु, 7.a सव्वणु, b सव्वन्हु, b हवइ, 9.b तुम्हई, 1.b सुवुद्धिलइ, 12.a हरिसेणा विविहफलु in margin हरि is explained as वानर, b adds प before विविहफल, a गयउ, a जहि for जहि, b जहि, 14.b संधी परिच्छेओ समत्तो, a परिसमत्तो, a ।।3।।श्लोक।।२३०॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. चउत्थ संधि (1) माणवेएँ वृत्तमित्त ण किंपि मुणिज्जइ । अण्णाधजणेण हरि सव्वण्हु भणिज्जइ ॥ छ ॥ भोपवणवेय णिसुणहि सुमित्त सुसम सुसम वि सुसमदुसमु दुसमसुसमि जिण चउवीस होंति वलव णव वि णव वासुएव तो मज्झि के वि पावंति मोवखु तो हरिहु मज्झि जोअंति मिल्लु सो वासुव वसुवपुत्तु किवि भणइ रमइ दहजम्म लेबि तथाचोक्तं ॥ तैरेव ॥ धत्ता - इय अण्णोण्णविरोहु जाणंत वि अवगण्णहि । एक्कु वि उहरू उ गयविणेउ हरि मण्णहि ॥१॥ (2) छक्काल कहमि जिह जिण हि वृत्त । दुसम सुसम दुसमुवि दुसमदुतम् । चक्कवर हवइ वारह ण भति । व चेव हवहि पडिवासुएव । सग्गं के विहु णरयदुक्खु । कंसासुररिउ चाणूरमल्लु । सव्वण्णु पुराण दिएहि पुत्तु । जम्माइ विवज्जिउ भणहि के वि । मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः । रामोरामश्च कृष्णश्च बुधाः कल्की च ते दशाः ॥ १॥ अक्षराक्षरनिर्मुक्तं जन्ममृत्यु विर्वाजतं । अव्ययं सत्यसंकल्पं विष्णुध्यायान् सीदति ॥२॥ 5 (1) 2. सव्वह a drops छ, 3.a हो for भो, b वुत्तु, 4. सुसम सुसम् सुसमुवि सुदुसमु दुसमु, 5 b हवहिं, 6. b हवहिं, 7.a व्हो को वि मज्झे, b सुक्खु संग तह, a को वि, 8. b हरिहुं, a जेपच्छ for जोअंति, 9.a Roaण्डु b दियहि, 10a भणहि, b भणई नमइ दह, b भणहि, 11.a इह अण्णोण, अवगण्णहि, 12.a गयविवेय, a मण्णहि । 10 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 विष्णुमुनि कथा आयण्णहि मित्त ण करमि गुज्झु वलि वंधण कारणु कहमि तुज्झु । वलिमंति तासु मुणिहणणकामु दिण सत रज्जु णियणिवहो पासु । तें मग्गिउ तेण वि दिण्णु तासु उवसग्ग घोरु जण्णहो मिसासु । अढविउ अकंपणमुणिहे तेण हरिमणिणा मुणिक ज्जएण । कवडेण वसुह वलि पच्छिऊण उपसग्गु हरिउ तं वंधिऊण ।। इय वलिवंधणु जयउ णिरुत्तु ॐणारिसु पुणु दियवरहि वुत्तु । लोयह वलि जेण पायालि गभिउ सो विण्हु णरामरणाय णभिउ । झायंतु ण सीसइ तं कयावि सुह थाणु होइ णरु सइ सया वि । एवं भणेवि णरवइसुएण पणिज्जइ सुहि चितियहिएण । धत्ता- णिसुणिउ परहु पुराणु मित्त वियारिज्जंतउ । णाह पुराणउ चीरु लहुसयसक्करु जंत उ ।।२।। (3) 10 15 मार्जार कथा मणवेएँ पुणरवि पवणवेउ पभणिउ बहेण वढिय विवेउ । अवरु वि अजुत्तु लोइयपुराणु तुह दरिसमि उज्झिय णयपमाणु । एवं भणेवि संजणियमाय अलिउलतमालणिह भिल्ल जाय । चच्चरियचिहुर टट्टरियसीस गुंजहलणयण छिच्चरियणास । दढकदिणवच्छ भीसण पयंड कोतंडविहसिय वाहुदंड। विज्जाणिम्मिउ मज्जारु लेवि रुहिरेल्लकण्णु कलसए छुहेवि । उत्तरदिसि संठियबम्हसाल पइसेविणु कय भेरीरवाल । कणयमयवीढि मणवे उ चडि उ णं मेरुसिहरि णवनेह घडिउ । दियवरहिं एवि भेरीरवेण पुच्छ्यि ते पुवदिसाकमेण । (2) These two verses are given by sfHanfa in somewhat different _form, see 10.58-9. 1.b omits ।। तैरेव ।। 2.a मत्सकूर्मो, 3.a ते दश, 4.a of Mक्तं, 5.a अहयं, b विष्णुध्याई न, 6.b आयण्णहि, a कहमि, b कहंमि, 7.a दिण्ण, 9.a adds णवरऽट्ठगुणहि संजुत्तएण before हरिमणिणा, 10.b तें for तं, 11.b दियवरिहिं, 12.b लेह for लोहय, b गमिउं, b णमिउं, 13.b सइं, 14.a खगवइसुएण, a चित्तियहिएण, 15.b णिसुणिउ परहं, 16.b णाई पुराणउं, b मणुसयं० for लहुसय०, cf. for बलि-भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण etc. | Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणवेएँ तो पडिवणु घुठ्ठ् तो ते भणिउ हरि कीस ते तु गरुय कोऊहलेण घत्ता - जइ मुक्खस्स ण जुत्तु कणयमयासणरोहणु । तो एत्यही उत्तिष्णु करहु पसाउ नियमणु ॥ ३॥ (4) तो हि विप्प को गुणसिट्ठ भिल्लेण भणिउ गंधेण जंति तो ते हिं भणिउं भणु मोल्लु काइँ दिय मण्णहि कणयहो पडउ वहु एक्aहिंदि पुरि मूसह अत्थू सारियए ण एक्कुवि रूउ एइ तो देवि हेमु अवियारएहि तें भणिउ पलोएवि लेहु एहु तो छिणु कण्णु रुहिरावलित्तु रुहिरारुणु दीसइ काइ कण्णु मंजरु विक्कहो हउँ इह पठ्ठे । कणयासणि किं थिउ पाणिसीस | णवजोव्वणवल विज्जामएन । ए हो मंजरहो सरीर दिटठु । वारहजोयण उंदर ण होति । तें भणि सट्ठि कणयहो पलाइँ । मज्जारें पुणु वहु सरइ कज्जु । नासिज्जइ जो सो मिलइ केत्थु । जं करइ मह जणु तं हवेह | कुंभत्थु विलइउ विरालु तेहि । मा पच्छता हु डहउ देहु । पिच्छेवि तासु दियवरहि वुत्तु । भिल्लेण ताव पडिवमणु दिण्णु । घत्ता - अम्हइ पंथें रीण णिरु उंदरकुलआउलि । सुत्तच्छुहासंतत्त रयणिहि एउ विदेउलि || ४ || (5) 10 14 5 किल सयलकाल अम्हाण जाइ एयहो दुट्हो गंधेण जाइ । ( 3 ) 3 a एम वि for एवं, a तमालणिहि, 4. गुंजाइणयण छिच्चिरियणास, 6. b रूहिरोलकण्णु कलसें, a छवि, 7.b दिससंठियवंभसाल, a बंम्हसाल, Ca दिसवरहि a भेरी रेवेण, 10.a मं मंजरु, b विक्कउं, a हउ, lla तेहि, b भणिउं, b णिभीस, 12.b णउजोवण०, 13. a जह for जड़, a फणयाआरोहणु, 14.a यियमणु । 10 ( 4 ) la भणहिं, b गुणु, 2b भंति for होंति, 3 a तेंहि, b जणु for भणु, a काइ, b भणिउं, a पलाइ, 4 b मंतहि for मण्णहि, 5a एक्कहि, 6. b महायणु, 7. a तेहि, 8a पच्छत्ताव, b पच्छत्त पावा डहउं, 9 b तो ठिणकणु, b पेछेवि, a दियव रहि, 10.b दीसई, b ताम, lIla उंदुरुकुल, ० 12. a यणिहि । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो अवको घरसुत्यासु इय उंदिरेहिं वइरं सरेवि कवि पंतहि ताहिएहि जइच्छिणु अलिउ तो तुज्झु वयगु एक्के दो भासि खगेण दिय भहिं भणिउ तुह केम घडउ सवरेण वृत्तु तुम्हहिं पमाणु तें भणउ दोसु जइ परिहरेहि पुणु तेण भणिउ संकमि भएण अवरु वि जइ अडददुरसमाणु चिरविरइय कट्ठभिच्चसमयं तो सवरु भइ समुद्दतडहो मेडुएँ पुच्छिउ आगमणु भरण वुत्तु केवट्टु उवहि करपसरु करेविणु दद्दुरेण तेत्तु गरुड पुणु मंडुण हंसे भासिउ को मुणइ माणु जो कूवि स ददगुरु सया वि एवं भणेवि उड्डाणु हंसु गुरु गण लहु वि जो पुण्वदिट्ठ कइव वहिरु वि असउ ण भएण दुणिमित्तु ण पिच्छइ जेम कि पि इय अहभी जो सुह चवेइ ४६ घत्ता - ता भासिउ भट्टेहिं ता णरतिउ साहिज्जइ । नियमजरदोसस्स पुणु परिहारउ दिज्जइ ॥ ५ ॥ (6) जिउ हरइ रंधि पहरंतयासु । कण्णद्ध खद्धु णिहु अंसरेवि । एयहो वि कण्णु मूसयदिएहि । इ भणिउ पलोइउ तासु वयणु 1 कि वहुय वि गुण णिज्जहि खएन । सुरविंदु विणास दुद्ध वडउ । रोडाण वादु ण हवइ समाणु । तो बंभणाण जसु परिहरेहि । परिहरि दोसु णं भणमि एण । तह कइवय वहिरिय णरसमाणु । पिच्छेविण पयडमि तो समयं । तडि आयउ हंसु जाम अडहो । रणाराउ तें कहिउ पुणु । तें भणिउ मुणहि अइ वहु सुहि । एवहु होइ किं भणिउ तेण । कच्चइ कि सरिसर महु अडेण । तें वुत्तु अाउ वि किं महाणु । सो सायरगुण ण मुणइ कया वि । अरु विसो गरु अडभेयसरिसु । सहइ ण पयाडिउ गुणगरिठु । रति गच्छइ तुरहरवेण । सुनिमित्तु ण याणइतिह हियं पि । अवरु विसो कइव वहिरु होइ । 5 10 10 ( 5 ) 1.b किर, 2 b जउ, 3. उंदिरेहि, a खुद्ध, 4 in margin the meaning of दिएहि is given as दंतें, 4. तो for ता, 5. a पलोयवि, 6.b खएण, b णिज्जहिं, 7.b णासई, 8 b समाणु, b वाउ, 9 a भणहि, b भणउं, b परिहरेहिं, b परिहरेहिं, 10 b भणिउं, a संक्कमि, b णह for पं, 11 omits बि, a कयत्थ ववहिरु वि णरसमाणु, 13.b तो भासिउं, हि 5 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ता - दुट्टु वि पहु जाणेवि चिरसेविउ मण्णंतउ । जो परिहरण मूढ किट्ठभिच्च सो वृत्तउ ||६|| (7) मण्डपकौशिक कथा इयतें तिणि विपुरिस पसासेवि रत्ताइ य दह पुणु वि भणेविणु हो सरिसु अत्थि जइ एक्कु वि तं सुविणु वंभण जंपहि ता सम्मत्तरयणरयणायरु दिय पुराणे आगमे जो वृत्तउ मंड कोसिउ णा तावसु हिदि के वि आमंतिउ ता तावस कुडिलिकय दिट्ठिय जजमाणेण भणिउ विणु दोसें तावसेंहिं भणिउ गुरुभत्तिए मंडवको सिएण तावुत्तउ तेहि भणिज्जइ जेणय अपुत्तउ घत्ता- विणु पुलेण ण कोवि भोपंति तेण तु ४७ सोलह मुट्ठि कहाणउ भासिवि । दियवर सह भणिय वि हसेविणु । तहो गुणु लहिवि ण पयडमि सक्कु वि । वृहण सह पइस एरिसु कहि । भइ समृदु गहिरसरू खेयरु | सो अक्खमि तु णिरुत्तउ | उगतेयत उणाइ विहावसु । तावस णिविट्ठ कयसतिउ । तंगिएव सहस त्ति समुयि । चल्लिय कंपमाण कि रोसें । पइ पाविट्ठ णिसिउ पंतिए । कहहु काइ मइ कायउ अजुत्तउ । अच्छइ एहु दोसु णिरुत्तउ । इहपरलोए वि पुज्जिउ । संसग्गु वि वज्जिउ ॥७॥ 5 10 (6) 1.a खेrरु for सवरु, b भणई, a समुद्दितडहो, 3.a उवहे, b भणिउं मुह, b सुहिं, 4. b भणिउं, 5.b अइ for पुणु, a के for fक, 6. b मुणई, a तेणुत्तु, a के for कि, 7. a ददुरं, b मुणई, 8.2 उड्डीण, 9.b व for त्रि, a पडियउ for पर्याडिउ, 10.b व for वि, lla दुणिमित्त b तह, l2.b चएइ, 13.b चिरसे वि, 14 b मूढ, b कट्ठभिच्चु । 15 तहि गुण लहइ ण बोल्लिवि सक्कु वि, ( 7 ) 1.b कहाणउं, 3. b एयहं, a 4. b जंपहि, a वंभण for वहयण, b कहिं, 5 b तो for ता, b भणइं समुद्द, 6.4 पुराण आगम, a हउ, a उज्झ for तुज्झ, 7 b तउणाई, a_in margin gives meaning of विहावसु as सूर्य, 8 b एक्कहिं, 9. b एसि, 10. b भणिय, b विणु for fकं, 11a तावसेहि, b पभणिउं गुरुभत्ति पई, 12 a मंडवकोसएण, bomits कहहु काइ .... . अपुत्तउ, 13 b एउ जि for एहु । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाचोक्तं ॥ अपुत्रस्यगतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च न च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्टवा पश्चाद्भवति भिक्षकः ॥१॥ तो कोसिउ भणइ दियकुलसमुप्पण्ण को देइ किर मज्यू थे रस्स णियकण्ण । ता तावस भणहि जं पुनमुणि भगिउ परमत्थु सुइसारु त किं ण पइ मुणिउ । णठे मए पव्वईयम्मि कीवम्मि अवरो वरो होइ भत्तारि पडियम्मि। 5 इय पंच आवएहि दिय कुलहँ आयारु एवं वियागेवि लइ कावि अविया ॥छा! तद्यथा नष्ट मते प्रवजिते क्लीवे च पतिते पतौ । पंचरचापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥२॥ इय तवसिवयणेण विहवा वि तें गहिय णामे ग छाया पुणो जाय तहि दुहिय । अह अट्ठ वरिसाईं गेहम्मि वसिऊण पिय कोसिएणं समालत्त हसिऊण। 10 किर तित्थ जत्ताफलं वे विजइ लेहु छाया तया व स्स प सम्मि मिल्लेह । अह भणहि हरपासि ता गंगकपणा वि जो लेइ मिल्लेइ तो धीय मह णा वि। आयण्णि सो आसि णिह वित्तु वित्तंतु हरू गउरिसंजुत्तु कइलासि णिवसंतु । जा संझवंदणणि मित्तेण गच्छेइ तलि गंग तियरूव कीलंति पिच्छेइ । तं णिएवि तहि स्वु पिक्खेवि सहस ति हउँ मयगवाणेहि हरुणिएवि तें झस्ति। 15 णिय मणिण चितेड कहो तणिइ इहकण्ण अणुहर इ उध्वसिहि णउ होइ इह अण्ण । घत्ता- तो दंस गमित्तेण तें मयणग्गिपलितें । चितिउ एह ण कण्ण जहि तें कि देवतें ॥८॥ (8) 1. This verse occurs in the यशस्तिलकचम्पू (बम्बई 1903), vol. 2, p. 286. Amitagati's verse runs thus, see 11.8. 2.b आपुत्रस्य, b स्व!, 3.a भिक्षुका, b छ॥ 4.b कोसिओ भणई, a समुप्पण्ण. 5.b तावसा भणहि, b भणिउं, 6a कीर्याम्म and gives its meaning in the margin as नपुंसके, 7.a दियकुलहु, 8.b omits तद्यथा; cf. Amitagati's DP.11.12. This verse is identical with पाराशरस्मृति, 4.28 quoted by Mironow, p-31 of his Die Dharmapariksha etc. It is also attributed to Manu as found in the स्मृति चन्द्रिका, see the suppliment to the मनुस्मृति, Gujarati Press ed. Bombay, 1913, p. 9, verse 126. 12.a वरिसाइ, 13.a तय, ३ पासम्मि मि मिल्लेहुं, 14.b भणहिं, a गंगकण्णे, 15.b गोरिसंजुत्तु, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वरिसं भासमि एह णारि कि माणहि दूसहविरहमारि । ता हुउ संकरु संकरु कुमारु पच्चक्खु णाइँ ससरीरु मारु । घोल्लाविय एरिसु जोवणेण किं णिज्जणेण सेविय वणेण । कि तणुलायण्णे दुल्लहेण जं णउ मागिज्जइ वल्लहेण । गंगाए ताम खलिय क्खु राए वोल्लिउ अणुराएँ मह गिराए। 5 हउ कण्ण ण परपइ अहिलसेमि सुहु कीलती काणणि वसेमि । हरु पणिइ हउ मि अच्छमि कुनारु जोग्गा ण जोग्गु संसारसारु । इय वयणहिं गंगए साहिलासु अप्पाणु समप्पिउ संकरासु । सुरयम्मि जाए पुणु णियघरेण पुच्छिय कंता जं तें हरेण । आरुहमि उवरि महु णिलउ जेत्थु आवेसमि हिगि दिणे मुद्धि एत्थु । 10 सइ काइ गंग संकरु ण णेइ सव्वु वि कयत्थु सीयलु हवेइ । गए पिए तहे णिग्गयणीससाहे रणरणउँ लग्मु जाणियरसाहे। घत्ता- अणमग्गें दइयस्स सा गय जा कइलासहो। गउरिए पुच्छिय ताव पेच्छिवि पच्छइ ईसहो ॥९॥ (10) का त्वं संदरि जान्हवी किमिह ते माहरो नन्वयं । अम्भस्त्वं किल वेदिम मन्मथरसं जानात्ययं ते पतिः । स्वमिन्सत्यमिवं नहि प्रियतमे सत्यं कुतः कामिनां । इत्येवं हरजाम्बी गिरिसुता संजल्पनं पातु वः ॥१॥ अह भणहिं कते गुणगणमहंतु सुय थावणियाहे जोग्गउ अणंतु। 5 सुण ते ण रमिय जिह गोवरमणि लोयणसलोणउम्मत्ततरुणि । कज्जे ण कहेवि गच्छंति दिट्ठ हरिहियए मयणवाणु व पइट्ठ । जणसंकुलु गोउलु रण्णु गाउँ । पियमाणुसु जहि तहिं चित्तु जाइँ । परियणु सुहोहि सई होइ दासु ण सुहाइ कि पि मयणाउ रोसु। तिहुयणमोहणु मोहियउ ताए गोविए पं मोहणबल्लियाए। 10 17a तहिखव पेच्छेइ, a हउ, a मुणिवि for णिएवि, b तं for तें, 18.a चितेइ इह तणिय कह कण्ण, b उव्वसहे णउ, b कण्ण for अण्ण, 19.a ०पलित्तइ, 20.a जहि. Note : मण्डपकौशिक may be the name of विश्वकर्मा ऋषि whose daughter was छाया, the wife of Agni. See the story - भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण etc. For गंगा, see वायुपुराण (42.39-40). महाभारत आदिपर्व, 210.11-18. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुणंतियाए पीवरथणाए णावइ वसिय रणपउत्तियाए हरि चिंतइ किं कामिणि सहासु सो धण्णउ जीविउ सहलु तासु थंभिउ णं विज्जए थंभणाए । वसिकिउ हियवए पइसतियाए । वरि एकक वि पिय पियविरहणासु। सह जेण एह जंपइ सुहासु । घत्ता- पेम्मपरव्वसचित्तु पियमुहकमलु णिएविणु । सरसवयणु जंपेइ हरि ईसीसि हसेविगु ॥१०॥ (11) आढत्तु गमणु कहिहं सगमणे को धण्णु रमणु अइपिहलरमणे । चुंवहि जसु वयणु मियंकवयणे को सहलणयण सिसुहरिणणयणे । जो जोयइ तुज्झु सरायवयणु आयण्णिओ ण तं हरि हे वयणु । वोलिज्जइ ताए वियवखणाए कि परमहिलाए सलक्खणाए । पुरिसोत्तमासु एरिसु ण जुत्तु अहिलसियइ जं किर परकलत्तु। 5 परयारकहा लज्जावणी य सज्जणमत्थयझंपावणी य । वह धिद्धिक्कारपडिच्छणी य णिम्मलयरसुहि मुहलंछणी य । (9) la वससं, b माणे, दूसहुह, 2.a णाइ, 3.b एरिस, 4.b माणिजइ यलहेण, 5.b खलियक्ख, राए वोल्लिय, a गिराइ, 7.b हरु भणइ हउं मि, a संसारसरु, 8.a वयणहि, 9.b दुगु for पुणु, 10.a त्तेत्थु for जेत्थु, II.b सयलु वि, 12.a रणणणउ, 14.b गउरिय, b ताम, a पच्छा एसहो। (10) 2.a बेल्सि, 4.a पातु व, 5.a भणहि, b कंत, a थवणियाहे, 6.b सुणि, b गोविरमणि, a लोणससलोण, 7.b कहिमि for कहेवि, a मयणबाणाइ पइट्ठ, 8.a रण्णु णेइ, b पिउ माणुसु, a तहि, a जाइ, 9.b सहिहि, b रासु, 10.a ०बेल्लियाइ, 13.b सहास, a वर for वरि, b विरहणास, 14.b धण्णउं, b एस for एह, a तंपइ, 15.a पेम्मवरवस०, 16.b जंपेवि, The corresponding verse is not found in Amitagati's DP. Amitagati refers to the incident in only one verse as followes : देहस्थां पार्वती हित्वा जान्हवीं पो निषेवते । स मुञ्चति कथं कन्यामासाद्योतमलक्षणाम् ।। 11.23 Harishena provides this incident in rather more detailed form. For श्रीकृष्ण or हरि, see भागवतपुराण, विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण etc. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह जारु विडवु मरणु लहेइ तें भणिउ अगणिय मयणहासु पइँ मावि खनमित्तु जंपि पुणु भणिज्जइ रयणिहि एहि संकेउ देवि गय गोवि जाम रवि कोडि जुत्तु पडिहाई गय पंचमसरु सरु पंचमसरासु नवोलु वोलु जुगरवयजलासु निलु विहारु णं असिपहारु पsिहाइ भाणु लहु अच्छवंतु समयम्मि जाए हरि जाए जाम जइ वोल्लावमि तो जणु सुणेए इय चितिऊण अंगुलिए जाम घरता - आणुराइय अंगु जाणिउ तहो सुयवयणए । ताए समपि अंग उद्दीविय मणमयणए ॥। ११ ॥ (12) ५१ जो तिय सोलह सहसण तित्तु परतियलंपडु घर आणियाहे संकरही कहाणउ कहिउ तुज्झ देवत्तणु वृज्झिउ केसवासु अह भणहि कंत कह पासि थवमि परभवि पुणु दूसह दुहु सइ । पिए पर मोहर विसयाहिलासु । जीवमिममि बहु सहनु तं पि । तद्यथा - अंगुल्या कः कपाटं प्रहरति कुटिले माधवः किं वसंतो । नो चक्री किं कुलालो नहि धरणिधरः किं द्विजिह्वः फणींद्रः । नाहं घोराहि मद्द किमसि खगपतिर्नो हरिः किं कपीशः । इत्येवं गोपवध्वा चतुरणमभिहितः पातुवश्चक्रपाणिः ॥ १ ॥ छिणिवेसण जणु परिहरेहि । हुउ दिवस परिससमु हरिहे ताम । कमलसयणु णं पज्जलिउ जलणु । कप्पूरू पुरु णं सायरासु । हरियंदणु मद्दणु तणुवलासु । आहारु णाइँ जीवावहारु | उग्गमिउ चंदु णावइ कयं तु । गोविहिघरु झंपणियइ ताम । मउणेण च्छंतु ण पिय मुणेइ । आहउ कवाडु सां भणइ ताम । इय चोरिए माणइ परकलत्तु । पिए सो ण जोन्गुतिय थवणिया हे । इँ अक्खि हुणिमणे ण गुज्झु । परतियलंपडु सिव कवणु वासु । अच्छइउ वाउ सो तुज्झ कहमि । घरता - अहवा महो पासि वंभणि जइ सुय मुच्त्रइ । णिरु थेरु वि अइकामिउ गिसुणहि सो जिह पुच्चइ ॥१२॥ 10 5 10 15 (11) 1.a आढविउ, b ० रमाणि, 3 b सरयवयणु, 4.b वोलिज्जइ, 5.a परकलुत्तु, 8. ल्लहेइ, 9.b पभणिउं, b मोहगुइ, 10.a पइमाणे विणु, a सहल, 11 सुयवयई । 20 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) आहुट्ठ दरिससहसाइ जाम आसणु कंपिउ पुच्छिउ समंति वंभा तुह र उजहो कारणेण तिलु तिलु रूवहो अच्छ रहो लेवि आदविवु ण? तहो पुरउ ताएं दरदरिसिय णाहिं पएसियाएँ उण्णामियणमियचालिय भुयाए सविलासक हक्खालोयगाए तउ करइ वंभु सुरवइहं ताम । भासइ भेसइ गहु सुणि भवित्ति । तउ चरइ चलिउ हरिवोढ़ तेण । पट्ठविय तिलोत्तम तें करेवि । पडहाणुसारि चालियपयाए। ईसीसि पयासिय थणजुयाएँ । विन्भमभमंततणु भूलयाए । णवरसविसेसगुण भायणाए। 5 घत्ता-- ता कण्णंतरे तासु जोणिहविद्धंसणु । पडिउ गीयझुणि झात्ति हुउ सर!उ कमलासणु ॥१३।। 10 (14) जिह जिह पेच्छइ तहे चरचरण पेच्छंतह तहि सरलंगुलियउ। जिह जिह जंघाजुअलु अवलोयइ जिह जिह ऊरुजु यलु णियच्छंइ जिह जिह चितइ सोणीमंडलु तिह तिह सिढिलइ झागावरण । ढलहिं ण अक्खसुत्तमणिगुलियउ । तिह तिह सुरयजुत्ति अवलायइ । तिह तिह तहो णीसासु णियच्छइ । तिह-तिह रइरुइ मुयइ कमंडलु । (12) 1.b रणियहे, एहे, 3.b पज्जलिय, 4.a जलय for णं, 6.b णित्तल, a णाइ, 7.b उग्गमिउं, 1c.b चितिऊण, b भणई, Il.b अंगुल्या, 14.b धाराहिमदि, a खगपति नो हरि, 14.b चतुरमभिहितः, a चतुरमतिहितः, 15.b • सहसहि, b मांणई, 16.a घरु, a जोग्ग, 17.b कहिउं, a मइ, b तुह, णियमे ण, 18.b लंपडसिउ, 19.b भणहिं, कंति कसु पासि, 20•a ब्रम्हणि, 21.a जइ थेरु विणिरु ०, Amitagati has not got any verse similar to this. It is, ofcourse, found with some veriations in the सुभाषितरत्नभाण्डागारम, p. 38, verse 166 of the section of दशावतार (Bombay, 1891). (13) 1.b ० सहसाई, a वम्ह, 2.b inter. पह and सुण for सुणि, 3.a बम्हहो for वंभा, 4.a तिलोत्तिम, 6.a हरि for दर, b पएसियाई, bथणजुयाए, 7a तणु चूलयाइ, 9.a तो for ता. Note see for ब्रह्मा, तिलोत्तम, शिव & इन्द्र, महाभारत (आदिपर्व, 210.18-28), भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण etc | Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिह जिह नियइ गहीरिम पाहि जिह जिह पीणयओहर जोयइ जिह जिह पिच्छइ सुललियवाहउ जिह जिह नियइ पयगरयणायरु जिह जिह कुंतलवलउ विलोयइ घत्ता - इय जोयं तु णिएवि कुडिलभावमणु रंजेवि । थिय उत्तर दिसा म्हहो दिट्ठि विवज्जेवि ॥ १४ ॥ (15) जइ विदिट्ठि परिहरेवि परिट्ठिय हो पुरउ णाइँ अवलंविय णं संलिहिय अव णं रोविय चितइ विहि वलेवि जइ पिच्छमि अहव ण नियम णयणफलु हारमि तो वरि जाउ लज्ज तं वारहो गाझा संजम संघायहो सइ संपडिउ जइ वि वज्जिज्जइ ५३ म्हे पुणु वि पुणु चितविउ तहो वरिस सहास फलेण मुहु ता झत्ति जाउ सुंदरु वयणु पिहू थणि नियंव गुरु मज्झ किस तित्थु वि अवरा णणु जाउ पुणु तिह तिह मण्णइ घरु मयणाहि । तिह तह मयणु सरासणु ढोयइ । तिह तिह संभवति तहो वाहउ । तिह तिह चडइ रायरयणायरु । तिह तह तहो मणु मयणु पलोयइ | 10 घत्ता - अहवा कि वहुएण दोसु गुणु वि अवगण्णमि । हो दरिसणसोक्खु सिद्धिसुहहो वहु मर्णामि ।। १५ ।। (16) तो वि तासु आसत्ति ण णिट्ठिय । णं हियवए गिलीण णं विन्हिय । णं उक्किण्णरुव णं वाविय । भुवगुरु विलहुयत्तहो गच्छमि । लहु उद्दत पाण कह धारमि । अइ दुल्लहु रइसुह परदारहो । एउ जे फलु काले ण वि आहो । तो विण कम्मु पुराउ जिज्जइ । एहु उग्गु मइँ त कियउ । महु होउ जणिय पेच्छणय सुहु । जा तेण पलोयइ थिरणयणु । गय ताम तिलोत्तम अवरदिस । पिच्छंतु नियंविणि जट्टपुणु । 5 10 (14) la चरचरणइ, b सिढिलाई, a झाणावरणइ, b झाणायरणई, 2.b पेच्छंतहोर, 3 a आलोयइ, a सुरयं, 4a णीसासु णियच्छई, 7.a सरासणे, 10.a कुंतलु, b omits one तिह, a विलोयइ for पलोयइ, 11.b अइ for इय, 12. उत्तरुदिसाहे, b वंभहो । 5 (15) 1.2 आसति, 2.b णयणहं, a णाइ, b त्रिविय for विहिय, 4.b भुयणगुरु, a लहुयहो, 6.a परयारहो, 8. b पुराइउ, 9. दोसुगणे वि, 12.b एहे । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहो णिविडपेम्मु तहिं जणे विमणु पियरूवें तण्हणे हे जडिउ चउदिसु मुणेवि णयणइ पसरु पंचसयवरिस तवे संठियए उव्वरिय तवाणुरूउ वयणु लीलए दाहिणदिसि किउ गमणु । तहिं अवरु वि वत्तु तासु घडिउ । गयणयलि विहिउ संगीयसरु । कमलासणेण कलियउ हियए। महु होउ णिएमि णारिरयणु। 10 घता- ता रासहरिसि जाए गउ असेसु तउ जाणेवि । गय सुरतिय सुरलोउ णियपहुकज्जु समाणेवि ।।१६॥ (17) विप्फुरिय हारमणि गय जाम सुररमणि । ता मयण जज्जरिउ विरहेण विहि जरिउ । उट्ठमुहुँ एक्कंगु जाणियए तहो मग्गु । कय भउहखेवेहि ता हसिउ देवेहि । किर कुद्ध ते गसइ खरमुहेण खरु रसइ। ता भीए कंपंत हरसरणु ते पत्त । खरसीसु गहरेण जा खुडि उ तहो तेण । कोवग्गिउण्हेग ता भणि उ वम्हेग । महु हच्च तह चडउ सिरू करहु मा पडउ । ता सा व किण्हेण सोयाणलुण्हेण । वहु सामवयणेण उवसमिउ तहो तेण । पूच्छियउ सामंतु विहिणा वि सो जुत्तु । वहु णरकवलेहि अंगटिठजालेहि। भुसिय सरीरस्स जडजूडधारस्म । चियछार धवलस्स तवरवीण सकलस्स। भिक्खं भमंतस्स एत्थु वि जिमंतस्स। इस इउ वहंतस्स पूरेइ रत्तस्स। जइ को वि ता पडइ हत्थइ तुह झडइ। इय भणिय वयमालि हर जाउ कावालि। सच्छंदो वि सुपसिद्ध मयणावयारद्ध। (16) 1.b वंभेण, a मइ तउ त कियउ, 2.b inter. महु and मुह, 3.b भोरभणु for थिरणयगु, 4.a ताव तिलोत्तम, 6.a तहि for तहो, a तहो for तहिं, 7.b पियरूवतण्ह०, a तहि, .b adds वि before मुणेवि, bणयणपसरु, 10.b तवाणुरूवश्यणु। 15 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता - वम्हें कामगहेण गहिए लज्जमुए विणु । रिउ संपणिउ रिच्छि रमिय रण्णि पइ सेविणु ॥ १७ ॥ (18) तो जंवओ पुत्तु रित्थि जो रमे अह रवि समासण ताजें अदिणा वि अयि सुउ जाउ घर थविय सुछाय चंदोवि सकलत्तु कोवग्गिदत्तेण मयम्मधारण गोयमहो महिला हे इंदोविरइरत्तु सविऊण सहस भउ अपरोहवरोहेण पुणु जणि सहसक्ख इय देवसंघार सायलो विक्रिकरहु ५५ इय भासिवि मंडवको सिएण सइ समहि तित्थ भमेइ जाम मयणसर विद्ध हुउ वियलचित्तु वाहिरे किर दीसइ सुरयणेण उप्पण्ण गुणजत्तु । सो कण्ण कह मुयइ । इधर यिकण्ण । किर कुंति कण्णा वि । कण्णे त्ति विवखाउ । सो मुयइ कह छाय | दट्ठूण भुंजं तु । रिसिविस मित्तेण । कलंकु किउ किउ तेण । आहल्लण्णा माहे । जाता घरु पत्तु । कुविण ते उ । उवस मउ कोहेण । इयलोय पच्चक्खु । परयारअणुराउ घत्ता - पर अज्जवि पिए दोसु एक्कहो जमहो ण दीसइ । धम्म हम्मुवि से जो मज्झत्थु गवेसइ ॥ १८॥ (19) पासि सुधर छाया जमपासि णिहित्त तेण । जमु छायारूउ नियंतु ताम । साते अणि वि कयं कलत्तु । पिय गिलिय जमेण भएण तेण । 5 10 (17) 3. उट्ठमुहु, b जाणियई, a तहि, 4. a देवेहि, 5. a कुद्ध, 8 b उग्गेण for उण्हेण, b वंभेण, 9 b तव for तह, 11.b उवसभिउं, a सो for तहो, 12. b सावंतु, b ति सो उत्तु, 13a अंगिट्ठिय०, b जालेहि, 15.a तवरवीणतवलस्स, 16 b इत्थ वि, 17.a रंतस्स, 18 b हत्था वि, 20.bछंदोवि, 21.b वंभे, b गहिएं, 22 b संपणियरिधि, a रण्ण । 15 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरेक्क दिवसि पवणेण अणलु जें लद्ध णारि चिर कय सुहेण तो तेण भणिउ संभोउ ताहे मरु भइ मित्त जो विसपलुद्ध अंगुलिए पसारिए वाह पडइ सो थवइ कंत उयरंतराले तें भणिउ तिलोयासियउ जाउ कि एक्क वियणे गुरुयणविहीण तहि थिउ पछष्णसरीरु जाम उगिलिय कंत वियणं णिएवि एत्तहो धूमद्धउ दिव्वरूउ दंसणमत्तेण वि एक्कमेक्कु रमियावसाणे दिससुय भणेइ परहण मज्झु णासिय लुणेइ वहंति पाय पिए कहमि तुज्झ तो निभए सो ताए गिलिउ गिलिऊण भज्ज गउ गेहि जाम जलणेण विणा थिय दियहु जाय ५६ धत्ता - इय भणेवि गउ तेत्थु जैत्थु णिच्च जमु गंगहे । छाया उग्गिलिऊण लग्गड़ झाणपरिग्गहे ||१९|| (20) पणिउ जम जीविउ मित्त सहलु । 5 ज जाइ कालु तहो रइसुहेण । सहि केम होइ भणिरुवमाहे । कज्जगइ वियप्पइ सो ण मुदु । कता के संसग्गु घडइ | वह एक्कु पहरु वयfणयमकाले । पहरेक्के माणमितियउ ताउ । छुट्ट महु मयणुम्मत पीण । धत्ता- ताम पवणु इंदेण भणिउ समित्तु गवेसहि । आउ पलोएवि तेण वुत्तु ण दिट्ठ मए सहि ||२०|| सहसा एंतूण जमेण ताम । आढविउ नियम जले पइसरेवि । करिऊण पत्तु छायासमीउ । इच्छिउ रइरस पिउ महुरवक्कु । जा जाहि कंत जा जमु ण एइ एत्यंतरे सिहि पडिवयणु देइ । तुह पुरउ होउ जं होइ मज्झु । एत जमु विणु ताह मिलिउ । जगि णट्ठ पवण किय सयल ताम । विणु जायहु सुरवर वियल जाय 10 " 10 ( 18 ) 1.a जेववो, b पुतु उप्पणु, 2b मुवइ, 3.b किर कण्ण, 4.b तायें, 6.b inter. सो and कह, 7.b वि कलत्तु, lla रयरत्तु, 13 b उक्समिय, 14.a इउ for इय, 16. b कसु for कहु, 18.b धम्माहम्मअसेसु । ( 19 ) 2b तेत्थ, 4. b वहिरे, b गलिय, 5 b पद्मणिउं, 6.b काइ for जाइ, b रहे for तहो, 7. b भणिउं, 8 b भगई, 9. b जहे for कहे, 10.b थरई, a उवरंतराले, a परणियणयाले lla याउ for जाउ, त्तियउ, 13 b तत्थ जेत्थ । 5 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ (21) अज्ज वि एक्कु ठाणु णउ जोयमि एम भणेवि देव आमंतिय सव्वहो एककेकासणु दिण्णउ भणिउ विसेसु कवणु संभाविउ भगइ वाउ अलिएण ण वाहमि तो उग्गिलिय कंत जमराएँ छड्डिउ ताए जाम मे सासगु णासइ किर भयतट्ठहो आसणु जइ पिच्छमि तो पहु संजोयमि । आइय सयल वि सामर पंतिय । जमहो तिण्णि ता तहो मगु भिण्णउ । जेणासणतिउ मह देवाविउ । जइ उग्गिलहि कंत ता साहमि। मेल्लि मज्झु सुहि वोल्लिउ वाएँ । ता अच्चंतकुद्ध जमु भीसणु । ता पुट्ठीए लग्गु महिसाणणु । 5 घत्ता- सिहि उठेंतु पडंतु जा णासे वि ण सकइ । सिल तरु तण धरणीसु ताव पईसेवि थक्कउ ॥२१॥ (22) तहो दिवसहो लग्गिवि गहियभउ आणियं तुहु आसण मग्गु तहिं इय पियपुराणकह संभ रहु एत्थंतरे पणिउ दियवरिहिं पुलु खयररायणंदणु भणइ णरु मुणेवि सुसील सग्गे धरद दुच्चरिय भरिय कह इत्यियहे जइ कह वि ण जाणिउ तेण हवि एक्केग वि दोसें वहुयगुण तो जमहो जमत्तणु ख यहो गउ. पइसाणरु दीसइ सव्वगउ । पल्लट्टेवि गउ जमु भज्ज जहि । कि अस्थि णात्थि फुडु वज्जरहु । छायइ रविविवु कवणु करिहि । ते लोउ तियालु वि जो मुणइ । दुठ्ठ होइ पुणु णरयगमणु करइ । उयरात्थिउ णियउयरस्थियहे । ता कि जमु सयलु वि मुणइँ ण वि। जइ णासहि एम भणंति जण। अहवा मज्जररहो दोसु णउ। 10 (20) 1.b एहिं for तहि, a एतूण जम्मेम, 3.a ० समोउं, 4.b एक्कुमेक्कु, 5.a रमियावसाण, b रमियावसासे, a कंत जइ जमु मुणेइ, 6.b पई हण, aहणहं, 7.b कहमि, 8 b तासु for ताह, 9.b पयण किय, 10.a जलगेणु, b दियह, b जाहि. II.b भणिउँ । (21) 2.a मत्तिय for पंतिय, 3.b सव्वहं, b दिण्णउं, b भिण्णउं, 4.b ०तउ for •तिउ, 6.b सहि, a वोल्लिय, 7.a छंड्डि उ, 6.a अच्चंतु, a जम, 8.b भयतठ्ठहु, a. after भयतट्टहो in margin हु भासणु, b तट्ठह, 9.a णासाह ण सक्कि उ, 12.b ताम (स्वजन in margin)। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धत्ता दिवराहणिरुत्तु सव्व पुराणि पवृत्तउ । पुणु वाइय गिरिद सोयामणि णिसोहग्गदमियरइरमाणिहि पयजिय, पोमराय रूइ.संघह सुरकरिकरसमऊरु विसेसहि गहिरणाहिरा रोमावलियहि सिहिणभार भारियललियंगहि रतुप्पलदल कोमलपाणिहि गयणपुरं तदित्ति णहपंतिहिं जियपरिणय विवीहलअहर हिं फुल्लकमलदली हरणयणिहिं कोइलकलख महरालार्वाहि हावभावविभम पयतिहि ५८ उ दिएहि गुणड्डु तह विरालु पइ जित्तउ ||२२|| (23) रुदेह गारिहरु जेण कउ भुवि अभवउरित्थियए घत्ता - इयतिहुयणरमणिहि जासु ण मणु खोहिज्जइ । सुरणरणाय यस्स तहो देवहो पणमिज्जइ ॥ २३॥ (24) भइ रवगिंदु भव्वचूडामणि । वालमराललीलगइगमणिहिं | मासि ण वि सिर वि रोमवरजंघ हि । गंगापुणिणियं वपएसहि । तोच्छोयर सोहंतहि तिवलियहि । भुयलयकय अणंगगणसंगहि | गुलबहुसोहाखाणिहिं । तणुतेओ हामि यससिकं तिहिं । मुत्तालविलासदंतहरहि । सरयसमयछणससिसम वयणिहिं । सिहिकलावसमकेस कलावहिं । वरसण दृविसेस डंतिहि । गोविंद गोविगुणणेहमउ । सुरणा अणाहु अहल्लकए । 5 ( 22 ) 2.a यासण, a तहि, a जहि, 3.b inter. अस्थि and णत्थि, 4. b पभणिउं, a रविवु, 5.b यरराउ, a b भणई, b मुणई, 6a सग्गें, b हो for होइ, 7.a इत्थियहि, a उयरित्थिउ 8.b कह व, 9 a गुणु b णासहि, 10.b णउं, 12 b भणिउं, b तुह, b पई | 10 (23) 1.b भणई, 2.a रइरमणहि, a ० गमणिहे, 3. a 。संघहि, a जंघहि, 4. विसेसहि, a ०पएसहि, 5.boगम for ० राय०, b. सोहंततिवलियहि, a तिवलिहिं, 6. a •ललियंगहि a अगंगगलसंगहि 7. पाणिहि, ०खाणेहि, 8. a. b णहपंतिहि, a ससिकंतहि, 9 a पक्क in margin, a oअरहिं for अहरहि, 10. b जयर्णाहि, b वयणहि, lla महरालावहि, कलावहि, 12.6 ० पयडंतहि, b विसेसु, 13.b 0 रमणीहिं, a 14. b पणविज्जइ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिल्लु आसि जोवइ समल सो म जेण दुज्जउ जियउ तं वंदइ जो भवभमण चयं पावेविणु सुरणरयपयं इय मित्तणिमित्तं देवगुणु उ खगवणंदणु उववण हो ५९ तावसि परयारे ससि समलु । सो देउ सुरासुर पुज्जियउ । सो रु वंदारयवंदणुयं । पाव मोक्खं पिहू सोक्खमयं भासंतु संतु णीसरिवि पुणु । खयरणरवाणरणंदण हो । धत्ता - पुणरवि वृत्तु खगेण सुरगिरिसिरिअहिसेयणु । जासु करइ हरिसेणु तुहु पणवहि सुहि तं जिणु ॥ २४ ॥ छ ॥ इ धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्टियाए चित्ताए । बृहहरिसेण कथाए चउत्यसंधी परिसमत्तो ॥ संधि ॥ ४॥ श्लोक ॥ २३३॥ 5 (2 ) 1.a in margin कामेण for जेण, 2.a oअवंभवउरित्थिरय, a अहल्लकयं, 3.a जोअइ अमलु, 5.b ०चुअं, 6a पहु, 8.b • वाणरभंदणहो, 10.b हरिसेण, b तुहुं पणवहि, a omits छ, 12. b चडयो संधी परिछेओ समत्तो, b परिसंमत्तो ॥ छ || संधि ||४|| omits श्लोक ।। २३३ ॥ 10 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पंचम संधि (1) मणवेएँ पुणरवि सहि भणिउ णिसुणि मित्त रुहाइगुण। देवहँ साहारण सव्वु जिह हो इ तं पि तुह करमि पुणु ॥छ।। अणिमा महिमा लहिमा पावइ अप्पा गम्मई सत्तु वि हावइ । कामरूउ वसिया सव्वाण इय गुण अठ्ठ हुंति देवाण । एयहु अवरु अउव्वउ दीसइ वम्हाइयहु लहिमगुणु सीसइ । जइयहो हरविवाहि कमलासणु जाउ पुरोहिउ हुणियहुयासणु । गरि अणलपासहिं भामंतउ खुहिउ पाय अंगुट्ठ णियंतउ । ताम तासु मयणाउरचित्तहो सुक्कच्चवणु जाउ अणुरत्तहो। चउरियवालुयउवरि पगलियउ लज्जए सुक्कु पयहि दरमलियउ। तहि अंगुट्ठसमहु गुणवंतहो अट्ठावसिहासहुयपुत्तहो। 10 वालिखील णामहो सुपसिद्धहु रिसि अयत्थि सहियउ तवसिद्धहु । इय तइयहो उक्कोइयमयणे लहिमा गुणु पाविउ चउवयणे । घत्ता- तह गउरिए गिरिक इलासिहरु वुच्चइ णच्चहि दासणु वणु । अइ पिम्मपरब्बसु पहु वि गुणि करइ अजुत्तु वि पियवयणु ॥१॥ (२) शिश्नच्छेदनकथा तो णाडयरस उद्दीविउ हरु चंदकलालंकिउ जडसेहरु । वरकप्पूर धूलि धूलियतणु कुंकुमरसरंजियपुण्णाणणु। वसियरणंजणअंजियलोयणु मयणाहीमयवट्टयमंडणु। णोलणेत्तचलणयरुभासिउ णरअंगठिविहूसण भूसिउ (1) 1.b सहि भणिउं, 2.a देवह, 3.b पागम्मई, b भावइ, 4.a वसियाब्वाणं, a होहि for हुति, 5.a एयह, b वंभाइयहं, 6.b • हुवासणु, 7.a •पासहि, a खुहियपायअंगुणियंतउ, 9.a ०वरे for उवरि, a ०पयहि, 10.b अट्ठासीसहासहुयपुत्तहु, 11.5 सहियहु, a सिद्धहो, 12.b उक्कोविय० 13.b तहग्गुरिहे, a कइलासहरु, b दारुवणु, 14.b ०परव्वस । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणंत किविणिमेहलसरु रणझणं तवरकंचणणेउरु णियकरडमरुयसरचालियअंगउ इय डंतु गउ तावसआसमु भिक्खु देहु एरिसु जंपस उ कवि चितड़ किं एहु देउ हरु कवि हर हरियचित रिसिपत्ती हरगामे नियपिउ वोल्लावड़ कवि वोल्लह किं वुच्चइ संकरु कवि मयणव किं पि वियप्पड़ कवि संकरि कवि आलिंगणु ह ह ह हउँ कवि उरि पेल्लिय कवि पि तच्चखेविण संकइ जसु आरूढ सरीरं मणोब्भउ कवि गउ गउ ईसरु पभणती गुरुयणपुरउ वि पि में विडिय ६१ धत्ता - कवि देइ भिक्ख णाणापउर वण हलकंदल कंदहि | सइ जाइ पसाइयउववर्णाहि घयपयदहियहि मंदहि ||२|| वीरघटका रमणीहरु । मोह गाइ सुगेसरु । वविहरसवहु भाववसंगउ । तावसिजणहु जणंतु विरहसम् । हररुवेण अपंग व पत्तउ । चारु अहव किं मणहरु । (3) करि करेवि देवच्चणपत्ती । पुज्जहु देउ उभावइ । तावसह तियह असंकरु । भिक्खु भणेविणु डिंभु समप्पइ । मायावयणहि रंजइपियमणु परभत्तारहो उपरि घल्लय । हरहो अहरु अप्पंति ण थक्कइ । साण मुणइ अवसरु लज्जाभउ । गय वक्कलणिवसण धावंती । सरगगहि हरोवरि णिवडिय । घत्ता - इयतावससणु विवरीयमणु हरदंसणे जा जायउ । सेविणुता तावस भणहि कहि उद्धालु समायउ || ३ || 10 5 ( 2 ) 1.a णाडयरस, b उद्दोविय, a चंदकलालंकिय, 3.b वट्टइ, 4.a चलणयरुइभासिउ, 5.b कररणंत, a • मेहलहरु, bomits the line वीरघट... मणहरू, 6.a जणमोहणगाइयगेयं हिसरु, 7.b पउ for अंगउ, a भावरसंगउ, 8.b ०जणहं, b विरहसंमु, 9.b भिक्खा, 11.a णाणापत्रर, b कंदलिकंदहि, 12.b सई जायपयाइयउववर्णाहं । 10 ( 3 ) 3 b तावसियहु, 4.6 मयणवसण किं, b भिक्ख, 5 b संकर, 6.a हले हउ काइ वि उरि, 7.a पच्चक्ख, a adds वि before संकइ, 8. b मणोभउ, a सो, मुणई, a adds r before लज्जाभउ 11.6 तावसिगणु 12.b Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुणरवि तावसेहि पभणिज्जइ जें महिलहं लायउ कामगहु इंदियजणिउ वियारु सरीरए एम भणेवि सा व वरसत्थे णवर ताण सव्वाण वि लिंगइ चोज्ज भिण्णचित्तहि झाणें हरु भणिउ जयहि पिहि वीरूवें हरु संभु पवणरूवें रयणासण ईसरूव जजमाण परिट्ठिय सोमरूव तमणास तिलोयण हो पुज्जइ केत्तिय खम किज्जइ । एयहो दट्ठहो किज्जइ णिग्गहु । दंड पउंजहु इंदियसारए। छिण्णु लिगु तहो तावससत्थें । कयइ तेण परिवज्जिय अंगइ । तावसेहिं जाणिउ मयाहरु। जयहि जयहि जलरूवें संकरु । रुहरूव जय जयहि हुयासण । जय सिवरूवायास अणिट्ठिय । सुररूव महएव सुतेयण । घत्ता - इय अठ्ठ वि मुत्तिउ तुज्झ जए परउवयारहो कारण । विहिहरिहररुवहि करहि पुणु सिट्टि धरणु संहारणु ॥४॥ (5) जं अम्हहिं अण्णाणहिं सामिय किउ अजुत्तु तं खमि वि सगामिय । डिभु सपियरो अविणउ पयासइ सो परमत्थें तासु ण रुसइ । अम्हइ दप्पें पाविय आवइ पर चितिउ णियदेहहो आवइ । अरिहुमि उवरि सविणउ णमंतहु खमउ वज्जइ उत्तमसंतहु । अम्हइ पुणु पइ हियए थवेविणु अणुदिणु झायहु झाणु धरेविणु। 5 तो हरु भगइ पइट्ठ करेविणु पणमहु मज्झु लिंगु पुज्जेविण । पुणरवि जेण तुम्ह लिंगग्गइ लिगइ हवहि विहिय णियसंगइ । हत्थपहत्यहिं णवर धरेविणु सव्वहि सव्वायासु करेविणु। खंधे लेवि पडं तुटुंतहिं सव्वहि आसमु पत्तु चलतहि । कय पइट्ठ तहिं तेहिं णवंतिहि भत्तिए जय जय जय पभणंतिहि । 10 घत्ता-- तहो दिवसहो लग्गेवि एत्थु जय कयपमाण मुणिवयणिहिं । अइलज्जावणु वि लिंगु हरहो पुज्जिउ णरहिं अयाणहिं ।।५।। (4) l.a तावसेहि, 2.a महिलइ, 3.b जणिउं, a दंड, b०सारउ, 5.b लिंगइ, a परिसेसिय, 6.boचितहि, a तावसेहि, 7.b भणिउं जयहिं, b जयहि, 8.a संभ, b वणरूवें, b जयहिं हुआसण, 10.a सूरुरूव, a सुतेयणि, 11.b कारण, 12.b विहि• b रूवहि, b धरणसंधारण। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एम सा व वियलिय गुज्सक्खें तहिं लहि मा गुग लद्ध तियक्खें । परिउंविय छायामुहकमलहि तहि लहि मा गुणु पाविउ अणलहि । आहल सुरयसुहाणदहो लहि मा गुणु संजाउ सुरिंदहो । तवसिय परयार म्मि ससंकें हुउ लहि मा गुणु जुत्तु ससंकें । जाणिय कुंती सुरयविसेसहो जायउ लहि मा गुणु दिवसेसहो । पवणवेय केत्तिउ वोलिज्जइ परयारियकहाए लज्जिज्जइ । परया, वियलइ गुणकित्तणु परयारेण ण होड गरुत्तणु । परसारें अकयत्थु णरत्तणु परयारे णासइ देवत्तणु। परयारें सुवित्तु खणे खिज्जइ सयलजणहो अवि सासुप्पज्जइ । पियरु वि कयदोसाण परम्मुहु पर पुणु थाह कयाइ ण सम्मुहु। 10 घत्ता- सच्चउ चउमुहखरसिरखडगु णिसुणि मित्त जं वित्तउ । . संभू सच्चइ जेट्ठासुएण जिणवर तउ आढत्तव ॥६॥ उगतवेण कालु जा गच्छइ ता विज्जासमूहु आगच्छइ । पुणु विज्जाणुवाउ जोयंतहो आयउ वरविज्जासमूहु तहो । पंचसयाइँ तित्थु महविज्जह अवरई सत्तसय पुणु खुज्जहु । (5) 1.a अम्हहि अण्णाणिहि. b अहत्त. a inter. I and खमि, 2.b डिभे सपियरे, b पयासइ, 3.b अम्हई. a पर चितिउ, b णियदेहंहो, 4.b णवंतहु खम उप्पज्जइं, 5.b अम्हई, b पई, 6.b भणइं, b पणवहु, 7.a तुंम्ह लेंग्गंगइ, b लिंगग्गइ, a लिंगइ, हवहिं, a विय for विहिय, 8.a पहत्थह, b सबिहिं सव्वायाम, 9.b खंधेहि लेवि, a पडं तुळंतहि, b पत्तचलंतहिटुंतहि, 10.a तहो तेण णवंतहि सत्तिए, a पभगतहि, ll.a ०बयणहि, 12.a omits वि, a णरहि cf. पद्मपुराण, शिवपुराण, रुद्रसंहिता (11-14), महाभारत, सौप्तिक, 17.21 etc. (6) 1.a पाउ for लद्ध, 2.a छायसरीरि पहु ठउ समलहि, b omits तहि, b adds जम after पविउ, a अणलहि, 3.b आहल्ला, 4.b तापनि पर०, b ससंकहो हुउ लहि माणु जुत्तु ससंकहो, 6.b वोल्लिज्जई, 8.a अकियत्यु, 10.b परम्मुहं, b परु, b सम्मुहं, ll.b omits सच्चउ, b चउमुहं खरसिरक्खरखुडणु, b तिह for जं, 12 संभुइ. See for अहल्या, ब्रह्मपुराग, मत्स्यपुराण, महाभारत (शान्तिपर्व) etc. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH 10 ताउ भणहि भणु भणु किं दिज्जउ सामिय कि दासत्तणु किज्जउ ।। इय दहपुव्वधरि जा अच्छा ता खगकण्णउ अट्ठ णियच्छइ। 5 परिगिउ तिउ रुद्दहि वि सुवण्णउ रइ असहतिउ ताउ विवण्णउ । अद्धविज्जफलु देविण पच्छए परिणियगउरिसुरउ किउ इच्छए । अकयकायसुद्धि किर पुज्जा। छित्तणट्ठ ता मुलिणिविज्जा। पडिमापुरउ केरविणु जाहिं सो वंभणि जवइ सा तावहि । विज्जा दिट्ठ तेण गायंती तियरूवेण गयणि णच्चती। तं णिएवि जा पडिम णिरिक्खइ चउमहु घोरु पुरिसु ता पेक्खइ । रासहसिरु तहो उप्परि दिट्ठउ वड्तउ हत्थें परमठउ । णविज्ज सिरु लग्गउ करयले पुणु गय काले भमंतें महियले । वाणारसिसमीवि जिणवीरहो घोरुवसग्गु करेविण धीरहो । रयणि विरामे जाम पयजयकरु भत्तिए थविउ पडिउ ता खरसिरु । 15 पत्ता- इय चउमुहख रसि रखुडण सुहि जाउ आसि जं एरिसु । अण्णाणिजणहो अण्णाणि जणु भासइ तं अण्णारिसु ।।७।। (8) . जलशिला और वानर नृत्य कथा पुणरवि मणवेएँ भासिज्जइ इय भणेवि रिसिरुउ धरेविणु गंपिणु बभसाले भेरि हय कणयासणे मणवे उ णिविट्ठ भणिउ मुणहु कं वाउ कवणु गुरु चाउ ण मुणहु णत्थि अम्हहँ गुरु रिसि भासाइ पिहुत्तरु णिएविणु अवरू वि परपुराणु दरिसिज्जइ । पच्छिमदिसि पउलिहे पइ सेविगु । जा हय घंटा ता दिय आगय।। दियहि सगणहरेहि जिणु दिट्ठ। ता भासइ खगु मायारिसिवरु। दिय पभणहि कि किउ भेरीसरु । __ आजम्मउ अउव्वु मुणेविण । 5 (7) 1.b omits the line उग्गतेवण etc. . . . आगच्छइ. 2.b चिततहो for जोयंतहो, 3.a पंचसयाइ अवरइ सत्तसयइ, b खुजहु 4.b भणहिं, 5.b खगकण्णउं, 6.b परिणि तिउ रुदहे वि सुवणउं, 7.a पच्छइ, boगोरिसुरउ, 8.a सुद्धिए किय पुज्जा, b सूलिणिविज्जा, 9. जावहि a वंभाणि, a तावहि, il.b चउमुहं घोरवुरिसु ता पेच्छइ, 12.a दिविउ, 13.a काल, 15.a जाव पयजुएकरु, 16.a omits सुहि. See for the story of the ब्रह्मा & others, भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, महाभारत (आदिपर्व) etc. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हणि जायको हलभावें क कहिवि जइ गुरुरहियउ तउ ता मुणि भणइ मुणत विण मुणहू पुणु वि पुणु विहरि कहइ एयहो छलिउ भणेवि मंतेहि ताडिओ अलिउ अलिउ भणिउ जा मंतिणा परिहवं वहतेण नियमणे पइसिऊण एक्केण वाणरा णवर कहिमि वासरे सकंतउ णिएवि पणच्चमाण पवंगमा ताम से सुणिऊण तट्ठया णवर तेण तं पियहि भासिय भणइ मंति णिउ वणे भमंतउ घरता - चंपापुरि णिउ गुणवम्मु तहो कासि मंति हणिवंभणु । तें सलिल तरंती दिट्ठ सिल कहिय णिवहो एयं ते पुणु ॥ ८ ॥ (9) ताम मंति वाईहि राणओ जड़ विदिट्ठ कइणट्टु वोल्लिओ और गज कथा ६५ कमण्डलु यथाचोक्तं तेन ता दिय भणहि किमेण पलावें । दिट्टु सुनिउ अह जइ वि पसिद्धि गउ । जें कज्जे तें णिसुणहु पभणहु । बत्ता - हरिणा वि हसेविणु णिउ भणिउ चोज्ज् त्रियणे जं दिट्ठउ । तं जुत्तु वि लोउ ण सद्दहड़ जइ वम्हेण वि सिट्ठउ || ९ || (10) तह विणिउगपत्तियइ आयहो । वंधिऊण धरणियलि पाडिओ । ता हमेवि मेल्लविउ राइणा । तेण मूढकोवेण णिव वर्ण । कम्मु सिक्खविउ जिह णरा । लमाणु णिउ वणे भमंतउ । पेच्छ पेच्छ जा भणइ निययमा । ती ते अट्टिाविणट्ठया । ताए चोज्जु मंतिहि पयासियं । कहिमि दुट्ठभूएण पत्तउ । वंधिऊण ताडिज्ज माणओ । तो वि मंतिवयणेण मेल्लिओ । अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद्भवेत् । यथा वानरसंगीत तथा सा प्लवते शिला ॥१॥ S ( 8 ) 2.2 पच्छिम दिसहि- पउलि-पइ, 3. b गंपि वंभसालहे, b जा सघंट 4.b दियह सगणह सेव्व जिणु, a दिट्ठउ, 5.6 भणिउं मुणहुँ, b मायासिरिहरु, 6. b मुणहुं, a अम्हह, b पभणहिं, 7.b पित्तभ, a भणेविणु for मुणेविणु, 8 b भणिउं for हणिउ a तो, b भूणहिं, 9. b कहि मि, a गुरुहियहु, b सुणिउं, a जइए पसिट्ठउ, 10 b ता, b भणई, b मुगहुं तें कज्जें तं b पभणहुँ, 11.a गुणवम्मं, b तहुँ, b हरिवंधणु, 12.2 हियमत्त for एयंते । 10 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ 5 कारणेण एएण इच्छियं वइयरं ण साहेमि पुच्छ्यिं । दिय भणेहि मा भणहि एरिसं सुणहु तुज्झु जुत्तीए जारिसं। तो खगेण रिसिरूवधारिणा भणिउ जइ ण समयाणसारिणा। मज्झु ताउ जिणचरण दत्तओ मणिहु पासि जा तेण खित्तओ । पढमि जाम तहिं विणयजुत्तओ एक्कदिवसे गुरुणा पउत्तओ। . तुरिउ एहि घरे भरेवि कुंडियं ता गओ पहे डिभमंडिय।। दिठ्ठ खेडु रमिउ पयट्टउ भणइ एवि ता अवरु चट्टउ। णासि तुज्झु गुरु कुविउ आगओ तो भएण हउँ तुरिउ णिग्गओ। जामि जाम किर अवर पुरवरं ता णिएमि उम्मिट्ठगयवरं । गुलगुलंतु गज्जंतु मत्तओ मई णिएवि कालु व्व पत्तओ। पत्ता- पुवक्किय दुक्किय कम्मु जिह करि महु पुट्ठि ण मेल्लइ । णासंतहो संतहो भयजुयहो देहु णिरारिउ डोल्लइ ॥१०॥ 10 15 तो णासेविण सक्किउ जावहि धरिय तेत्थु णालेण पहट्ठउ अणुमग्गेण मज्झु तहो सो धाविउ कुंडियमज्झि मज्झु णासंतहो करिणा महु चेलंचलु धरियउ मइँ मुणंतु पडु दारइ कुद्धउ कुंडियभिडडाले मई ताकहि । हउँ जो ताम करिदें दिट्ठउ । कह व कह व हउँ तेण ण पाविउ । अइभएण उठेंतपडतहो । हउँ विवच्छ पुण्णहि उव्वरियउ। जाम ताम तई अंतरु लद्धउ । 5 (9) l.a वि प्पुणु, b जण जणिय for हरि कहाइ, b हरि कहंतु हरिसेण रायहो for तह वि... आयहो, 2.a मंतेहि, 3.a भणिमउ, b inter. भणिउं for भणिउ and जा, a तो, 4.a वहुतेण, aणि for णिव, 5.a सिक्खविय, 6.b णिय for णिउ, 7.b भणइं, 9.a चोजु, 10.b भणइं, b णिउ, b भमंतओ, ll.a ताव मंत वाईहि राणाओ, a ०माणंउ, 12.a कइणट्ट, 13.b. विय सेवेणु णिउ भणिउं, a वियाण for वियणे, 14.a लोय for लोउ, b वंभेण। (10) 1.a स्तेन कविनाश्लोका, 2.a यद्धे वित्, cf. Amitgati's धर्मपरीक्षा, 12-72-3. 3.a सिला, b शिल, 4.a एण for एएण, b विइयरं, 5.b दिय भणेहि, a मुणहु उत्तजुत्तीए, 6.b सो for तो, भणिउं, 7.b मुणिहे, a हउ for जा, 7.b जास for जाम, a तहि, 9.b एहिं, 10.b खेड, b पयट्टउं, a एव, b तां, b चट्टओ, ll.a भण for भएण, a हउ, 13.b ०गुलंत गज्जत a मइ, 14.a कम्म तिह, b मेल्लई, 15.a णिराउ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिगारिय सुसिरें णीसरियउ जाम पलोयमि दूरंतरियउ । ताम हु खिज्जेण वि णिग्गंतउ । पेच्छमि पुच्छवाले गउ खुत्तउ। एत्थंतरे मई वोल्लि गावें मरु पाविठ्ठ महु पावें। अवरु वि जो परपीडहि कारणु सो वि लहइ दुहु जिह सो वारणु। 10 हउँ पुणु अवरणयरि पइसेविणु जिणभवण्णम्मि पयाहिण देविण । जिणु वंदेविणु मज्झे णिविट्ठउ मुणिउवयरणु जुण्णु ता दिट्ठउ । घत्ता- जिणमंदिरु सुण्णउ णिए वि मइँ चितिउ हउँ सावयह सुउ । चीररहिउ को तं को देइ महु कारणेण इय लिगि हउ ॥११॥ (12) संबंध इय कहिउ सइ जेम तउ गहिउ। तो भणिउ दियवरहि कि सच्चवय धरहि । भवियन् णियमेण तुहुँ चत्तु धम्मेण । झुठेण सवेण णिम्मियउ दइवेण। तं सुणेवि मुणि लवई एउ अलिउ संभवइ। जइ वेइ ण उ हवइ दियसत्थु पुणु चवइ । अम्हेहिं ण उ मुणिउ तुहुँ भणहि जइ सुणिउ । मुणि भणइ णिभंतु जाणेमि भयवंतु। पर तुम्ह वीहेमि तेण जिण साहेमि। दिय भणहि जइ मुणहि तो पत्थि छलु भणहि। धत्ता- जइ को वि हेउ दिटठंत णय सहिउ वयण मणि जंपइ । णिम्मच्छर तो फुडु वि उ ससहं कि विवरीउ वियप्पइ ॥१२॥ 10 (11) 1.b जावहि, b भिडिवालि, a मइ, b तावहिं, 2. b तेण for तेत्य, a हउ, b जा, 3.b omits तहो, a हउ, 4.b ० भएण्ण, 5.6 दिढ़ for महु, a हउ, a पुण्णहि, 6.a मइ, a जाव ताव मइ, 7.b सुमरें, 9.b पाविट्ठवठ्ठ, 10.b दुहुँ, ll.a हउ, b भवणंति, 13.a जिणुमदिरु, a मइ, a हउ, b सावयहु, 14.a omits तं, a देउ महु हु ।। (12) 1.b सई, a जेव, 2.b भणिउं दियवरहिं किर सच्च जइ वरहित 3.a भणियव्व, a तुहु चत्तुम धम्मेण, 4b णिम्मियउं, 6.a ण्ण उ. a पुण्णु, 7.a अम्हेहि, b मुणिहुँ, a तुह, b भणहिं, a ज for जह, 8.b जाणामि, 9.b साहेमि, 10.b भपहि, b मुणहि, b भणहि । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) पौराणिक कथाओं पर प्रश्नचिन्ह एत्यंतरि सो विउससिरोमणि राय सुमहविहि अणुराएँ दाणु कय जणविग्ध कणिणाहें गाइ र सो कह आणिज्जइ आमि हउँ ता पैसिउ राएँ पायालए पइसेवि णरेण विपसण्णव फणिराणउ इवेत्थि पुराणें तुम्हह दिय भासिहि रूढिए गउ सच्चाउ तो खगु भइ दियंवर वेसें सरविवरे विमाइ तं मण्णहु तं सुविणु विपहिं घुट्ठउ ६८ किमकमलु भसल पुणु भासइ करअंगुट्ठसमेण सजलयरु तासु उवरि किह माइ जलहिजलु अवरु वि पलयभिया दगुरिउणा महुति इतिंतर ताम अयत्थितवसि तें दिट्ठउ पत्ता- तो चिर णासंतउ कह भमिउ कह सो भेडु ण भग्गउ । जिग्गए गए भिंगारिय सुसिरे पुच्छवालु कह लग्गउ || १३|| (14) णघणझुण वोल्लइ मायामुणि । भाग सहाए जुहिट्ठिलराएँ । आइएण सत्तरि सिसणाहें । तो तह अज्जुणेण भणिज्जइ । महिलु दारेविणु णाराएँ । आणि तेण वि सरसु सिरेण । रिसिजु दहवलकोडि समाणउ । अत्थि ण वा फुडु साहह अहह । जो णउ मण्णइ सो वि असच्चउ । सामरमुणिवलरिट्ठि फणीसें । कि मइँ भणिउ वयणु अवगण्णहु । जई तुहु कुंहिहि सकरि पइट्ठउ । एरि किं ण पुराणहिं सीसइ । रिसिअगत्थिणा घोट्ठिउ सायरु । कह ण कमंडले मइँ सहँ मयगलु । थविउ तिलोउ उयरे किह हरिणा । जोवइ जाम विरिचि भमतउ । धुमावलि अलसितलि णिविट्ठउ । 5 10 ( 13 ) 2. b भणिउं सभाइ, 3a दाणुय विग्धजण्णहो कणिणाहर आपणा, 0 a साह, 4. a तहि, 5a हउ, b पेसिउं, a णराएं 6. b आणिउं, 7. b पसणु, a रिसिजुय, 8.a वेयत्थ, b तुम्हीं, b सहहु अम्हीं, 9. b भासहि a रूढिहि, b ण वि मण्णई, 10.b भणई, b सामतुमुणिवलु रिद्धु, ll.b मण्णहुं, a मइ, b भणिउं, a अवगणहो, b अवगण्णहुँ, 12. विहि, b तुहुँ, 13.6 किह भमिउं, b भिडु, 14. b किह. See for the story, महाभारत, मत्स्यपुराण etc. 5 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिस व सरिसु कमंडलु डालए रिसिणा अभूत्थाणु करेविणु तुम्हइँ कज्जे केण समागय अह केण विणासिय ण मुणिज्जइ ६९ अवलंविदिट्टु अविसालए । पुच्छिउ वंभु सिरेण णवेविणु । तेण भणिउ महु पय कत्थ वि गय । एत्यंतर मुणिणा पभणिज्जइ । घत्ता - जं णिम्मियउ तुम्हाँ आयरेण तं किर कहि इय जोयहो । पइसेवि कमंडले महु तणए तिहुयणु देम पलोयहो ।। १४ ।। (15) जा अस्थिवणेण पइसइ वंभु कमंडले कवणु हुचितंतु एम किरणियडए गच्छइ ता पिएइ तहिं सुत्तु पुरिसु वडरुक्खे विउलदले । किं हरितं सुत्तो सि एत्थ ता हरिणा जंपिउ तो णिएवि विहुत्ति वंभु पुणु पच्छा पुच्छइ । तं मा पलए विणासु जाउ इय उयरि करेविणु तिहुयणु जं पइ रयउ देव तुज्झ वि णिरु जंपिउ । सुत्त गुरुभारेण संतु एयंतु भणेविणु । साहु उ इच्छमि विण्हु दट्टु इय वोल्लिउ । 5 तापइसेवि चराचरं पिलो यं पिच्छेविणु । तो तं वय सुणेवि वंभु मणि गिरु गंजोल्लिउ तो हरि भणइ जिएहि सिट्ठि मुंडेण वि सेविणु किर णिग्गइ सो ताइ ताम अपवित्तउ भावइ 10 णवर कमलकण्णियए बसणकेसहि आलुद्धउ, णाहिक मल सुसिरेण हरिणीसरियउ पयावर | चंदहिया णाम छेदु वि वुह्यण पसिद्धउ । घत्ता - तो कमलु जि आसणु होउ इय चितेवि णिविट्ठउ । तो दिवसहो लाग्गवि चउवयणु कमलासणु जणि घुट्ठउ || १५ || 10 (14) 1b किण्ण, a पुराणहि, b सीसई, 2.b 0 अयत्थिणा, 3. b उयरि, a कह for fre, a कमंडलु मइ, b सिहं, 4.b उवरि, Sa कहि, a जोइस, a. in margin ब्रह्मा, 6.a in margin अगस्ति, a धुमाउले, b वइट्ठउ, 7.a अविलंवियउ 8.b सिरेणा, a णवेणु, 9 a तुम्हइ, b कज्जें, b समागया. b भणिउं, 10 a मण for ण, 1la जे for जं, b णिम्मिउं, a तुम्हहि आयरेणा lla इह for इय, 12. a कमंडल, b तणई । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) भणइ पुणु वि मुणि दियहु असच्चउ परिहरहु एरिसु अत्थि पुराणि ण वा फुडु वज्जरह दियवर भणहिं पुराणि पसिद्धउ रूढि गए __ वेयवयणु किं को वि असच्चउ भणइ जए । तो खगमुणि पभणेइ सरिसवसम कुंडियहे तिहुयणु माइ कि ण करि मइँ सहु कुंडियहे। लोयभरेण ण भज्जइ एसिहि तंव जिह महु सकरिहे भरुवि सहइ भिंडहो डालु तिह । किह सवंगु विणिग्गउ जलरुहकण्णियहे लग्गइ वंभु काइ ण करी भिंगारियहे। 5 इय पुराणु जइ अलियउ तो मझु वि वयणु तं णिसुणेवि णिरुत्तर जायउ विप्पगणु । कवडरिसी तो सुहिवयणु णिएविणु हसिउ हरि तिहुयणु गिलिऊण कमंडले जइ वसिउ । तो कहिं एसि अयत्थि कमंडलु थिउ चडेवि _ कहिं वडविडवि परिट्ठिउ जहिं ठिहु हरि चडिव । पुठवावरहि विरुद्धउ णाणिहि उवहसिउ ___एहउ जो पडिवज्जइ फुडु सो साहसिउ । इय परवइयपुराणे ण सच्चउ मइँ मुणिउ रासहछंदु वियाणहु एरिसु मइँ भणिउ । 10 पत्ता- तहिं जो वि हु सुमरियमेत्तु णिरु मिल्लावहि भवपासहो । सइँ गुप्पइ विण्हुणाहिकमले कह एउ होइ ण हासहो ॥१६॥ (17) कमलासणासु जई णाण अस्थि जइ करह णारि तिहुयणविसिठ्ठ कि सिवित्त पुच्छिउ अयत्थि । सइ रित्थि काइ सेवइ णिकिठ्ठ । (15) la जाम, b पईसइ, a वडरुक्ख, 2.a ता मुणेवि, 3.a एत्थ, a रइउ, 4.a एयंत्तु, 5.b inter. मणे for मणि and णिरु, a इयं, 6.b भणई, aम्मि for णि, 7.b णिग्गई सोत्ताई, a अपवित्तइ, a णहिकमल०, bणीसरिउं, 8.a चंदले हिअ, 9.a चित्तेवि. See for the story मत्स्यपुराण, महाभारत (वनपर्व) etc. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ जइ जाणह सिट्ठिहि पलउ विण्ड किं ण मुणिउ णियसियहरण विण्हु । णियजम्म कहिय णार यहो जेण किं पुच्छिउ अहि णियवत्त तेण । तथा चोक्तं भो भो भुजंगतरुपल्लवलोल जिव्हे बंधकपुष्पदलसग्निभलोहिताक्षे। 5 पृच्छामि ते पवनभोजनकोमलांगी काचित्वया शरदचंद्रमुखीव दृष्टा ॥१॥ गता गता चंपकपुष्पवर्णी पीनस्तनी कुंकुमचचितांगी। आकाशगंगा हिमशीतलांगी नक्षत्रमध्ये शशिचंद्ररेखा ।।२।। जो मोहइ भुवणत्तउ खणेण सो किम समरि सह लक्खणेण । महिरावणेहि पासेहि वद्ध मोहें कि महि रावणु ण छुध्दु। 10 इय गुरुअच्छरिय परंपराए हो हो पूरइ विभयकराए। कि वहुणा णिसणहो जयपयासु भुक्खा तण्हा भ उ राउ दोसु । मोहो चिता वर वाहि मरणु सेउ खेउ मउ अरइ करणु । विण्भउ जम्मण णिहा विसाउ इय दोससहिउ णउ होइ देउ । घत्ता- एए अट्ठारह दोस जए सव्वाण वि दुहकारण । सुहु जीवहो कउ कय जाव णवि एयहो दूरो सारण ।।१७।। 15 । (18) हवि हरि छुहणिवादोसाउरु रायरयहि पीडिय चउमुहहरु । जमु विहुयचिताए णिरुद्धओ रवि अफंसु कोढेण पसिद्धओ। (16) 1. b भणई, a पुराणे, 2.a पुराणे, a रूढिगउ, b भणई, a जइ, 3.a कुंडियहो, a.b किण्ण, a मइ, a कुंडियहो, b उंडियहे, 5.a कह, a वम्ह, a भिगारियहे, 6,a विप्पुगणु, b विप्पगणु, 7.a विसिउ, 8.b एसि in margin चडेमि, a मइ in both places, b वियाणहुं, a भणिउं b भणि, ll.b तह जो वि हि, b मिल्लवइ, 12.a सइ, a गुप्पइ विन्हणाहि०, a साहहो, b हासओ। (17) 1.b repeats जइं णाणु, a सवित्त, 2.b जई करइं, b विसिट्ठि, b सेवई णिकिट्ठा, 3.b जई. b ट्ठिहि, 4.bणायरहो, 5.b भुजगतरुयव्वव, a जिव्हा, b वधूकं, a ० सन्निहलोहि ताक्ष, 6.a भो for ते, b पवणभोजणकोमलागी, a ० सरद०, 7.a पुष्फुवर्णी, a चचितांगो, 8.b omits the verse गता गता etc to ०चंद्ररेखा, 9.b मोहई, b सहु for सह, 10.b छद्ध, ll.a यच्छरिय, b परंपराइं, a विभय० b ०कराई, 13.b चिता, b वहि, b adds तह before सेउ, a सेउ खेऊ, b खेउं मउं, a अरई, 14.b विभ उ, b ०सहिउं, a दोउ, b देउं, 15.b अट्ठारहं, 16.b जीवह कउं, b जाम, a णेवि, b एयहद्धरो। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जो देउ वि पहरणु धारइ इतिलोउ गुरुकमणिवद्धउ जे पुण छुहतिसाए परिवज्जिय गय घणकम्मपडल सासयसुह अह त्ति गुणगणु अक्खेवउ धम्मे धम्मसारु जह जइणा जासु अहिंसासास सासणु भावि मुणिवंदहि वंदहि जासु असोउ विसालउ सालउ पहवइ सयलु भासा भासा सिंहासणु जयसुहरु सुहयरु दुहिसरु जगु वहिरइ वहिरइ सो देवाण वि देवो देवो घरता - जिह चउहिं सुवण्णु परिक्खियइ ताव छेयकसताडणहि । देवा इय दयस्य तवचरिय गुणह मुणेवउ सज्जहि ॥ १८ ॥ (19) ७२ तह जिणेण जो भासिउ आयमु जे अरि सुहि तणकणयसमाणा खमगुणेण जे जिहि वसुंधर सो सो भय पर संहारइ । छुहतिसाइ दोसहि उट्ठद्धउ । ते जिण सुरणरविसहरपुज्जिय । सिद्ध पसिद्ध बुद्ध गुणगणहि । देवें देउ णरें गरु परिक्खेवउ । आय आयमेण वहुमइणा । घत्ता - तें भासिउ दहविउहु धम्मुवरु जह सुपरिक्खेवि किज्जइ । चउगइ संसारहो तणउ दुहु तो अइरेण वि छिज्जइ ॥ १९ ॥ (20) सासह संपवणु पावणु । road देवा सारहि सारहि । सुर मुयंति संफुल्लई फुल्लइ । परिखिवंति णिच्चामर चामर । भामंडल जियभावइ भावइ । छत्तत्तउ सतिभासिउ भासिउ । अहिदेउ अरिहंतं तं । सो सग्गापवग्गु सुह आयभु । ते मुणिविर गुरु भणिय समाणा । पंचमहव्वयभार धुरंधर । 10 ( 18 ) 1.6 0 दोसायर राइ रुहि पडिय चउंमुहसर, 2 b त्तिहुयणचिताई, b अफसु, 3. b धारओ, b पसुसंहारओ, 48 तिलोय, b छुहतिसाहं, 5. b जो for जं, 6.5 ०फडल, b गुणगणणिह, 7.b देवे, b नरे नरु, 9. b सुवणु a छज्ज०, 10.a गुणहि, b मुणेवा for मुणेबउ । 5 ( 19 ) 1a • सुह, 2. भावहि जइ मुणिवंदहि, b वंदहि थुव्वइ, b सारहिं सारहि, 3. b सं फुल्लई फुल्लई, 5. a ज for जय a in margin explains वहियरु रत्नत्रयमार्ग, 7.b हरिहरहिं न चरियई परियई, 8. b अहिवंदे, 9.a सुपरिक्ख वि, 10 b तणउं । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ 5 पंचमसमिदि सब्भाव पयासण दित्तगुत्तिरयणत्तयभासिय एरिसु धम्म देउ आगमु गुरु कि वहुएण सारु अक्खिज्जइ अट्ठकम्मवणगहणहुयासण । भूयहिं जेहिं अहिंसा भासिय। जो मण्णइ तहो गुणसंगम गुरु । जिणगुणसुमरणे कलिमलु खिज्जइ । घत्ता- हरिसेण ते आयारु जसु रू उ मुणिहिं झाइज्जइ । तहो णयणरामखंदियहो जिणणाहहो पणविज्जइ ॥२०॥ 10 इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्ठियाए चित्ताए । बुहहरिसेणकहाए पंचमसंधि परिच्छेओ समत्तो ।।छ।।५।। श्लोक ।। १९४॥ * * * (20) I.b & for जो, 3.a वसुधर, b ० महावय०, 4.a ०घण० for oधण, a ०हुआसण, b हुवासण, 5.b ०रयणरुयभ सिय, a भुयहं जेहि, 6.b मण्णई, 7.a समरणे, 8.b तेय for ते, 10.a चउग्गाहि, Il.b संधी. a परि for परिच्छोओ, a संमत्तो, b omits श्लोक ॥१९४॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. छट्ठ संधि लोकस्थिति : नरक वर्णन गुणले भणेवि देवधम्मआयमजइहु । णिग्गज मणावेउ विम्हहु लाइवि दियवइहु ॥ छ ॥ पुणु उववणे थाएविणु मित्तहो लोउ अणाइणिहउ जिणु भासइ थिउ तिवायवेढिउ अविणासहो णिच्च चउदहरज्जु पमाणउ झल्लरिरूउ मज्झि जाणिज्जइ सलु वि तल उभयसारिच्छउ हि अह लोए अहो हो संठिउ यह अवर विसक्करपह धूम पह तमपह तमतमपह हि विलाण चउरासीलक्खइ (1) वालुपहाहि ते पंचदहा णारइयनियर दुक्खावलक्ख पंचाणुलक्खु तह तमपहा हि पत्ता- रयणप्पहमहिहिं तीसलक्ख णाणिहि मुणिय | सक्करपधरहि लक्ख पंचवीस जि भणिय || १॥ (2) लोयदिट्ठदि पभणइ गुणवंतहो । करइ ण धरइ ण कोइ वि पासइ । मज्झ अनंताणं तयासहो । तलि वेत्तासण अणुहरमाणउ । उवरि मुयं गुणाइँ भाविज्जइ । छुडु जीवाइदव्व परिहच्छउ । भूमिउ सत्त सुदुक्खाहिट्ठिउ । वालुयह तह पुणु पंकप्पह | नामसमानताहँ सयलह पह | संभवति संपाइय दुक्ख इ । पंपहाहि संभवहि दहा । धूमहाहि पुणु तिष्णिलक्ख । पंचैव विलs तमतमपहाहि । 5 ( 1 ) 1a जड़यहु, 2b विभउ, 3.b पभणइ गुणवंतहु, 6a पमाणो, a अणुहरमाणो, 7.b ओल्लरित्तउ, a गुणाइ, 8.b वि तणुतुंवय सारिच्छउ, a सारिच्छा, a परिहच्छो, 9 a तहे, b भूमिउं, 10.a वालुप्पह b पंकप्पहं, 11.b सयल वि पहं, 12 a तहि, b oलक्खड़, b दुक्खई, 13. a णाणिहि, 14 b सक्कारपह, a भणिया । 10 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तहि उप्पज्जहि णर मज्जरया हिसयर असच्चवयणभणणा परिगहगहणम्मि अतित्तियरा णारयकयदुक्खुपायणाई लोहमयतत्तपल कवलणाई असिपत्तवणंतर पाडणाइँ पाणहरदुक्ख विरइयगणाई सिरधारियलोहधराधरा इय एवमाइँ दुक्खइँ सहंत पल महु पंचु वर भक्खिरया । परदब्वहरण परतियरमणा । परवंचणपरअक्याररया। कढकढकढंतजलपायणा:। कुंभीपायाणल पउलणाई । चड वडचडियजीह उप्पाडणारे । तत्तायसमहिलालिंगणा'। णिज्जियगरुयत्तवसुंधरा । गय जम्मवइ खइयरु कहंत । घत्ता- हम्मत हणंत करुणु रूवंत महिहि घुलहि । सयखंडगयाइ वि पुणरवि तहं देहहि मिलहि ॥२॥ (3) मवनवासी देव वर्णन इतो भावनव्यंतरसुरा सन्निहिता इति सामान्येन किंचित्सुरस्वरूपमुच्यते ॥ तद्यथा ॥ उववाइय जम्यधायरहिया सुरहवहि विउव्वण गुणसहिया । चउरंससरीर चारुवयणा सोहग्गरू ब णिज्जियमयणा । बलवंतणउँ सयवेयच्या अवि हिंडिय आउ पलवभुया। जरवाहिविवज्जियकतिजुया पुण्णाणुरूवू परिवारणुया। अणिमाइय अट्ठरिद्धिगिलया णाणादिव्वं सुयवहुबिलया। आयारविराइय अलिचिहुस सहजायकणयमणिमउडधरा । कुंडलजुयमंडियगंडयला विलुलियहारावलिवच्छयला । केऊरविहूसियभुयसिहरा खणखणखणंत मणिकडयकरा । किकिणिकणंतकडिसुत्तधरा पयरणझणंत मंजीरसरा। 10 (2) 2.b धमप्पहाहिं, 3.b पंचोण, a तह तम यहाहे, 4.a उपज्जहि, a पंचु, bतुक्खिरया, 6.b परिगहणम्मि, b परवंचणयरअवयारयरा, 7.a ०८पायणाइ, a ०जलपायणाइ, 8.a ०पलकवलणाइ, a पउलणाइ, 9.a पाडणाइ, b omits some चड. a उप्पाउणाइ, 10.b अमहय र दुक्ख०, a गणाइ, b घणाइ, a लिंगणाइ, ll.a ०धराइ, boगरुवत्तवसुध राइँ, a ०वसंधराइ, 12.a एवमाइ दुक्खइ, 13.b हम्मत, b रूअंतहं महि घुलई, 14.a मया वि, b ताह देह मिलहि । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छरकरचलियसियचमरा इय एवमाइ वर गुणणियरा । ' घत्ता- चितिय आहार विविहभोयसंतित्तमणा। वज्जियणीहार हियइच्छिय अखलियगमणा ॥३॥ 5 रयणप्पहणारइय मुए विणु जोयणसहसु उवरि लंघेविणु। भवणणिवासियदेव परिट्ठिया ते दहविह संखाए अहिट्टिया । असुरोरयसुवण्णदीवोवहि थणियतडि दिसग्गिवायकुमरसुहि । सहजहु कणयरयणमयसिहरहु चउसट्ठी लक्खइ असुरहरहु । ताणोवरि णायकुमरणिलयहु चउरासी लक्खाइ अविलयहु। हेमकुमारहु भोयाहिट्ठिउ भवणहु लक्ख वहत्तरि संठिउ । तह दीवोवहि थणियकुमारहु तडि दिसग्गिकुमरहु सुकुमारहु । एक्केकाण विवज्जिय दुक्ख इ वरगेहाइ छहत्तरि लक्खइ। पुगु छण्णवइलक्ख णिरु रम्नई होहि अणिलकुमार सुरहहम्म.। मज्झिममहि अप्पट्ठिय भेयहि जोयणलक्खु अलंकि.उ एयहिं । घत्ता- इय कोडिउ सत्त वाहत्तरि लक्ख हि सहिउ । भावणभवणाहु एहि पिडेविणु कहिउ ॥४॥ i0 (5) व्यंतर-ज्योतिष देव वर्णन उवरि अट्ठविह संठिय वितर तत्थ पढम पभणिज्जहि किणर । कि पुरूसोरुउरय गधन्वय जक्ख रक्ख तह भूयपिसायय । (3) 3.b जम्मधाओ रहिया, 4.b तविहडिय, 6.b पुण्णाणुरूव, 8.b सहजायमउं___डमणिकुंडधरा, 10.a मणिकणयकरा, 13.a चित्तियइ, a विविहभेयेसंसि त्तमणा, 14.a गमणु, b (गमण। (4) 1.a ० सहसउवरि, 2.b परिट्ठिय, b अहिट्ठिय, 3.a असुरोरग सवण्ण०, a थिणिय०, a ० कुमारसुहि, 4.b लखइ असुरहरहो, 5 b फणिकुमरहो णिलया, b लक्खई, 6.a सुवण for हेम. a भोयहिटिय, a भुवणह, a संठिय, 7.a तहि दीवोयहि, a कुमारहो, a दिसग्गि सकु मह कुमारहु, 8.b दुक्खई, b लक्ख इं, 9.a • रम्मह, a °हम्मंह, 10.a भेयहि, a एयहि, 11.b सत्ता for सत्त, b लक्खहं, 12.b ०भवणाहं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ एयह पुरणयरेहि विमाणे हिं तिरियलोउ अकएहि विहूसिउ मज्झिमलोय गुणेहि अहिट्ठिय मणुयखेतु अड्ढाइय दीवहिं पूरिउ मगुसुत्तर परहुत्तउ जोयणसयइ अट्ठदहऊण तहिं जोइससुर पंचपयारय विप्फुरंत णाणामणिरयणइँ रयणमएहिं असंखपमाणहिं । इय सोणियहो जिणिदि भासिउ । दीवसमदृअसंख परिट्ठिय। पुणु तिरिक्ख पंचेदिय जीवहि । जामसयंभुरमणु जिणवुत्तउ । उवरि कमेविणु जोइसभवणई । रविससिगहणक्खत्तसतारय । एयह संख विहीण विमाणइँ। 10 घत्ता- उवरोवरी ताण वहमाणियसुर कहमि सुणु । ते कप्पुववण्ण कप्पतीद वि होति पुणु ॥५॥ (6) वैमानिक देव वर्णन 5 सोहम्मो ईसाणो अवरो तइओ भण्णइ सणयकुमारो । माहिंदो वंभा वंभोत्तर लंतउ तह काविट्ठ अणंतरु । सुक्का महसुक्को य सयारो सहयारो आणयपाणयरो। आरण अच्चउ एए कप्पा उड्ढं णवगइवेय वि अप्पा । उप्परि णव अणुदिस पभणिज्जहिं पुवदिसाइ कमेण गणिज्जहिं । लच्छि सोमुलच्छी मालिवरो सोमरुवेरो अंको अवरो। वरो अणुफलिहो य अणुवमो मझें थिउ आइच्चो णवमो । उप्परि पंचाणुत्तर भासिय हरिजमवरुणकुवेरदिसासिय । विजउ वइजयंतो वि जयंती तहिं चउत्थु अवराइ उ वुत्तो। तह सव्वत्थसिद्धि सयलुत्तम इहु मज्झम्मि परिट्ठिय पंचम् । पुगु सव्वत्थ सिद्धि लंघेविणु वारहजोयण उवरि कमेविणु । थिय विवरीयछत्त आयारें मोक्खासिला जि लोयवित्थारें। __ घत्ता- सा ससि भासेहि मज्झि अठजोयण कहिय । पासहिं हीयंति मक्खिय पंख व तणुय थिय ।।६।। 10 (5) 1.b भणिज्जहिं, 2.5 रुउरय is explained as गरुड in margin 3.b एयह, a पुरणयरेहि विमाणहिं रयणमएहि असंखइ माणहि, 4.a अकरएहि, a सेणियहो, 5.a गुणेहि, 6.a दीवहि, 7.a जाव सयंभुरवणु, 8.a ऊणइ, a भुवणइ, 9.a तहि, 10.a • रयणइ तहि परि संख०, a बिमाणइ, 12.a कप्पपवण्ण, a होहि । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्दुमपोमरायरवि कंतहि पोमरायगरुडोवलणीणीलहिं इय णाणारयणहिं णिरु रइयहो वियसियमहमहंतमंदारहो घणलवंततारतरहारही कामिणिकरवीणाझंकारहो वरसंगीयमहाझुणिसारहो वरणाडयणिरुद्धसंचारहो सुरणिकायकामिणिय उज्जाणहो थिय वत्तीसलक्ख सुहठाणहो वरकक्केयवज्जससिकंतहिं । मरगयइंदणीलमहणीलहिं । सुहसासयहो अणेयायारहो। सुरतरुतोरणपल्लवदारहो। पंचवण्णधयमालाहारहो। वेणु रावरंजिय सुरणियरहो । पडहमयंगभेरिगंभीरहो। वंदिण कय जय जय उच्चारहो । णहिं भमंत मणिमंडियजाणहो । सोहम्मि वरसग्गम्मि विमाणहो। 10 पत्ता- लक्खट्ठावीस वारह अट्ठ कमेण तहि । चउलक्ख हवंति मिलिएहि मिउवरि महि विहि ॥७॥ (8) विहि कप्पिहि सुरेहि वरसइ सुक्को महसुक्को वि विमाणहो समदियाइ पंचाससहासइ । फुड चालीस सहासइ पमाणहो । (6) l.b भण्णइं, 3.b सुके, 4.b आरण, 5.b यगुदिस, a गणिज्जहि, 6.a मालिवरु, 7.b वेरोयणुफलिहो, a अणुफलिह यणुध मो, b ठिय, 8.a यम for जम, 9.2 विजय, b जहि, 10.a Corrects oसिट्ठि for सिद्धि, b तह for इहु, b उत्तम for पंचमु, 13.a भासेहि, a कहिया, 14. पंख', b पक्ख तणु, a थिय, a थिया। (7) 1.b रूइकंतहि, a ०कंतहि, a ससिकंतहि, 2.a ०णीलहि, a महणीलहि, 3.a ०रयणहि, bणिरुद्धसंचारहो, b takes the line वंदिण कय जय जय उच्चारहो after णिरुद्ध संचारहो and adds णाणारयणहि णिरु रुइयरहो before सुहसासयहो, 4.b omits वियसियमहमहंत etc. to तारतरहारहो after अणेयायारहो, 7.a (सारहुँ, a गंभीरहं, 8.b omits वरणाडयणिरुद्धसंचारहो, b omits the line वंदिण etc. . . उच्चारहो which is taken above, 9.a उज्जाणहुँ, a मंडियजाणहुँ, 10.a सुहथाणहुँ, b omits वर, a विमाणहि, ll.b लक्खइ अट्ठावास, a जहि for तहि, 12.b चउलणाइ हवंति मिलिएहि मिओवरमि विहि । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह सयारि सहसरि पसिद्धहो आणयाइँ उवरिम चडकप्पहि तहि पुणु सउ पयारहि अहियउ उवरिम तिहि गइ वेयहि साहिय अणुदिस णव पंचेव अणुत्तर कप्पुवण्ण कप्पवासिय सुर कय वालतव अकामियणिज्जर दिढसंमत्तसील कय तव णर छह जि सहास विमाणहं रिद्धहो । सत्त जि सयइ विविहमाहप्पहि । तहि मिलिवि सउ सत्तहि सहियउ । 5 हवहि णवइ विमाणएक्काहिय । एय जिण भणहि तिलोय महत्तर । कप्पातीदहमिद सुभासुर। तह सरायसंजम वयजज्जर । सुहकम्मे उप्पज्जहि तहि सुर। 10 घत्ता- चउरासीलक्ख सत्तणवइसहस हिय । तेवीस विमाण एक्कहि मेलिविणु कहिय ।।८।। (9) चारुसुवण्ण भित्तिरुइरम्मइँ णाणामणि कलसावलि सारइँ चंदकंत भा भासिय गयण पंचवण्ण मणिगणमयदार मरगयफलिहणीलवरसाल विविहालं विकुसुमसुमालइँ दिणयरकोडिपडिमजिणबिंबइँ णट्टसालगोउरसिहरालइ दुंदुहिसरभरंतदिव्वलय. भवियविद पारंभिय ण्हवण वरउतुंगसिहए वहु भूमइँ विदुममयविमाणमलसारइँ। सूरकतपडियरविकिरण। टणगणंत घंटा टंकार। झणझणंत धुकिकिणिजालइँ। 5 सुरणिकाय क यथोत्त व मालइँ। भवणिवडंत भवियणालंव। जलरुहछण्णतलायविसालइ । उववणपरिभमंतसुरविलय । अत्थि अकित्तिमा जिणभवण। 10 घत्ता-सुरलोह इमाइ गिह विमाणभवणइँ मुणहि । महियलि अडवण्ण चउसया’ संखए गणहि ॥९॥ (8) 1.a तरबाअइ, b वरसई, b समुदाइय पंचासहासई, 2.a सुक्के महसुक्के विमाणहु, b चालीसा सहास, a माणहु, 3.a पसिद्ध उ, a विमाणहु, रिद्धहु, 4.a आणआइ, b चउकप्पहि, b सई for सयइ, 5.a तिहि, b सउं पयारहं अहियउं, a तहि, a विहियउ for सहियउ, 6.b गई, a वेयहि is explained as जिनैः कथिता in margin, 7.b भण तिलोया, 8.b कप्पुववण्ण, b सुभासुभर, 10.b ०समत्त, b सुहफलेण उप्पज्जहि त्तहि, Il.b सत्ताणवइ सहस अंहिय, 12.b विमाणण । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालय महिय ले जिणवरभवण असंखइ णाणावण्णविचित्त महंतइ । पंचहि मेरुहिं चउउववणेहि चउ चउ हवंति पभणि उ जिहि । एक्केक्कमेरुपासहि दुसंख सालम्मलिजवूआइरुक्ख । गयदंतगिरि वि चउ चउ दिसासु कुलसेलहि छहि मंडियउ पासु । घादइसंडे तह पोक्खरद्धे सरिसण्णिह गिरि दो दो पसिद्धे। 5 वेयड्ढ वि चउजुय तीस तीस वक्खारगिरि वि चउहीण वीस । सालम्मलि आइ करेवि तेसु एक्केक्कु जिणालउ मणहरेसु ।। मणुसोत्तरे चउदिसु एक्कु एक्कु सुरमणहरु जिणहरु उवरि थक्कु । गंदीसरे चउदिसु वरसिरीहिं एक्कं जण चउदहि मुहगिरीहिं। अट्ठट्ठहिं रइयरमहिहरेहिं एक्केक्कु भवणु वंदिउ सुरेहि। 10 कुंडलवरदीवेरु जगवरदीवे विण्णि जि गिरिथिररविससिपईवे । घत्ता- ते कुंडलरु जग णामहि वे वि भणिय पयउ। एक्केक्कहिं चउ चउ उवरि जिणालयथिय पियउ ॥१०॥ (11) देव नारकियों का आयु- आहारादि वर्णन इय भणिउ लोउ जिह जिणवरेण तिह तुह भासिउ मइँ आयरेण । सुणि णारयतिरियणारामराण उच्छेहाउस आहारणाण । (9) l.a उत्तुंग, a भूमइ, 2.a ०णमल is explained as स्फटिक in margin, a सारइ, 3.b चंदकंति, a गयणइ, a किरणइ, 4.a हारइ, a टंकारइ, 5.a °सालह, a रणझणंत धय, a जालइ, 6.a सुकुसुममालइ, b सुमालर, a मालइ, 7.a oबिंबइ, b भववडंत०, bण आलंवइं, 8.b छण०, b विसालई, 9.b ०तरंत, a लायइ, a सुरबिलयइ, 10.a ण्हवणइ, a यकित्तिमाइ जिणभवणइ, il.a माणइ for भवणइँ, b मुहि, 12. a चउसयाइ, b भणहिं । (10) 1 b महंतई, a adds णं तं जहा after महंतइ, 2.a मेरुहि चउ चउ वण्णेहि, b उववणेहिं चंउ, b पणिउं, a जिणेहि, 3.b पासहि, a सालमलि, a रुक्खु, 4.a गयदत्त, b कुलसेलहि, a वहि for छहि, 5.a पसिद्ध, 7.a एक्केक्क, 9.b नंदीसरु, b वरसरीहि, b चउदह, 10.a एक्केक्क भुवणु वंदिय, 11.5 कुंडलदीवेरु, a ०पईवि, 12,b omits ते, a णामहि, 13.a एक्केक्कए । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवरराइँ मिले सगुणाइँयाइँ पढममहिए सत्त सरासणाइँ यह सरीरु छेटु दिट्ठ सक्कर हाइ पुढवी गणिउ आउसु तिसत्तदहसत्तदहा सायरउवमाणइ भासियउ असुर सरीरु पणवीसवणू तह णायसवण्णदीवकुमरा पहचावदिहसेस वि कुमार उस उरवणदीवए हिं सदहि ते वारह वासरेहिं यहि भणिय विज्जुकुमारयाहँ वियलिय वारह दिवसेहि इट्ठ तह चेव दिसग्गणि मरुकुमार आहार लेहि चिति मणेहि तिरहुमि दह धणु तणु गुरुत्तु उसासु वित्त मुहुत्तएण जो सत को डाउ ८१ वत्ता - अउसु विविपल्ल सड्ढदुपल्ल दुपल्ल तहु । कुमराण वराहु भुंजिय विविह भोय सयहु ॥ ११ ॥ (12) पडमि फुडु जे मणि रूपियाइँ छंगुल तित्थ अहियाइँ ताइँ । आउ सायरवमाणु सिठु । तण उच्छे मुणिउ । बावीस तियाहिय तीस तहा । अपवत्तणरहिउ दुहासियउ । आउ समुह उवमाणु गणू I दह चाव तुंग पभणिय अमरा । पल्लोव जियहि दिवट्ठसार । कि उ सड्ढउ दुहहिं मुहुत्तएहि । चितवियाहरेहिंदिहिकरेहिं । वारहहि मुहतहि सासुता हूँ । एए चितहि आहारु मिठु । सत्तट्ठ मुहुत्तहिं सासयार । परियलियहि सत्तट्ठहिं दिहिं । आउसु पल्लोव एक्कु वुत्तु । आहारचितदिण सत्तएण । पल्लोवउ अहिउ हवेइ आउ । घत्ता - उस्सासाहार जिह वित रहँ पयासिय रु वे मुणेहि तिह जोइसियहँ भासिय || १२|| 5 10 5 (11) 1.b भणिउं, a मइ, 3a अत्रराइ, a सगुणेइयाई, 4 पढ़मं, b महिहे, a अहियाइ ताइ, 6.a गुणिउं, b गणिउं, b तद्दृणु दृणु, b भणिउं, 7.b आउसुं, 8.b उवमाणई, 9.b असुरहं, a गणु, lla सढ दुमल्लदुप्पल्लु, 12.b सराहु | 10 (12) 1.b जियह, 2.5 सासु उरयासुदलदीव एहि किउ सट्टु दुहहिं, ३० दीवएहि, a मुहुत्तएहि, 3 a वासरेहिं, b चितवियाहारहि 4.b उवहिं, a विज्जकुमारयाह वारहहि मुहुस्तहि, 5.b चितहि, 6.a मुहत्तहि, 7. सत्तट्ठ हि दहि, 8.b वितर हंमि, 9.6 ऊसासु, 11.2 वितरह 12.b मुणेहिं । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मीसह सत्तजि कर सकुमारमाहिंदै छ हत्था पंच करुण्णयदेवणिकायहु विहि अमरहो पंचकरपमाणउँ सुक्के महासुक्के विसयारे विहि जीवहि सोलह सायरसमु आण पाणए सड्ढतिहत्थ हु आरणअच्चुयवासिय अमरहु हेट्ठिममज्झिमउवरिमभयेहिं सड्ढदु दो दिवड्डु कर उण्णइँ Maratसवुह एक्काहिउ अदिस अमर सुहमुहडिउ ८२ पयईए परोवरु दुहराह उच्छिययरणिच्चाहारयाह विहि पुढविहि भासिय काउलेस मज्झिमणीला पंकप्पहहि मढविहि लेस हवेइ किन्ह असुराइय जोइसियंतियाहु र तिरियभोयभूमीसु ताम (13) घत्ता - तेत्तीससमुद्द उवमाणाउ अणुत्तरहिं । दो जल हिपमाण आउस सुर । सत्तसमुद्वमाउपसत्था । विहि दहजल हि समाउसु आयहु । आउसु चउदह सायरमाणउ । हत्थामर तह सहसारे । विहिं अट्ठारह सरिणाहोवमु । ठिदि वीसं हि समसुरसत्य हु । वावसुवहसमाउसु तिकरहु । अतिहि तहि तिहि गड़वेयहिं । असा एक्कु जि करु भण्णइ | 10 नवगइवेयसुराउ सुसाहिउ । बत्ती सुवहिसमाउ सुपयडिउ । पंचहि विसुमित्त परमइ भुंजिज्जइ सुरिहिं ॥ १३ ॥ (14) अणवरमरूद्धसासाउराइँ । रयण पहाड़ दुयणारवाह । तया काडणीला अंस | णीला सहि धुमप्पहाहि । तमतमपुढविहि सा परम किण्ह । हे सहि जयसु ताहु | उत्तंगध सयसट्ठि जाम । 5 (13) 1.a सोह में साहि, b जलणिहिंसमाण, 2. a. b सणकुमार, a महिंदि छह हत्था, b समुद्दवमाउ पसत्थ, 3.b करुण्णई, b विहिं, a ०जलहि, 4. b विहि अमरहं, a पंचकरु समाणउ, a चउद्दह, 5 b सुक्कमहा०, a बिसयारें, a सहसारें 6.2 विहि जीवहि, a विहि, 7.a हत्थहुं, 8.ab तिकरहुं, 9 a ०भेयहि, b अमरहुं तिहिं तिहिं तिहि, a गय for इ. 10.b दियड्ढ़, a कररु for करु, 11.b तेवींसंवुहि, a एक्कक्काहिउ णवगत्रिय, 12.b अमरहं, 13 अगुत्तरहि, 14 b मि for वि, b पर में, a सुरहि । 5 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूवेग मगुय णं कुसुमवाण अज्जव सुहलेसत्तयसमेय जाणंति कयावि ण वाहिदुक्खु तिरिसविसोहणलक्खणपहाण । जीवंति तिपल्लोवम सुतेय । पावंति णिरंतर विसयसोक्खु । 10 घत्ता- चितवियाहार उदण्णतणमय तिहि दिणहि । पावहि इह वुत्तु उत्तमभोयमहिहि जिणहि ।।१४।। (15) तिसहसतेहत्तरसत्तसयइ सद्दिट्ठिहे मइ सुइ ओहिणाण जे कम्मभूमिमाणवतिरिक्ख णरु धणुसयपंचसवायकोइ तह तेसलेस छक्कु वि हवेइ उस्सासु भोयभूमीहि जेम मइसुइओहीमणपज्जवक्खु सहिट्ठिणरहु इय पंचणाण ओहि विविहंगुइय तिण्णि सिट्ठ तिरियहु मइआइ य तिण्णि णाण तहु उस्सासेण मुहुत्ते गयइ । मिच्छादिठ्ठिहे एए अणाण । तहु धणु सयपंचगुरुत्ते संख । ताणाउसु पुठवह कोडि होइ। सुहअसुहाहारु वि संभवेइ । 5 वाहिरहियसुहियहि होइ तेम । वरकेवलु लोयालोयचक्खु । मिच्छादिठ्ठिहु मइसुइ अणाण । मणपज्जय व केवल णेय दिट्ठ । मिच्छदिट्ठिहु तिण्णि वि अणाण। 10 घत्ता- सुद्धखरमहीण आउस वरिससहासइ वारहवावीस एइंदियहो पहासइ ॥१५॥ (14) l.a सासाउराह, 2.a णारयाहु, bणारयायाह, 3.b भासिव, 4.b पंकप्प हाहें, 6.a तेयह, b जघणंसु, 7.b भेय, b उत्तुंग, b ताम for नाम, 9.b तिपोल्लावमु, 10.b णिरंतरु, li.a explains in margin as उदण्ण=दत्तं and तण्णमम वृक्षः, b उवणत्तणमय तिहिं दिणहि, 12.b मावहिं इउ । (15) 1.b ०सयइ, b ऊसासेण, b गयइ, 2.a सद्दिट्ठिहु, a वोहिणाण, a मिच्छादिट्ठिहु, 3.a धण for धगु, 4.b ०सवालय, b पुबह, 6.b ऊसासु, b जाम. a ए for होइ, 7.a मय for मइ, a omits वर, 8.a सदिपिरह, b ए for इय, a मिच्छादिन्हि , a मणपज्जय०. 10.a तिरियह, a मिच्छादिट्ठिहि, ll.b सहासई, 12.b वावीसाइं एयें दियहो। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. 5 (16) आऊण वि वरिससहाससत्त तेऊण विठि दिहिण तिष्णि वृत्त । वाऊण तिवरिससहास आउ पुढवि पहुदि जीवह सुहुमु काउ । भासिउ अंगुलहो अंसख भाउ सबह जहण्णु भिण्ण महुत्त आउ । जोयणसहासु वणफ इहि देहु आउसु दहवरिससहस मुणेहु । तणु आउमाणु वेइंदियाण जोयणवारहवरिसइ मि ताण। तणु माणे तेइंदिय तिकोस एक्कोण जियहिं पंचास दिवस । चउरिदिय तणु जोयणपमाणु आउसु वि ताण छम्मास माणु । मच्छाण देहु जोयणसहासु पुवाण कोडि आउसु पयासु । सव्वह असुह तिलेसासमाण असुहाहारहु मइ सुइ अणाण । घत्ता- मज्झिम अंसु फुडु तेऊलेसहि अमरहो। विहि सग्गहि होइ मंदकसाया समरहो ॥१६॥ 10 सणकुमारमाहिदहि सग्गहि मज्झिम अंसु हवइ छाहि पोमहि मज्झु सुक्कु तेरसि सुपरिट्ठिय जहि जित्तिउ आउवहि संखहिं तेत्तिय वरिससहासहि भोयणु सुरणारयहो ओहि सद्दिट्ठिहु भावणाहि दो कप्पंति य सुर विहिसफंसपवियारहो भायणु कप्पे चउक्कि पुणु वि सुइ भदि पुणु चउकप्पहि मणपरियारा तेयसपोमलेस सुरपग्गहि । विहि जच णुत्तमु सुक्कहि पोमहि । चउदहसुक्कुत्तम सिय संठिय । उस्सासु वि तहि तेत्तिय पक्खहि । णिच्चु सुक्खु अणिमिसु आलोयणु। 5 सो वि विहंगु हवेइ कुदिट्ठिहु । तणु पवियार सुहि सुकयायर । पउकप्पेहि रूव आलोयणु। पवियारो हवेइ सुह सहि । परओ सुरमणि अप्पवियारा। 10 धत्ता- पवियारसुहाउ अप्पवियारह अहिउ सुह । सम्मत्तचुआहं सुरहुं अहिमाण सिउ दुहु ।।१७।। ।। (16) 1.a दिहिण is explained as दिन in margin, b दिण, 2.b पुढवी पहुजीवहो सुहुम काउं, 3.a writes in margin the line भासिउ etc. . . . आउ and b omits the same, 4.b देहुं, a दहवरिसु सहसु, b गणेहुँ for मुणेहु, 5.a inter. आउ and माणु, b जियहि, 7.b छम्मासजाणु, 9.b सत्रहो असुहलेसासुमाण असहाहारह मई सुई, 1.b सग्गहं होइं मंदकसायउ। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मविरामि लद्ध ससरूवहु जम्मजरामरणरूयर हियहँ अंतातीय धरियसंमत्तह तवायावगाहिय ससरीरहँ खाइयदंसणणाण समिद्धहँ वाहारहिउ णइ इंदियजणियउ इय गुणसहिया तिलोयहो सारा हि सेजियहो जिणिण पयासिउ अहवा जइ केण वि जगु किज्जइ केवि भणहि किर जलु पुणु पुव्वउ ८५ विकेण वि गिरिसरिसायर किय पलाउ विसयलु बिलउ पभणिज्जइ जइ ताकि ण सो वि वारिज्जइ इकज्जें दियवंरहो पुराणइँ विहिहरिहरमणिय जड़ तिहुयणु एक्क वयणु दुणयणु दो करयलु (18) घत्ता - अंडयखंडेहि महियलु वंभंडु वि हुयउ | पुव्वसरीरउ ण पडिरुवहु । वीरिय अगरु गलहु गुणसहियहँ । छुहतहाइ विरामे सुतित्तह । सावगाहघणतोय या रहँ । णिरुवमणिच्च अचल सुहसिद्धहँ । जाउ उ हीणाहि भणियउ । भवियहु सरण होंतु भडारा । पवणवे तिह तुह जनु भासिउ । तो जगकत्ता केण वि रइज्जइ । वुव्वुआउ पच्छइ अंडउ हुउ । जइ ता जलुकच्छ वुव्वु वि अंडउ कि कियउ || १८॥ (19) केण वि रविखय ण विणासहो यि । किर हरिणा तहो जगु रक्खिज्जइ । विज्जु किं वदारिज्जइ । घहि ण अघडिय लोय अण्णाणइँ । किं ण चउम्मुहु चउ करु तिणयणु । दीes सलु विभुत्क्रम्मफलु । 5 (17) 1.b सग्गहिं, 2.b मज्झिम, छहि पोमहो, b छह पोमहिं, 3.a सुक्क तेरस, a चउद्दसेसु सुकुत्तम संठिय, 4. a संखहि, b ऊसास वि, a पक्खहि, 5 b सहासई, b णिच्च सक्खु, 6. b सद्दिट्ठिहि b विहगु, b कुदिट्ठिहि, 7.a भावणाइ, b दोकप्पतिय, b सुक्केआय, 8. b फस for फंस, a भायण, a आलोयण, 9.b कप्प, b वि सुभद्द पवियारहो हवेइं सुअसद्दि, 10.b चउं कप्पहिं, 11.b सहु for सुठु, 12. समत्तत्रुयाह, b सुरहं हिंउ माणसिउ । 10 ( 18 ) 2. ० रहियहु, a सहियउ, 3 a संमत्तहो, a ०तण्हा, a सुतित्तहु, 4.3 सरीरहो, a घणतेयायारहु, 5a व्दंसणण चरित्तहु णिरुवम् णिच्चयचलु सुहु सिद्धहु, 6.b ० रहिउ अणदिउ जणियउं, a हीणोहिउ, 7.a गुणसहिय, b भवियहस रणउं, 9.a केण रइ जइ, 10.b भहिं, b वुव्वुउ, lla खंडेहि, a वंब्भडु | Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्में सुरणरतिरियविणारय इय जाणेवि किंपि तं किज्जइ ८६ जीव हवंति सिद्ध झाणें रय । जें जरमरणवेल्लि छिण्णिज्जइ । घत्ता - अजरामर देसु पविज्जइ जिणभासियउ । सिरिसिद्धणिवासु हरिसेणें भवियहँ भासियउ ।।१९।। इ धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्ठियाए चित्ताए । वहहरिसेणकयाए छट्टो संधी परिसमत्तो ॥ छ ||६|| छ ।।१८२।१ *** (19) 1.a omits गिरि, 2. b सयग्णु, a सक्खिज्जइ, 3.6 किण्ण, 4.b दियवरह, b घडिय, a अण्णाणइ, 5. a व्हरह, a ज्जइ, b चउम्मृहुं, 6. b एक वयणु दुवयणु, 7.b कम्म, a णाणें सिद्ध सुज्झाण पुण्णरय for जीव हवंति ... etc. . . रय, 8.a जं, a लहु क्खिज्जइ for छिणिज्जइ, 9.2 जिणभासिउ, 10.a सिद्धि ०, a हरिसेण भवियह पसंसिउ, 12 परिसंमत्तो ॥ संधि ।। ६ ।। १८२ ।। 10 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सत्तमो संधि (1) उवयारणिमित्तु मित्तहो परमहियत्तणेण । भावेवि तिलोउ पुणु पणिउ खगवइसुएण ॥ छ ।। पवणवेय पुणरवि पुरि पइसमि अवरु वि परपुराणु तुह दरिसमि । इय भणंतु वाइय दलवट्टणु मित्तें सहु पइट टु पुणु पट्टणु । वंभमाल जा दारे चउच्छए जहि दिय देहि दोसु परमत्थए। तहि करेवि भेरी घंटासणु माणसवेउ चडिउ कणयासणु । णवर भेरि घंटासदे दिय आगय जे वायम्मि अणिदिय । पुच्छिउ तहिं कहं तहो आइय करहु पाउ जं भेरी वाइय । तावसरूवधारिमणवेएँ तो वोल्लिउ संजायविवेएँ। गामगुरु व भमंत संपाइय ण उ सत्थत्थ वियक्खण वाइय। दिय भणंति किं कीलालावें भणु तव कारणु मुक्कु पलावें । कुलु किं कवणु माइ कहिं जायउ कवणु ताउ को गुरु विक्खायउ । 10 घत्ता- खयरेण पुणुत्तु णियकारणु साहंतहो । भउ अस्थि ण तेण सच्चु वि कहमि महंतहो ।।१।। वृहत्कुमारिका कथा दिय भणहि ता तं पि भयकारणं जं पि। ता गुरु व रूवेण खयरवइतणएण। सायरसिलातरणु मक्कडहु णडयरणु। अक्खाणु णिसुणियउ दियवरहिं णिसुणियउ। पुणु भणिउ भउ मिल्लि जिह मणहि तिह बोल्लि। 5 खगु भणइ रम्मम्मि साकेयणयरम्मि । (1) 5.a बंम्हसाल, b देहि, 6.b तहिं, 7.a णवरि, b पुच्छिय, a तेहिं, a करउ, b जें भीरी, 9.a वोलितु for वोल्लिउ, ll.b भणि, b मुक्क, 12.b कवण्ण भाय, a कहि, 14.b कहमि । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ मुह माय किर कण्ण रंयणीहि परिणयणु जणजणिय रायस्स ता करइ चूरंतु पत्तो विवाहम्मि गुरु दिठु उम्मिट्ठ तं णिएवि गुरुविग्घु. तहो वाम अंसग्गु सा पडिय खलिऊण पुणेहिं उव्वरिय जणु भणइ णिक्किठ्ठ इय गरुयलज्जाए उद्धरिय वंसेण पइवयचरित्ताए मह पिउ हे जा दिण्ण । का खइ सयणयणु। करि छुटु रायस्स। माणु सइ मारंतु। कय विविह सोहम्मि। भयत? जणु ण? । ओसरि उ वरू सिग्घु । बहुयाहे तहि लग्गु । जो इय ण वलिऊण। करिणा ण सा धरिय। वहु मुएवि वरु णछु । गउ रहिउ भज्जाए। पुरिसस्स फंसेण । हुउ गम्भे हउँ ताहे। घत्ता- सा मायए वुत्तु किं कुले लंछणु आणिउ। ता भासिउ ताए मइँ काइँ ण वियाणि उ ।।२॥ (3) मह अत्थि को वि ण वि अवरु मग्गु परिणिय पियसिढिलभुयंग लन्ग । इय भणिय माय मउणेण थिया गय मासहि पसवणदिवस हुया । एत्थंतरे तावससंघु तित्थ आइउ महु मायहे गेहु जेत्थु । मायामहेण महु ते णमिया कहि चलिय भणेविण विण्णविया। तो भणिउ तेहिं दुक्कालु ताम । होही वारहवरिसाइँ जाम । तें चल्लिय अम्हइ जिह सुहिक्खु तवसी ण वि दुस्सहु भुक्ख दुक्खु । तुम्हइँ वि एहु मा मरहो एत्यु णिय देसु सोज्जि जीवियइ जेत्थु । अह करहु कि पि पडियारतेम . दुक्कालदुक्खु णित्थरहु जेम। इय भासिऊण भोयणु करेवि गय तावस देसंतरु सरेवि । गब्भत्थें मइ चिंतियउ ताम गच्छइ रउर्दु दुक्कालु जाम। 10 (2) la कारणु ज्जंपि, 2.b त for ता, a खइखइ०, 3.6 मक्कडह, 4.b पिसुणियउं दियवरहि, b णिसुणियउं, 5.b भणिउ मउ मेल्लि, b बोल्लि, 6.b भुणइँ for माणुसइ, 12.a दिट्ठ, 16.a पुष्णेहि, 17.b भणई, 19.b फसेण for वंसेण a पुरिसस्स फसेण, 20.b हउँ गभे हुउ तहि, a हउ, 21.b कुललंछणु आणियउं, 22.a मइ काई, b काइं वि ण वियाणियउ। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चला - अच्छमि ता एत्थु गब्भवासि वंतउ | खीलिउ कम्मेण ता गब्भहो णिग्गंत || ३ || (4) यदुक्काले णवर ते तावस भत्तिए अज्जाए णवड़ सारिय तामई चितिउ कि इह अच्छमि एत्यंतरे पणट्ठमुह छाय हे वावरं मुवि णु छावि हउँ विताम गम्भहो णीसरियउ भय देहि भगंतु समुट्ठिउ वाहउ तवसिहि भणिउ अमंगल एहो सुयहो वज्जु सिरिणिवडउ वरि फणि दट्ठगट्ठउ खंडिउ ८९ घरता - ता मए वुत्तु पुत्तु मज्झ उ होहि तुह भो तुह देउ मारि पईसहि जमहो मुहु ||४|| (5) पुणु वि ताए महु मायए घुट्ठउ जामेत्तु गिविणु भोयगु माणुसु एहु माए ण उवेठउ णीस जाहि जाहि पुणु जंपिउ लहु य केसु उद्धू लिय गत्तउ स संजाउ तवसिउ वसंतउ रवि आइय गेहि छुहावस | अग् देवि पडिवत्ति वारिय । गउ दुक्का तुरिउ णिग्गच्छमि । जायइ पसवणसूलइ मायहे । थिय चुल्लीसमीवि सा जाएवि । महि विडंतु वि छारहो भरियउ । भोयण करयलु पुरउ परिट्ठिउ । कुलखउ एहु णेइ गहु मंगलु । मा असल विकुल हिडउ । गुणगणणिहि सरीरु मा छंडिउ । एरिसुकेण विकहिमि ण दिट्ठउ । मग कहि मि को वि किं भोयणु । पोट्टि वसिउ महु रक्खसु मोट्टउ । ताइपेस तं पिपियप्पिउ । हउँ नीतिवोवणु पत्तउ । अच्छमि तवसिसचे णिवसंतउ । 5 10 ( 3 ) 1.2 परिणय, 3.b आयउ, a मायइ, 4.a ण बिया, b कहिं, 5.b भणिउं, a तेहि, a वरिसाइ, 6. b अम्हई जहि b दुसहु, 7.b एहु for एत्थु, 8. a दुक्खाल०, 10.a इ for मई, 11 a एत्थ 12.a तं for ता । 5 ( 4 ) 1.a दुक्कलि, b गेह, 2.b पडिवत्ति समारियं, 3.b adds in margin वे जाम कर वदुई मई गब्भथहो चित्ति पयट्टई before ता मई चितिउ, a मइ, 4.b चायई, b सूलई, 5a वारवार for वावारं, 6.b हमि 7.b देइ for देहि, 8 b ताहउं, a तवसिहि, b भणिउ b नाई for णेइ, 9 a वज्ज, a माय जणेण सवल बि कुलु बिहडेउ, 10.a दट्ट - गुट्ठउ, b गुणगुणणिहि, 12. b देउ, b पईसहि, b मुहं । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहु काति करंतु परियट्टणु ता विवाहु णियमायहे दिट्ठ उ णिय उप्पति सवित्थर भासिय भणिउ ण दोसु को वि इह दीसइ एक्कहि दिणे जा गउ तं पट्टणु । एविणु तावसाण मइँ सिठ्ठउ । सा णिसुणेविणु तेहिं ण दुसिय । पुवमुणिंदवयणु तुह सीसइ । 10 घस्ता- णारिहि वायाए दिण्णहे जइ तो णरु मरइ । __ अक्खयजोगीहे पुणु विवाहु परियणु करइ ॥५॥ तद्यथा अद्भिर्वाचापि दत्ता या यदि पूर्ववरो मृतः । साचेदक्षतयोनिः स्यात्पुनः संस्कारमहति ॥१॥ (6) पवसिय पिय वरिसइँ अट्ठ जाम अपसूय णियइ चउ वरिस पंथु _पडिवालइ बंभणि सुद्धभाव । ता पच्छइ अवख रहो धरइ हत्थु । तद्यथा अष्टौ वर्षाण्युवीक्षेत ब्राह्मणी पतितं पति । अप्रसूता च चत्वारि परतोऽन्यं समाचरेत् ॥१॥ इय लोइयधम्म वियाणएण वेयत्थपुराणपवीणएण । तवसीण मए ण सुपिहलवच्छ दीसइ तिधाण परिणयणु वच्छ । इय ताण वयण आयण्णिऊग । परमत्थु भणेविण मण्णिऊण । चिरु कालु तहि मि पुणु अच्छिऊण तवसीण संघु परिपुच्छिऊण । तित्थत्थणिमित्ति महि भमंतु चिरसंचिउ कलिमलु उवसमंतु । वुहवाइय जणमणणयणइठ्ठ चलिऊण तुम्ह पुरवरु पइठ्ठ । 10 घत्ता- मह वइयरु आसि फुड जं जारिसु वित्तउ । सयलु वि विवरेवि तारिसु तुम्हइँ वुत्तउ ।।६।। (5) 1.a कहि वि, 2.b कि पि for को वि, 3.a मुहु, 4.a writes जाहि three times instead of two, b तामइं, b तं जि, 5.a हउ, b हंउं, 6.a सइ, 7.a दिणे गउ ज्जा तं, 8.a विवाह, a एविण, a मइ, 9.b स for सा, a ते हि, 10.b inter. कोवि and दोसु, 13.a पूर्ववरो, 14.a संस्कारमर्हति, वसिष्ठस्मृति, 17.64 nearly agrees with this in contents. cf. 9.81. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता पभणहि दिय अमुणिय तच्चय तुह गठभासउ वे वि विरुइँ ता खगु भासइ पयडिय अहिं कि इय घट्ठ रोसें कंपिय जंपइ पिसुणिउ जइ तुह जाणहि पुणु तवसि भणइ परभ उ वट्ट तुम्हइ रूसेवि भि उडियणयणहिं विप्पिउ वोल्लिउ तेणासंकमि अहो णिदिय दिय । सुठ्ठ असच्चय । तावसवासउ । जणे अपसिद्ध। समउ पयासइ। तुम्हहँ सस्थहिं । मुणिहि ण झुट्ठउ । पुणु दिय जंपिय । अम्हहि णिसुणिउ । तो वक्खाणहि। को तं ण मुणइ । मगु ण पयट्टइ। महु मउ दूसेवि। णिठ्ठरवयहिं । तुह ण उ मेल्लिउ । भणेवि ण सक्कमि । घत्ता- तहो दियहो परन्तु जे समए ण वियारहि । ते वुद्धिविहीण अप्पाणउ पन्भारहि ॥७॥ (6) 1.a पिउ वरिसइ, b ताम, b पडिवालई, 2.bणियई, bomits ता, a अवरहो धरइ, 3.a वर्षाणि दीक्षत, b पतितं, a पति, cf. अमितगति धर्मपरीक्षा 14:39. 5.a वियाणयेण, ३ ०पवीणयेण, 6.a परियाण वच्छ, 8.b left blank space for चिरु, 9.a तित्थत्त०, a चिरु, b णिज्जरंतु for उवसमंतु, 10.2 ज for जण, il.a मुहु, 12.a तुम्हह । (7) la तो, b पभणहि, a omits दिय, a repeats अहो, b omits दिय, 4.b जण, a अपसिद्धइ, 6.a अत्थहि तुम्हह सत्यहि, 7.b इय झुट्ठइ मुणि हिं घुट्ठई, 9.a जंपइ, b अम्हींह ण सुणिउं, 10.b जागहि, b वक्खाणहि, ll.b भणइं. a omits को तं ण मुणइ 13.b तुम्हहि, 14a ०णयणहि, a ०वयणहि, 15.b वुह for तुह, 16.a भणिउ for भणे वि. 17.b वियारहिं, 18.b अप्पाणउं पत्तारहिं । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म वि पुराण तहमा इय चत्तारि वि आणा सिद्धइँ तद्यथा तद्यथा ९२ पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः || १ || तह मणुवासवसिद्ध हो वयणइँ जय भणंतु अपमाणइँ । भाइणरु होइ णिरुत रु इय एरिसुपसिद्धदिय वृत्तउ । याइयो दोसु उब्भावइ जेण ते तहो दोसु ण वोल्लमि ता दियवर पभणहि मित्ते वि भिक्खु भfe असि जीह ण छिण्णइ (8) सांगोवे चिकिच्छिय कम्म वि । ৩ उहि ण हणिज्जति पसिद्धइँ | मानव व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतं । अप्रमाणं तु यो बूयात् स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ २॥ जो सो वम्हइ व्व फलु पावइ । दियपरदरसिउ मग्गु ण मेल्लमि । पाउ हवं तु दिट्टु कि केण वि । सिहिंतु डहर को मण्गइ | धत्ता - इय एम मुणेवि भउ मिल्लेविणु थिरु भणहि । या हु दोसु वत्थु भूउ जइ फुडु मुणहि ॥ ८॥ (9) भागीरथी और गांधारी कथा मायाताय सेण एत्यंतरे किर भाइरहि णामउ दोणारिउ वोल्लिउ दियवरसह अब्भंतरे । एक्क सयणि सुत्तउ सुकुमारिउ । 5 ( 8 ) 2.a हेउहिं, a पसिद्धइ, b adds |छ || before तद्यथा, 3. a धर्म्म, 4.a चात्वरि both a & b used अनुस्वार like सांगो, वेदश्चिकित्सितं हंतव्यानि 5.a • सिद्धह वयणइ, b जयइ, a अपमाणइ, 6 a वम्घास, 7.a चैवसंयुतं, 8.a भवेब्रह्मघातका, 9a जो for यो, b वेयाइयहं, b वंभह, 10 b दरिसिउ मज्झग्गु 11.bता दिय भणहिं भणिय मित्तेण विं, 12 b भणिउं, b छिष्णइ, a उण्हुत्तु, b मण्णई, 13 a एव, b भर्णाहं, 14. b मुणहि. Note: Both Sanskrit verses occur in यशस्तिलक - चम्पू, भाग 2, p. 119. The first verse is identical with मनुस्मृति, 12.110-1. 10 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता भइरहि णामें सुउ जायउ जो भारहि पुराणि विक्खायउ । जम्मइँ णारिफंसि सुउ णारिहे कह हउँ पुरिरकंसे ण कुमारिहे । अवरु वि कुलगुण वविसिट्ठहो गांधारीकुमारि धयरट्ठहो। किर पिज्जोसइ ता रोम चिय तह पुप्फबइ जाय सील चिय । दियहे चउत्थे णवर सण्हाइय फणसालिंगणे गम्भिणिजाइय । मासेक्केण णवर तहि मायए सा अकुसुमु णिएवि गय छायए । तं वइयरु णर विट्टि गरिठ्ठहो भयगयाए जाणे विउ जेट्ठहो । तं णिसुणेवि पमाणिय सिळिं सुहि हक्कारेवि अंधकविटिठ । घत्ता- धयरट्ठहो दिण्ण लहुउ गम्भु ण उ तें सुणिउ । संपुष्णदिणेहि ताए फणसतरु फलु जाणिउ ॥९॥ (10) 10 तहिं फणसफलें सउ णंदणाहुँ एरिस कह भारहे सुप्पसिद्ध तं णिसुणेविण दियवरहिं वुत्तु जं पुणु गब्भत्थें तवसिवयणु ता तावसेण पडिवयणु वुत्तु ता एरिसु भारहि वासि भणिउ सुहलक्खाण कोइलमहरसह असुहत्थी एक्कहि दिवसे जाम थिरगब्भवासे ण लहेइ जिद्द एन्थंतरे कह सवणथिएण संजाउ पवरगण णंदणाहँ। किं महु उत्पत्ति भणहु विरुद्ध । मण्णिउ तुह जम्मु हवउ णिरुत्तु । आयण्णिउ तं सद्दहइ कवणु।। जइ मइ पणिउ मण्णहु अजुत्तु। 5 दियपवरहो कि तुम्हहिं ण सुणिउ । गुरुहारजाय जइ य हु सुहद्द । हरि चक्कवूहकह कहइ ताम । हुँ काऊण किर मेल्लइ सुहद्द । महिमाणे तहे गब्भत्थिरण । 10 (9) 4.a सो for सुउ, b णारिदे, a हउ, 7.b सा, 8.b मासहें, b अकुसुम, 9.b जाणाविउ, 10.b सेट्ठिहे, b अंधयविट्ठहे, 11.a गब्भ, b गब्भु ते णउं मुणिउं, 12 b दिणेहि, b फल्लु जणिउं, cf. आदिपर्व (महाभारत), भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण । (10) 1 a तहि, a सउ णंदणाह, b गुण णंदणहं, 2.b सुद्धसिद्ध, a मउपत्ति, _b भणहुं, 3.a दियवरहि, 4.a गम्भत्थं, b तपसि, b अयप्पाह उँ तं, 5.b मइं पणिउं मण्णहु, 6.b भारहिं, b किं तु तुम्हहिं किन्न सुणिलं, a तुम्हहि, 7.b फग्गुण पियणामि भगिय सुहद्द for गुरुहायजाय etc. 8.b एक्कहि, b चक्रवह कहइ, 9.a णं for ण, 10.b सवणत्थिरण, a अहिवणे, 12 a चितेवि। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y धत्ता- हुंकारउ दिण्णु तं णिसुणेविणु हरि डरिउ । चितेइ पयंडु गब्भे को वि णरु अवयरिउ ।।१०।। (11) ऋषि कोपीन कथा और मन्दोदरि गब्भत्थें तें हरि कहिउ जैम णिसुणिउ मइ तापसवयणु तेम । तं मण्णेविण दिय भणहि एम वारहवरिसइ थि उ गब्भे केम । पडिवयणु पुणु वि गुरवेण वुत्तु णिसुणहु चिर मुणि पणिउ णिरूत्तु । मउ णामें तावसु त उ करंतु जाम त्यइ णिज्जेणिवणि वसंतु । तावेक्कदिवसे सुइणंतरम्मि संजायइ वर णारीरयम्मि। पालियसुवयहो खरण जाउ चितिउ तें सुक्कु म विहलु जाउ । कोवीणु णेवि णइणीरे विमलि वोले विणु णिप्पीलियउ कमलि । सा पीउ सुक्करसु ददुरीए विमलजलकमलदलकीलिरीए । रिउवइहे तहि तें तक्खणेण हुउ गम्भु जुत्तु तियलक्खणेण । गयमासेणेक्के सुहदिणम्मि पवसिय सा सोहण गहगणम्मि। 10 घत्ता- अइणिरुवमरुव जाय दुहियलक्खणभरिय । सोहग्गहो थत्ति णावइ अच्छर अवयरिय ।।११।। (12) सणु तणयहे तणउ णियंतियाए अस्थि उडहि रूउ पियंतियाए । ददुरियए पुणु पुणु चितियउ णिउणउ जे विहि एहउ कियउ। अम्हहँ कुल होइ ण एरिसिया फुडु एह हवेसइ माणुसिया । इय चितिऊण वित्थिण्णयले सा मुक्क ताए कमलिणि देहंले । मउण्हाणत्थें तहि जाइ नाम जण मणहर वाल णिएइ ताम । पुणु तेण पउंजिवि झाणु किया जाणिय णियसुक्कें संभविया । (11) 1.5 मई णिसुणिउं तावस०, 2.b भणहि, b वरिसइं, 3.b णिसुणहं, b पणिउं, 4.a जावत्थइ, b जामत्थइ, यम must be मय दानव whose daughter was called मन्दोदरि, बाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 12.1-21; मत्स्य 6.21; वायु 68.29; ब्रह्मा 3.6.29. 5.a सुइणंतरम्मे, 6.a मालिया, 8.a inter. ०दल० & ० कमल०, 9.a गन्भजुत्तु, cf. स्कंदपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, भागवतपुराण, महाभारत (आदिपर्व) यम may be मय। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ पिच्छेविणु अइ तुच्छोयरिया णामेण भणिय मंदोदरिया। पुगु णिय कुडिरु णेहेण णिया कालेण जाय णवजोव्वणिया । ता एक्क दिवसे सुकुमालियए एहंतोए तीए कुसुमालियए। परिहिउ ससुक्कु मुणि कोवणउ तें गब्भु जाउ तायही तणउ । घत्ता- मउ चितइ जाम गब्भहो कारणु झाणें । णिय सुक्कविपास ता जाणिउ वरणागें ।।१२।। 10 (13) 5 पुगु चितिउ जइ तावस मुणं ति इय एत्त अयसु किय परिहरेमि तणु लक्खणु होइ ण पयडु जेम इय चितिऊण तवखउ करेवि महियले मिलंति भणिऊण तेण जा होइ को वि भत्तारु पुत्ति एत्तहे लंकाउरि रक्खणाहु कइ कासि णामहि तहो पिययमाहे तें पच्छा जायइ सा कु मारि सा वावसाणे सो गब्भु ताहे णियसुय कामिय एवं भणंति । परिछिद्द णिउणजणु किं करेमि । पच्छग्णु वि खोलमि गब्भु तेम । कुडियजलु णियकरयले धरेवि । गब्भे सहु अच्छहि ता अणेण। कि किज्जइ तुह एरिस भवित्ति । विस्सावसु णामें सिरिसणाहु । काले हुउ रावणु णिरुवमाहे । परिणिय मंदोयरि दिव्व णारि । पयडिउ तणुचिण्हहिं णिरुव माहे । घत्ता- सहो गेहि पसूय इंदइ णामें पुत्तु हुउ । सवंच्छर सत्त सय जेट्ठउ सो पिउहे सुउ ।।१३।। (14) पराशर ऋषि और योजनगन्धा कथा संवच्छराइ सयसत्त जइ वि गब्भे थिउ इंदइ सच्चु तइ वि । महु वारह वरिसइँ गब्भवासु मण्णहु ण काइँ किर करहु हासु । अहवा किं भण्णइ पयइ एसु णिय दोसु वि जणु मण्णइ ण दोसु । वंभणहि भणिउ इउ होइ सच्चु पर सइँ तउ लेइ ण कोवि सच्च । पइँ जाए पुणु कण्णा हवेइ । तुह माय एउ कह संभवेइ । 5 (12) 1, b तणउं, b उडहिं, 2.b णिउणउं, b inter. जे and विहि, 3.a अम्हह, 4.a वित्थिण्णयलि, 5.a तहि, 6.b झाण, 8 a पु for पुणु, a णवजोवणिया, 9.a सुकुमालियाए, a कुसुमालियाए, 10.a ससुक्र, b गब्भजाउ, b तणउं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता गुरउ भणइ अवहिय सुणेहु सो कत्थ वि कज्जें जाइ ताम तहि तेण णीर-तारणपवीण चंचल-पिंगल-लोयण-अणिद्ध छिवरणासिय धीवरकुमारि मुणिवरु पारासरु जो मुणेहु । दिहि य गंगाणइमग्गि ताम । सोहण णारी-लक्खण विहीण । चउ कोस पूइगंधिणि पसिद्ध । तियवेस दिट्ठ णावइ कुमारि। 10 CA घत्ता- णावइ मुणि जाम तारइ तुंगथणत्थ लि । ता हिय वए तासु लग्ग मयणवाणावलि ।।१४।। (15) णियमह जोयंतहो बार वार । मयणग्गि जल इ तहो दुण्णिवार । थरहरइ अंगु वयणु वि ससोसु धुगुधुगइ चित्तु गउ होइ तोसु । इय एम तेण खुहिएण वुत्तु इच्छइ मइँ हउँ तुह मुद्धि रत्तु । मा देउ सा उइयभयवसेण पडिवण्णु ताइ ता तावसेण । तवतेयघणधूमरि करेवि सा रमिय तेण उव परिहरेवि । सुउ वासु सहिउ मुणि लक्खणेण सुरयावसाणि हुउ तखणेण। जडजूडालंकियउ उत्तमंगु सियभूइसंग पंडुरियअंग ।। विद्रुममयकुंडल छिट्टगंडु उरे वंभुसुत्तु करे धरिय दंडु । (13) 2.b एयंतु for इय एत्त, a पहिछिद्द, 3.b ताम, 4.b त उ रवउ, a करयल, b करेवि for धरेवि, 5.b मेल्लंतें भणिउ, 6.a पुत्तें, a एरिसु तुह भवित्ति, 7.a लक्खणाइ for रक्खणाहु, 8.b णामें तहे पिययमहे, b पिययमाहे for णिरुवमाहे, 9.b जाए for जायइ, 10.a सो ववसाणे, a गब्भ, a चिण्हहि मणहराहि, lla पसूइ, 12.a सयहि जेठ्ठ । (14) 1.b संवछराह, a सक्क for सच्चु, 2.a मुहु वारहवरिसइ, a काइ कि करह, 3.b भण्णइं पयइं, a दोस वि, b मण्णई. 4.b भणिउं. a सइ, b मच्च for सच्च, 5.a पइ, b कहि, 6.a गुरुउ, 8.a तहि, b तीर for तेण, il.a थणत्थ ले। (15) la जाल for जलइ, 2.b थरथरई, a धुगधगुइ, b दोसु, 3.a मइ हउ, 4.b पडिवण्ण ताइ ता, 5.a वउ for उत्र, 6.a omits सुरयावसाणि etc . . . 7.b लंकि उ, 8.a उरु वंम्हसुत्तु, 9.b छत्तपाणि वाईसर जोय पवित्तपाणि, 10.a वासु for पासु, 11.b देहि, b पभणइं, a त्थु tor एत्थु, b करेहिं, 13.a पवित्त कमाउरिणा, 14.b अह for तह, a पारासरिणा। cf. मत्स्यपुराण अध्याय 14, वायुपुराण, भागवतपुराण, शिवपुराण, महाभारत (आदिपर्व), ब्रह्मा, वर्तपुराण etc. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरकुंडिय मंडियरत्तपाणि सिरि कय मउलिय करु जय पयासु वोल महु पेसणु ताय देहि तें वयणें गंगाणइथलम्मि धत्ता सा धीवरधीय कय परित्त कामाउरेण । तह अक्खयजोणि सउ गंधिणी पारासरेण ॥ १५ ॥ सुक्क मुक्कु गंगा है। चंदवइ णाम पुप्फवइ आय ९७ (16) उद्दालक और चन्द्रमतो कथा पारासरवयणें जेम वासु गउ जणणिवय पेसण गणंतु णि सुणेवि पभणमि दियवरहो अण्णु जायउ रविणा सा चेय कण्णु crafण जइ कुंति कण्ण रवि करइ कण जइ भणहु एव उद्दालु णाम अवरु वि मुणिदु सुइणेतर जारी रहवसेण वाईसरि जोइ पवित्तंवाणि । पारासरपय पणवेवि पासु । मुण पणइ एत्यु जि तउ करेहि । तवे संठिउ सो पावणजलम्भि | वहे कहिउ ति चंदममई काणणे जहि पंचाणणहो झुणी घस्ता - तें कमलु लएवि सुघिउ ता तहि तक्खणेण । हुउ गब्भु मुवि जणणिए थण किण्हंतणेण ॥१६॥ (17) विठओ तिह हओ तवसि वासु । अच्छामि सुतित्थजत्तउ कुणंतु । कुंति कण्णेहि कण्णेण कण्णु । पंहि विदिष्णु । तो मइ जाए महु माय किण्ण कह रहि असुइ माणुसिउ देव । नियतवपावकंपिय सुरिंदु | पज्झरिउ णवरति तावसेण । कमलम्मि ताम सुय रहुवईहे । गंगाजलम्मि विमलम्मि पहाय । घल्लाविया मण्णेवि दुट्ठमई । तहि दिट्ठ ताए तिणविंदु मुणी । 10 5 ( 16 ) 2.b गउं, 3. b णिसुणहुं, b कुंतहि कण्णहि, 4.b चेव कण्ण, a पंडहि, b दिणा for दिष्णु, 5.b जंइ, b भो मई जायहं महुं, 6.b करई वर्णं जई भणहु एउं कह रमइ असुइं माणुसिय देहु, 7.b उंद्दालु णामि, 8.b सुईणतरि b रइव सेण, 9.b मुक्कु गाणईहिं कमलम्मे ताम सुअ रहुवईहि, 10.b चंदवs, b पुप्फवई, 11 b तं for तें, b सुचिरं, a तक्खेणणा, b तक्खणिणा किन्हत्तणेण, a किण्हतणेणा, 12. b हुउं, b जणणिहि थण | 10 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 तहो आसमि जायउ गायकेउ णियताउ गवेसहि ताए वुत्तु ता खिल्लवेल्लि संजोयएण मंजूस दिट्ठ करे धरिवि जाम चंदमइ वि णंदणणेहएण मइ इच्छि मुद्धि ता ताए वुत्तु तो तेण गंपि रहुवइहि पासु । वेयत्थ य पुराणवियाणएण सुउ णं अवयण्णउ मयरके उ । मंजू सहि किउ गंगाहि खित्तु । ण्हतेण तेण उद्दालएण। उग्घाडियवालउ दिठ्ठ ताम । आगय पभणिय उद्दालएण । कुलकण्णह एहु ण होइ जुत्तु । मग्गिय सा तेण वि दिण्ण तासु । कण्णाविवाहु किउ राणएण। १० घत्ता-पुत्तें जाए वि चंदमइह य कण्णा हवइ ।। महु माय ण काइ ता दिउ को वि ण पडिलवइ ॥१७॥ ___ (18) 5 पुणु वि तेत्थु सो खगवइणंदणु पुणु वि विवाहु वरेण गएण वि फणसालिंगणे गम्भहो संभउ गब्भत्थि वि कह णिसुणिज्जइ सत्तवरिससय गन्में पीडिय रइसमए वि वासु उप्पज्जइ कमलहो सुंघणे गन्भु होइ जहि पुवावर अघडिय आलावउ पुणु वि पुणु वि केत्तिउ पयडिज्जइ एरिसु किण्ण मणेणालोयहु णियमित्तहो संवोहणकारणु । णारिहि पुत्तु णारिफंसेण वि । तो वि ण करइ मुटु जणु वि भउ । दुददुरीए कह मणु वि जणिज्जइ। कह थिय मंदोयरि णउ विहडिय। जाए पुत्तें कह कण्णे भणिज्जइ । अवर काइँ किर वोल्लिज्जइ तहिं । तुम्ह पुराणु असच्च पलावउ । जं पयडंतहँ हासउ दिज्ज। दियपवरहो कि मइ आलोयहु। 10 (17) I.b रहुवइंहि कहिउं, a चंदवई, चंदमई, b चंदवई, a णेविसु b मणिवि for मण्णेवि, b दुट्ठमइ, 2.b पंचाणणहं दिट्ठ, 3.5 जायउं णायकेलं, a णाइकेउ, 4.b किंउं, 5.b repeats तेण, 6.b दिट्ठ किर, 7.b चंदमई, b आयविय भणिय, 8.b कुलकण्णहि होइं ण एउ जुत्तु, 9.b दिण for दिण्ण, 10.b omits य, b विवाहं किंउ, il.a चंदगई य. Cf. वायुपुराण, महाभारत (वनपर्व, सभापर्व) etc. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता- हरिसेणसमेउ परवलाइ वलु जिणहि जिह । बुद्धिए मणवेउ विप्प णिरुत्तर करइ तिह ॥१८॥ इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्ठियाए चित्ताए । वहहरिसेणकयाए सरतमसंधि परिसमत्तो ॥ छ ।॥ ७ ॥ छ । * * * (18) la adds वील्लइ वुहयणहियमाणेदणु before णियमित्तहो etc. 3.a फणसा आलिंगणे, b उण वि भउ, 4.b गब्भथिएण, b किह, a मणु व, 6.b किह कण्ण, 7.a सुंधे गब्भ होइज्जहि, a काइ, a तहि, 9.a पयडतह, bजिणई, 13.b डियाए for ट्ठियाए, 14.b संधी परिच्छेउ संमत्तो संधिः ॥७॥छ।॥१६४॥छ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अट्ठमो संधि (1) कर्णोत्पत्ति कथा मणवेएँ पवणवेउ भणि उ एहि मित्त जाइज्जइ । लोइयपुराणु चितंतहँ बुद्धि चिरंतण खिज्जइ ।। छ ।। उववणे जाएविणु पुणु वुहेण सुणु जेम सभायरु कण्णु जाउ तहो पुगु संतइहे अणंतएण तहो लक्खणकलगुणगणविचित्तु तें पुणु जणियउ जायंधु पुत्तु सुउ पंडुरोयजुउ अवरुजणिउ पुणु वि विदुरुए मण्णिवि कुमार पर पंडु पंडरोएण भुत्तु णउ थाइ खणु वि खरुणीससंतु गउ उववणे एक्कहि दिवसे जाम तहि कुसुमसयणे मुद्दडिस दिट्ठ सा लेवि पंडु खणु एक्कु जाम सुहि पणिउ खगवइ तणुरुहेण। सोमप्पहो णामें आसि राउ। हुउ संतणु काले जंतएण। उप्पण्णु पुत्तु णामें विचित्तु । पढमउ णामें धयरट्ठ पुत्तू । तें पंडु जि सो णामेण भणिउ । कीलहि मणि य पिउ लच्छिसार । झिज्जइ अणुदिणु णियतगु जियतु । 10 कहमवि रइ करइ ण परिभमंतु । सुमणहरु सुलयाहरु दिटटु ताम । चित्तंगणाम खयरहो मणिट्ठ । अच्छइ चित्तंगउ पत्तु ताम । 15 घत्ता- पंडुहे मुहुँ जोएवि तें भगिउ मज्झु एत्थ कत्थ वि पडिय। जोयंतु व पिच्छमि सा ण हउ कामरूवकर मुद्दडिय ॥१॥ (1) 2.b चितंताहं, a बुद्धि चिराणीरि कज्जइ, 3.b पभणिउं, bणंदणेण for तणुरुहेण, 4.b सुणे, 5.b दुणु for पुणु, b अणतएण, 6.a गुणगण०, 7.b जणियउं धणविउरुएण, 8.b जणिउं, b भणिउं, 9.b पुणे विउरु एम तिण्णि वि कुमार, b कीलहिं मणि, 10.b वुत्तु for भुत्तु, b दिगय तणु for णियतणु, il.b कत्थवि रइ लहइ ण, 12.a एक्कहि, b लयाहर, 13.a तहि, 15.a पंडु बि मुहु, b भणिउ, a पडिया, 16.a मुद्दडिया। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडु भणिउ एह सा अच्छइ इय वेल्लंतें अप्पिय खयरहो तेज विकाउ णिएवि कुमारहो पुच्छिउ कि सरीरु किस दीसइ ताम पंडु पभणइ सुपाणउ तहो वरपुत्ति कुंति उप्पण्णी एवहि मइ रोइउ जाणेविग तामहु तहि रूउचितं तहो एहावत्थ जाय फुडु अक्खिउ तं णिसुणेवि चित्तंग वोल्लइ रूउ करेवि मणोहरु गच्छहि तो मुद्दि लेविण पंडु थु तत्थ वि जगच्छण हुए तहो दंसणेण तहो कंपु जाउ जाणेवि छइल्लें रत्तचित्त घत्ता - अणुरत्त मुणे विणु णिय दुहिय अंधयवुट्ठि गरेसरु । तुह देइ अवसु जारत्तवसु ताहे सो वि धम्मीसरु ||२|| (3) डुक हवे जाम पाय जागेविण जणणियाए संजाउ पुत्तुलक्खहि जुत्तु चंपापुरवर परमेसरेण आणविउ घरि मंजुसु जाम वालु विकिरणियकर धरिय कण्णु उता अउत्तहो सो वि पुत्तु १०१ (2) सुह अज्जिउ कि कत्थ वि गच्छ I लय मुद्दिय चल्लिउ णिय णयरहो । किं कारण मित्त तुहु झीणउ । भणु मित्तहो कर काइ ण सीसइ । अंधविट्ठ अतिथ इह राणउ । पुव्वयालिसा महु पडिवण्णी । दे ण थिउ अवहेरि करेविणु । विरहाणलजालोलि पलित्तहो । तुह पुच्छंत हो गुज्झण रक्खिउ । मुद्दिय एह कामरूविणि लड़ । सुहु पच्छण्णइ ताए सहु अच्छाह । 1 उ पुरवरु ससुरहो तणउ जेत्थु दरिसि कुंति अप्पाणु तेण । कंटइय सरीरहे सुरथराउ । सा रमिय तेण वासरइ सत्त । दिवस कुंतिहि गब्भु ताम । णिहुण लुयाविय पुत्तियाए । मंजुसि छुट उहि खित्तु | दिट्ठउ आइच्चणरेस रेण । उघडिय वालउ दिट्टु ताम । किउ राएँ तें तहो णामु कण्णु । पंडु कष्णु पत्तु पुत्तु । 5 10 5 ( 2 ) 1. b भणिउं, b गच्छई, 2.2 वोलंते, b omits लय मुद्दिय etc..... यरहो, b omits कि कारणेण etc.... झीणउ, 4.b काई, 5 a ताव, b पभणई सुपहाणउं, a अंधकविट्ठि, bणाम for अत्थि, b राणउं, 7.b एवहि मई, 11. a लहुं for सुहु, a पच्छणु, a हु for सहु, b सहुं, 13 a अवस जारत्त जसु, b ताहं, b वम्मीसरु । 10 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता • पंडुहे अगुरत्त कुँति मुणिवि सा तहो दिण्ण णरेसरेण । तह अवर वि मद्दि णाम तणय किउ विवाह पुगु आयरेण ॥ ३॥ (4) पाण्डव कथा तो भायर परविट्ठिहे तणया धरो दिण्ण पुव्व भणिया पंडु सुउ जेण ण को वि मुणिय पुणु भडचूडामणि भीमसेणु मद्दीहि जणिय वे पुत्त जमल हो पइव धारिया हे जरसंधु णाम परवल चमक्कि एए सयल वि गुणरयणरासि पक्खिमणो रह मद्दियाहे सुय पंच वि पंडव सुक्ख हेउ १०२ चिरु रज्जु करेविणु गुणमहंत सम भाविय सुहदुह सत्तुमित्त घत्ता - पंडुहे पच्छहि दुज्जोहणेण सह महिकारणे करेवि रणु । दाइ हणेवि सुहिपरिसरिय णिय वलेण थिर रज्जे पुणु ॥४॥ (5) गंधारि णाम णवजोव्वणिया । सोहग्गरासि मणसि य मणिया । कुंतीहि जुहिट्ठिल पुत्तु जणिउ । पुणु अणु अरिगणसवण से । णामेण भणिय सहएवणउल । सउ सुयहो जणिउ गंधारियाहे । महिमंडले होंतर अद्धचक्कि । तो अद्धमहि सहोभिच्च आसि । कुंतीहि तिणि दो मद्दियाहे । साहज्ज कर प्पिणु वासुएउ । तर लेवि महीयलि परिभमंत । माणावमाण कय सरिसचित्त । 5 (3) 1. b तणउं, 2.2 पच्छणें, 3 a तहि for तहो, 4.b वासरई, 6.b णिहुअं लुआविय, a rubbs the two letters and writes ण after frg, 7.a लक्खणहि, b छुद्ध, 9a मजूसु, b कत्थविउ सो मंजूसु ताम for आणाविउ etc. . . जाम, b उघाडिय, a omits उग्घाडिय etc.. ताम, 10.a णाउ for णाम, b कण्णुं, lla अउत्तउं, b पंडुहे कणु, a पव्वत्तु, 12.a णरेसरेणा, 13.a आयरेणा । 10 ( 4 ) 1a तह, b तणिय, b जोव्वणिय, 2 b भणिय, b मणिय, 3.a पंडु सोज्जेणि ण को मुणिउ, b मुणिउं, 4a अज्जणु, a सउणिसेणु, 5. b महिय, a सहएउ, b सुयहं, a गंधारियाहे, 7.a जरसिंध, 8.a दो महियाहि, 10.b साहिज्ज, a करेविणु, lla सह, b तणु for रणु । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ 5 वावीसपरीसह खीणगत्त तहिं णिच्चल थिय तणु परिहरेवि णिम्मलु आऊरिवि सुक्क ज्झाणु गयमोक्खहो सासयसुहहो तिण्णि गय लहुय भाय सव्वत्थसिद्धि कण्णाइ एम उप्पत्ति भणिय कहि सुरवर हि माणव वराय कहि एक्क वहुय वहु हवेइ सत्तुंजयगिरिवरसिहरु पत्त । उवसग्ग घोरु अरिकिउ सहेवि । उप्पाए वि केवलु विमलु णाणु। ईसीसि कसाउ वहेवि विण्णि । अवरहे नवे अवस लहंति सिद्धि । ण वि रविजमपवणिदेहि जणिय । अघडिय संबंधालाव आय । तं वोल्लिजइ जं संभवेइ । 10 घत्ता- अण्णारिसु भारहु वित्तु जणे अण्णारिसु वासें भणिउ । गट्टरपवाहगामिडाजणेण अलिउ वि तं सव्वउ गणिउ ।।५।। (6) महाभारत कथा समीक्षा भारहु विरए वि वासें संकिउं होइ पसिद्ध ण पाइउ मइ किउ । इय चितंतु कहि वि छणि गंगहे व्हाणकज्जे गउ विमलतरंगहे । वालुयपुंज तीरे विरएविणु तहिं तं भायणु गूढ छुहे विणु । अहिणाणत्थु फुल्लु सिरि देविणु ण्हाइ जाम सइ जले पइसेविणु । तो लोएण वि पुंज करेविणु फुल्लाहिं पुज्जिय लिग भणेविणु। 5 बासु जाम किर तीक णिरिक्खइ वालुयपुंज णिरंतर पेक्खइ । को लोएँ किय को किर मइँ किउ एउ वि ण वियाणइ मणे विभिउ । देववियण्णिय लोयसमूहें ते जइ भंजमि भायण लोहें । तो अण्णाणिउ जण मणि मण्णइ वासु करेवि देउ अवगण्णइ । तो वरि भायणु जाउ अम्हारउ अयसपुंज भंजणे गरुयारउ। 10 (5) 1.b रज्ज, 2.a मेस्तु, b सम for कय, 3.b सित्तंजय, 4.a तहि, 7.b अवरहिं, 8.4 उप्पण्ण, bण उ. b पणिदेण, 9.b कहिं माणवि, 10.a कहि, b वहुय, b repeats वहु, 10.a वोल्लिज्जइ, Il.b अणारिसु, b भणिउ, 12.a गहुरि०, b गणिउं । (6) l.b मई, 2.b एउ for इय, b कहि मि, b तरेंगहे, 3.a गुढु, 5.a पुंज, a फुल्लाह, 7.a मइ, b वियाणइं, 9.b अण्णाणिउं, b मण्णइं, b देव अवगण्णइं, 10.a वर, b अफारउ, a अजसु पुंजु, a गरुआरउ, il.a रंगा सोहह, 12.a हवई जई, b इ for इय Cf. अमितगति धर्मपरीक्षा, 15.64-66. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ घत्ता- जाणेविण जणु गयाणुगइउ कय रंगावलि सोहहो । भारहु पसिद्ध फुडु हवइ जइ इय मुणेवि गउगेहहो ।।६।। (7) गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । पश्च लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ।।५।। इय मित्तहो भारहो भासिविणु माणसवेउ भणइ वि हसेविणु । अवरु वि परपुराणु दरिसमि तुह एहि जाह पुणरवि दियवरसह । इय भणेवि होएविणु वंदय विण्णि वि पंचमदारें पुरि गय। 5 तहिं पुणु वायसाल पइ सेविणु। हेलए भेरिघट वाएविणु । कणयहो बीदे खगाहिवणंदणु थिउ लीलए परवाइ वि मद्दणु । एत्थंतरे दिय जय जसकारणे ढुक्क महाभडाहं भडणं रणे। पभणिउ तेहिं वियक्खणु दीसहि ____कि अजिणंतु महासणि वइसहि । वाइउ हणइ भेरि किर एविण जय घंटा पुणु वाउ जिणेविण । 10 पइँ पुणु सत्थणाणमाहप्पे तिण्णि वि कियइ झत्ति णियदप्पें । तो रत्तंवरेण पडिजंपिउ इय वयणे महु हियवउ कंपिउ । धत्ता- हउँ सत्थु ण-याणमि वाउ किह करमि वुहेहि समाणउ । कोऊहलेण इउ सयलु किउ खमहो ण होमि सयाणउ ।।७।। शृगाल कथा तो दियवरहें वुत्तु किं दिक्खिय कि परमत्थु तवसि किमाइय ता तें भणिउ भणमि जइ भावहु तो दिय भणहि सच्चु वोलंतहँ कहिं अच्छिय कि सत्थुण सिक्खिय । कहहु पयडु कि कज्जे आइय । इय मझत्थभाउ दरिसावहु । को पडिकूल हवई नयवंतहँ। (7) 1a लेका न, a पारमार्थिका, b परमार्थिक, 2.a पस्य adds after । अयं श्लोकं चकारा ।। 3.b भणई विय सेविणु, 4. दरसमि तुहु, b जाह, 5.a होएविण्णु, a पुच्छवि for पुरि, 6.a तहि, a वए विणु, 7.a कंचणवीढे, 8.a भडाह, a रणि 9.b पभणिउं, a वयक्खणु, b वइसहि, no.a भणइ, b हणइं, ll.a पइ, a कयइ, 12.b परिजंपिउ, 13.a हउ सत्थ ण याणवि, b जिह कर कहेहि समाणउं, 14.b सयाणउं । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्तंवरु पभणइ जइ एरिसु एत्थु जि पुव्वदेसि पंडियणरि तें विहारि अम्हइ विणि वि जण णवर घणागमे घणजल तित्तइ गुरु रत्तंवराई किर रक्खहु तहो भएण वासइ गिण्हेविणु णिसुणहु मज्झ कहा णउ जारिसु। 5 महु पिउ वुद्धभत्तु विक्कमपुरि । पढ़िउ समण्णिय वज्जिय मण । सो सणत्थु जहिं आइवि खित्तइ । दोण्णि सियाल एंत ता पेक्खहु । अद्ध वि णिम्मिय थहि चडेविणु। 10 पत्ता- को वारउ जाहि तहि करहु रत्तभिक्खु ता णिग्गय । जं वूवेहि थ हु अण्हहिं सहिउ उच्चएविणु णहे गय ॥८॥ (9) जोयण वत्तीस कमेवि तेहि भक्खिज्जहु भुक्खवसे ग जाम सुणहहँ भएय ते णट्ठवेवि पारद्धिएहि तेहि वि समाण णियदेसु विदेसु वि ण उ मुणेहु पुव्वं चिय लहु केसइँ सिराई तउवरि रत्तंवरवउ धरेहु इय वउ लएवि महियलि भमंत तो दिय भणे हि जे झुट्ठ आसि तें भणिउ कि ण एयारिसाइ अडइहि मेल्लेविणु जंवुएहि । ससुणह पारद्धिय पत्त ताम। अम्हइ पुणु थूहहो उत्तरेवि । गय एक्क णयरु भयकंपमाण । चितिउ एवहि किर किं कुणेहु।।..5 एयइँ साहीण. चीवराई। घडियहि सत्तहिं भोयणु करेहु । वहुकालें दुम्हह गयरु पत्त । ते भजिवि तुह किउ अलियरासि । तुम्हाण पुराणइ जारिसाइ । 10 (8) la कहि, 2.b परमस्थ, b किमाइय पयड कि किज्जे, 3.b जइ for इय, 4.b भगइ हि वोलंतह. a omits को पडिकुलु हवइ नयवंतह, 5.b पभणहहिं bणलं, 6.a बुद्ध भत्तु, 7.b आम्हई, a पढहु. b पढिउं, 8.b तित्तइं. a सो सणत्थि जा आयवेक्खेतइ, b खित्तई, 9.a रत्तंवराइ, a रक्ख हो, 10.b वासई, a उप्पत्ति च्चिय थूह for अद्ध वि णिम्मिम थहि, lla जाहिर, b कूवारउ तहिं किरहु, a रत्तसिक्ख, 12.a वूववि थू, a अम्हहि, a उच्चएवि पहे ण गया। (9) l.a तहि for तेहि, b अडइहे, a जंतुएहि, 2.b ससुणहं, 3.b अम्हई, 5.a विद्देस, b एवहिं, 6.a केसइ सिराइ एयइ साहीणय चीवराई, 7.b तोवरि, a घडियहि सत्तहि भोणुय करेहु, 9.b भणे हिं, b तुहुँ, 10.b भणिउं. किण्ण एयारिसाई, a पुराण पुरागइ, b पुराणई जारिसाई, 11.b भणहि पुराणहि, a ज्जइ, 12.b ०वयणगई। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ घत्ता-दिय भणहि पुराणहि अलिउ जइ तो कि ण उ पयडिज्जइ । णिसुणेविण दियवरवयणगइ वंदएण पभणिज्जइ ।।९।। (10) राम-रावण कथा जइयहु सोयसमेउ वियक्खणु तहि खरदूसणु रणे मारेविणु मायाकणयहरिणु दरिसेविणु एत्तहे जा पियवाणररायहो सो रामें रणे वालि वहेविणु मग्गिउ पेसणु परउवयारा भणइ रामु पियविरहु सुदूसहु तो सुग्गीवें अरिकरिकेसरि दिट्ट सीय पुणु तेण णवेविणु हणए लंक विद्धंसवि आइय 5 गउ वणवासहो रामु सलक्खणु । अच्छइ जा ता रावणु एविणु । गउ लंकाउरें सीय हरेविणु। वलिणाहित्तभज अणुरायहो। दिण्णु तासु तो तेण णवेविणु। भणु भणु कि किज्जइ णरसारा। केणविं णिय महु कंत गवेसहु । पेसिउ हणुउ पत्तु लंकाउरि । आसासिय पियवयण कहेविण । रामें सियदसण अणुराइय। घत्ता- वाणर कर उच्चाइय वि गिरिहि उयहिसेउ वंधाविउ । सुग्गिवें पुणु सेणासहिउ राहउ लंकहि वि पाविउ ।।१०।। इय वम्मीयमहारिसि भासिउं अस्थि कि ण जं मइ उवएसिउ । तो दिएहि पडिउत्तरु दिज्जइ एउ अणारिसु केम भणिज्जइ । तं णिसुणेवि माया रत्तंवरु भणइ पंयड वाइ पंडियवरु । पंच चयारि तिण्णि दो गिरिवर । लेवि जंति वहु जोयण वाणर । तं पि सच्च मण्णिउ तुम्ह हि जहि मद भासिउ पमाणु कि ण उ तहि । अहवा लोउ जि एरिसु भासइ पूसंतउ ण कयाइ वि दूसइ। .. एक्कु पव्वंगु पंच गिरि लेविणु दूरि जाइ जइ णहु लंघेविणु। । तो दो जंकय कइवय जोयण थुहु ण णिति अम्ह खायणमण । । (10) la रमु, 2.a तहि, 3.a मायाकणवहरिणु, 4 a वलिणहित्त०, b वलिणा हित्तभग्ग, 5 b रणे जारु वहेविणु, b दिण्ण, b ता for तो, a णवेप्पिण, 7.b भणई, b inter णिय and महु, 10.b हणुएं लंकविहंसय आएं, b अणुराएं, 11.b omits वि, b गिरिहिं, b उवहिसेउ, 12.सेणसहिउ, bomits वि। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरिसु वयण सच्चु जइ भासह कि वहुएण जुत्ति आलोयहु विद्याधर वंशोत्पत्ति कथा णितुणि जेम एयहु सुपसिद्धइ जइह रज्जे थविवि भर हेसरु भवियजणमणकमल दिणे सरु एत जियसालय संतरे पेणु सारिवि गुण अणुराइय कच्छमहाकच्छ हिवतणुरुह पणहि नाह किंण संभासहि अहह सामि कि ण अवरुंडहि महिय भुंजाविउ यि सुयसउ अहवा का एत्थु कोऊ हलु इजा तेहि जिणग्गइ जंपिउ अवहीणाणें कज्जु मुणेविणु १०७ घत्ता - मणवेए पुणु तहि सुहि भणिउ सुग्गीवाइ ण वाणर । तह रावणो वि रक्खसु ण फुडु सवल वि विज्जाह ॥ ११ ॥ (12) तो महु वयणु काइ उवहासहु । दियहु मणिय मणि संसउ ढोयहु । 10 tes रक्खसवाणरचिंधइ । सिद्धत्यवणि पढ मजिणेसरु । पडिमा जोएँ थिउ परमेसरु । पहिय आसि जे ते तित्थंकरे । जहि जणु तहिं णमिवि ण मि पराइय | S जिणु पणवेविणु थिय पासहि बुह । णिन्भरु पुग्वणेहु ण पयासहि । किं ण पसायाहि रणहि मंडहि । अहं आलावेण जि संसउ । कज्जपराइउ सव्वह सीयलु । ता धरणिदहो आसणु कंपिउ । तुरिउ जिदिपसु आवेविणु । ( 11 ) 1.5 किन जिह मई, 2.2 हिज्जइ इउ अण्णारिसु, 3 a तं सुणेवि, b भई पयंडवाई पंडियणरु, S a तें पि, b मणिउं तुम्हहिं जहि मई, b तहि, 6a सं from पुसंतउ is corrected as छं in the margin 8. जोयणु थुहु णाणंति, 9.b काई, 10 a मणु संसइ, 12. a तेह for तह | 10 ( 12 ) 1. b एयहं, 3.2 भवियणजण०, b तउलेविणु भवियकमलणेसरु, 4.a असि, a तित्यंतरे, 5.a जहि जिणु तहि 6a पणवेष्पिणु जिण पासहि भासहि for जिणु पणवेविणु etc. वुह b पासहि, 7.b पभणहि किण्ण नाह सभासहि, b पयासहि 8.b करिकरभुर्याह किण्ण, b किण्ण एसायाहरणई मंडहि, 9.a adds विणु कज्जेण देहु कि दंडहि before महियलु etc... a अहह, 10.b काई, b कज्जु, b सब्वहं, lia तेहि, 13.a झाणें, 14. b पच्छणु, b सव्वु, Cf. पद्मपुराण 5.1-562. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ घत्ता- जिणरूउ विउविवि फणिवइणा झाणालंबिय वा हो। विज्जावलेण पच्छण्णु किंउ सव्वरूउ जिणणाहहो ।।१२।। (13) राक्षसवंशोत्पत्ति कथा झाणु खमविवि हत्थें फंसेवि पुणु सुरणरविज्जाहर पुज्जउ पणविवि जिण पडिविव फणिदहो उत्तरदाहिणसेढिहि सामिय पुरिसपरंपराए पवहतिए तहिं पसिद्धे वेयड्ढमहोहरे पुण्णमेहु णामें खयरेसरु ताम सुलोयणेण खयरेसें णवर पुण्णमेहे ण रणंगणे तो तहो णंदणेण सह सक्खें महुरालाउ सण्णेहल भासेवि । दिण्णउ धरणिंदे वेविज्जउ । गय सविज्ज वेयड्ढगिरिंदहो । जाय णरेंदणहंगण गामिय । वोलीणइ वहु णरवरपंतिए । रहमंजरिचक्कवालए पुरे । रज्जु करइ णं सम्गि सुहेसरु । वेढिउ पुरवरु दाइय रोसें। तहो सिरु खुडिउ मुइय अमरंगणे । पुण्णमेहु हउँ हयपडिवक्खें। 10 घत्ता- तो पुण्णमेहु णंदणु समरे परिसेसिय णियसाहणु । रणे सहसक्ख हो मिल्लेवि फलु णट्ठउ तोयदवाहण ॥१३॥ (14) हंसविमाणे णहे गच्छंतउ सरणु ण कोवि कहि मि पिच्छंतउ। पणविय मणुयसुरासुरविंदहो समवसरण गउ अजियजिणिदहो । तहिं अमरेसरेण मं भासिउ ते सवइहवइयरु उब्भासिउ । भणिउ सुरिंदें भउ मिल्लेविणु जिणु पणवहि करमउलि करेविणु । जिणु पणवंतह अरिभउ फिटइ गिविडु वि णियलणिवंधणु तुट्टइ। 5 जिणु पणवंतह वियलइ कलिमलु सुहणिहाणु उप्पजइ केवलु । तो सहसक्खु वि तहो पइलग्गउ झत्ति पत्तु तहिं कोववसंगउ । माणथंभु अवलोइउ जावहि माणमडप्फरु विहडिउ तावहि । विणि वि णिरु अप्पाणउ णिदेवि णरकोट्ठए णिविट्ठजिणु वंदेवि । (13) 1.b सणेहउ, 2.a पुज्जिउ, 5.a inter. वह and णरवर, 6.a तहि पसिद्ध, 7.b रज्ज, a सुरेसुरु, 9.a समरंगणे for अमरंगणे, 10.a तहे, a हउ, b हय हउं पयडियवक्खें, a पडिवखे, Ila omits णिय, 12.b रणे, b मेल्लिछलु । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ पुच्छंताह ताह संखेवें भणियभवंतर गण हरएवें। 10 पत्ता- एत्थंतरे रायं णिसियरहु भीम सुभीमहि वुत्तउ । घणवाहण अम्हह पुत्तु तुहु होतउ आसि णिरुत्तउ ॥१४॥ (15) रक्ख सविज्ज तेहिं तहो दिज्जइ णेहवसेण किं ण किर किज्जइ। दिण्णउ णवमुहकंठाहरवउ तं सिरिफल जं बिहलुद्ध रणउ । जोयणाइ तीसरवण्णी सुरणयरि व लंकाउरि दिण्णी । अवर वि छज्जोयण वित्थारें सह पायाललंकमणि सारें। तहो आएसें गहिय पसाहणु लंकपइठ्ठ गंपि घणवाहणु। रक्खसधय खयरहु पढमं कुरु लीलए रज्जे परिट्ठिउ णं सुरु । घडियाहरआहणणरवालए परियलियए लीलए वहुकालए। गय तिसठि सिंहासण जइयहु किति धवलु उण्णज्जइ तइयहु । सिरि भुजंतहो गुणअणुराइउ' तहो महएविहि लच्छिहि भायउ । खयरणाहु सिरिकंठु महाइउ रयणउ रहो होतउ तहि आइउ। घत्ता- अच्छइ वि कह वि वासरइ तहि णियणयरहो जा चल्लइ । अइणे हाउरु भयरहियउ किति धवलु ता वोल्लइ ।।१५।। 5 10 (16) वानर वंशोत्पत्ति कथा जं माणुसु णिवडइ सपियारउ तं फल दुक्कियकम्महो केरउ । तो वरि एक्कत्थ वि अच्छिज्जइ मज्झ विहूइए सयलु वि पुज्जइ । (14) l.a कहमि, 2.b वंदहो, 3.a तहि, 4.b भणिय, 5.b पणवंतह, a णिगड णिवंधण, 6.b पणवंतह, 7.a पहि for पइ, a झति, a तहि, 8.b अवलोइय b तावहिं, 9.5 अप्पाणउं, a वइट्ठ for णिविट्ठ, 10.b पुच्छंताहं ताहं, a दरएवें, ll.b रायह, a भीमसुभामहि, 12.a अम्हह, b तुहु, See the पद्मपुराण of रविषेणाचार्य, 5.96-148 for Bhavantaras of मेघवाहन & सहस्रनयन & others. (15) la तेहि, 2.a णवमुहु, b कंठाहरणउं, b विहलुद्धरणउं, 3.b जोयणाई, 4.b लंकमण, 6.b खयरहं, a परिठ्ठउ, 7.b परवाए and in margin, b writes घडियाहरणाहरणखालइ पाठांतर, 9.b भुजंतह, b भाइउ, 10.b इह for तहि, ll.b अच्छेवि कहवासरई, a चल्लइ, 12.b अह for अइ, b भयरहिउ । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जं जं कि पि मह घरि चंगउ तं तं सयलु वि तुझ जो जोग्गउ । महु सिरिकंतु अणेयइ दीवइ भुंजहि णाणारयण पईवइ। ताहे मज्झे जं भावइ चित्तहो लइ किर किं णउ दिज्जइ मित्तहो। 5 अब्भत्थणहि भंगु जहिं किज्जइ तित्थु जलंजलि णेहहो दिज्जइ । मण्णिउ भयणीवइ अभत्थिउ वाणरदीउ तेण सो पत्थि उ । तेण वि दिण्णु तासु अवियारें गउ सिरिकंठु समउ परिवारें। दिठ्ठ तेण तहि किक्कजि महिहरु किक्कजि णाम कराविउ तहि पुरु । तहि वाणरहि समउ कीलतहो गउ वहु कालु सुक्खु भुजंतहो। 10 घत्ता- चिरु रज्जु करेविणु तउ करिवि गउ सग्गहो सिरिकंठपहु । तहो लग्गि वि गरवइ ठणि पुणु हुउ णिउ णामें अमरपह ।।१६।। (17) एत्तहे कित्ति धवल संताणइ विमलकित्ति लंकाहिउ जायउ तहो सुय अमर पहु हे परिणंतहो ते पिच्छंति भय गय णववहु मा रहो तं जें वाणर वि लिहिय सिरिकंठहो लग्गेविणु वाणर णउ दिज्जइ वाणरहो जि थामें तो तुट्टेण तेण पोमाविय इय घणवाहणु रक्खसचिधीं हुउ पसिद्ध पयडु वि किं सीसइ घणवाहणवंसहो हुउ रावणु सत्तइहे उप्पण्णमहाणर गए सत्तमणरेंदि सुहथाणइ । दो हु वि विउलु णेहु संजायउ । ___ मउ थणि विलिहिय वाणर तहो । भुच्छिय जा ता कुइउ अमरपहु। मंतिहि ताम कुलट्ठिदि साहिय। 5 जायइ कुलदेवयाइ गरेसर । वाणरदीओं जि आयहो णामें । मउडि छत्तिधयचिधि लिहाविय । सिरिकंठ वि वाणरचिधि । करि कंकणु कि आरसि दीसइ । सुग्गीवाइय सिरिकंठहो पुणु । मिविणमिह वंसि जे वाणर । घत्ता- वाणर तिरिक्खजाइहि भणिया रक्खस पुणु सुर वितर । __ रणु मिलइ ण वाणर रक्खसहो किर ए वडढंतर ।।१७।। (16) la णिव्वडइ, 2.a एकत्थ, 4.b सिरिकंठ अणेयइं दीवई भुजाहि, a देवइ, a पईवई, b पईवई, 5.bणलं, 6.a जहि, b किज्जई, b दिज्जई, 8.b मणिउ, a अब्भत्थउ, b अब्भत्थिळ, b दिणु, b गउं सिरिकंठ समउं, 9.b तेण तहि किक्कु जि णामि कराविउ पुरवरु, 10.b वाणरिहि, b गउं वहुं, a समउं for सुक्खु, ll.a करेंविणु, b तउ, b सिरिकंठ पहु, 12.a णवमए for परवइ, b मवरइं। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं विज्जाहर विज्जावलेण तं हवइ कयाइ वि जइ हवेड परवालि सुग्गीवहो कलत्तु लहुभाइमहिल गुरुभाइयासु णिक्कट्ठे विण उसा अवहरेड सुणि गिरिवियाढि लच्छीसणाहु नहो तणिय तणय णामेण तार मग्गतेण वि ण वि लद्ध कण्ण जाजा सुविहिय सा तहो कुमारि अपणु पुण्णहीणउ गणेवि एक्aहिंदि किर सुग्गीउ जाम विज्जावलेण सुग्गीवरूउ सुग्गी व विणुखणे वाराविउथिउ भग्गाणुराउ सुग्गीव जुयले मोहियमणेण १११ (18) घत्ता - वहु कालें कंजियभोयणेण वहु विज्जउ साहेप्पिणु । सहसगइ नियइ सुग्गीवछल तारा खेरि वहेप्पि | ।। १८ ।। (19) उच्चाइय गिरिवल अरिछलेण । समुह संभवेइ । किर हरिउण एरिसु वयणु जुत्तु । णियधीस रिसएउ जणे पयासु । किं वालि महाणरु आयरेइ । उत्तरसेढि जलसिहुणाहु | रूहसगइ खगे से वार वार । पिउणा सुग्गीवहो णवर दिण्ण । अवरवरही पाविय विरहमारि । वणि थिउ विज्जासाह मुणेत्रि । वकीलए गउ सहसगइ ताम | करिऊण पुत्तु तारासमिउ । पइसइ ता विडेण वियक्खणेण । पेक्खहु जारु वि घरसामि जाउ । पर अप्पु ण जाणिउ परियणेण । 5 10 ( 17 ) 1.a संताणई, b णेरंदसुहाएई, a सुहथाणए, 2.b लकाहिउं जायउं दोहि मिलियइ णेहु समायउ, 3 b अमरपहृदि, b माई for मउ, b inter. विलियि and वाणर, 4.b णववहुं, a adds जा in margin before मुच्छ्यि, b कुयउ अमरपहु, 5.b ति जि for जं जें, 6. b जायंई कुलदेवइ. 7.a णा for ण उ, b दिज्जइं वाणरहु मि थामें 8 b पोमायउ, b चिधिधयछत्ति, 9 a घणावाहणु, b घणवाहण, a वाणररिद्धे, b वाणरचि 10. b हुउं पसिद्धु पयलउ कि सीसइ, b कि दप्पणु दीसई, lla वंसुब्भउ रावणु, 12.a ofवणमिहि, a वंस, b पहु for जे, 14.9 मिलई ण वाणरक्खसहो, b डु अंतरु ...1 5 ( 18 ) 1.b adds विहार after विज्जाहर, b उच्चायहि, 2.a बंधणहो समु व संभवेइ, 4. b जग for जणे, 5 a उवहरेरु, a महाणर, 8.a मग्गते तेंण लद्ध, 9 b सा पुणु for पाविय, 11a साहेविणु, 12.5 नियई । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अद्धोद्धी जायउ सयलु सेण्णु विडभडहो सत्त अवखोणहीहे सत्तहि सुहु खलगल कालपासु ससिकिरणे वालिहि णंदणेण उच्चइ जइ ठुक्कहु मरहु अज्जु दइवें सुग्गीवही पुण्णु भिण्णु। ___ सहु मिलिउ अंगु अरिखोहणीहे । अंगउ पुणु थिउ सुग्गीवपासु। तारा रक्खिय रिउमहणण। जो जिणइ सतारउ तासु रज्जु । 10 घत्ता- ताणंतरि भिडियइ वलइ रणि मंतिमंतु तामंतहि । जुज्झउ अवरुष्परु विज्जवलु कि विहियहि सामंतहि ॥१९।। ता मूल णराहिव अभिडिया दोहिमि चिरु गुरु संगामु जाउ अवमाणिउ ति सुग्गीवराउ एत्वंतरि खरदूसणु वहेवि अच्छइ जहि राहउ हियकलत्तु पणवेवि रामु ति भणिउ एव ता पुच्छिउ वइयउ राहवेण विड सुग्गीवें एयहो कलत्तु संपत्तु एहु सूररयउ जाउ । तुम्हहँ पयाउ जाणिउ अणेण (20) ज वेवि करि दसमावडिया। सहसगइ वि वहु विज्जासहाउ । हिंडइ वणेण वणु णठच्छाउ । सत्तु विराहिउ णिउ करेवि । पायाललंकं सुग्गीउ पत्तु । हउँ तुम्ह सरणु अणुसरिउ देव । एत्यंतरि वोल्लिउ जंववेण । अवहरिउ रज्जु ति कलिमलंतु । सुग्गीउ कयद्धय खयरराउ । जं खरदूसण हयलक्खणेण। 10 घत्ता- परितायहो जा विवरीय मई पियविरहेण ण किज्जइ । परकज्जु सकज्जहो अग्गलउ उत्तमणरहि गणिज्जइ ॥२०॥ (19) la इकहि, 2.a करिउण, 4a उग्गापुराउ, 5.5 जुयल, b जाणिउ, 6.b सेणु, a देइवें, 7.a oभडह, a अक्खोहणीहि, b सहुं. a अरिखोहणीउ, 8.b सत्तहिं सउं, 10.b जिणई, 11.b भिडियई वलई, b तामंतहि, 12.a बुज्झहु, b जुज्झउं, b वहियहि । (20) 1.b तो, णराहिया, 2.ba दससयगइ बहु, b सहसगई, b विज्जासहउ, 4.a खरदूसण, a तहि, b विराहिउं णिलं, 5.b अच्छई जहि राहउं, a कलत्त, 6.bति भणिउं, a हउ, a अणुसरणु, 7.a खगवरु for वइयरु, 8.a रज्ज ते कलमलंतु, 9.b सूररय, b कियधय, 10.a तुम्हहं, b पयाउं जोणिउ, 11.a fण for ण, 12.a परकज्ज, b अग्गलङ, b गणिज्जइं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम पिययमविरहाउरेण चितिउ कि जीवंते परेण तं जीविउ जहि सुहि जणिराउ भयभारुय जीवहँ करुणभाउ जोव्वणु वियलउ तव चरण एण अह पिययण सुरया चरणएण अह सरणागय भय नासणेण परधणअहिलसुण होइ तेण ता करमि सहलु पत्थिउ अगेण farnagरहो उ रामु जाम सुग्गीवो भिडियउ रणे पडु सज्जिउ ता हुय टंकारएण तारा दाणें णं जीविउ दिण्णउँ जीवउ णरु जो परउवयारउ उत्तम परक्वें पीडिज्जइ तार जाय पुणरवि सुग्गीवहो जो ण कजजपरिणइ परिभावइ जो हरिसे ण कज्जु विणासइ परयारहो णामें लज्जिज्जइ जं परयार सुक्खु अहिणं दिउ एरिसु ताराहरणु पसिद्धउ ११३ (21) घस्ता- ता रामें रूठें सिरकमले तोडिवि विडसुग्गीवहो । तारापिययम रज्जेण सहु करे लाइय सुग्गीवहो । । २१ ॥ ॥ (22) समदुहुँ गणेवि करुणाधरेण । जो अवत्थइ पच्छिउ परेण । मुणिवरु अह दाणणिहाणु राउ । गब्भे विहरउ अहवा आभाउ । अह खिज्जउ परउ च पारएण । मरणविहि विहिय सण्णासणेण । सयलु वि परदारपरम्मुहेण । जहि परउवाउ ण उ बोल्लिएण । इयमंतिऊण सह पियमगेण । जग्गेवि विडसुग्गीउ ताम । वामेण ताम कोवंडदंडु | गविज्ज कामरूविणिभएन । एम कवणु पालइ पडिवण्णउँ । रामचंदु जिह लोय पियारउ । अहम अण्णकज्जिजीविज्जइ । मरण जि केवलु विडसुग्गीवहो । सो अइरेण मइवय पावइ । ता सुवरिणि घरसंपय दीसइ । असु मरण वहु दुहु पाविज्जइ । सो भवे भवे हउ जणणिदिउ । जं परत्तु तं अप्पविद्धउ | 5 10 ( 21 ) 1a समु दुहु, 2. जीवेंते, b अवहत्थई a पराउ for परेण, 3 b जगियराउ, a दाणणिहाण, 4. a खयभीरुहजीवह, a विहवउ, 5.b जोवणु, a. omits अह खिज्जउ परउ च पारएण before अहं पिययम etc. 7.a omits सयलु वि etc. to line 8th ण उ वोल्लिएण, 8. b होई, b परवाउ, 9. b तो for ता, b सहुं, 10.a जाव for जाम, a ताव, lla omits सुग्गीवहो etc. to line 12th कामरूविणिभएण, 13.a विडसुग्गी हो, bfवडसुवहो, 14 b सहुं । 5 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ वणवे जिह एउ अजुत्तउ तिह अवरु वि विडइ परवृत्तउ । घत्ता- किर वाणरेहि पिसियर हणिय एउ वि अलिउ पसिद्ध जणे । विज्जाहरसेणहि अइ वल वि काइँ करइ हरिसेणु रणे ॥ २२॥ इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गाहिट्ठियाए चित्ताए । बुहहरिसेणकयाए अट्ठमसंधी परिसमत्तो ॥ छ ॥ ८॥ छ ( 22 ) 1.a दिण्णउ, 2.a समइंदु, b लोइ, 3. b अहमें, 4-a केवल, 5.b ०परिणई, a महावइ, 6. b हरिसेण, a कज्ज, विण्णासइ, 7a अजसु, 8. b जें for जं, a सोरखु, 9 a पडिधुत्तउं for परत्तु तं 10.a अवर, lla वाणरेहि, 12. काह, 14 b परिछेओ समत्तो, a संधि ॥८॥ 10 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. नवमो संधि (1) कवि खादन कथा होएवि सेयंवर ते खेयरवर छठें दारि मणिभूसणे । गय वंभणसालहे भरिख लहे थिउ मणवेउ कणयासणे ।। छ । णवभेरिणिण्णाउ सुणेप्पिउ । आयउ को वि वाइ जाणेप्पिणु । दियवरेहिं आवेविणु पुच्छिय जाणहु कवणु सत्थु कहि अत्थिय । वाउ वि कवणु को वि तुम्हह गुरु भणइ ताम मणवेउ सियंवरु। 5 जाणहु भम्मह सत्थु पसत्थउ वाउ वि जि माणउ असमत्थ उ । किज्जई मोडिवि सो परु जाणिउ अवरु ण सत्थवाउ परियाणिउ । गुरुणा विणु तउ लइउ णिरुत्तउ तं णिसुणेविणु विपहि वुत्तउ । वइतंडिय आलाव मुएविणु णियवइयरु कहेहि भावेविणु। ता सेयंवरेण भासिज्जइ णिसुणहु णियवित्तंतु भणिज्जइ। 10 गुज्जरत्त वंसहडा पट्टणु मज्झु ताउ तहि णामें मोट्टणु । गदुरधेणुयाहि दुभंतिहि गच्छइ कालु जाम सुहपतिहि । घत्ता- एककहि दिणे जरियउ ता परि धरियउ ताएँ गदुखालउ । हउ रक्खमि आएँसहु लइ भाएँ जा गदुरउखालउ ॥१॥ तामइ वणि कविट्ठतरु दिउ भणिउ सभाइ एहु एत्थंतरि हउ वि कविठ्ठह लइ भक्खेविणु गदुरवग्घु वणम्मि णिएविणु इय भणियम्मि एहु किर णिग्गउ कत्तियाइ णियसीसु लुणेविणु ता छुहिएण अउच्वइ लद्धइ तित्ति लहेवि जा तहि तोंडउ एत्यंतरि दंतिहि तोडेविषु परिणयफलहरु सुठ्ठ विसिट्ठउ । तुहु वालहि मेढियउ वणंतरि । अवरु वि तुज्झु णिमित्तइ लेविणु । पच्छइ वच्छ मिलमि आवेविण । तामइ तरु मण्णे विणु तुंगउ । घल्लिउ तहि हत्थे पिल्लेविणु । मझ सिरेण कविठ्ठइ खद्धइ । ता फलरस परिपूरउ रुंडउ । बहु फलाई तरुतलि पाडेविषु । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवत्थामें खसिऊण कविट्ठहो दिढ संलग्गु सीसु गियखंधहो। 10 घत्ता- जा तित्थु णियच्छमि ताम ण पिच्छमि गदुराउ कत्थवि गयउ । __ सव्वत्थ गविट्ठउ जा ता दिट्ठउ एहु कणिठ्ठ णिदं गयउ ॥२॥ (3) 5 उट्ठवेवि ताम मइ पुच्छिउ भणिओ अगेण पंथसमसंति तरुतलि जाम णिहसुह मागिओ ता सुणेवि मइ भयकंपति पभणिउ वच्छ ताउ रूसेसइ तो वरि अवरदेसु जाएविणु तो दोण्णि वि अम्हइ मुंडियमुंडा महि वि हरंत एत्थ आवेविणु अच्छहु जा ता तुम्हइ आइय । इय वइयरु पयडिउ फुडु तुम्हह में ढियाउ कहि तुहु अच्छिउ । भुक्खातहासिहिदुहतत्तें। तामइ मिढियगमणु ण याणिओ। गग्गिरगिर पुणु पुणु जपंति । आकोसंति माय कि दीसरू । अच्छहु सेयंवर होएविणु । दोहि वि कंवलिइ करदंडा । कोडें भेरि सघंट हणेविणु। सच्चउ जाणहो होहु ण वाइय । एहु जि धम्मु कुलागउ अम्हह। 10 घत्ता- ता दियहि भणेज्जइ हो हो पुज्जइ मायए पर वंचतहो । को गरउ णिवारइ दुक्खहो तारइ मुणि असच्चु वोलंतहो ॥३॥ (1) 2.b भेरिग्वा , a. adds इ before थि उ, b मणजउ, a सिंहासणि for कणयासणे ।छ। 3.a ofणण्णा, b आइउ, वाउ, 4.a दियवरहि आवेवि, b जाणहुँ, a किहा अच्छिउ, 5.b वाउं वि कवणु मुणहु को किर गुरु भणइं, 6.b भम्महं, a माणु अप्पसत्थउ, 7.a किज्ज मोडबि, b पर for परु, a सत्थु वाउ, 8.b विण, b लयउ, a णिसुणेप्पिणु, 9.b वइंतंडिय, a कहेह, b भावेप्पिणु, 10.b भासिज्जइं, a भगेज्जइ, b भणिज्जई, 11.b गुज्जरत्ति, b मब्भु ताउं, 12.b ०धेणुआहि, a दुझंतिहि, b गच्छई, 13.b दि for दिणे, b ता for ता। (2) 1.b तामई, b दिट्ठउ, a फलहर, 2.b सभाई, b मिढियउ, 3.b लई, b अवरइं तुब्भ णिमित्ति लेप्पिणु, 4.b मग्गु for बग्घु, a मुएविणु for णिएविणु, b पच्छइं, a वप्प for वच्छ, 5.b एहुं किर जा गओ, b तामई, 6 b कत्तियाई, a पत्तिउ तहि अत्थे, 7b छहिएण अउव्वई लद्धई, b कविठ्ठई खद्धई, 8.a लहेइ, b फलरम परिपूरिउ तुडउ, 9.a दंतहि, b वहुं, a फलाइ, 10.a खद्धामे for णियथामें, ll.b गदुराउ, b गउ, 12.a णिह, b गयउं । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण दसशिर कथा तमायण्णिऊण वहाणं वरेणं तिलायाहिवो होमि एवं मणेणं वरं देइ णो तो वि जा ताव तेगं कया तस्स पुज्जा तहच्चेव ईसो मएँ एक्कसीसावसेसे वि देवो इमं चितिऊण सुज्झाणेण रक्खो समुच्छासमुल्लाविए जाइ भेए तओ रावणेणावि भित्तूण वाहू समागं कहत्यं समुप्पाइऊगं विसेसेणगीस्स आइड्ढकण्णो कय सोमपाण पावणमुहहो तो तेहि वृत्तु सिरिमाणणहो ११७ (4) पुणो भासिय तेण सेयंवरेण । चिरं रुद्दु आराहिओ रावणेणं । ससीसाणि छित्तूण छित्तूण णूणं । ण तूसेइ ता चितए रक्ख सेसो । वरं देइ णो कि महं दीह तेवो । लोह तो दिट्ठ तेणं तियक्खो । पसण्णो किओ किण्ण रेणं समेए । घत्ता- तो आवइ हरेगं तुछें हरेगं रावणासु वरु दिज्जइ । सीसइ लुणियाइ पुणु मिलियाइ एउ पुराणि भणिज्जइ ॥ ४ ॥ (5) हारं समायड्ढयंगीय साहू | अरं दिव्वणादं तहिं गाइऊणं । किओ रावणेण हरो सुप्पसण्णो । एउ अस्थि त्थि पयडहो वुहहो । धवलय जसपर दसाणणहो । S ( 3 ) 1.b उघवेवि, b मई, b मिठियाउ, a. repeats कहि, b तुहु, 2.a पंच for पंथ, a भुक्खा०, 3.bo सुहुं, b तामई, 4. b णिसुणिवि मई, boगिरु, 6. तो वर, b जाएप्पिणु, b होएप्पिणु, 7.a omits तो, b अम्हई, b दोहिमि कंवलिओ करिदंडा, 8.b आवेष्पिणु, b संघंट, 9 b अच्छई; b तुम्हहं, b सच्चउं, b होहं ण वाइंय, 10.b भासिउ, for पर्याडिउ, b तुम्हहं, b जु for जि, b अम्हहं, 11.b तो दियवरहि भणिज्जई, a माए पर वं चंतह, 12.b णसु णिवार, b तारई a वोलंतह | ( 4 ) 1. b तिलोयाहिओ, a एवं 3b देई, b ताम, 3.a संसीसाणिछित्तूण छित्तण, b ससीणाणि लिल्लूण भित्तूण णूणं, 4.b पूया तहं चेव, b तूसेइं ता चिता चितपटक्खसेसो, 5.b मए एक्के सासावसेसम्म देवो, b देई, 6. b सज्झाणेण, a पलोड़, 7a ०समल्लापवगा पभेए, a सगेए, 8. a तवो, b वाहुं, a समायडिदुउ गीय, b साहुं, 9. b सणामं for समागं, b दिव्वनाहं, 10.a विसेस्सेण, b आयड्ढकण्णे, 11. b आइ for आवइ, b तुट्ठि 12.b सीस लुनियाइं पुणु मिलियाई । 10 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सरवरकुरंग पंचाणणहो साहसु सुपसिद्ध दसाणणहो। सव्वत्थ जणेण विज्जाणियइ अम्हहिं कि किर वक्खाणियइ । उद्धरिउ जेण कइलासगिरि विद्धंसिय घल्लिय अमरपुरि। 5 ण व सीसहिं पुज्जिउ देउ हरो गेएँ तोसिउ हरु लद्धवरो। एत्यंतरे पडिवयणेहि पडु पडिजंपइ विहसेवि सेयवडु । णवसीसइ छिपणइ रावणहो जइ लग्गइ पुणरवि वंभणहो । तो मइँ वोल्लिउ किं ण उ घडइ सिरु एक्कु किं ण महु संघंडइ। अह भणहु एम रुद्दे सिरई गलि मेलवियइ लुयगलसिरई। 10 घत्ता- एरिसु वि ण जुज्जइ जं णिसुणिज्जइ लिंगु पडतु तवसि सविउ । कय दाणवदप्पें हयकंदप्पे हरेण सदेहि ण संथविउ ।।५।। (6) दधिमुख और जरासन्ध कथा अवरु वि परपुराणु एउ सुम्मइ दहिमहु देइरहिओ सिरमित्तओ हुउ जा ता जणणयणागंदिरि अहिवायण पुव्वं पणवेप्पिणु दहिमुहेण पणिउ मुणिसारा भणइ अयस्थि णत्थि तुह मंदिर कुमरयाले णियरहरि वसंतहँ गउ मुणि एम भणेविगु जावहिं भणियई काइँ ण मइँ परिणावह इय भणियइँ दहिमुहि ण उ भुंजइ काइँ वि वंभणिए सुओ जम्मइ । सुहसत्थत्थ धम्मसंजुत्तओ । आइउ तहो अयत्थि णिउमंदिरे । अभागयपडिवत्ति करेप्पिणु। महु घरि भोयणु करहि भडारा। 5 जि कुमारु तुहु महिलय णंदिरु । णत्थि धम्मि अहियारु करतहँ । दहिमुहेण णियपियरइँ तावहिं । तेहि भणिओ को देइ तुहु । तेहि रोडु ता को वि भणज्जइ। 10 (5) 1.b. inter. अत्थि and णत्थि, 2.a तेहि, a दिस for जस, b दिसाणणहो, a inter the line धवलिय etc. and सुरवइकुरंग etc. 3.b सुरवइकुंरग, 4.b वियाणियइं, a अम्हइ गिर कि वक्खा०, b वक्खाणियइं, 5.a कइलासु गिरि, b कइलासगिरि, b अमरपुरी, 6.a सीसिहि, b लद्ध वरू, 7.a पडि वयणेहि पहु, b विससेवि, a सेयपहू, 8.b नवसीसइं छिण्णइं, b लग्गहि, 9.a मइ, a कि for किं, b एकु किण्ण, 10.b भणहुँ, b सिरइं, b • मेलवियई लुयगलसिरइं, ll.a एरिस वि ण्ण, a जे for जं. Cf. महाभारत (वनपर्व), वाल्मीकि रामायण । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ घत्ता- वहु अत्थु लइज्जउ णियसुय दिज्जउ तणयहो दिय अम्हारहो। तेण वि दिण्णी तहो पियरहि पुत्तहो किउ विवाहु गुणसारहो ।।६।। 5 विसरीरु वो जो को वि असमत्य उ तं जणु संभासइ णियमत्यउ । तह सो माणिणीही माणिज्जइ अस्थि किर को ण उ लोहिज्जइ । गच्छइ थोउ कालु किर जावहि दहिमहु भणिउ जरि तावहि । अत्थ आसि जो अम्हहि संचिउ तुज्झ विवाहि पुत्त सो वेचिउ। एवहि णिव्वहि अप्पाणओ दहिमहेण तओ महिउ पयाणओ। भणिय सभज्ज एहि जाइज्जइ माणविरहिउ केम जीविज्जइ । ता सा णयरगाम पइसंती सिक्कयत्थु दहिमुड़ दरिसंती। णियपइवय दप्पें वग्गंती भोयणु अत्थु वत्थु मग्गंती। तियहँ सहत्तणगुण थुव्वंती उज्जेणिहि णयरिहि संपत्ती। टिंटामंदिर दिठ्ठ खण्णउ उब्भड भडसामंतहि पुण्णउ । धत्ता- तहि खुटे ससिक्कउ दहिमहु सइ कत्थ वि कज्जे गय । एत्तहि जुयारहि दिण्ण पहारहो अत्थत्थे कलि उग्गय ।।७।। 10 (6) 1.b किर for पर, b सुंमई, a काइ, b जम्मई, 2.a दहिमुह, b सुइं, 3.b हुंउ, b आयउ in margin पिउ is explained as पितु, 4.b अझागय०, a करेविणु, b केरेप्पिण, 5.a मह, 6.b भणइं, a मंदिरो, b तुहं महिलअ णिदिर, a णंदिरु is explained in the margin as आणंदकारि, 7.a कुमरकालि, a वसंतह, a करंतहु, 8.b गउं, a जावहि, 9.a पभणिउ काइ न म परि०, b परिणावहो, a भणिउ तेग को देसइ तुव वहु, b वहो, 10.a भणिए, b दहिमुहं, b भुंजई, b रोरु, a. omits को, ll.b लइंज्जइं, b दिज्जई, 12.b दिणी, b विवाहुं, Cf. ब्रह्मा, वायुपुराण, महाभारत, आदिपर्व । l.b संभासइं, a णय०, 2.a तहि, b माणिणाहि माणिज्जइं, b लेहिज्जइं, 3.b गच्छइं, b तामहिं दहिमहु भणिउं, b तामहि, 4.b अम्हहं संचिउ तुज्झु, 5.a णिव्वावहि, b दहिमुणेहेण, a तं मुणिउ for तओ महिउ, b महिओ, 6.b जाइं जई मणि रहिओ, b जीविज्जइं, 7.b णायरगामपइंसंती, 8.b पइंवय, a वग्गोती, 9.b सई तणु गुणु, a थप्पंती, 10.a टिंटामंडउ, 11.b खंटि ससिक्कउ दहिमुक्कउ सा वि अत्थुकज्जे, 12.a जूआरहो, b अत्थत्थि कलि उंगाया। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० (8) कासु वि पडिउ सीसु असिधाएँ तम्मि रुंडे दहिमुहसिरु लग्गउ सेयंवरेण भणिउ कय सुइ सुहा दहिमहु सव्वदिएहिं भणेज्जइ सेयंवरु भणेइ णिय दोस वि दहिमहसिरु लग्गइ पररुंडहो तह दहगीवें वाणरु अंगउ णवर लेवि हणुवंतें सीविओ अवरु वि दहरह दाणवईसहो कय आराहण एक्कें चित्तें 5 सिक्कउ भिण्णउ कम्मविवाएँ । इय कहिऊण कहाणु समग्गउ । मण्णहु दियह ण वा एरिस कहा। एयारिसउ वेयणि सुणेज्जइ । जणु विरू उ मण्णइ ण पयासु वि। मज्झु सरीरु किं ण महु रुंडहो । असिवरेण किउ दो फालंगउ । लग्गु अंगु पुणरवि सो जीविओ। पुत्तु पत्थि ताम ति ईसहो। भत्तिभारतुठेण तिणेरतें। 10 घत्ता- तहो गयणाणंदणु होउ सुणंदणु इय अमोहु वरु भासिउ । चरुपिजि समपिउ एक्कु जि कप्पिउ तहो वि हि घरणिहि पासिउ ॥४॥ पिडेणं तेणं दोहाणं णूणं भब्भो हूउ ताणं । एक्कण्हि दोपहँ दो भाउ पुण्णेहि मासेहिं जाउ । अद्धद्धंगो दट्ठ पुत्तो तायाणाए रणे खित्तो। देवीए वुड्ढीणामाए तं कम्मे णं आइट्ठाए। रणे हिंडंतीए दिट्ठो तिस्सा होतो पुव्वं इट्ठो। णेहेणं ताए दो फाले एक्कीकाओ मुक्को वाले । जीवेऊण जाओ चंडो उग्गो णं गिभे मत्तंडो। विण्हो देवारीणं तुद्धो सत्तणं लच्छीए लद्धो। जस्साए दो भीए तट्ठो जुज्झे दप्पं मोत्तुं णट्ठो। जेणारीणो भग्गा लीला __ एसो छंदो विज्जूमाला। (8) 1.b सीसु पडिउं असिघाए सिक्कउं छिण्णउं. 2.b तम्मि तुडिं दहमुहसिरु, 3.b सुइ, a मुहु for सुहा, b मण्णहु दियहं, a ण या एरिसु कं तुह, 4.a दहिमुह पुवदिएहि, b दहिमुहं, b भणिज्जइ, b सुणिसुणिज्जई, 5.b भणेइ किय, a विरुव मणहू ण पयासइ, b मण्णइं, 6.a दहिमुहु लग्गइ किं पर०, b लग्गइं परतुंडहो, 7.b अंगठ, a किंउ, b किउं दो कालंगडं, a लग्ग, b. omits सो, 9.a ण अत्थि, b तामं, 10.a आहरणे, तिणंतें, b तिणेत्ति, 11.b तुह, b होउ, b फल for वरु, 12.b चरुपिंज, a एक्कु, b अप्पिउ, b घरिओ पासिओ। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ घत्ता- जरसिंधु पहाणउ साहइ राणउ होतउ भुवणपसिद्धउ । इय वासें भासिउ लोए पयासिउं काइ भणह ण वि रुद्धउ ॥९॥ (101 अवरु गउरि णवजोबणमत्तहो सुरयसोक्खु माणंतहो रुद्दहो । वरिससहासु दिब्बु जा वड्ढइ ता सुरसवहो चित पवड्डइ । जइ कह वि हु इय सुरए गंदणु उप्पज्जइ सुरससुर वि मद्दणु । जगु जगडंतु केण वारिज्जइ तो वर विग्घु कि पि विरज्जइ।. इय मंतेविणु गउरिसहोयरु पिसिउ पत्तु तित्थ वइसाणरु। 5 णियडु संवंधु णियच्छिउ जावहि लज्जइ गउरि समुट्ठिय तावहि । एत्तहो सुक्कखलणु अलहंतें रुद्दे कोवाणल पजलेतें। भणिउ दुठ्ठ अइ धिट्ठ किमायउ । किं सहु सुरयविग्ध उप्पाइउ । जइ वि ण सालयासु रूसेज्जइ । तह वि हु तुच्छ दंडु तुह किज्जइ दुद्धरसुक्क महिहि कि हरिल्लमि उड्डुहि मुहु तुरंतु जे घल्लमि। 10 महि खेत्तम्मि तम्मि पुणु संकर भणइ ण वि हलु जाइ जिह तिह कुरु । णवर तेउ सुक्कह असहंतउ वइसाणरु को टत्तणु पत्तउ । घत्ता- गंगहि मुणि भामहि कित्तिय व्हायेवि वहि जा तप्पिउ । ता तेणाणलेण उण्हत्थ लेणं जाणिहि सुक्कु समप्पिउ ॥१०॥ पौराणिक कथा समीक्षा हुए गन्भे मुणिहि णीसारियाउ सरवणे ताउ पसूइयाउ। छगम्भ समुब्भव काय अंसु • एक्क दि थियणं पारयहु लेसु। हुउ एक्क काउच्छ मुहु कुमारु तो तारयारि जीवावहारु । 19) 1.b दोन्हागं, a गब्भा, b हुऊ, 2.a एक्कान्हे, b. omits दोण्ह, b भाओ. b मासेहि जाओ, 3.b द?, a. explains ताया जाए as अज्ञानेन in margin, b तायाणए, b णिक्खित्तो, 4a णामाए, a कम्मंगं आईट्ठाए, 5.a तस्सा 6.a फालो एक्कीक्कावो, 7.a जीबीऊण, b चंदो, b उंग्गो णं मिम्हे मंत्तडो, 8.b विन्हू देवारी and then the space is blank and the back page 57 is also. blank on 58 a, we have in red ink begins from |पत्ता। अप्पउँ पत्तारइं जेण etc. 9.a मोतं Cf. भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, विष्णुपुराण, महाभारत, सभापर्व । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अंगयजरसंधकुमारकहा दो फालु वि अंगउ मिलइ जेत्य। जरसिंधु कुमारहु लग्गु अंगु परसच्चु एउ जं दियहु इट्ट तो तेहि वुत्तु पइ भणिउ जाव पर खाइ मुडु धडु धाइ केव इह लोइ विप्पं भोयणु करंति चिरकाल मुया दूरंगया वि . णियडच्छु कवित्थइ खाइ मंडु कहिऊण भणिय तें विप्पसहा।। महु सिरु महु अंगहु किं ण तेत्थु। 5 कि महु ण घड धडु उत्तमंगु । सद्दण्णु वि घय एक्कउ ण दुर्छ । तं मण्णिउ सच्चउ होउ ताव । तं णिसुविण जइ भणइ एव । परलोए पियर कहि दिहि धरंति। 10 णाणाविहि जोणि समग्गया वि । तक्खणे वि ण कि महु भरइरंडु । घत्ता- केत्तिउ वह जंपिहु चित्ति वियप्पहु रावणआइ कहाणउ । जा भारिसु तं जइ तारिसु तेण अलिउ महु वयणउ ॥११॥ (12) सेयंवर भासिउ विप्प सुणेवि सुसस्थपुराणअ सच्च मुणेवि। ण पहि किं पि विहंडिय माण विचितहि एयहो वाय पमाण । णिरुत्तर विप्प णिएवि सुवुद्धि पुणो वि पयासइ तत्थु वि सुद्धि । सुसत्थु सुधम्म सुलिगु सुदेउ । परिक्खिवि लक्खहो मोवखहो भेउ । ण सुम्मइ जत्थ सवाय विरोहु तमेव ससत्थु विणासिय मोहु । 5 सुधम्मु वि जित्थ ण कम्मु सहिंसु अहिंसु जे दिठ्ठ उ णग्गु जइंसु । सुदेउ दसट्ठहि दोसहि चुक्कु सुमोक्ख असेस परिग्गह मुक्कु । सुलिगु सुहाउ सुणेवि सुसत्थ सुधम्मु मुणेह गुणड्नु पसत्थु । सुधम्मफलेण सुदेवहो झाणु करेवि लहेह सुणिम्मल णाणु । सुणाण गुणेण विणासिय दुक्खु लहेह सुमोक्खु अणुत्तरसोक्खु । 10 घत्ता- अप्पउ परुत्तारइ जो ण वियारइ सत्थु धम्मु गुरु देउ वि । संसारि णिमज्जइ दुक्खें खिज्जइ सुसुहहो मुणइ ण भेउ वि ॥१२॥ (10) 2.a पयट्टइ, 5.a मंतेविण्णु, 12.a असंहतउ, 13.a. explains गंगहि as ___ गंगासमीपे in the margin | (11) 8.a जेव for जाव । (12) 3.a पुण्णो, 4.a मोरवहो, Il.b अप्पउं पत्तरई जे ण वियारई सत्थ, b देउं 12.b णिमज्जई, b खिज्जई समुहहो मुणई। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ (13) श्य जाणिवि उहयरु अप्पसत्थु णिसुणिए कुसत्थे दुम्मइ हवेइ कुच्छियधम्मेण कुलिंगि रत्तु तहो भत्तिए दारुणु करई पाउ णारइयदुक्ख जइ मुअइ कहवि जइलहइ णरस्त सुहिएत्तणाइ ण सुगइ कयावि वरसुहहो णामु जिणदेउ ण रिसिगुरु अत्थि जेत्थु मोक्खे ण विणा तवकारणाइ मासोववासु चंदायणाइ वहिरसयणई अत्तावणाई दंडयधरण. सिरमुंडणाई मा णिसुणहु अण्णाणिय कुसत्थु । दुम्मइए कुधम्महो चित्तु देइ । णरु कुगुरुहो होइ कुदेवभत्तु । तें एम चउगइ दुहणिहाउ । तिरिए सु वि तारिसु लहइ तह वि। 5 तो कोत्थिय सोक्खहो भायणाइ । कहि किर सीमा जहि णस्थि गाम । संपडइ णरहो कहि मोक्खु तित्थु । रत्तंवरजड धारणाइ। कजियभोयण सुद्धोयणाइ। 10 चरि सालइँ णिसिसेवियवणाइँ । सच्वह मि सरीरहो दंडणा। पत्ता- इय एम मुणेविगु रिसि पुज्जे विणु लग्गिज्जइ जिणधम्महो । जि अमरणरत्तणु लब्भइ कित्तणु मोक्खसोक्खु खए कम्महो ॥१३॥ 5 (14) अण्णाणियपुराणु अइतुच्छउ कहहि जणहो णियमइ सारिच्छउ । णिद्दोस वि सुरवरण रखेयर अप्पसरिस साहिसदोसायर । जो सत्तावीसत्थरकोडिहि सेविज्जइ मग्गियपरिवाडिहि । खयरासुरणरवरथुउसुरवई सो अहल्ल मणु वि कि सेवइ । इंदु णाम खयराहिउ मुद्धउ गोयमखगतवसिपिय लुद्ध उ । आहल्ला णामाइ सुपसिद्धहो रूपकंतिणवजोवणरिद्धहो । सुरयसोक्खु मागंतु णिएविणु पियंपियपरिहवरोसु करेविण । (13) 1.b णिसुणाहुं, 2.b कुसत्थु दुम्मई हवेइं दुम्मइंय, b चित्त्व देई, 3.b कुलिंगरस्तु णरु कुरुहु होइं, as for होइ, 4.a दारणु, bति पावई चउंगई, 5.b जइं मुअइं, a मुच for मुअइ, b लहइं, 6.b जइ लहइं सुरत्तणाई, b भायणाई, 7.b मुणइं for सुणइं, a वरसुरइ, 8.a जिण देउ, b जिणदेउ, b संपडइं, b मोक्ख, 9.b कारणाइं रत्तवडधरण जई धारणाइं, 10.a मासोववास, b चंदायणाई, b सुद्धायणाई a. adds आयावणाह after अत्तावणाइ, 11.a बरिसालणिसिहि सेबियवणाइ, 12.a धरणाइ, b सब्वइं, a दंडणाइ, 13.a एव for एम, b लग्गेइज्जइ, 14.a जे सुण्णरु सुरत्तणु, b लब्भहं, b मोक्ख सोक्रव खयकम्महो। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गोयमेग विज्जाव तवंति पुरिसु वि जोणिसहासे दूसिउ रवि जोइसिउ देउ जणु जाणइ जइ सा मुणिहि महासइ भासिय सिसुवत्थु व परसत्थ कहाणउ सहस जोणि किउ सा उ चति । कामें कहो चारित्तु ण मूसिउ । सो माणुसिय कुंति कह माणइ। तो कि तहि वहु मुणिहि पयासिय। तं पावरणु तं पि परिहाणउ । 10 पत्ता- वरतणु साहसपउ सो कुत्थियपउ जं दुजोहणु पयडिउ । हरि अद्धणिहीसरु पंडवपुरसरु ति अप्पाणउ विणाडिउ ॥१४॥ (15) इवखाइवंसि पडिवासुएउ जरसंधु रणंगणि अतुलतेउ । वासेण णारिसुता सुकहा विराविणु रंजिय मुद्धसहा । वालि वि खगवइसुउ चरमदेहु रावणु जिउ जि जयलच्छिगेहु । जुण्णयरतणु व मिल्लेवि रज्जु कइलसि अणुट्ठिउ अप्पकज्जु । पावणसिलसंठिउ चरणजुयलु सायरगहीरु मेरु व्व अचलु । 5 अहरोत्तरोट्ठसंपुडियवत्तु णासग्गणिहियणिप्फंदणिस्तु । . णिग्गमणपवेस णिरुद्वसासु णिमुक्कडंभतिहुयणपयासु। आजाणुपलं विय दीहवाहु तणु जोइ परिट्ठि उ वालिसाहु । एत्तहि पुरवरु णिच्चावलोह। धवलहरइय णाणावलोह। रावणु रयणावलि खगकुमारि परिणेवि विहंडिय विरहमारि। 10 (14) 1.b अइं, b मई, 2.b खेयरा, 3.b कोडिहिं सेविज्जइ, 4.b खयरसुरा सुरणरणुउ सुरवई, b सेवइं, 5.a इंतु गाउ, b सुद्धउ for मुद्धउ, a तवसिय पिय, 6.b आहल्ला णामाहि पसिद्धहिं, bणवलोयणरिद्धिहि, 9.b मूसिउं, 10.b देव, b जाणइं, b माणइं, 11.b जइ सा मुणिहि महासई भासिया, b तहो वहुं माणुस, 12.a पावरणु is explained in the margin as दुश्चारिणी स्त्री वालकवस्तुवत् = निर्मलवस्त्रं सो पि पगपूछणओढणउ,, 13.b जि for जं, b पयलिउ, 14.a तें गुप्पाणउ विणहिउ। (15) 1.a इक्खाइवंसु पडिवसुदेव, b इक्खाउहवंसि परिवासुएउ जरसिंधु, b अतुलतेउं, 2.a वासे ण ण्णारिसुता, b वासेणं गारिसुता, b मुद्धसदा, 3.b खहवइंसुउ चरमदेहं. b जिं जिउ जलछिगेहुं, a मिवि सरज्जु, b अणुट्ठिउं, 5.a संठिय, b अयल, 6.a अम्हरत्तरोट्ठ, 7.b पवेसारुद्ध, 8.b दीहवाहु तणुजोय, b वालिसाहुं, 9.a पुरवर णिच्चावलोए, b णिच्चवलोई, a णाणउलोइ, bणाणावलोलोइ, 10.b रतणावलि । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ पत्ता- किर परमाणंदें वंदिणसट्टे लंकउरिहि जाव चलिउ । ता तिहुयणचंदहो वालिमुणिदहो उवरि विमाणु झत्ति खलिउ ॥१५॥ (16) तो भणइ दसाणणु माणमलणु ति भणिउ देव कइलासि साहु तहो वततेएँ सयखंड जाम एत्थंतरि रावणु कुद्धचितु अहव। कह थंभइ महु विमाणु विज्जए महियलु दारणु करेवि स मुणिवि समुद्दे किर खिवइ जाम उवसग्गु मुगिहि अवहिए मुणेवि सहसा एंतूण फणीसरेण वेउवणाइ हुउ गरुउ जित्थु कि किउ मह माम मरीइ खलणु । अच्छइ जोएंत व सिरिसणाहु । गच्छइ ण जाणु उ सारि ताम । चितइ एयहो मायाचरित्तु । तो वरि एयहो णिद्दलमि माणु। 5 कइलासु महीहरु उद्धरेवि । आसणु कपिउ फणिवइहे ताम । णियकज्ज एउ महु इउ गणेवि । मुणि वंदिउ भत्तिए णियसिरेण । तणुभारे भारिउ गिरि वि तित्थु । 10 घत्ता-हुउ कुम्मायारउ मुणि अवयारउतारावणु दुहु पावइ । कय साहु अगिट्ठहो पयइए दुट्ठहो कासु महावइ णावइ ।।१६।। (17) गुरुगिरिभरुपाविय वहु दुहेण तं णिसुणेविगु गुणगोयरीए भत्तारभिक्ख मग्गिउ फणिदु मिल्लेविण माणकसायगा हु जो वालि भणि उ इय गुरु महंतु सो किर दरिसिय घणु लाहवेण तं अलिउ भाण उ तेग वि ण भंति णियमेण महागुणु तउ चरंति अइराउ मुक्कु गुरु दहमुहेण । भयकंपमाण मदोयरिए। खमियम्मि वि णिग्गउ णिसियरिंदु । णिदिउ अप्पाणु णविवि साहु । वम्मीए सो वाणरु पवुत्तु । सुग्गीवकज्जे हउ राहवेण । ण उ चरिमदेह मारिय मरंति । णाणेव मोक्खफरु पइ सरंति । 5 - (16) 1.b रणइ for भणइ, a. in margin for मरीइ explains हे मारीचे. 2.b कईलासि साहुँ, b साणहुं, 3.a जाव, a ताव, 4.b चितई, 5.b थंभई महं, 6.a महियल, b दारुणु, b कइंलासमहीहर, a उद्धेरेवि, 7.b खिबई, b फणिवई ति for फणिवइहे, 8.a उवसग्ग, b मुणिवि for मुणिहि, b भणेवि for मुणेवि, b मुणेवि for गणेवि, 9.bणयसिरेण, 10.b. omits हुउ, 1.b हुंउ कुम्मायारउं मुणिअवयारउं, b दुहु पावई, 12.a पवइ for पवइए, b महावई णावई। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय जाण खलण कोवियमणेण सवय एरि णिरुत्तु अघडंतु विजं हि वुत्तु जइ वि हि हरिहरहो णं अत्थि भेउ जइ कह व सव्वंगउ हरि भति तो हि हुए वट्टुत्तणु विवाए कि तेहि तासु ण उ लद्ध अंतु हरि वंभहिं जासु ण मुणिउ भेउ ईस तिहुणमोहण वियड्डु तो किं पुणु सो देहद्ध गउरि इय अघडमाण लोइय पुराण सलु विमिच्छत्तगण भुत्तु १२६ धत्ता- रावणु वीसमए चउवीसमए तित्थि रुदु उप्पज्जइ । कइलासुद्धरणउ खिरकत्तरणउ हतोसवणु ण छज्जइ ॥ १७ ॥ उद्धरिउ आसि गिरि रावणेण । धुत्तेहिं तमि हरकज्जि वुत्तु । (18) वि far दण्णु चित्तु । कह वंभसिरहो हरु करइ छेउ । भुवि हिणकस्ता गुणंति । अंतरे थिए हरिणिरु दीहकाए । कि तिहुणुभिदेवि दूरि पुत्तु । तहो किउ कह तवसिहि लिंगछेउ । रुद्देण कोवजलणेण दड्छु । सिरि वह गंग जियकामवेरि । सच्चाइ ते वि गणहि अयाण । ण वियाणइ किंपि अजुत्तु जस्तु । धत्ता - जिह वंझ हे णंदणु सससिंगें वोमि ण पोम्मुप्पज्जइ । तिह सपिउसदपिउ गुरुपरमप्पर हिंसए धम्मु ण जुज्जइ ॥ १८ ॥ 10 (17) 1a अराउ, 2.b गुणगोयरी, 4.b अप्पाणउं णविउं, 5.6 वलि, b गुण for गुरु, b वम्मीएं, 7.b भणिउं, b चरमदेह, 10 b तं पि, b वुत्तुं, 12.a. in margin explains तौसवणु as तोषंकरणें । 10 ( 18 ) 1a धुत्तेहि, a मुक्खेहि, b तहि मिं, 2.a वम्हसिरहो, 4.b तहो for तहि, b वट्टत्तण, b दीहकाइ, 4. a तेहि, b तासु लद्धउ ण अंतु, a in margin explains तेहि तासु as हरिवह्माभ्यां हरस्य, 5 b दूरु, 6a वंम्महि, b मुणिउ, inter. किंउ and तह, a तवसिहि, 7.b सरु for ईसरु, a दड्ढ, 8.a. omits सो, a जिह कामवेरे, 9 a अयण, 10.a सयल, a वियारइ, B वियाण, 1l.b पोमु उष्पज्जइ, 12.b तह, • दप्पउ, a. in margin explains सससिंगे as धनणं । b Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ धर्म-महत्व 5 अह हवइ पढमु तो खत्तियाण जइ हिंसए लब्भइ सग्गु मोक्खु जइ लब्भइ तरुतलि फलसमग जइ देव सपहरण कामकोव वाणारसिपुरवरणरवईहे तह वासुएउ वसुदेवपुत्तु इहु माणविगब्भ समुभवाहु जय करण धरण संहरण कम्म जे परमप्पय ते अतणु होति इय परमपाण सवयण विरोह सण्यपारद्धियधीवराण । ता को वि सहइ तव ता व दुक्खु । को चडइ पई हरु तरुवरग्ग । ता किण्ण चोरजारह सुदेव । हुउ णंदणु वंभु पयावईहे । सच्चइ मुणितणुरुहु संभु वुत्तु । तह वंभरज्ज दूसिय भवाहु । तहिं कह परमप्पयरूवसम्म । विणु देहि णिक्किय किं करंति । जहि पत्थि वीउ तहिं कहिं परोहु । 10 घत्ता- मा दियहो चिरावहो मइगुणे दावहो दहविहु धम्मु चिति ठवहु । रयणत्तउ भावहु तहु कलु पावहु भवभयकम्ममलु णिवहु ।।१९।। 5 (20) णिच्चलगुरुत्तणिज्जियपमाए संभवइ धम्मु उत्तमखमाए । अहिमाणदुक्ख दुद्दमदमेण संभवइ धम्म तह मद्दवेण। . अवहत्थिय कुडिलत्तण जवेण संभवइ धाम पुणु अज्जवेण । हियमियपियभासणसंचएण संभवइ धम्म फुडु सच्चएण । हयलोहकसायसमुच्चएण संभवइ धम्म सुसउच्चएण । पागिदय अक्खजय उज्जमेण संभवइ धम्मु वरसंजमेण । कयणियमें कलि तम आतवेण संभवइ धम्मु णाणातवेण । आरंभडंभअहिघासएण संभवइ धम्मु कयचायएण । मण्णिय समाण तणकंचणेण संभवइ धम्म आकिंचणेण । णवभेए हयमयणुब्भवेण संभवइ धम्मु दिढवंभएण । 10 (19) l.a. in margin explains सण्य as कलाल, b सुंडिय for सण्हय, 3.b फलु समग्ग, b तेरवरग्ग, 4.a तो, boजाराई, 5.b वाण for वाणारसि, a वाराणसि०, 7.b समुन्भवाह, a तवभसरज्ज for तह वंभरज्ज, b भवाहं, 8.4 कम्म, b तह कहिं, 9.a जह for जे, a ते णुण for ते असणु, a णिक्किव, 10.a repeats सवयण, a जहि, a तहि कहि, ll.a गुणु, a विचितवहु for चित्ति ठवहु, 12.b कयमलु । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ घत्ता- इह मलिय कुसंगहि दहविह भंगहि विमलु धम्मु उप्पज्जइ । सुरणरफणिपुज्जहो हिंसविवज्जहो तहो फलु विवहु कहिज्जइ।।२०॥ (21) जासु जणणि तणु सुद्धि हि कारणि इंदायए आइए अत्थरयणि। वारहु पक्ख जाम दहुरयणइ सुरवरिसहि उज्जोइय गयणइ । गम्भे थिय णवमास णिरंतर रयणविट्टिकच्चुरिय वसुंधर । किज्जइ पुणु नि पुणु वि गिव्वाह पियरह पुज्जिज्जइ गयमाणहि । जे जम्मणि सुरसिहरे चडेविणु खीरसमुदखीर आणेविणु। 5 कयणरयणमकलस सहासहि हाविज्जहि सुरवहि संतोसहि । पुणु णिक्खमणे अमरसंघायहि सिवियारवंध जाण अणुरायहि । एक्कमिक्क विरइय समहहि थे णिज्जहि कय जय जय सद्दहि । सेवलणाणुभवि सुर विहियए समवसरणि वहु सोहा सहियए । सुरणरविसहरसहहिणिविट्ठा जे सयलु वि भासंति गरिट्ठा। 10 घत्ता-पुणरवि णिव्वाणए सुहसंताणए अग्गिकुमारमउड सिहिहि । अंगइ सक्कारहि सुरतरुसारहि जा णवेवि विविहहि विहिहि ।।२१।। (22) इय जसु पंच महाकल्लाणहि चउतीसाइसयहो सव्वहियहो तिहुयणसिरि दासि जहु दीसइ ते जिण तिहुयणणयण पियारा . जा मणिरयणु विसेसइ (सोहइ) छाइज्जइ ण हु अमरविमाणहि । अट्ठ पाडिहेरुण्णय सहियहो। तेहि समाणु कवणु किर सीसइ । धम्मफलेण हवंति भडारा। कागणि किउ रविससि तमु णासइ । (20) 1.b खमाए for पमाए, 2.a दुहमदवेणे, फुडु for तह, 3.b तह for पुणु, 4.b हिंय०, b संचएण, 6.a पणिदय०, 10.b हयमयब्भवेण, Il.b गलिय for मलिय, b दहधम्मंगहि विमलधंम्मु उज्जइं, 12.b विविह कहिज्जइं। (21) 1.b जाएणि for जणणि, 2. जेम, b रयणई, b गयणई, 3.b गम्भत्थि यहो, 4.a किंज्जइ, b विज्जइं, a पुण वि पुण वि, b पियरई पुजिज्जहि, 5.a 0 जम्मण, a सुणेविणु for चडेविणु, 6.a कणयरयणु, b सहासहि हाविज्जइं खुरवई, 7.a पुण, b णिक्ख वणि, 8.a एक्कुमेक्क, b inter. कय and जय जय, 9.a केवलु, a वहु सोभा, 10.a सयल, l.a मिव्वाणए, 12.b जाणवे। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ दंडु पयंडु गिरिंदु पलोट्टइ खग्गु वज्जु खंभु वि दो हावइ चमुवमू वि जलहिजलु तार इ. तुरउ तुरंतु इठ्ठ पउ पावइ पुरउ हवंतु पुरोहिउ पिच्छइ चक्क वि सत्तु चच्चुदल वट्टइ । आयवत्तु वज्जु वि ण पहावइ । करिरयणु बि सुरकरि वि णिवारइ । सेगावइ वारइ सेणावइ । गिहवइ गिह उवयरणु पयच्छइ। 10 घत्ता-थवइ विवर सोहइ करइ सगेहइ तियरयण वि जहि तियसय। माणेवि अतित्तहँ अइवलवंतहँ करइ गत्तरइ सुहपय ॥२२॥ (23) छहरिउ जोग्गइ दिव्वइ सुहाइ मह कालु वि णाणा भायणाइ माग उ पहरणइ वि जियरणाइ जे सप्पु वि वत्थइ उज्जलाइ पिंगलु आहरणइँ रुइयराइ खयरिह गिवत्तिहु मेत्थि णीह मणिमउडाल्डं किय महिधवाह वत्तीससहस णइइ णडाह गामाण रिद्ध धण कणसमाण पायारालंकिय गोउराण जहु देहु कालणिहि कय सुहाइ । पंडु वि धण्णइ सुर हिय कणाइ । संख णिहिवि तूरकलरणाइ । पउमक्खु घर’ वहुभूय लाइ । णिहिरयणु देइ रयणइ वराइ । छण्ण वइ सहासइ कामिणीहु । वत्तीससहासइ वरणिवाह । वत्तीससहस देसंतराह । कोडि उ छण्णवइ सुयि जणाण । सहसइ वाहत्तरि पुरवराण । 10 (22) 1.b जहुँ, b कल्लाणहिं पाई ज्जई ण हुँ, 2.a सव्वयिहु, b ०ग्णइ. a सहियउ, 3.b after जहुँ a blank space and continued णु कवणु, b सासई, b सासइ, 4.b लोय for णयण, b. after धम्म a blank space and continued हवंति etc. 5.a रयणवसु for रयणु, 6.b पयंडगिरिंद, 9.b पउ दावड, Il.b सुमेहई, 12.a अत्तित्तहं, b अतित्तइं। (23) जोग्गइं दिव्वई सुहाई जहु देइ, a कालुणिहि, b सुहाई, 2 b भाषणाई, a पंडु वे, a सुहि for सुरहिय, b कणाई, 3.b पाणउं पहरण मि जियरणाई, a स्तूर इं, b कलरणाई, 4.b वच्छई णिम्मलाई, a पउमुख, 5.b रइयराई, b रयणइं वराई, 6.b खयरिहं णिवपुस्तिहि, b सहासई कामिणीहुं, 7.b सहसपणवहिं णिवाहं, 8.2 पव्वहि for णइइ, 9.a धणकरिसमाणाह, ll.a सोलसहासइ, b नवनवइ जि दोणामुहइ, 12.b सहासई रयणुम्भसई पट्टण्णह जगगणं सुहह । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० घत्ता- खेडहु सुपयासइ सोलहसहसई णवणवइँ दोणा मुहह । अडयाल सहासइ रयणब्भासइ पट्टणाण जण कय सुहह ।।२३।। (24) गिरिवररूढहँ जणदुहहराह पच्चंतहँ सत्तसय हवंति। छप्पण्णवरंतरदीवयाई णयणिज्जिय पवरण राहिवाह देवह तणुरक्ख वियाणयाह हलकोडिएक्क करिसणि चलेइ जियकामधेणु वच्छाणुयाह अमियसमय अत्ताहारयाह कोडिउ वहुउ किंकरवराह चउरासीलक्खइ गयवराह च उदहसहास संवाहणाह। तेत्तियहँ कुवासहँ संभवति । अडवी सचारुवण दुग्गयाइं। सहसट्ठारह मिच्छाहिवाह । सोलहसहसाइ कयाणयाह। चुल्लीणकोडि भायणे जलेइ । खीरहरकोडि वरधेणुयाह । सयतिण्णिसठ सूयारयाह । अट्ठारहकोडिउ हयवराह । तेत्तिय जेमणि मयरहवराह। 10 घत्ता- इय लच्छि विहसिय अमरणमंसिय चक्कट्टिरिउदंतिहरि । तहु अद्धसिरीहर पडिहरिहलहर धम्मे उप्पज्जति हरि ॥२४॥ (25) मउडपघिट्ठ पाय अरविंद जाण णमहि णाणामरविदई । उक्खय करकरवाल णिरिक्खहँ चउरासीलक्खइँ तणुरक्खहँ । कय जयणंदवद्ध उच्चारउ गुरुयणियं व मदसंचारउ । चउदह विहसह जालंकार उ णाणाविह वीगा झंकार उ । देहदित्तिदिवियणियणि लयउ अहिणव हरियंदण कयतिलयउ। 5 भाललुलिय अलयावलिवलयउ णवजोव्वणवियड्ढ रयणिलयउ । पत्तेयं पिह रइ अणरूवउ सोलससहस विहिय णियरूवउ । सत्तावीसकोडि तियसेविउ जाणपहाण अट्ठमह एविउ । जोयणलक्खगत्तु अइरावउ वेउव्विय चउवयणु सुरावउ । (24) la ०रूढह, a हराह चउद्दससहासवरवाहणाह, 2.a पच्चंतह सत्तसयई, a तेत्तियइ, कुवासहं, 3.a दीवयाइ, a दुग्गयाइ, 4.b मिच्छाहिवाहं, 5.b वियाणयाहं, b सहसाहं कयाणयाहं, 6.a भाणसि for भायणे, 7.b वच्छाणुयाह, b वरधेणुयाहं, 8.a अताहारयाहं, b अत्ताहारयाहं, a सयतिणि, b सूयारयाहं, 9.b किंकरवराह, b हयवराह, 10.b लक्खई गयवराह, a तेत्तिइथ, b वराह, 12.b तहं for तहु, a हरा for हरि । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ 10 तें धम्म संभवहि सुरिंद वि सम्महसणणाणचरित्तइ तहु भावणए सयलमलु खिज्जइ सुरफणिद अहमिदपडिद वि । भवियइ रयणत्तइ सुपवित्तइ । फलु णिव्वाणसुक्खु उप्पज्जइ । घत्ता- एरिसु जाणेविणु मणु णियमेविणु जिणु झायहु तिहुयणतिल उ । हरिसेणु हवेविणु णाणु लहेविणु विरयहु चउगइदुइ विलउ ।।२५।। तथोक्तम् प्राणाघातानिवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं काले शक्त्या प्रदानं युवति जनकथामूकमावः परेषाम् । तृष्णास्रोतोविभंगो गुरुषु च विनतिः सर्वसत्वानुकम्पा सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतमतिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥ इय धम्मपरिक्खाए च उवग्गाहिट्ठियाइ चित्ताए । वहहरिसेणकयाए णवमो संधी परिसमत्तो ।।९।। श्लोक ।। २३९ । 125) 1.bणवहि, a णणामरविदइ, 2.a ० लक्ख ई, 3.a गरुय०. 5.a अहिणवयर हरियंदणतिलंयउ, 9.a चउवयण, b सरावउ, 10.b संभवहि, ll.b चरित्तइं भवियई, a रणत्तइ. b रयणत्तय सपवित्तइं, 12.b तहुं भावणई सयल मलु खिज्जई, a णिव्वण मोक्खु पाविज्जइ, 13.b झायहुं, 14.b हरिसेण, b विवरयहुं चउँ गइंगमविलउ । 16.b परण for परधण, 17.b प्रदाणं b युवतिजणकथा, 18.a मति, 8.b संधी परिच्छेउं समत्तो संधि ॥९॥ b omits श्लोक।। ॥२३९।। Cf. यशस्तिलकचम्पू, भाग २, p. 99 : भर्तृहरिमीतिशतक, 54 । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. दहमो संधि कुलकर व्यवस्था पुणु उवव जाए विणु गुणु मण्णे विणु भणिउ मित्तं मरुवेएँ । पुरिसे केण वि भासिउ लोय पयासिउ तर धम्मुवि किं वेएँ ॥ छ ॥ तह कहि समयसंजय केम इह एक्क वण्ण महि आसि मित्त पाणं गत्वहम्सगंग देवंगवत्थमालंगसिट्ठ असिमसि - कि सिसिप्पि - वियष्पवंत तहि सुसमसुसमि चितिय सुभोय सुसमिदुसमिकालि जहण भोय गय थक्कु अंसु अट्ठमउ जाम डिसुइ तह सम्मइ भणिउ अवरु सोमंकरु सीमंधरु वि जेम (1) तीर्थंकर ऋषभदेव पुग्वहि जुयलें जयलु उध्पज्जइ दिणु पक्ख मास पुणु वरिसइ कप्पदुमविरलिय वहुकालें रविससिगह जे जेण जि लक्खिय अंतिम कुलयरासु पियराणी तहि गन्भे तिहुयणपरमेसरु सुरणाहेण वि सिरिमेरुहे घत्ता - पुणु जसस्सि अहिचंदु वि तह चंदाहु मुणिज्जइ । मरुदेउ पसेणइ जो सिरिमाणइ नाहि पुणो वि उप्पज्जइ ॥ | १ || (2) तो मणवेएँ सुहि भणिउ एम । दहभेय कष्पत्तरुवरविचित्त । जोहसंमिह भोयणभायणंग | तहोतलि र कामुयजुयलु दिछु । अणिय वायाइयवाहिवंत । सुमेण मिहुइँ भुजंति भोय । तहो अंतिमपल्लहो सत्त भाय । कुलयरकमेण उप्पण्ण ताम । खेमंकरु खेमंधरु वि पवरु । उ विमलवा चक्खुभउ तेम | पियरजुयल तक्खणे उच्छिज्जइ । विणि विजुयलइ जीवहिं सरिसइ । तो हीयतें रुइ तरुजालें । कुलयरेण ते तेण जि अक्खिय । हृय णामें मरुएवि पहाणी । उप्पण्णउ सुह रिसहजिणेसरु । हावेविणु अपि मरुविहे । 5 5 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरकुमारहि सहु कोलंतें कच्छमहाकच्छाहिव धीयउ परिणियाउ तें पिउ उवरोहें असिमसिआइ कहिय भयवंतें । जंदसुणंदउ वेवि विणीयउ । रज्जे परिट्ठिउ ताम सुणेहें। 10 घत्ता- लीलए रज्ज करंतहो सउ पुत्तह तहो धीयजुयलु उप्पण्णउ । जिगु भोयरउ णियच्छिवि सुइ संगच्छिवि इंदें कज्ज पवगउ ॥२॥ पुवह तिह अहिय असीइलक्ख अट्ठारह कोडाकोडि कालु जिणु तो वि ण भावइ सुद्धभाउ इउ चितिवि पुण्णाउस णिउत्त । णज्चंति भावणवरस पसत्त तं णिएवि झस्ति जिणवरु विरत्तु सुरसिविया जाणे गुण महंतु परमेट्ठि सिद्ध हियवइ धरेवि तहोणेहवसेग गुणगणणिवास परिचत्तु देहु छम्मास जाम (3) परिगलिय गलिय णउ भोयकंख । सायरह जाउ धम्मतराल । उप्पायमि एयहोवरि विराउ । जोलंजस जिण अत्थागु पत्त । महि पडिय परव्वस पाणचत्त। णियरज्जे थवेविगु भरड पुत्तु । जयसद्दे सिद्धत्थवणु पत्तु। णिग्गंथु जाउ सिरि लोउ देवि । पव्वइय णरेंदह चउसहास । अच्छइ जिणिदु अवरमुणि ताम। 10 (1) 1.b जाणेविणु, a गण मणेविण b भणिउं for मित्तं, 2.b भासिउं, b तउं, a धम्म, 3.2 केव, a मणवेए सहि, b भणिउं, a एव, 4.b जाय for आसि, b बिधित्ता for विचित्त, 5.bजोयस०.bजोइंस,6.b दीवंग, b सिट्ठ, b कामुयजुयल दिट्ठ, 7.b वाहादिय, 8.b सुसमिहुं णइं, 9.a सुसमु दुसम, b सततय for सत्तभाय, 10.b अट्ठमउं, II.b पडिसुई तह सम्मइं, a खमंकर, b खेमकरु, 12.a चक्कुब्भ, 13.a repeats the line पुण जसस्सि अहिचंदु वि, 14.a omits वि । (2) 1.b जयलुप्पज्जइ, b उछज्जइ, 2.b दिण कइ वि मास, b वरिसई, b जुवलइं, b सरिसइं, 4.a लखिय, 6.b उप्पण्णउं, 7.a सुर for सिरि, a मरुदेविहि, 8.a अमरकुमारें, a आइय, 10.a उवरोहिं, b तासु जे जेहें, ll.b पुत्तइं, a उप्पणउ, b उप्पजाउं, 12.b पवण्णउं । (3) l.b पुवहिं तिहिं, a असीय, b कंक्ख, 2.b सायरहं, 3.b एयहोवर, 4.b इय, a पुणाउस, b णिरुत्त, 5.a पाणचत्तु, 6.b णवर for झत्ति, a पत्तु for पुत्तु, 7.a सिद्धत्थु पत्तु, 9.a णेहवसि, 10.b इयर for अवर, ll.a छंडिय, b गेहहिं, 12.a ता उलिंगिय, b गयणवाणि आयण्णहिं । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता - असहिय दुसह परीसह छड्डिय तवकह कंदमूलफल गिण्हहि । जाते यल कुलिगिय गयउल्लिगिय गयणि वाणि आयणहि || ३ || (4) रिसिरूउ लेवि तइलोयचंदु जइ णत्थि सत्ति वयभंगउ पाउ सिरिरूवें जं संचियउ पाउ ता कच्छमहाकच्छाहिवेहि अवरहि वक्कलदलपिच्छणित्थू भरसुय मरीएँ पंचवीस दिक्खिय तं दंसणु संखु जाउ चितेवि लच्छिफलु पत्त दाणु इविवि णाणाय धण्ण परिहरिय जेहि मुणिउ सचित्त रयणत्तयलंछण वंभसुत्त पाणापरिहाइ भूसणाइ १३४ तो ते भणिय भरहेण जेम जिह भरहहिं तिह वहु णरवरेहिं अइ वहु कालए तव्वंस जाय चितंति एम दपिट्ठ दुट्ठ परियाणिय णाणासत्यअत्थ सम्मत्त रहिय इय मंदभग्ग व णायति भुंजंति भोय एक्कहि दिणि णरवइ दाणकंख परियलिय रय समयम्मि जाम आढविउ काइ इउ कम्मुणिदु । परिहरहु झति णिग्गंथभाउ । जगि णत्थि तासु णिज्जरउवाउ । तणु धूलिउ सह कवय णिवेहि । जाउ म पासंडिसत्थु । तच्चाइ कवि कविलाइ सोस । एत्तहि महि साहिवि भरहराउ । तें पत्तु परिविख गुणणिहाणु | अत्थाणमग्गे अंकुर विभिण्ण । उत्तम सावय ते मणुय वृत्त कणयमय तिसर तहु कंठे खित्त । दिण्णइ गिहकंचण सासणाइ । घत्ता - पुणु वड्ढिय अणुराएँ पभणिउ राएँ जिणु थुणंत वयसंजय | जिणपरमागम भावहो मुणिपयसेवहो एहु सुज्झाणगुणेण जय ॥ ४ ॥ (5) थिय सयल धम्मु भावंत तेम | परिपुज्जिय कयपुण्णाय रेहि । जिण धम्मसिढिल मिच्छाणुराय । अम्ह णरिद वंदियग रिट्ठ । लोयाग्गह णिग्गह समत्थ । किम्मु मुवि उम्मग्गलग्ग । कुलगव्वे अवमाणंति लोय । मिलिऊण सयल पोसिय णियकंख । गच्छति कहि मि वणि महिसु ताम । 5 10 ( 4 ) 1. b काई, 2. a परिहरह, 4a तो for ता, boहिवेहि, b सहुं, b णिवेहि, 5.a संजाय, 6. b तच्चाई, b कविलाई, 7.b भरहु, 9a धम्म for धण्ण, 10.b जेहिं मुणिउं, 12 b परिहाणई भूसणाई दिण्णई, b सासणाई, 13.a पभणियं, a वयसंजयं, 14 b होहु for एहु, a सुज्झाणु गुणेज्जय । 5 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ गुरुभार खिय परिखीण गत्तु पिक्खे वि पुसु पहि पंकि खुत्तु । 10 घत्ता- तं संडेउ वि अप्पिवि पायहि चप्पिवि जाहि जाम परिवाडिए । मुहपएसु ता खत्तउ सासुपगुत्त उ पयभरे तहो सिरि पाडिए ॥५॥ (6) छुड पवणि पूरिउ तासु काउ ता दूसहु दुक्खु महंतु जाउ । पाणाउरु पंकए सुत्तगत्तु णिप्फंदवित्ति णियसत्ति चत्तु । चितइ एए अइसुदृभाव महु जीविउ तिणु व गणंति पाव । गय दुट्ठ केम सिरि पाउ देवि विणु कारणेण जीविउ हरेवि । चितंतु एम कोवग्गिदित्तु दुक्खें मरेवि असुरत्तु पत्तु। 5 तहि अवहि पउंजिवि णियइ जाम गयभवदुहु झुमरिवि कुइउ ताम । चितइ किं महु देवत्तणेण णिय सत्तु ण फलयहो णेमि जिण । अह एक्कवार जइ हणमि पाव सहु लइवि भवंतरि दुट्ठभाव । तो वरि अवयारु करेवि तेम सहु संतइए दुहु वि लहहि जेम । इय मणि धरेदि धयधूयमाणु घंटालि मुहलु सज्जिउ विमाणु । 10 पत्ता- जहिं ते महिस णिसुंभण अच्छहि वंभण तहिलीलए थि उ एविणु । मायाविउ पह भासुरु सो कालासुरु णहि चउवयणु हवेविण ॥६॥ (7) पेच्छेवि तेहिं सुहसंतभाउ के तुम्हई कज्जे केण आय सग्गहो अवइण्णउ मुणहु वंभु अवरावर वंभ मुहाउ पत्तु । णियवरिससएण गएण एमि पणवेविण पुच्छिउ भद्दकाउ । तें भणिय ताम पिय महुर वाय । हउ वंभणकुल कलिमल णिसुंभु । अच्छिउ तहि वेउ पढंतु संतु। चउवेयलोए पायडु करेमि । (5) la तें, a भरहेहि, adds रय in margin after सयल, 2.a भर हिं, bभरहहि, a गरवरेहि, 3.b अहुं वहु कालें तसंस, 4.b चितंत, b अम्हइं, 5.a णाणाविह पसत्थ, a पसत्थ for समत्थ, 6.b इ for इय, b मदभग्ग, 7.a कुलगंव्वें b कुलमेंव, 8.b दाणं 9.b सयल for इय, b कहिमि वण, 10.a परिरवेय, Il.b त संडेउं यप्पिवि, 12.b पयभरु तसु । (6) 3.a तण, b. adds ण before गणंति, 5.b एव, 6.bणियइं, b कुइउं ताम, 7.b चितइं, 8.b सुहु लहहि, 9.a तो वरं अवयरु, b करेमि, a ताम, b सहुं सं तईहे दुहु लहहिं, ll.a जहि, 12.b कलासुरु, a हवेप्पिणु । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालेण तुम्ह कुलधम्मु णट्ठ तो भणिउ तेहि णिग्गमहु वेउ तो तेण करे विसडंगु वेउ दट्ठव्वो रे अप्पा मुणेहु अणुमंतव्वो वि दधामि सव्वु इय एवमाइ वयणइ भणेवि पुणु दुक्खवलक्ख दरिसिय समेण पासंडिहिं एउ पासंडु सिठ्ठ । जे जाणहु णियकुलधम्मु देउ । सयमेव पढाविय विप्पएउ । सोयव्यो रे अप्पा गणेहु । जिह अप्पा तिह परु गणहु सव्वु । परमहो वीसासहो पढम णेवि । णिय कोवकज्जु सारिउ कमेण । 10 घत्ता- अतिहिपियर सम्माणह जण्णविहाणह धम्म जीव हणाविय । दियकुलधम्म भणेविणु वेउ पढेविणु सग्गमोक्खफलदाविय ।।७।। (8) 5 कप्पहो महु क्ख वरसोत्तियासु अहवा मह जु गेहा गयासु । अणड हिय हरिणि अह वाहणेहु अवरहि वि अतिहितप्पणु करे । सल्लयगंडय अयसंसयमेस रुरुसंवरहरिणवराहम हिस । पारावयलावयहसमारे वट्टइयचासतित्तिरचउर । सारयभेरुंड कवोयकुरर इय एवमाइ वहु पक्खि यवर। रोहियमच्छाइयपहाण जलयरथलयर वि अमियपमाण । घाएवि भुंजावेवि विप्पपवर पीणिज्जह भत्तिए मोत्तपियर । णाणाविह जण्णविहाण भेउ अवरु वि दरिसिउ पढिऊण वेउ । राएँ अह राउ वि हणिउ जेत्थु सो रायसूउ भासिउ पसत्थु । गयमेहु महागयहवण सिद्ध अस्सवहु अस्समेहु वि पसिद्ध। घत्ता- गोअपसूय हुणिज्जइ जहिंसो गज्जइ जगे गोमेहु पसत्थउ । पसुमेहु वि पसुहोमें सहुं वर सोमें सरगुप्पायसमत्थउ ॥८॥ 10 (7) la तेहि, सहसंतभाउ पणवेप्पिणु, 2.a तुम्हेइ, 3.a अवयण्णउ, b अवइण्णउं मुणहुं, b हउं, 4.a वेय, 5.a एवि, b पायड, a करेवि, 6.a पासंडिहि, 7.b भणिउं, a जाणह, 9.a दट्ठचोरे, 10.b वयणइं, 12.b दुरुवलक्ख, 13.b सम्माणहु जण्णविहाणहु, 14.a वेय । (8) 2.b मि for वि, 3.b •महिस० for •ससय०, 4.b चर्कर, 5.b कुरुर, b पक्खपवर, 6.b रोहित्तय, b. omits थलयर before वि, 7.a विपपउर, b वीणिज्जहु, 9.b हुणिलं, b पयत्यु, 11.b हणिज्जइ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्खभक्खणु संभाविय सो अपे पे संभवि उ तद्यथा स्वयमेवागतां नारों यो न कामयते नरः ब्रह्महत्या भवेत्तस्य पूव्वं ब्रह्माब्रवीदिदम् ॥ ॥ अवरु महा अगम्मविहि मासिउ एवमाइ अवरु वि जंपेविणु कोवसमाणु वरु साहेविणु कालासुरु कयत्थु जियगे हहो तो दुट्ठत्तु दिएहि ण लक्खि उ उपमाणु अविणासिउ तद्यथा मातरमुपैहि स्वसारमुपंहि पुचार्थो न कामार्थी || २ || लोएँ ण वि विसयामिसलुद्धे इय मरु वेयवेड संजायउ अवरु वि मुणिसुव्वयजिणगाहहो वासुरविमुएवल धवलंग उ १३७ (9) मज्जपाणि सोयामणि दाविय । आगय परदारु वि सेवाविउ । रिसिलघु पास जिणणा तित्थे गउ पुत्र सिजज्जपुरणयरे जाणिए मुनिगाहें संघ वृत्तु णियजणणी संगम पयासिउं । पडु अधम्मुवि धम्मु कहेविणु । णिय आसमहो जामि पभणेविणु । गउ संतुट्ठ रमणिगण सोहहो । धम्मु भणिवि गहिउ अपरिक्खि उ । 10 इय भणेवि सविसेसु पयासिउ । गहिउ भणेविणु सुहरु मुद्धे । कालकमेण जाउ विक्खायउ । तत्थि वहतें णाणसणाहहो । तो कंकालु लेवि सोयगउ । घत्ता हरि जीवंतु गणतउ खंधि वहंतउ छम्मासार्वाहि जइयहो । उता मिच्छालाएँ इह किउ लोएँ कंकालवउ वि तइयहो || ९ || (10) 5 विहरंतु पिहिवि पडियपसत्थे । मंसासिय सयलणायरियणियरे । मा जाउ को विचरियए णिरुत्तु । 15 ( 9 ) 1.b उब्भविउ महुपाणु सुत्तामणि दाविउं, 2.b आगउ परयारु, 3.a नारी, 4. भवेतस्य 5 a तहा अगमुबिहि, 6. b स्वसारमुपैहि, b. omits च, Amitagati does not quote the verse in his धर्मपरीक्षा, 9.b कालासुभ, गउ सतुरं तुणिगण०, 10 a दिएहि, b. omits ण, 12.b. omits ण, b विसया आमिस०, 13.b जेण कमेण for कालकमेण, 14.b वहंत, 15.6 सोएं गउ, 46.6 छम्मासावइ, 17.2 तइयहो । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ एक्के मुणिणा एरिसु सुणेवि सुद्धोयणुलेसमिइ य मुणेवि । चरियाए गंपि घयखंडरिद्ध ___ मच्छय-तणुतदुलखीरसुद्ध। 5 एविणु गणि पच्चक्खाणु जाम मग्गिउ मुणिणाहें भणिउ ताम । पइलयउ असुद्धाहारु अज्जु हा हा णासिउ णियधम्मकज्ज । उग्गिलिउ मुणिउ पुणु तेग मंसु पणिउ पत्तवडिए णत्थि दोसु । घत्ता- पुणु जिणसासणु छंडिउ मुणिवउ खंडिउ तेण सविज्जागावें । देउ वि वुध पयासिउ कहिउ पलासिउ मण्णिउ जणेण अभव् ।।१०।। 10 (1) समयाइ य जाय अहो समाया रिसहो पुणु णाहिसुओ रिसहो । अरिहो सणरामर पूरिहो विणिजो हविहंडणु सो वि जिणो। सविहि कयकम्मविणासलिही स हरी तहो देव णयास हरी। स हरो भवसंभवदोसहरो सुगओ वि य सो सुगई सुगओ। स रवी सयलत्थ पयासरवी अमरो ह पहू स सया अमरो। 5 दहणो कसायतरुरुद्दहणो सजमो मयमोह वि हंसजमो। णयरीउ स सच्चविलीणयरी वरुणो सणरायणहा वरुणो। पवणो स भवोयहि संपवणो धणओ सजणाण महाधणओ। सविसो भणिओ कयविस्ससिओ धरणो स य सेसखमाधरणो। स बिहूत महाभुवणे सविहू कहिओ इय तोडयलोकहिओ। 10 घत्ता- इय भासिउ णिसुणे विणु फुडु मण्णे विणु वोल्लिउ मारुयवेएँ । मित्तणरए णिवांतउ पलयहो जंतउ रक्खिउ पइ सुविवेएँ । (12) पवनवेग का हृदयपरिवर्तन तुहु परममित्तु अह परमसामि अह बंधु पियरु गुरु अग्गगामि । मिच्छन्तु णिविडु में हरिउ मज्झु को सरिसु भणमि भुवणयलि तुज्झु । (10) la पिहिमि, a पयत्थे, 2.b मंसासि, 5.b सिद्ध, 7.b पई लेवि for पइलयउ, a हहा, b परलोय for णियधम्म, 8.b मुणिउं, b पणिउं, ___10.b मण्णिउं, a अभब्वे, Cf. दर्शनसार of देवसेन । (11) 1.b जायं, a समाय for समया, 6.a सकसायतरु दहणो b०विहंसजामो, 7.a विलीणसरी written and 2 on the head of य and ण respectively and it is explained in the margin as नरुत, 8.5 भवोवहि, 9.b सिओ for सिवो, 1.a मण्णेविण्णु पुणु वोल्लिउ मरुवेएं। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ मणुयत्तु दुसलु संसारि एत्थु सुलहइ रयणइ रमणी सुहाइ सम्मत्तरयण पुणु होइ दुलहु देवो तिहुयणगुरु होइ सो वि ते कमयल जे जिण भवणे पत्त ते करयल जे जिणण्हवणगुत्त तं मुहु जं जिणगुणगहणि रसिउ मो दरउवयारिय विमलचित पत्तेवि अंगि णिव्वं गि जित्थु । वरउज्जाणइ णयरें गिहाइ। महु तुज्झ पसाएँ जाउ सुलहु। 5 सम्मत्तसहिउ जिणु थुणइ जो वि। ते णयण मुणमि जे जिणहो रत्त । जिणगुण सुगंति ते धण्ण सुत्त । तं णरतणु जं जिणधम्मे वसिउ । जिणधम्म लेवि वउ करमि मित्त । 10 धत्ता- इय पणिउ मरुवेएँ ता मणवेएँ णिसुणे विण वोलिज्जइ । एहि पुरिहि उज्जेणिहि केवलणाणिहि मुणिहि पासि जाइज्जइ ॥१२॥ (13) एम भणेवि खगाहिवपुत्ता दिव्यविमाणहि खे वियरंता णिम्मल केवल लच्छिसणाह णायणरामरखेयरवंदं मित्तणि मित्त समुण्णयचितो बोल्लइ केवलिपासि णिविट्ठो जासु कए मइ णेहविहत्तें पाडलिउत्तपुरम्मि दियाणं सच्चुअसच्च सुणेवि विरत्तो जाउ जिणेसर धम्मि सुरत्तो दिव्वविहूसण भूसियगत्ता। तम्मि पएसि खणेण वि पत्ता । तस्थ णवेविण तं मणिणाहूँ। वंदिउ तेहि पुणो मुणिचंदं । माणसवेउ सिरेण पमंतो। सामिय एस सुहीम मइहो । पुच्छिय तुम्हइ धम्मणिमित्तें । एम सुणेविणु वेयपुराणं ।। उज्झिय मिच्छमलो उवसंतो। छंदो एरिसु दावउ बुत्तो। घत्ता- मुणि एयही वउ दिज्जइ करुणु रइज्जइ इय पसाउ महु किज्जइ। मणवेयहो वयणुल्लउ मण्मवि भल्लउ मुणिणाहेण भणिज्जइ ॥१३॥ (12) 1a संग्गगामि, 4.b सुलहई रयणइं, b सुहाई, b उजाणइं णयरइं मिहाई, 5.a समस्त०, 6.b थुणई मो वि, 7.b गणमि for मुणमि, b एत्त for रत्त, 8.b ०ण्हवणे, 9.b तं मुहु जिण°, a जिणधम्म, 10.a लेमि, lla तं tor ता। (13) 2b ०विमाणहिं, 4.6 तेहिं णवेवि मुणिचंदं, 6 b वहट्ठो for णिविठो, a सामिस एस, 7b मई,' a हविभत्तें, b तुम्हई, 8.a एण मणेविण, 9.a सक्कअसक्क, a मच्छमलो, 10.b छंदउ, b दोधउ for दावउ, a उत्तो, 1.b रइज्जउ, a मुहु, 12.b मणेवि for मण्पवि। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० (14) श्रावकव्रत भो खणवेय सावयवयाइ णिसुविणु गिण्हहि सुहवयाइ । मा भक्खहि उंवरपिप्पलाइ वडवडिपंपरितरु फलफलाइ । महुमज्जपाण तह मा करेहि तणु मूलगुणेहिं अलंकरेहि। जीववह असच्च वि परिहरेहि परदव्वु क काइवि अवहरेहि । वज्जेहि सुरू उ वि परकलत्तु अप्प व्व णिसिहि रमणिय कलत्तु। 5 मिय परिग्गहु करहि अणुव्वयाइ इय पंच तिण्णि सुणि गुणवयाइ । दिसि विदिसि हु गमणपयोजणाह करि संखहि ससजोयणाह । जहि देसहि भंगुह वइवयाह परिहरि ते गम्मु ण सावयाह । घत्ता- रज्जु वि साडयस पहु दिय दुहयर पयडिय देहि म कहहो वि ___ कयाइ वि। दरमारणरयचित्तहु रुद्दहँ सत्तहँ चाउ करेहि सयाइ वि ।।१४।। 10 (15) जं जीवेसु महत्ती भाविवि संजमि पुणु सुभायण पावेवि । अट्टरउद्दज्झाण मिल्लेविणु पावणि जिगमंदिरि पइसेविणु । अह घरे सुइ पडिमग्गए थाएवि __ अह उत्तरदिसि संमुह होएवि । किरियापुवें जिणु वंदिज्जइ तं सिक्खावउ पढमु भणिज्जइ । उत्तमु तं पि हवेइ तिवारए मज्झिमु पुणु भासियउ दुवारए। 5 एक्कवार जिणवरु वंदंतहँ तं पि जहण्णु दुरिउ णिदंतहँ । सत्तमि तेरसीहिं भुत्तंतरे उववासं लएवि पुणु जिणहरे । जंणियमे य करणे णिसि णिज्जइ सो पोसहउववासु भणिज्जइ । अहवा णियघ रेवि अच्छेवउ किसिवाणिज्जइ ण गच्छेवउ । (14) 1. जो for भो, b ०वयाइं in both places, b गेण्हहं, 2.b णिप्लाई, a फलपलाइ, b फलाइं, 3.b इ महु मज्जु पाणु, a गुणेहि, b अलंकरहिं, 4.b म काइंमि अवहरेहि, 5.b वजेहिं सरू उ वि, a अप्प व्वं in margin is written for अ, b णिसिहि, 6.b परिगहु करहिं अणुव्वयाई, b सुणु गुणवयाई, 7.b विदिसिहि गमण पजोसणाहं करि संखइ सं संजोयणाहं, 8.b जहिं देसह. b वयाह, b तं for ते, b सावयाह, 9.b पयडियं, b कहो वि, 10.a. 'omits रय before चित्तहु, b रुद्दहुं सत्तहु । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ जोइय कीरइ भवियणविंदहि सो भासिउ उववासु मुणिदहि। 10 घत्ता- जं एयाहाराइ उ तं पि णिवेइउ पोतहो मुणिवरसहि । इय वियाउ सिवखावउ तिविह वि सुहावउ किज्जइ भवियगिहत्यहि ॥१५।। (16) भुमिसयणु तह तियपरिहरणउ एउ वि इत्थ वि जाणहि करणउ । सुपहाएँ जिणमंदिरि गच्छिवि वंदणभत्तिकरेवि सइच्छवि । ण्ड्वणपुज्जनमुलहणु करेविणु मुणिवरचरणजुयल पणवेविणु । जिणवर गियघरदार घरेसहि अहवा मग्गिहि पंथि गवेसहि । पत्तु णवेविणु पडिग्गाहिज्जइ आयरेण पुणु मंदिरि गिज्जइ। तत्थवि उच्चासणि वइसारेवि फासुयसलिलें पय पक्खालेवि । पुज्ज करेवि अट्टविह भत्तिए पक्कु सुहाहारु वि णियसत्तिए । ज विहिविहियउ भवियहिं किज्जइ तं सिक्खावउ तइउ भणिज्जइ । भोउवभोयसंख जहि किज्जइ तं चउत्थ सिक्खावउ गिज्जइ । मरणयाले सण्णासु करेविणु वज्झन्भंतरसंगु मुएविणु । 10 सुहभावेण देह जो मुच्चइ । तं चउत्थ सिक्खावउ वुच्चइ । अवरु वि भवियहि एम करेवउ अणिसिहि मउ ण वएँ भुंजेवउ । उबराइँ थिय दोसइँ णिसुणहि पंचुंवतसजोणि वियाणहि । मयपाणम्मि हियाहिउ ण मुणइ मंसभरिखणरु हिंसा ण गणइ । घत्ता- समुच्छि मए पयासिय आयमभासिय वणगंधरसफासहि। 15 भिण्णणए अवर वि जेण जि मुणियण तेण जि वहु जीव वि महुमासहिं ॥१६॥ (17) महुमक्खियअंडयरम हवेइ जं पाउगामवारहदहणे इय वेयवयणु सुपसिद्ध जइ वि हिसारउ सबहो भयपयामि तह मिच्छु चिट्ठउ जणु चवेइ । तं होए एक्क महुविदु वि वणे । ' महपाणु ण मेल्लड मूढ तइ वि । लहु लोए होइ णरु आलियभासि । (15) l.a पुण, a भाविवि for पावेवि, 2.b ०ज्झागु, a पावण, 3.a सुइ अह घर पडि०, b संमुहुँ, a जोइवि for होएवि, 5.a मज्झिम, 6.a वंदंतह, a णिदंतह, 7.a तेर सीहि भत्तुत्तरे, 8.b तण्णियमि, a पोसहु उवासु पभणेज्जइ, 9.a अच्चिव्वउ, a वाणिज्जहि, 10.boविंदहि, b मुणिदहिं, 11.b सत्थहिं, 12.b. omits वि, a मुहवउ for सुहावउ, b गिहत्यहिं । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ परदव्वहरणे मरणउ लहेइ पररमणिरमणे तं चिय दुहु सहेइ। 5 वहु परिगह कंखए कलमलंतु रयणिहिं.वि णि ण लहइ सुयंतु । इय एवमा वहु दोस भणिय परलोयदुक्खु पुणु केण मुणिय । तें कज्जे एयह भणिउ वाउ एरिसु वयकारणु पुण्णहेउ । इय एरिसे ण पालिय वएण सुहु लब्भइ मणुएँ भव्वएण। जे खगमोक्खसुहयरतरूहुँ मूलगुणाइ य अंकुरु गुरुहुँ । 10 धत्ता- ते विसयाणलचुक्का होहि गुसक्का हरिसेणहो जं इट्ठ । दिहि भविय सुउणि गणहँ परितुट्ठ मणहं सासयफलु सुहमिट्ठउ ॥१७॥ इय धम्मपरिक्खाए चउवग्गहिट्ठियाए चित्ताए। वुहहरिसेणकयाए वहमो संधी परिसमत्तो ॥ छ । श्लोक ॥१६२॥ छ ।। * * * (16) 1.b परिहरणउं, a. writes in margin तह मियकरणउ and writes संकोइयकरणउ after हरणउ, a वत्थु for इत्थ, b जाणहि करणउं, 2.a सुपहावें, b जिणमंदिर गच्छवि, b सइंच्छावे, b सवलहण, 3.a पणवेपिणु, b पणवेप्पिणु, 4.5 घरेसहि, b मग्गहि, a पत्थि, b यवेसहि, 5.b मंदिर, 6.a तत्थ हु, a वइसारवि, 8.a जे वेहि विहि भवियउ दिज्जइ, 9.a जहि, 10 & ll.a two lines मरणया ले. . . to वच्चाइ, 12.a भवियह एउ करेयउ, a भुजेव्वउ, 13.a उंवराइ, a दोसें, b णिसुणहि, 14.b मुणई, a मंसु भक्खि, b गणई, 15.a फासहि, 16.a भिण्ण न अवर जोण जि, a. adds वे after तेण, a मंसहि । (17) 2.b वणि, 3.b मेल्लाहिं मूढ, 4.b सव्वहं, b. inter. लोए and होइ... अलियरसि, 5 परदव्वे हरण, b मरणउं, a पररमणिहि तं चिय, b omits दुहु, 6.a रयणिहि ण णिह. a अतित्तु for सुयंतु, 7.a इह एवमाए इह दोस, गणिय for मुणिय, 8.b एत्थहं भणिउ, a एरिस वयकरण सुपुण्णहेउ, 10.bi, a तरुहु, a गुरुहु, 11.b होहिं, b हरिसेणहें, 12.b देहि, 8 मणहं for गणई, a सासयसुहुफलु मिट्ठ, 14. परिसंमत्तो, b ॥१७॥ for,॥ श्लोकः ।। १६२॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. एयारहमो संधि मेवाड और उज्जयिनी नगर का वर्णन णिसिपहरहो पुण्णज्जणे भोयणवज्जणे णिसुणह जं फल सिद्धउ । जंदीवि विसालए भरहि सुहालए मेवाडविसउ रिद्धउ॥छ । जो सिहरि सिहिणकेक्कारमल्लु सरितडिरहट्टजवसेयगिल्लु । तरुकुसुमगंधवासियदियंतु णीसेससाससंपुण्णछेत्तु । च्यवणकोइलालावरम्म वरसरसारसवयजणियपिम्मु । भिसकिसलयसायणतुट्ठहंसु मररंदमत्तअलिउलणिघोसु । करवंदजालकिडिविहियघोसु वणतरुहलसउ णिगणाण पोसु । कयसासचरणगोमहिसिमहिसु उच्छवण पदरिसिय रसविसेसु । तग्घाणाणेदिय दीयवंदु थलणलिणिसयणगयपहियतंदु । वरसालि सुगंधियगंधवाहु तक्कणिसकणववियसुयसमूह। 10 तं गियडगाममंडियवएसु जणपूरियइच्छिय जाव कोसु । रिउजोग्गसोक्खरंजियजणोहु गयचोरमारिभयलद्धसोहु । घरता- जो उज्जाणहि सोहइ खेहरमोहइ वल्लाहरहि विसालहि । मणिकंचणकयपुण्णहि अइवरवण्णहि पुरहि संगोउरसालहि ॥१॥ (2) तहि अत्थि कोट्ट सिरिचित्तकडु जहि मणहरु जिणहरु सहसकूडु । सोहइ सुरणयणाणंदिरेहिं । पंच सय संख जिणमंदिरेहिं । लोइयसुरहरइ मि जहि जणेण संवच्छरंतणिवडणभएण। (1) l.a पुण्णजणि, b णिसुणहुं, 2.a मेवाडु विसउ अरिद्धउ, 3.a केक्काखेल, 4. सिस्सेण for पीसेण, b संपण्णं०, 7.a गण for गणण, 8.b गोमहि समहिंसमहिसु, 9.b तप्पाणेणंदियदीणवंद्र, a सयल• for सयण, 10.b सुवंधिय०, II.b. omits तं, 13.b जा उज्जाणहि, b वल्लीहरहिं विसालहिं, 14.a कण• for °कय०, b पुण्णहि, b वणरवण्णहि for अइवरवण्णहि, b पुरहि, a सुगोउर० । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवरणपडिमा मुद्दवियाइँ जहि गुमुगुमंत महयरकुलाइँ णिर्याडभरइयकीलाउलाई सज्जनचित्ताइ व णिम्मलाइँ हि इणिपत्तहि सोहियाइँ वरवावी कूवतलाययाइँ णिसुणिय वरहिणरव विरहिणीउ निशिभोजन कथा तर्हि पमाणु पर्यडु णरेसरु तहो गेहणि पियगोरि महासइ तहो सिरिपालु मंति वहु जाणउ तहो सिरिपालहो धणवइ रोहिणि विहिति ताहँ जिणमुणिपयभत्तहँ एकहि दिणि जागरियहो महिलए १४४ भवियहि जणहर वसंक्रियाई । वरतरुवराइ सुमहरफलाई । जहिं दीसह वहुवाणरउलाई । जहि झरझरांति णिज्झरजलाई । कीलारयकामिणि डोहियाएँ । बत्तीस अत्थि समपयाइँ । सइपियसाउ जहि माणिणीउ । 10 घत्ता - जंति को दोहतें कोसु पिहुतें अद्भुको जसु उई । जासु उवरि आस्तु वि नरु अइमूढ वि अप्पर तरुणउँ मण्ण ॥२॥ (3) आसि णाइँ सग्गमि सुरेसरु । णं रामहो घर सीयमहासङ | जसु सुरगुरुविण मइए समाउ ! णं इंदहो सइ ण चंदहो रोहिणि । विres कालु धम्मि सत्तहुँ । मग्गिय वाढी संझावेलए । 5 ( 2 ) 1.b तहि, 2. ०णंदिरेहि, a मंदिरेहि, 3.b ० सुरहरई वि, 4. मुकियाइ, a जिणहरइ मिसंकियाइ, 5a जहि, b गुमगुमंतमहुयर, कुलाइ, a वरतरुवणाइ, a फलाइ, 6.a णियडिय भररइयकीलाउलाइ जहि दीसहि, उलाइ 7.a जिम्मलाइ जहि ०जलाइ, 8. a जहि a सोहियई, 9.a oतलायाs, a अत्थी, b. adds पय before समपयाइँ, a समपयाइ, 10. a सहि for सइ, a अद्धकोसु जसु ऊण्णउ 12.2 अइबूदुवि, a मणउइ for मण्णई | 5 ( 3 ) 1.2 तहि, 2 b गेणि for गेहणि, 2.3 पियगौरि, महासइ, 3 b जाणउं, 4.a. omits णं before इंदहो, b सई, 5.a विहिं वि ताह, a ०भत्तहो, b वियलई, a आसतहो, 6.8 सज्झावेलए, b संज्झावेलई (ला). 7. b तर्षाणि मंदिरु, b धणवई पुत्तिहिं ( Then four lines were deteted in a) . 8.a तेण वि सुणिउ for ताए भणिउ, b भणिउं ण सिहि भुंजिज्ज b सुणिज्जई, 9 a जें for जं, b दिट्ठ मई णिसुणहि, b सुय for पुत्त, a तेण वि for तं, b तुज्झ समक्खमि । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत्तहि तक्खाणि मंदिरि पत्तहि मग्गिओ भोयण धणवइ पुत्तहि । ताए भणिउ णिसि ण भुंजिज्जइ पुत्त महारओ क्यणु सुणिज्जइ । घस्ता- वालत्तणि जं दिट्ठ मइ णिसुणि पुत्त तुह दरिसमि । भोयणुर यणिहि वज्जियउ तं हउ तुहि अक्खमि ॥३॥ (4) पुणु धणवइ णियपंदणु पवुत्तु पायड वियाणु संपय सजुत्तु । रहणेउरपुर तहि वसइ लोउ उवमिज्जइ तासु ण सग्गलोउ । तहो गयरहो वाहिरु अइखण्ण सररामविहारइ घणसउण्ण । गोयरविचित्त पायारतुंगु तहो केण वि ण किउ कयावि भंगु । चउहट्ट मग्ग अइसोहमाणु देउलइ तुंगु अइअप्पमाणु। 5 जहि मंगलु णत्थि सोउ जम्महि वि ण दोसइ तहि विओउ । अवरु वि तहि पुरवर अस्थि चोज्जु परुपरहो ण केरउ मुणइ खोज्जु । जणसंकुलु पुरबरु सोहमाणु पइ सारु प तहि पुरि लहइ पाणु । घस्ता- पर एक्कु वि तहि दोसु जिगधम्म वि ण मुणिज्जइ । बिसयासत्तउ लोउ पसु जंगलु भक्खिज्जइ ॥४॥ 10 (5) कोरटक्कु तहि परवइ पयंडु रिउसिलसिहरिण वज्जदंडु । तहो केरउ जो ण वि करइ वयणु पुणु दरिसइ तहो णित्तुल उ मरणु । पय पालइ तहो गुण इआ महंतु परतिय परिहरइ सुसत्तवंत्तु । तहो रूव अवरु ण उ को वि दिठ्ठ वसुए वहि अवइण्णु विठ्ठ । तिय पंचसयइ वहु कणयमाल सोहग्गवंत अइगुणविसाल। 5 (4) 1.b धणवई. b कित्तु for पउत्तु b वरपडु विलास संपय विउस्तु for पायउ etc. 2.b वसई लोउं उवमिज्जइं, a सग्गि, b सग्म लोउ, 3.a णयरहि वाहिर, a ०वण्णु, b वणु 3.b after सर स, omits म विहासहि etc. चउहट्टमग्ग, 4.a तुंग, a अइंसोहमाण, 5.a देउलउं त्तुंगहि अप्पमाणा, 6.a & b. after अप्पमाणु, adds धणकणसमिद्ध तहि वसइ लोउ, b वसइ, b. omits जहि मंगलु णत्थि सोउ, b जम्महं वि ण दीसइ जहि विओओ, 7.a अवर वि, b पुरवरि, b चोजु, b केरउं b पोजु, 8.a जणसंकुल, b पई, b लहई, 9.b धंम्म, b मुणिज्जइं, 10.a सुर आसत्तउ, b लोउं; b भक्खिज्जई। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सय वुद्धिमंति अइगुण महंतु तहि पुरि वणिजारओ इक्कु आउ तहि पुरवाहिरि चंडीविहारु तासु वि सुवइउ सुह जणणि सुपुत्तु । वसणह मगइ ण उ लहइ ठाउ । पई सेविणु तहि थिउ देविणु दारु । घत्ता- भयडरियउ अच्छइ तहि पुणु पिच्छइ भूयवियालहि तहि जि पुणु । तहो सदु सुणेविणु मउणु करेविणु णिच्छउ आयउ धुव मरणु ॥५। 10 (6) तहि ठियउ पच्छण्णु सो जाम अच्छेइ वेयाल कीलंति वहुविहइ पिच्छेइ । तहि के वि कत्ती करेलेवि धावंति खटुंगकावाल पुणु लेवि णच्चति । हिम्मंसकडिएहि ददुरियणासेहिं टट्टरियसीसेहि पिंगलियणयणेहिं । अवरेण ते भणिय कि तुहि अच्छेहु जि राउ भुंजेइ तं वेल पेच्छेइ । तहो वयणु णिसुणे वि तं एक्कु संचलिउ णिमिसेण सो पत्तु धवल हरिण खणे चउिड। तं वेल विच्छरिय पिक्खेवि सहसत्ति पेयहिउ भणिउ आवेवितं झत्ति । तहो भयवयणेण संचलिय णिसि जाम वणि उत्तु वाहेहि धरिसण तहि ताम । जहि राउ भुंजेइ तहि आवि ते पत्त मणपवणवेएहि पाहुणहि संजुत्त । घत्ता- तहि भोयणवेलए वहु वेयालए किलिकिलंतपच्छण्णभया । भुंजइ तहि एक्कहि ण वि ते पेक्खहि रयणिहि भुंजिवि सयलगया ॥६॥ 10 (5) 1.b णरवई, b रिउ, b वज्जदंड, 2.b करई, b दरिसइं, 3.b पालई, b पहु for इओ, b परिहरई, a सुसच्चंवंतु, 4.b रूवें, b वसुएवहो णं अवइंणु, 5.b पंचसयहो, a कणवमाल, b omits सोहग्गवंत etc... to सुपुत्तु, a सुपुत्त, 7.a एकु, b आउं, b वसणइं मग्गिउं ण उ लद्ध ठाउं, 8.a तहो पुरवाहिर, a पइ, a. omits तहि, b देविदारु, a कवाडु for दारु, 9.b डरियउं अच्छइं, a तहो जइ पिच्छइ भूयवियालिहि, 10.b णिच्छउं आयउं धुउ मरणु । (6) 1.b ठियउं, b जाएवि अच्छेइं, b कीतत, b पिच्छेई, 2.b करेतें वि, a खट्टंग, b ते वि for ले वि, 3.b कलिएहि, a ददुरिय०, a.b णासेहि, a पिंगलाय०, 4.a. adds झंपडिय केसेवि before अवरेण etc. a अवरेणि भणिएण, b तुम्हि अच्छेहुँ, b राउं भुजेइ, b णिच्छिहुँ, 5.a णिविसेण, a हरि for हरिण, 6.b पेयाहिवो चलिओ आएसि तहोब्भति, 7.b वहु for तहो, a वाहीहि, b. after धरिऊ there is a space before ताम, 8.b राउं भुजेइ, a आया for आवि, a मेणपवणवेयेण, 10.b भुंजहि, a एकहि, b गय। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ णिसियर णिसि भुजिवि गइय जाम वणियवरु वि एक्कु जि पर थक्कु ताम । भुयमहंतपहावें तहि पय? पुणु सो तहि विणिठु सयलहहि दिछु । राएँ पभणिउ एह केम आउ दट्टउ महंतु महु चोज्जु जाउ। रायहो आएसि सो गिविठ्ठ पुणु वणिवरु गुत्तिहि णेवि छ? । तहि कालइ हउ वि आयाण भाव णिसि गइय सूरु उग्गमिउ ताम। 5 राएँ पणिउ वणिवरु बरिठ्ठ महु सत्तभूमि तुहु कि म पइछ । ति भणिओ देव जइ अभओ लहमि वित्तंत्तु सयल हउ तुम्ह कहमि । तुह णयरहो पासि मणोहिराम पंच उग्गम उडु सुपसिद्ध णामु । घत्ता- तहि हउ णिवसंतउ सुहि अच्छंतउ रहणेउरपुर आउ हउ। विवहारु ण सरियउ रवि अच्छमियउ तहि मइ पइ सणहलद्ध णउ ॥७॥ 10 (8) 5 चंडीमंदिरे अइ वसि उ जाम खटुंगकवालतिसुलधारिया ताह उ अवलोयेमि लयउ वाह तहो मंतिपहावें एत्थ आउ । तुह सहु भुंजिउ मइ इत्थु जाम तहु वयणु सुणेवि कंपिउ दव स्ति जो गुरकेर उवएसु कुणइ पंचिदिय पसरु गिरोहु कुणइ जाणिउ किउ एयहो सुह पणामु अमरउ रिउव्व सोहाजुयाउ किलिक्लिहि भूययाल ताम । ___जाइणि साइणि सहु तेवि चलिया । महाणखंडु महु दिण्णु ताह। तुह पासि तेहि महु दिण्णु ठाउ। ते सयल वि गय हउ थक्कु ताम। णिसिभोयणु वज्जिउ तेण झत्ति । जो धम्मु असेसु वि सयलु मुणइ । तह लेउ वि परलोउ गणइ । सो चलियउ रावहो करि पणामु । मइ सहिउ एउ चित्तवडि आउ। 10 घत्ता-जा अच्छमि तहि पुरि सिरिवालहो घरि लायण्णउ तें दिठ्ठ महु । . तहो ताएं दिणि पुणु अवइण्णी सयलहु लोयहो जाणिवि सुहु ॥८॥ (7) 1.b जामा, b वणियवरुपक्कपर क्कु तामा, a एकु, 2 b भुवगंत. b. omits तहि, a णिविट्ठ, b सयलहंमि, 3.b सए पभाणेओ इहुँ, b चोज्जु, 4.b णिवठ्ठ, b वरु णेविणु मुत्ति छुछु, 5.b अयाण्ण भावा, b. omits तहि कालइ etc. to line, 6. पइठ्ठ, 7.b देहि for लहमि, b सयलु तं तुहु कहेहि, 8.b तुह णय and leaves the space blank to जो धम्म असेसु वि and begins with सयलु मुणइं ॥ 8.a णासु for णामु । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्जु विवाहमहोच्छओ जावहि महविताओ मुणिसंवहँ सहियउ कोरंटकणिवेण पण विज्जइ यह भय वजिउ राएँ एहु वित्तंतु सयलु मइ सिट्ठउ aras भइ णिसिहि जो भुंजड़ धम्मु विष्णासि विहलु मणुयत्तणु ताइ भणिउ सामिणि दय किज्जइ ता अणथ मिउ ताइ तदो कहियउ तामताए जंपिउ पिय णिसुणहि तं णिसुविणु पाणविरुद्धेउ मइ सहु भोयण जेण विरक्ती इ भविणु छुरिए धरिय तेत्थु जि सायरवणीयहो घरणिहि पहरविहर वयमूल संपण्णी कित्तिउ धम्मपहाउ भणिज्जइ एत्तहि नो मयणिद्दए भत्तउ सो चंडालु पहाए विलुद्धउ are छुरिए उरु वियारिउ १४८ (9) धत्ता- नियमं मंदिर संपत्ती णिसिहि सपत्ती चंडालेण भणिज्जइ । भोय सामणिदिण्णउ वजणपुण्णउ वाढइ हे सह जे मिज्जइ ||९|| विरसं पराय तावहि । कहिमि दिणि रहाणेउरु गइयउ । तेण वि तहो जिणधम्मु कहिज्जइ । भुणिवरसंकु णिवंत ताएँ । पुणु पुणु तहि नियणंदणु उत्तउ । सो मूढउ धम्मं घिउ भंजइ । तें वयणें पाणिहि कंपिउ मणु । महु णिवित्ति निसिभोज्जहो हिज्जइ । जयसिरेण चंडालि गहियउ । 5 10 (10) 5 यहि भोयणु ण करमि म भणहि । भइ पुणु वि पुणु इंदियलुद्धउ । तेंडु अवरहितुं अणुरती । मयमत्तेण तेण सा मारिय । सायर सिरिहि आहि सायरणिहि । सा सुमुहु तें गब्भि उप्पण्णी । धम्में उत्तंतु कुलु पाविज्जइ । रवित्ति छुरिकरु सुत्तउ । पियमरणेणप्पाणहो कुद्धउ । तेण वि तहि अप्पर संधारिउ । 10 ( 8 ) 2. धारि, 7.a adds मेक्खेहो पहाउ ण रमंत सत्ति before गुरु जो गुरकेर, 3.b मुणई, 8.aपसर, b कुणई || जो लोएं जाणिउं विमल णामुं ॥ सो चलिओ रायहो करिय णामु || 10.b अमराउं रि व्व सोहा जुआउं ॥ सहि हु चित्तउडु आउ, 11. a अच्छहि, सिरिपालहो, b लायण्णउं ति दिट्ठू महुं, 12. दिणी पुणु पडिवणी सयलहं लोयहं जाणिवि सुहो || (9) 1.a बा मज्झ विवाहि०, b जाम्बहिं, b पाराइओ, 2.b महुं, a मुणिसंघ हि, b सहियउं कइंहिमि, a रहणेउर, 3 b कोरंटसणिवेण यणविज्जइं, b. after धम्म कहि leaves the blank space upto रत्तविलित्त in कडवक 10 1 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता- सो वि तहि घरि सुणहिहे उयरि सुणहु हुइउ पावहु लक्खणु । आरत्तेण मरंतउ पुरिसु वि होतउ होइ तिरिउ णिल्लक्खणु ॥१०॥ (11) आहारदान कथा गय मासत्तएण संजायउ समए कंत तहो सायरसिरियए णं ससिकला आणंद जणेरी एत्तहो तेल्थु जे पट्टणि वणिवरु सो जिणपायपओरुह भत्तउ कहि मि कालि किर गउ वणिज्जए सिरियए मणिहि दाणु ण उ दिगउ एत्तहि वारह वरिसपहुत्तें वणिणा कवडलहु उम्माइउ भणिउ अत्थु णिसुणहि पिए आयहो किण्ह पावपिंडु व विक्खायउ । जणिय पुण्णलयणं वय किरिए। वड्ढइ जणमणणयणपियारी । णिवसइ सिरिवरु णामें सिरिधरु । मुणिआहारदाणि अणुरत्तउ । धणलु द्धए पच्छए तहु भज्जए। संचिय अच्छे लइउ सुवण्णउ। मुणिहि ण दिण्णु दाणु जाणंतें । आयरेण तहो अग्गइ वाइउ । गुरु सरीरकारणु तुह तायहो। 10 घत्ता- तं णिसुणेवि मणु कंपिउ आउरुजंपिउ साए ताय दुह तत्तए । णाह तेत्थु हउँ गच्छमि पुणु आगज्छमि णियर रोए खउ पत्तए ।।११।। (12) तं आयण्णिऊण सिरिवइणा पियरगेहि सा पेसिय सुमइणा । पुणु णिसि भोयणचाय परिणामें जा उप्पण्ण णायसिरि णामें सा परिणेविणु परमाणंदें मुणिहिं दाणु आढविउ वणे दें। आसि सुवष्णु सिरिए जं संचिउ तं जिणभुवणु कराविवि संकिउ । मुणिवरवएण एण जा सिद्धी सा कूरवसहि णाम सुपसिद्धी। (10) 1.aणिसुणहि, a म भणहु, 7.a उत्ततु, 9.b वि विद्ध उ, aमरणेण त्थाणहो, 10.b. adds वि after ताए, a तहि, ll.b तहि, b हुवउ इउ पावहु, a पावह, 12.a मरत्तउ, a तुरिउ for तिरिउ । (11) 2.b कण्ण for कंत, a तिरियए, 3.a संसिफल, b वड्ढिय, 4.b णामें सिरिवरु, 5.a पायपउहर, 6.a कहिवि, a हो भज्जइ, 7.b दिण्णउं, b लयउ सुवण्णउं, 8.a वरिसह पत्ते, b मुणिहिं, 9.a तें वणि for वणिणा, b उप्पायउ, b तहे, 10.b भणई, b णिसुणहिं, a तहो for तुह, 11.a मणि, 12.3 हउ। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अज्ज वि सयलजणेण मुणिज्जइ एत्तहि सिरिए पियरु णिएविणु जंपइ कयउ तेण मणु भिण्णउ तें कज्जे पिएणा पत्तारिय जो घणमित्तणासु आहाणउ कित्ति अकित्ति वि किं छाइज्जइ । लेहअत्थु अलियउ भावेविण । णं मइ रिसिहि दाणु ण वि दिप्पउ । कोवें णियघराउ णीसारिय । सो महु दइवें कय उ कहाणउ। 10 घत्ता- अहवा कि वुणी अच्छमि तित्थु जि गच्छमि भविययहो सारिच्छमई। महु पिउ जइ वि ण वासउ देसइ आस उ कुलउत्तियहिण अण्णगई ॥१२॥ (13) इय चितिवि सइ जिवि छाइय वहु दियहहि पियपासि पराइय । जइ वि ण कुल उत्तियहि पयच्छिय तो पियसरणाइय संगच्छिय । मादरु एक्कु तेण तहि दिण्णउ सुपुरिसु करइ अवस पडिवण्णउ । कालि गलंति व णिज्जिणि हियमइ गउ सुवण्णदोवहो सो वणिवइ । एत्तहि णायसिरिए ति आसिउ देइ दाणु मुणिवरह विसेसिउ। 5 . तो एक्कहि दिणि सिरियए दीणए भणिय णायसिरि गग्गिरवयणए । जइ वि तुज्झ संपय आवग्गी जइ विण्णहउ मुगिदाणहो जोग्गी । तो वि विहिणि महु एत्तिउ किज्जउ विहि पहरहि हक्कारउ दिज्जउ । जे पट्ठाणियाइ मुणिणाहरु उच्चायमि तवलच्छि सणाहहं । तो णायसिरि भणइ फुडु भासमि को वि ण अत्थि कवणु संपेसमि। 10 (12) 1.b पहिय for पेसिय, a मइणा, 3.a मुणिहि, b आ आटविओ वणिदि, 4.b सुवणु, b संचिउं, b वेचिओ for संकिउ, 5.b मुणिवर कूरवएं जा सिद्धा, a सो for सा, b पसिद्धी, 6.b मुणिज्जइं कित्ति, b छाईज्जई, 7.5 सिरिय, b अलियउं, 8.b जसय for जंपइ, b जं मई, b दणु णउ and omits from दिण्णउ. . . to ०णासु आहाणउ, lla किं पुणि इह अच्छमे तत्थ, a सारिच्छमइ, 12.b महुँ णिओ जई वि ण वासउं देसइं, a अवरगई for अण्णगई। (13) 1.a ईय, b सई, b वहुं, 2.b जई विण कुलउत्ती हियई च्छिय, a तो वित्थिय सरणाणइ संगच्छिय, 3.b एकु, b करई, 4.a गलति, boहियमई, b सो णवइं, 5.b भाविउं देई, b मुणिवरहि, 6.b दिण्णि सिरियहि, a वयणइ, 7.b तुज्झु, b जइं विणुइओ मुणिदाणहो जोगी, 8.b वहिण, b किज्जई, b दिज्जई, 9.b पइंट्ठाणियाई, b उच्चायवि, a सणाहह, 10.b भणई, ll.b रूप्पण्णउ, b ०वण्णउ, b वीसणहुँ सण्णिउं, 12.b एसई, b हक्कार, a मणउ, b मणिउ for मण्णिउ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ घत्ता- महु पियरहरुप्पण्णउ कज्जलवाणउ सुण हु वीसणहु सण्णिउ । एसइ तुह हक्कारउ चाडुयगारउ जो जणि मणुउ मण्णिउ ॥१३।। इय भणियम्मि णायसिरि सई गय ठाहु भणिवि णाय सिरिय भत्तिए विविहाहारु दिण्गु भयवंतहो णायसिरिए सिरिहि हक्कारउ ताए कढंति तिल्लि सित्तउ अइडहिं विल्लंतमरंतहो त मुउ जणहो जणेण जि साहिउ मंतपहावें सो सुरु हुउ तक्खणि जहि सिरिवइ परतीरए तहि जलजाणुअ मग्गि लग्गउ अवरहि दिणि मणिचरिए समागय । पुज्ज करेवि अट्ठविह भत्तिए । णीरसु सरसु सरिसु भुंजतहो । पेसिउ सुणहु अमंगलगारउ । किं कियंतु पंगणि संपत्तउ। 5 दिण पंच पय णायसिरि एंतहो। अंतराउ ता मुणिहि पसाहिउ । अवहिए मणिउ रोण भउ जिह मुउ । तहि संजाय पयंड समीरए । कहव कहव पुण्णेहि ण भग्गउ । 10 घत्ता- तं पि अवहि आऊरणि णिय भव सुमरणि चित्ति फुरिउ तओ अमरहो । सुरभवि पाव णिरंजिउ ते गमु सज्जिउ णायसिरिहि उवयारहो ॥१४॥ (15) जहि पसाएँ हउ सूरू जायउ जहि पसाएँ महु वउ जायउ। जहि पसाएँ हउ अमयासणु जहि पसाएँ मउडमणिभूसणु । तहो भत्तारहो आवइ वट्टइ उत्तम किउ उवयारु ण लोट्टइ। तो वा तहो उवसग्गउ विणासमि सामिणि सामिहि विणउ पयासमि । इय चितंतुं अमरु वरु जाणे गउ वणिपसि पवण जण जाणे। 5 तहो अग्गइ विणएण पयंपिउ । हउँ तुम्हह उवसग्गि कंपिउ । कि ण सुणहु णियघरि जो जाणहि सो एवहिं मई सुरु अहिणाणहि । पचणमोंकारइ मरंतहो दिण्णइणायसिरिए सुमरंतहो । तहो फलु जं सुत्तु मइँ लद्धउ तं सामिय तुह पिय पडिवद्धउ। इय संबंध असेसु भणेविणु जल जाणु वि तरिए आणेविणु। 10 (14) 2.b हा हुँ, a भणिय, bणायसिरि, 3.b भयवंतह णिरसुसरिसुसरि भुजंतह, 4.b सुणहुं, 5.a किक्कि यंतु, 6.b • मरंति, a णायरिरिएतहो, bणायसिरिति, 7.b मओ, b वि for जि, 8.a सोर for सो, b वि तरु for सो,, b हुउ, 9.a जिहि, b सिरिवई, 10.b तहो मणि for मग्गि, 11.b भउ, 12,b ति गमु सज्जिउं । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ घत्ता- भणिउ विमलमुत्ताहल णं सिरि लयहल रूइय रइय जाणेज्जसु । गुणवंतउ गुणवंतहे सामिसकंतहे एहु हारु अप्पेज्जसु ॥१५॥ (16) अवरइ सुवण्णमणिभूसणाइ सुमरिज्जसु मइ जइ होइ विहुरु वणिवरु वि ताम संतुट्ठचित्तु तहो संगमि परिओसियमणेण भूसणवत्थइ रयणपियाइ पंचपयपहावें सुणहु जेम अच्चंत चोज्ज विभिय मणासु वहु मणिरयणइ संजोइऊण अभय वयण उप्पाइय सिवेण वणिणा तहिं दिट्ठइ जाइ जाइ देविणु देवं गइ णिवसणा। गउ एम कहेविणु वणिहे अमरु । संपुण्ण लहु णियणयरु पत्तु । विरइयउ महोच्छउ परियणेण। वणिणा पियसमहे समाणियाइ। सुरु जीउ दिठ्ठ सइ कहिउ तेम । वित्तंतु पयासिउ परियणासु । तें दिठ्ठ णराहिउ पणविऊण । परतरि चोज्जु पुच्छिउ णिवेण । णरणाहहो सिट्ठइ ताइ ताइ। 10 घरता- ताराएँ वह खुम्माणे कय सम्माणे वच्छाहरण विहसियउ । वणे वणिणा हु क रेविण बंधु भणेविणु णिय मंदिरि संपेसियउ ॥१६।। (17) णवर एक्कु छणे वणिवर महिलए घल्लिउ थणहरे हारु सलीलए। काएवि दुद्रुवयंसिए दिउ गंपिणु रायमहीसिहि सिट्ठउ । लोहें ताए भणाविउ वणिवइ उत्तम रयणहँ भायण णरवइ । एरिसु मूढ काइँ ण वियप्पिउ कि वरहार सपियहे समप्पिउ । (15) 1.b सुह जायउं, a वहु for वउ, 2.5 हउ, 2.a पसाए, b महु for मउड, 3.b आवई वट्टइं उतम कउ, b लुट्टई, 4.b वरि, 5.b अमरवर, a जाणि, bपासु, 6.a णयविण for विणएण, b तुम्हह, 7.b किण्ह सुणहुं जो णियघरे जाहिं, b एवहि मइ, b परियाणहिं 8 णमोक्कारइं, b दिण्णइं, 9.a फल, a मइ, 10.a संवधु, a व for वि, il.b भणिउं, a रुयहर इह जाणिज्जइ, 12.b गुणवंतहो सामिय कंतहे, a अप्पिज्जहु । (16) 1.b अवरई, b भूसणाई, b देवंगई णिवसणाई, 2.b. inter. मइ and जइ, 3.b संपण्ण, 4.a मेणेण, 5.b ०वत्थई, boपियाई, b समापिप्याई, 6.b सुणह, b सुरु दिठ्ठ जाउ सइं, 8.b रयणई, 9.a चोज्ज, 10.a तहि, b दिट्ठई जाइं; b सिट्ठई ताई, la वहुम्माणे, b विहूसिउ, 12.b वंध, bसंफेसिउ। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ अज्ज वि णिय अवराहु विणासहि रयणवणिवर लहु पेसहि । तं णिसुणिविणु सिरिवइ वणिवरु हारु लिवि गउ सइँ जहि णरवरु । मग्गिय कहेवि हारलय अप्पिय ताराएं कोक्काविय णियपिय ।। गिण्हहि हारु भणेवि वियवखणि अप्पिउ सप्पु जाउ सो तक्खणि । जसु संघडिउ तासु तं सोहइ । ___लोहवद्ध जगु अप्पउ मोहइ । भयगहियाए मुक्कु किर विसहरु पुणु वि जाउ सो हारु मगोहरु। 10 घत्ता- किं माहि दुपयासि उ गएँ भासिउ वणिमुहकमल णिए विण । तो वणिणा वोल्लिज्जइ देव कहिज्जइ णिसुणहु अभउ भणेविण ।।१७।। (18) 5 महु घरि सुणहु आसि अलि वण्णउ महु महिलए इट्ठक्खउ दिण्णउ अवरु असेसु विमोहु वि भिण्णउ तं अक्खरु भावंतु वि वण्णउ । णाणारिद्धि लद्धि संपुण्णउ माणिय घणथण सुरवरकण्णउ अवहिए णियभवकारण पूण्णउ जहि पसाएँ हउँ हुउ धण्णउ तहे पिउ जलहिमज्झि आदण्णउ इय चितेवि तत्थ अवइगाउ तहो कम्मेण डाहु उप्पण्णउ । तासु पहावें कलिमलु छिण्णउ । तक्खणे सो संजाउ ससाणउ । तें झाणे पाविय वहु पुष्णउ। अइसयरूवसोह लायगउ । सो एवंविहु सुरु संपण्णउ । गुरु उवयारु तेण पडिवण्णउ । णायसिरीए समाणु को भण्णउ । वट्टइ जामि तासु आसण्णउ । हउ उत्तारिउ तेग महण्णउ। 10 घत्ता- वरमोत्तियहि खण्णउ फलिह सवण्णउ एहु हारु महु दिण्णउ ।। देउ एउ फुडु मण्णउ मा अवगष्णउ होउ मज्झ सुपसणउ ॥१८॥ (17) 1.b एक्क, a. omits छणे, 3:a ताए is explained in margin as राझी, a रयगह, 4.b मृढ, a काइं ण वियप्पउ, a समप्पइ, 5.b विणासहि हाररयणुवणिवर, 6.a वणिवई, a सइ जहि. 7.a हारुलय, 9.b जं जसु घडिउ, a लोहें बढ जणु, ll.b मुहु 12.b णिसुणहुँ । (18) 1.b सुणहुं, b उप्पण्णउं, 2.b दिण्णउं, a कलिमल, b छिण्णउं, 3.b. omits अवरु. . . etc. to भिण्णउ, b ससण्णउं, 4.b वण्णउं, a त for तें, b पुण्णउं, 5.b लायण्णउं, 6.b ०कण्णउं, b संपण्णउं; 7.a ० कारण, b खुन्नउ for पुण्णउ, b पडिवण्णउं, 8.a हउ सुर धण्णउ, b भण्णउ, 9.b वट्टई, b तासु आदण्णउ, 10.b तित्थु, b महण्णउं, ll.b खण्णउं, b०सवण्णउं, b मई for महु, 12.b अवइणउ मज्झु सुपसण्णउ, a उवसण्ण उ। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (19) तो णिउ पभणइ कहि इक्खरु जें दिण्णण जाउ कुक्कुरु सुरु । अम्हइ झंखावइ वणि झुट्ठउ वंध हो माहि दिउ दप्पिटठउ । तो तें सुमरिउ सो अमयासणु अवहिए जाणिवि वणि दुहु भीसणु । अइ रोसेण तुरंतु पहुत्तउ धीरे विणु बणि ति णि उ वृत्त उ । परमक्खर कय भंति अयाणा जमइ बंधाविउ वणि राणा। 5 तं फलु पिस्खु तुज्झ दक्खालमि सधरधराधरभर अज्जु जि । इय भ गेवि माया गिरिसिहरइ पाडइ तरु सुरहर धवलहरइ । किलिकिलंतु अवरि पसरंतउ घोरंधारु खण करतउ । करयविट्ठि णिठ्ठर वरिसंतउ हणि हणि मारि मारि पभगंतउ । अचलु वि लीलइ उच्चालंतउ हयगयपुच्छखंभ आलंतउ । 10 घत्ता- तो करमजलि क रेविण सिरु णावेविण अइ भीएण अणा हें । एक्कवार दय किज्जउ जीविउ दिज्जउ भणिउ अमरु णरणाहें ।।१९।। (20) माया संवरेवि सुरु भासइ णिसुणि णराहिव वइयरु सीसइ । हउ जागरिउ आसि तुह मंतिहि महु गिय वारियहे गय रत्तिहि । तव्वेलए भुक्खा संतत्तहि मग्गिउ भोयणु मंतिहि पुत्तहि । ताव अहिसाइय गुरुवइयए णिय णंदण पगिय धणवइयए। दीवए पडिय पयड णिह दीसहि तेत्थ जीव असणेहि पईसहि। 5 भोयणु णिसिहि के वि जे भुजहि जीवाइय व तेहि फुडु खज्जहि । तह णिसि भुंजतह सह णिसियर जेमंतह ण लक्खिज्जहि भीयर । एवमाइ वहु दोसहि दुट्ठउ | णिसिहि ण जेवहु जइ वि सुसिट्ठ उ । तं णिसुणेवि णिसि भोज्ज विरत्तए सइ अगथ मिउ गहिउ महु कंतए । वाटिय लेवि पत्त मइ जंपिय जेमिण जाम ण मज्झु मज्झे पिय। 10 पत्ता- ता मइ छुरियइ हय मय गम्भासएँ हुय एत्थु जे सायरसिरियहि। हउँ पहाए सा जोएवि अप्पउ घाएवि मुउ हुउ सुउ कुक्कुरियहि ॥२०॥ (19) l.a पणइ, b पभणइं, b दिणेण, 2.b अम्हइं सखावई वणि, a भुट्ठउं, 3.a समरिउ, b दुह भासणु, 4.b अइं, b फत्तउ for पहुत्तउ, b णिउं उत्तउं, 5.b जंपइ, 6.b दरिसावमि, boधराधर अजु, 7.5 मायए गिरिसिहरई पाडहि, b सुरहरु धवलहरइं, 8.b करंतउं, 9.b करइं, b पसरंतउ, 10.b अतुल विवल लीलई चालंतउ, a जालंतउ, Il.b अई, b अणाहे, 12.b दिज्जउ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ (21) 5 जायदिणि हि सा हुय जोव्वणवइ गउ परतीरि वणि वि वाणिज्जए अरिहं अरिहं इय उच्चारिज तासु पहावें हउँ जायउ सुरु सुरतरु कुसुममाल कयसेहरु विलुलिय सिहिणोवरि हारमणिहिं किण्णरि गीयहि गाइज्जतउ अच्छमि कीलविलासहि तावहि इय विलास किर माणमि जावहि णाणि सोवमग्ग अइ जाणिउ दिगु हारु भूसणइ पसरथइ पुण्णहि एहु ताए लद्ध उ पइ । मज्झु मज्झु मरंतहो एयहो भज्जए । एक्कमणेण मए अवहारिउ । सहजाहरण विहूसिउ भासुरु । सवावयव सुसंधि मणोहरु । सेविज्जतउ सुरवरमणिहिं । णवर सुअच्छर णडु वि णियंतउ । आसणुई पुजाउ महु तावहि । णियभव सुमरणु एहु जे तामहि । उत्तारेवि जलहि सम्माणिउ। अवराइ मि देवंग इ वत्थइ। 10 । घत्ता- जा संवंधु पयासिउ ता पिउ भासिउ जे सुणहु वि सुरु जाउ तुहु । सो अक्खरु भवसिहिजलु धोइय कलिमलु भवि भवि सरणउ होउ महु ।।२१।। ___(22) पुण णिवेण कर यलम उलेविण भणिउ वणीसरु विणउ करेविणु। जं मइँ अण्णाणे संताविउ विणु कज्जेण महावय पाविउ । (20) 1.b वइयरु सीसई, 2.b तुव मंदिरि महं. b वाढियाहि, b रत्तिहि, 3.b तं वेलए, a संततहे, b संतत्तिहि, b मग्गिउं, b मंतिहि. b. omits पूत्तहि and ताव अहिसाइय etc... to जीवाइय वि तेहि, 6.b खज्जहिं, 7.b तहं, b भुंजतहं तहं णिसियर, a जेवंत जि ण, b जेमतहं लक्खियहिं ण भीयर, 8.b एवमाई, a दोसहि, b जे महुं, a ससिट्ठउ, 9.b विरत्तइं, 10.b पयत्तें for पत्त मइ, a मझें, ll.a तो for ता, b मइं छुरियई, 12.a हउ, a याएवि, b inter. हुउ and सुउ । (21) lb जानदिहि. b पुष्णहें, 2.b कहिं for वणि, 3.a मइ मि अव०, 4.a सु for तासु, a हउ, a सुरवरु, a विहसिय, 6.a हारमणिहि, a ० मणिहि, 7.a गोयहि, a. after गाइज्जतउ explains in margin. सा रि ग म प ध णी सरपत्तणं, b नटटु नियंतउ, 3.b. omits किण्णरि गीयहि etc. . . to ताहि, b तावइ. 9.a माणहि, b जावहि, b सुमरणे एहु वि तामहि, 10.b मइं जाणिउं, b सम्माणिउं, ]l.b भूसणई पसत्थई अवराई मि देवंगई बत्थ इं, 12.a वित्थ उ for ता णिउ, b सुणहुँ, b तुहु, 13.b सरणउं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ 5 तं अवराहु खमेहि वणीसर जेणण्णए सभय अवणीसर । तहो महिल तहि मि हक्कारेवि भत्तिए उच्चासणे वइसारेवि । भणइ माइ चंडाणिलु वारिउ तुह पुण्णे पिउ सायरु तारिउ । तुह पुण्णहो को मुणइ पमाणउ सुरविदिहि जहे वत्थाहरणउ । पाय णवंति जाहि सुर सहरिस कवण महणु किर तहि अम्हारिस । हारहो लोहें गिठ्ठ भासिउ जं तह पइहे अविणउ पयासिउ । तं महु खम करि माय महासइ विणएँ उत्तम कउ विणासइ । एस भविगु वच्छाहरणइ दिण्ण पंचवण्ण रुइ हरणइ। 10 धत्ता- इय तें वणियोमाइउ स पिउ ख माविउ पुणु सहु पियए समत्थें । परम अहिंस पयासणु पावप गास लइउ धम्मु परमत्थें ।।२२।। (23) लइउ जिणिदधम्म जा राएँ साहु साहु अरिणिवकरिकेसरि आयण्णहि सुहि आयम भण्णइ मोक्खमग्गु गिग्गय वि भावइ सो सम्मत्तरयण रयणायरु एमह वोहि धम्मे दिनु णरवइ इय भासेविण णिउ वणि वणि पिय । पुणु मणिमयहो रमिय वरविलयहो एकक पहर अणथमिय पहावहो तहि जो सयलकाल परिपालइ भणिउ सुरेहि ताम अणुराएँ । तुह सुह्तरु सिंचिउ धम्मसिरि । जो जिणदेउ रिसि वि गुरु मण्णइ । धम्म अहिंसालक्खणु भावइ । अनरु वि तासु करंति महायरु। 5 धम्म जीउ महुण्णइँ पावइ । जामि भणेविण सुमहुरु जंपिय । गउ संतुठ्ठ अमरु णिय णिलयहो। एत्तिउ फलु जहि अख लिय भावहो । तहो पुण्णहो को अंतु णिहालइ। 10 (22) 1.b •सुरु करम उलेविणु, 2.a मइ, a महावइ पविउ, 3.b एउ for तं, b खमेहि, 4.b तहिं जे, 5. b भणइं माइं, 6.b मुणइं पवाणउं सुरविदेहि, a. omits जहे, b वत्थाहरणउं, 7.b गहणु, a तहि, 8.b हारहो, 9.a माए, b पयासइ, 10.a एव, b हर ण इ दिण्णइं, b हरणई, ll.a पोमाविउ, a सहुँ, a समत्थे । (23) 1.b सुरेण, 2.a सुरतरु, b धम्महो सरि, 3.b आयणहि, b जिणु देउ, b मण्णई, 4.a णिग्गंत्थु ब्भावइ, 5.b अमर, 6.a एवह वेइ धम्मदिछु, a महुण्णह, 7.b इउ, a भणेमि for भणेविउ, 8 b. omits गउ संतुट्ठ etc. . . to णिलयहो, 9.b अणयमिय, 10.b परिपालई णिहालई, ]].a पडिवज्जइ, b पयडिज्जई तं जि किंजई, b आयम for आगमु, 12.b तेणे, a णउ for विणउ, b हवेइं, a पायासिउ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ धत्ता - मोहो फलु प्रयडिज्जइ तं जिह केज्जइ भत्तिए आगमु भासिउ । अहिंसाजणणिहि जिणवरवाणिहि विणउ हवेइ पयासि ||२३|| (24) तें तो वर्याणि अमियहो सवगउ तह समलाण विहवइ पहाणउ तरु कुसुमइ विल्लइ अत्था इय वय पालणि मानव सग्गहि पुणु सुणरत्तु सुरत्तु लहंता इक्का व पावेप्पण संजमणियमवय पालेविणु सुझाउ आऊरे विणु अप्पेणप्पाणउ बुज्झेविणु सुरणरतिरियह धम्मु कविगु मरुवे वंदिय गुरुपयाइ इयरेण वि कयइ सुउज्जलाइ ता मणिभित्तिहि उज्जोइयाइ वेउव्वण कयको लाघराइ गइय सरिगमपधणीसराइ फुल्लहरभमिरमहुयरउलाइ तहि थिय आया जंतजंत धवलहर धुलिय व हुबइ जयंति is aणु पीणियजणवयणउ । रायस्सा विहुमाणइ माणउ । भक्मि एए जीवह थाणइ । उपज्जहि भुजिय वरभोग्गहि | भवसत्तट्ठमज्झि हिंडता रणत्तयविद्धि भावेष्पिणु । वझभतरु संगु मुए विणु । केवलणाउ उपाए विणु । लोयलोउ वि णिउणु मुणेविणु । अंकिरिम झाणें मोक्खु लहेविणु । घरता- तिहुयणजण अहिदिय पाणें गंदिय सुहु अणंतु धुउ भुंजहि । तित्थ हो चायहि ण जम्महि मुक्का कम्महि सिद्धविसुद्ध भणिज्जहि ॥ २४ ॥ (25) इइ आण्णेपिणु य वयाइ । कययहो फलेण णावइ जलाइ । विज्जहि जाणहि संजोइयइ । घवघवघवंत वहु घग्घराइ । मणिमयकांत किंकिणिसराइ । टणटणटणंत घंटा उलाइ । पुरणयरगामपट्टणतणंत । विणि विपत्ता पुरिवइ जयंति । 5 10 घत्ता - सिद्धसेण पयवं दिहि दुक्किउ णिदहि जिग हरिसेणु णवंता । हि थिय ते खग सहयर कय धम्मायर विविहसुहइ पावंता || २५ || |0 ( 24 ) 1.b पाणियजण सवणउ, 2. मि हवई, b माणर, 3.b कुसुमई विल्लई अत्याई, b जीवत्याणइ, 4.b पालण, तुंडिय वरभोगाहिं, 5. b. omits सुरत्तु, 6. b इंक्खुक्काई, b भावेविणु, 7 b णियई वयई, b वज्झभंतर, b मुएप्पिणु, 9 a अप्पेणo, boप्पाणउं, b लोयालोयओ णिउंणु, 10.b ०तिरिमहं, b मोण for सोक्खु, 11.b णाणावंदिय, 12.a जम्महि । 5 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह मेवाडदेसि जणसं कुलि पावकरिदकुंभ दारणहरि तासु तु परणारिसहोयरु गोवड्ढ णा उप्पण्णउ तो गोवड्ढणासु पियगुणवद्द ताए जणिउ हरिसेण णामें सुउ सिरिचित उडु चएव अचलउरहो तहि छंदालंकारपसाहिय जे मज्झत्थमय आपणहि तें सम्मत्त जेण मलु खिज्जइ विक्कमणिव परिवत्तिय कालए इ उपणु भवियजण सुहयरु ज दहि जे लिहहि लिहावहि पुणु केहि पहि पढावहि यो अत्यु के विजे पयडहि जे णिसुणेवि परिक्खए भत्तिए १५८ (26) धत्ता - तहो पुणु केवलणाणहो णेयपमाणहो जीव पएसएहि सुहडिउ | वाहारहि अनंत अइसयवंत मोक्खसुक्खफल पर्याउ ॥ २६ ॥ (27) सिरिओजउर निग्गय धक्कडकुलि । जाउ कलहं कुसुलु णामें हरि । गुणगणणिहि कुलगयणदिवायरु | जो सम्मत्तरयणसं पुण्णउ ! जा जिणवरपय णिच्च वि पणवइ । जो संजाउ विवहकइविस्सुउ । गउयिकज्जे जिणहरपउर हो । धम्मपरिक्ख एह तें साहिय । ते मिच्छत्तभाउ अवगण्णहि । केवलणाणु ताण उप्पज्जइ । गयए वरिससह चउतालए । डंभ रहिय धम्मासयसायरु । ते दह जे भत्तिए भावहि । तेणियपरदुहु दूरे लुटावहि । ताण निरंतर सोक्ख हि सुहडहि । ते जुज्जहि णिम्मल मइ सत्तिए । 5 ( 25 ) 1.b मरु वेएं घं दिवि गुरुपयाई लइयई पुआपणिय चेयाई, 2b उपरेण वि कयई सुज्जलाइ कययहलु, b जलाई, 3.b उज्जोइयाई विज्जई जाणई संजोइयाई, 4.b घराई, b घवघवघवंत etc. to किंकिणिसराई, 5.a o किकिणि०, 6. b उलाई, 7a ताहि, b चंमंत for तजंत, 9.acवंदहि, b दिहिं जिणु हरिसेणनमंता, 10 a तहि | 5 ( 26 ) 2.a कुलीहि, 3 b परण्णारि, 4. समत्त०, 5.a जिणवरमुणिपयपिय गुणवइ, 6. b जाणिउ हरिसण णाम, a oदिस्सउ 7. b अचलउरेहो, 9.b आयण्णहि, b अवगण्णहिं, 10 b सम्मतु तेण गलु, a. page 137 is torn and pasted, so some letters from left side are naturally not found like केवलणा, हो जीवपएसए, सुक्खफलु पय ete. 11.bपएसएहिं सुहडिडं, 12 b अइसयदंतउ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयलपाणिग्गाहो दुहुं हिज्जइ परहियवरणिविहंडिय अहहो पयडिय बहु पयाव अरिवारें धम्मपवत्तणेण दुहारें १५९ सोमसमिद्धिए महि सोहिज्जइ । होउ जित्त चउहि संघ हो । दर भूवइ सहो परिवारें । वह अवहारें । द घत्ता - संखए दुमह सुसाहिब सदरसु साहिउ इउ कहरयणु अगव्वाह | 10 जो हरिसेण धराधरउ बहि गयगिधर ताम जणउ सुहसव्व ॥ २७॥ इ धम्मपरिवखाए चउरवग्गाहिट्टियाए (चित्ताए ) । बुहहरिसेण ( कव्व) कथाए एयारसमो संधी समत्तो ॥ संधी ॥छ । १३ ग्रंथसंख्या २०१० ॥ छ ॥ छ ॥ मंगलं ददात ॥ छ ॥ *** ( 27 ) 1.b परियत्तियo, b वरगाए for गयए ( a सहमचउ ता ) not found, 2.b उगु for उपग्णु, b रुंड for डंभ ( a सय सायरु ते) not found, 3. b ते दहुंजे, b लिहावहि ते णंदहु, 4.4 ते जिंदहि जे भत्तिए जे पुणु वि, b पढावहि, b. omits ते पियपरदुह दूरे लुटावहि ( a not found स्थू विजेप), b सुक्खइ, b (a not found क्खएभत्तिएँ), b जे जुजहि निम्मलमई, 7.b हिज्जइं (a not found ज्जइ ) (a not found ज्जइ सोमसमि) ट्ठि for द्धि, b सोहिजई, 8. a परहियकर०, a अहहो, b होउं जिणत्तेषु चविह, 9 b पर्यालय, b भूवई, 10 b धम्मपरत्तोण, b वहुवि ववहारे, 11.b संखदुसहस्य समाहिउसदरसया हिउं b अगव्वहं, 12. b जा, b धयधरा, b गयगुधर, b सुट्ठे भव्वहं, 13.a च उग्गाहिट्ठियाए, b चउवग्गाहिट्टियाए 14. b. adds चित्ताए before बुहहरिसेण, b एयारहमो परिच्छेओ सम्मत्तो || संधि ||११|| इति धर्म्मपरिक्षा नाम शास्त्रं समाप्तं ॥ छ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक प्रशस्ति १६० ।। मूलसंघ भट्टारक श्रीपद्मनंदि, तत्पट्टे भ. शुभचंद्र, तत्पट्टे भ. जिनचंद्र, तत्पट्टे भ. प्रभाचंद्र, मंडलाचार्य श्री रत्नकीर्ति, तत्शिष्य मंडलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्ति, तदाम्नाये खंडेलवालाश्रये अजमेरागोत्रे सं. सूजू तत्पुत्रटेहक, भार्या लाजी तयोः पुत्र छीतर, भार्या सुना इ. रक्षायां ज्ञानावरणीयकर्मक्षयं निमित्तं लिखाप्य ॥ मुनि देवनंदि योग्य दातव्यं ॥ शुभं भूयात् ॥ ॥ छ ॥ छ ॥ छ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइखण्ण ११.४ अइलज्जाविणु ५.५ अउ ५.८ अक्खयजोणि ७.१५ अक्खरु ११.१८ अकुडिलभावए २.१२ अकंपय मुणि ४.२ अग्गलउ ८.२० अपरिह १ १८ अगत्थिणा ५.१-४ ३.९ अगुरु रुक्खवणु अघडमाण ९.१८ अच्छर १.११ अच्छह २.२३ अच्छहि १.९ अच्छामि २.५ अच्छरिउ ३.५ विशिष्ट शब्द-सूची अणिट्ठिय ५.४ अणुत्तउ ३.२ अदि ५.५ अजयरु १.१३-१४ अजितु ८.७ अजिय ८.१४ अट्ठम ८.१२, २३ अट्ठिया २.२२ अभेयसरि ४.६ अडवण्ण ४.६; ६.९ अलु ८५ अण्णा ८.५ अणुव्वय १०.१४ अण्णोष्णु १.८; ३. १३ अवरोहु . १ अराइयो १.८ अणारि ८.११ अणुहवि ४.१८ अद्धचक्कि ८.४ अद्धचणयसंमीसिउ २. १४ अद्धसिरीहर ९.२४ अद्धको ११.२ अद्धोद्धी ८.१९ अप्पवियारा ६. १७ अप्पाणउ ७.७ अप्पा ४.९ अप्पिउ ३.१ अभत्थिउ ८.१६ अब्भुत्थाणु ५.१४ अभयवयण ११.१६ अम्हह २.२२ अम्हाण ४.५ अमरगुरु ३.१९ अमरपहु ८.१६ अमराउरि १.१० अमियाहारु ३.४ अमंगल गारउ ११-१४ अयत्थि ९.६ अयालि ३.३ अरिहंत ५.१९ अल्लवइ ३.९; ३.१८ अलिउ ८.९ अलिचिहुरा ६.३ अलिय ३.६ अविणासिउ २.२३ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविवेइउ ३.३ अंगुट्ठसमहु ५.१ अवंतीदेसु १.९ अंधयविट्ठि ८.२ असज्जवाहि २.१६ इक्खाइवंसि ९.१५ असिपत्तवणंतर ६.२ इट्ठिए ३.१७ असुद्धाहारु १०.१० इंदणीलमणि १.३ असुहत्थी ७.१० इंदु ९.१४ अहल्ल ९.४ इंदो ४.१८ आइच्च ८.३ उक्कोइय २.१२; ५.१ आइच्चणरेस ८.३ उग्गमिउ ११.७ आकोसंति ९.३ उगालिय ४.२० आढविउ ४.२०; ११.१२ उग्गिलिय ४.२०-२१ आढविव ४.१३ उज्जलाइ ९.२३ आढत्तु ४.११ उज्झइ ३.३ आणयाइं ६.१८ उज्झाण ११.१ आणिज्जइ ५.१३ उज्झायणि २.२३ आणुराइय ४.११ उज्जेणि १.१०; १०.१२ आयण्णहि ४.२ उठ्ठद्धउ ५.१८ आयण्णिउ ७.१० उळंतपडतहो ५.११ आयण्णिओ ४.११ उड्डीणुहंसु ४.६ आराहण ९.८ उण्णामिय ४.१३ आलावेण २.२; ८.१० उद्दालु ७.१६ आलोविउं १.१७ उद्धरिय ७.२ आलिंगणु ५.३ उद्धूलिय ७.५ आवग्मी ११.१३ उप्पज्जइ ७.१८ आवेवणु ९.२ उप्पज्जहि ६.२ आवेविण २.१७ उन्भावइ ७.८ आसासिय ८.१० उभिट्ठगयवरं ५.१० आहरण ३.११ उयरात्थिउ ४.२२ आहरणउ २.२४ उव्वरिय ४.१६, ७.२ आहल्लणा ४.१८ उववणु १.११ आहलु ५.६ उवयारणिमित्तु ७.१ आहारदान ११.११ उवसग्गु ४.२; ८.५ आहीरदेसु २.७ उवसमतु ७.६ आहुट्ठ ४.१३ उवसंतमणो ३.११ अंगउ ४.१७, ८.१९; ९.८, ११ उवहसइ २.७ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सासु ६.१५ उंदुर ४.४ उंदुरे ३.१४ उंदुरा १.१४ उंवर १०.१४ एककगाहि २.२४ एक्कमेक्कु ४.२० एक्कहिं ४.४ एक्कु ३.१; ३.२ एक्केक्काण ६.४ एत्थंतरे ७.४ एतहो २.१७ एयारिसउ ३.२१; ९.८ एरिस २.१ एरिसिया ७.१२ एरिसु ५.२ एवं ४.६ एहावत्थ ८.२ कइणहु ५.९ कच्छ महाकच्छ ८.१०, १२ कज्जगइ ४.१९ कज्जपराइउ ८.१२ कज्जाकज्जु २.१५ कज्जे ४.१० कट्ठ ३.१० कण्ण ८.५ कण्णमूल ३.१८ कण्णद्ध ४.५ कण्णाविवाहु ७.१७ कणयमाल ११.५ कणयासण २.३ कत्तियाइ ९.२ कप्पदुम १०.२ कप्पतरु १०.१ कप्पूरधूलि ५.२ कप्पूरसुरहितरु २.१ कम्मबंध १.१४-१६ कमलासणु ४.१३ कमंडल १.१८ कयकिलेसु ३.१० कयत्थउ ३.२२ कयद्धय ८.२० करउच्चाइय ८.१० करयलाउ ३.१० करयविट्ठि ११.१९ करप्पिणु ८.४ करिरयणु ९.२२ करेप्पिणु १.१२ करेविणु ४.६ कलहंसइ १.२ कलेवरु १.१४ कवणु ४.२२ कवाडु ४.१२ कविठ्ठतरु ९.२ कविट्ठि १.१२ कहमि ५.१ काराविय २.१२ कालासुरु १०.९ कासस्स तंवो १.१४ कावालि ४.१७ किकिणि १.४ किकिणिणरंत २.१ किक्किधपुरहो ८.२१ किक्किजि ८.१६ किट्ठभिच्चु ४.६ किण्हु ११.११ किण्णरीहि १.३ किं बहुणा २.१५ कीलमाणु ५.९ कीलंतहो १.८ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंटहंसगइ ३.१५ कुडिलउ १.१० कुडिलभाव ४.१४ कुंति ८.२; ९.१४ कुच्छियधम्मेण ९.१३ कुत्थि उ ९.१४ कुटहंसगइ ३.१५ कुद्धचित्तु ९.१६ कुरंगी २.९ कुल ४.४ कुलकण्णह ७.१७ कुलदेवयाइ ८.१७ कुलदेवि ३.४ कुलणंदण २.१८ कुलयर २.१ कुसुमउरहो १.१९, २.१ कूरवसहि ११.१२ केत्तिउ ५.६ केम ३.१ केसवासु ४.१२ कोइलतमाल ३.९ कोउहलेण २.५ कोऊहल २.९, ८.१० कोक्काविय ११.१७ कोडिउ ९.२४ कोडिणयरि २.१४ कोद्दव ३.९ कोवंडकाउ ६.१२ कोवंडदंडु ८.२१ कोवंडविहुसिय ४.३ कोवग्गिदित्तु १०.६ कंकालवउ १०.९ कंचणभायणु ३.४ कंदभूलफल १०.३ कंठोठ्ठणयरि २.१८ कंतिल्लु ४.२४ कंसासु ४.१ कुंडियहो ५.१६ कुंभत्थु ४.१४ कुंभीपायाणल ६.२ खइयरु ६.२ खगवइसुए ण ७.१ खज्जइ २.३ खणमित्तु ४.१७ खयरणाहु १.५ खयररायतणएण १.२० खरदूसण ८.१० खरमहेण ४.१७ ख सिरु ५.७ खरसीसु ४.१७ खरि ३.१५ खसिऊण ९.२ खिज्जइ खिज्जउ ८.२१, ९.१२ खिल्लवेल्लि ७.१७ खीरकहाणु ३.४ खेडु ५.१० खेयरोखे यरु १.१६, ४.७ खंडिउ ३.१० खंदावारहो २.१० खंधु गहवइ २.१६ खुंटे ९.७ गउरिय ४.७, ५.१ गउरियहरहं २.२२ गग्गिरगिर ३.१८, ९.३ गच्छमाणु ३.१३ गदुरधेणु ९.१ गदुरवग्घु ९.२ गब्भत्थे ७.३ गब्भासउ ७.७ गयरहु ३.६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयाणुर इउ ८.६ गरुयलज्जए ३.१८ गरुयलज्जाए ७.२ गल्लफोडि ३.१९ गल्लऊण ३.३ गल्लु ३.१८ गलेवि ३.२ गविट्ठउ ९.२ गहिऊण ३.११ गहिरसरु ४.७ गहोरिम ४.१४ गाउरेण १.४ गांधारिकुमारि ७.९ गिलिऊण ५.१६ गीयझुणि ४.१३ गुज्जरत ९.१ गुणवय १.७, १०.१४ गुणड्ढ ४.२२ गुणल्लियउ १.७ गुमुगुमंति ११.२ गुरुचरणारविंद २.२३ गुरुभाइ ८.१८ गुरुविग्घु ७.२ गुलुगुलंतु ५.१० गेण्हेहि ३.११ गोउर ३.१५ गोउलु ४.१० गोपुरमणि ४.१० गोयरविचित्त ११.४ गोरसु ३.४ गोवड्ढण ११.२६ गोविए ४,१० गोविंदु ४.२४ गोविहि ४.१२ गोसीरिसयं ३.११ गंगकण्णा ४.८ गं गाठईहे ७.१६ गंगायडि १.१८ गंजोल्लिउ ५.१५ गंड माल ३.१८ गंधारि ८.४ गंपिणु ५.८ घणवाहणु ८.१४, १७ घयपोल्लियाउ ३.१६ घर २.९ घरदव्वु ३.६ घल्लहु ३.१३ घल्लाविय ७.१७ घल्लिउ/घल्लिय ९.२, ५ चिप्पइ १.१३ घुट्ठउ ५.१३ घंटाजुयभेरी २.३ चउक्कु १.९ चउत्थ ४.१, ४.२४ चउयउ ३.१७ चउदह ६.१ चउमुहुँ १.१ चउरासी लक्खाइ ६.४, ९.२४ चउवग्गाहि ५.२० चउविज्जउ ३.६ चउवीस ९.१७ चउसट्ठी ६.४ चउहट्टमग्ग ११.४ चक्कवइ ४.१ चच्चरगोउर ३.१५ चच्चरियचिहुर ४.३ चट्टभट्टपोत्थयसंगहणउ ३.२० चणय २.८ चत्तारि मुक्खकहाणउ ३.१२ चयारि १.१३, ८.१० Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारुचक्का ३.८ चालीस ६.८ चिकिच्छिय ७.८ चित्ताए ४.२४ चित्तंग / चित्तंगउ ८.१ विधी ८.१७ चिर २.२१ चीररहिउ ५.११ चुल्लीसमीवे ७.४ चूयकहाणउ ३.१ चोरहि ३.१६ चंदवइ ७.१६ चंपापुर ३.१, ८.३ छ ८.१५ छक्कम्मरय १.१८ छक्काल ४.१ छज्जोयण ८.१५ छटठ ६.१९ छड्दिउ ४.२१ छण्णवइ ९.२३ छलिउ ५.९ छहत्तर ६.४ छाया २.१५, ४.८, ५.६ छिज्जइ ५.१९ छिष्णु ५.४ छत्तइ १.१० छित्तणट्ठ ५.७ छिद्दणिवेस ४.१२ छुट्टइ ११.१० छुहतहाइ ६.१८ छुहिण ९२ छोहारदीउ ३.४ छंगुल ६.११ छंदालंकार १.१, ११.२६ इच्छिणु ४.५ जगरा में १. १ जइसेहरु ५.२ जज्जरिउ ४.१७ जजमाणेण ४.७, जण सुय २.१८ जणि ७.१६ जणणियाए ८.३ जणु वट्टु २.१८ जत्थ १.११ ५.४ जम्मवइ ६.२ जमकीला २.१५ जमपास ४.१९ महो ४.१८ जरसंधु ८.४, ९.९, ११.१५ जरियो २.१३ जलणिहि पमाण ६.१३ जलुकच्छ ६.१८ जहण्णु ६.१६ जहणंसु६.१४ जहि १.२ जाण - पहाण ९.२४ जाणिज्जइ २.२, ४ जाणेवि ३.१९ जिणचरणदत्त ५.१९ जिणदेउ ९.१३ जिम्मु १.१४ जिणमंदिर ११.२ जिणिदधम्म ११.२३ जिणु १. १ जियारि २.५ जीवहरु ४.१२ हट्ठल ८.४ हिलिए५.१३ जेठाण ५.६ जे मज्जइ ३.१७ जो ४.६ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइसहु ६.१२ जोयण ८.७ जोयंतहो ७.१५ जोव्वणवइ ११.२१ जोवणु ८.२१ जंपिउ २.१७ जंपेविण १०.९ जंवओ ४.१८ जंववेण ८.२० जवआइरुक्ख ६.१० झत्ति १.११, ३.२, ९.१५ झल्लरिरूअ ६.१ झसइंधरायस्स १.१३ झाइज्जइ २.१६ झाणालेविय ८.१२ झायंतु ४.२ झिज्जइ ८.१ झुठ्ठ २.२३ टिटामंदिरु ९.७ डंभ ९.१५ डिभु ५.३, ५ पहाणकज्जे ८.६ ण्हाहिणि १.१८ णउल ४.२ णमेविण ३.१२ णरवराह २.१ णरणाह १.३ णव ४.१ णयर ९.७ णयणफल ४.१५ णवर २.२, ३.१, ९.८ णरिसरिउ ५.११ णहयलउ १.९ णाणारयणावलि २.१ णायकेउ ७.१७ णायसिरि ११.१३ णारिहरु ४.२४ णिउणभट्टहो २.१८ णिक्कलु ३.२२ णिक्किट्ठ ८.१८ णिक्किय ९.१९ णिग्गंथु ३.१२ णिग्गयणी ४.९ णिच्चावलोह ९.१५ णिठ्ठरु ११ २२ णित्थरहु ७.३ णिद्धाडिय ३.५ णिद्धिकार ४.११ णिप्पीलियउ ७.११ णिब्भच्छिअ २.९, १८ णिभंतु ५.१२ हिम्मलरयण २.१३ णिम्मियउ ९.१२ गियच्छिउ ९.१० णियाण २.६ णियवत्त ५.१७ णियसाहणु ८.१३ णियंव ४.१६ णिवसेहरु ३.१ णिविउपेम्मु ४.१६ णिविठ्ठ ४.७ णिरंजणु ३.२१ णिरिक्खइ १.९; २.७३ णिसुणिज्जइ ७.१८ णिसि जण ११.३-१० गिसिभोयणु ११.८ णिसुणेविण २.७, ११ णीलंजस १०.३ णीसरियउ ५.१५, ९.११ णेउर ७.३ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंदगोठे ३.२० णंद-सुणंद १०.२ गंदणु १.७ तइआ/तइयो संधि ३.११, ३.२२ तक्कर ३.१६ तणकट्ठमोडु २.२ तवसिसंधे ७.५ ताडिज्जमाणओ ५.९ तायाणाए ९.९ ताराहरणु ८.२२ तावसरूव ७ १ तित्थजत्ताफल ४.८ तियखें ५.६ तियच्छु २.४ तियाहिय ६.११ तिलयसोह १.३ तिलोत्तमा ४.१३ तिसठि ८.१५ तिहत्थ ६.११ तुच्छोरिया ७.१२ तुज्झु ५.१० तुट्ठएणं ३.८ तुम्हह २.४ तुरुंगु ३.७ तुल्लु १.१४ तेऊलंसहि ६-१४ तोमर ३.४ तंवोलविलेवणाई १.२० थक्कउ ४.२१ थक्कहि ३.१५ थक्कु १.९; १०.१ थिरगब्भासे ७.१० थेवेविण १०.३ थंभिउ ४.१० ददुरियणासेहिं ११.६ दद्दुरेण ४.६ दळंगुट्ठउ ७.४ दरदरिसिय ४.१३ दरिसिज्जइ ५.८ दहा ६.१ दहजम्म ४.१ दहपुव्वधारि ५.७ दहपुरिस २.९ दहबलकोडि ५.१३ दइयस्स ४.९ दहविहधम्म ९.२० दहि ३.४ दहिमुहु ९.६, ९. दाणवईसहो ९.८ दाणुल्लउ २.१६ दारेविणु ५.१३ दाहिणउ पाउ ३.१५ दिएहि ४.१ दिट्ठमूढकहा २.१६.१७ दिणार ३.१० दिणे दिणे २.२४ दिवट्ठसार ६.१२ दिव्वहारु ३.४, ५ दीवंती १.४ दुच्चरियउ २.९ दुज्जणु ३.१२ दुज्जोहण ८.४; ९.१४ दुट्ठ ४.२२ दुद्धह २.२४, ३.४ दुद्धडउ ४.५ दुद्धघडिउ ४.५ दुद्धरसुक्क ९.१० दुणयणु ६.१५ दुण्णिवार ७.१५ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुत्तरो १.१४ दुपल्लु ६.११ दुट्ठमूढउ २.९ दुहियलक्खणभरिय ७.११ दुंदुहिसरु ५.१९ दूरंतरियउ ९.११ देवत्तणु ४.१२ देवसंघाउ ४.१८ देवहम्मे वणे १.१७ दो पियाउ ३.१४ दोहिमि ८.२० दंडदोस २.८ दमणमत्तेण ४.२० धक्कडकुल ११.२६ घणलुद्धए ११.११ धणं ३.८ धणवइ ११.३ धम्मपरिक्ख १.१, ११.२६ धम्मपहाउ ११.१० धम्ममोक्खत्थकाम ३.३ धम्मराइ ३.८ धम्म ९.१९.२० धम्मुफल ९.१९.२३ धम्मेण १.१५ धय ३.४ धयरट्ठहो ७.९ धयरठ्ठ ८.१ धरणिदहो ८.१२ धीवरकुमारि ७.१४ धीयजयलु १०.२ धुमुधुगइ ७.१५ धमद्धउ ४.२० पइट्ठ ४.१० पक्ख १०.२ पगलिउ ५.१ पवोसइ २.२४ पच्चक्ख ४.९ पच्चंतह ९.२४ पच्चरखाणु १०.१० पच्चुत्तरु ३.४ पच्छत्ताव/पच्छुत्ताव ४.४, ३.१० पच्छण्ण सरीरु ४.२० पज्झरिउ ७.१६ पज्जलिउ ४.१२ पट्ठाणियाइ ११.१३ पडहसर ३.११ पंच णमोकाराइ ११.१५ पंचमसरु ४.१२ पंचम संधि ५.१, ५.२० पंचवीस ६.१ पंचसयाई ५.७ पंचदहा ६.१ पंचाणणहो ९.५ पंचाणुत्तर ६.६ पंचास १.३, २.१८ पंचविहु भंतु ५.६ पंचढहा ६.२ पंचासह १.४, २.७ पंचाणुव्वय १.७ पंडव ८.४ पंडु ८.१ पंडियविज्जवियाणय ७.२० पच्छिऊण ४.२ पडिच्छउ ३.४ पहिवासुएव ४.१ पडिवमुणु ४.४ पडिमा ८.१२ पडिजंपइ ९.५ पडिवण्णु ७.१५ पडिवत्त उ ७.४ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिवज्जइ ५. १६ पडिवालइ ७.६ पडुत्तरु ३.१४ पदम संधि १.१; १.२० पढडिया १.१ भणिज्जहि ६.५ माणसंखा १.७ पडमि ४.५ पयपक्खालण २.२ पयडिओ १.१६ पयंडु ११.३, ५ पयंपति १.१४ परकलत्तु ४.११ परतियलंपडु ४.१२ परदव्वहरण ६.२ परमेट्ठि १०.३ परयारकहा ४.११ पररुंडहो ९.८ परमप्पउ ३.२२ परोवरु ६.१४ परिक्खियइ ५.१९ परिणय ४.२३ परिट्टणु ७.५ परिडंविय ५.६ परिया ९.१ परियारकहा ४.११ परिंदो ३.८ पल्लट्टेवि ४.२२ पलंबभुया ६.३ पलोएमि ३.८ पलोएवि ४.२० पलोएह ९.४ पलोयइ ४.१४ पवणेष्पिण ३.४ पवणवेउ १.८ १० पाएप्प २.३ पाडलीउल ११७, १०.१३ पाण्डवकहा ८.४ पायच्छित्त १.२० पायजुयलु २.२०, २२ पायाउलउ १.१९ पायाउलओ ३.१२ पायाललंक ८.२० पायारभित्ति १.४ पायारालंकिय ९.२३ पारद्धिय / पारद्धिएहि ८.९ पारासरु ७.१४ पाविट्ठ ४.७ पासजिण १०.१० पित्तदोसु ३.१ पित्तजरेण ३.११ पियगुणवइ ११.२६ पियगोरि ११.३ पित्तरु ५.८ पिपीण पहर १.६ पिहुल रमणे ४.११ पुण्ण होणउ ८. १८ मेहु ८.१३ पुज्जियउ ४.२४ पुत्त १.१ पुष्यंतु १.१ पुरिल्लियेण २.१०, ११ पुरोहिउ ९.२२ पुव्वमुणि ४.८ पुव्वमुणिदमुणिवयणु ७. ५ पुव्वक्किय ५.१० पुण्यालि ७.२ पूइगंधेणि ७.१४ पेल्लिय ५.३ पोक्खरद्धे ६.१० Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोडविणु ९.२ पोम्मुप्पज्जइ ९.१८ पोमराय १.३ पोल्लिउ २.८ फणसालिंगण ७.९ फालंगउ ९.८ फुट्टउ ३.१४ फुड ४.२२ बम्हसाल ४.३ बलएव ४.१ बहुधण्णो २.९ बहुरसरसोइ २.१२ बाहुबल्ली १.६ बीओ संधि २.१ बुह हरिषेण १.१ बोलिज्जइ २.१४ बंभहो ४.१२ बंभयारि २.२१ बंभु २.४ भविखऊण ३.२ भक्खिज्जइ ११.४ भग्गाणुराउ ८.१९ भत्तिभारतुद्रेण ९.८ भत्तिभाव १.१; २.४ भणिऊण ३.११ भमरु २.७ भयणीवइ ८.१६ भयतट्ठहो ४.२१ भरहखेत्तु १.१ भल्लहु ३.१३ भवियव्वु ५.१२ भाइरहि ७.९ भामंडल ५.१९ भायणु ८.६ भावण वरस १०.३ भाविज्जइ ५.१९; ६.१ भासिज्जइ ९.१ भिक्खु ५.२ भिगारिय ५.११, १३ भिच्च भिच्चु ३.६, ४.५ भिडियउ ८.२१ भिल्ल ४.३ भिल्लपहे १.१३ भिल्लाहिउ ३.४ भिल्लेविण ७.८ भीमसेणु ८.४ भुजाविउ ८.११ अँजिज्जइ २.१२, ११.३ भुंजेवि ३.४ भुत्तंतरे १०.१५ भुयंगम १.१३ भुयंगुप्पयाउ २.६ भूयमइ २.१८ भोयणपंतिहे ४.७ भोयाहिट्ठिउ ६.४ मक्कडहु ७.२ मग्गेविण २.१८ मगहामंडलु ३.६ मज्जारु ४.३, १.३ मडयजुयलु २.१८ मच्छरु २.१३ मच्छाण ६.१६ मच्छारु ४.३ मणमयणए ४.११ मणवेउ १.६, २.१ मणहरखेयर १.२ मणिकडय १.१५ मणिमउडहर २.१ मणिसेहरु ३.११ मणुसुत्तर ६.५ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणोज्जइ १.१८ मोहु १.७ मत्ता छंदो ३.२१ मद्द ८.३ मनोमूढ कहा २.१८ मयम्मधारण ४. १८ मयणवाणावलि ७.१४ मयणवाणु ४.१० मयणानल २.१९ मरणविहि ८.२१ मरुदेउ १०.१ मलयायल १.११ मसाणु २.१६ महन्तर ६.८ महल्लउ २.११ महव्वय ५.२० महुविन्दु १.१४ १०.१७ महसुक्को ६.८ महिलाउ ३.१५ महिलामइ २.१५ महुरवक्कु ४.२० महरा २.१८ महुराउरि ३.११ माणभु ८.१४ माणसवेउ १.११ माणिज्जइ १.१९, ९.७ मायामण ७.३ मास १०.२ मिच्छादिट्ठिहु १.८, ६.१५, १६ मिच्छाभाव ११.२६ मियंक पुत्तु ३.३ मिल्लाहि ५.१६ मिल्लेविणु ९.१७ मीमांसा ९.१८ पण २.३ १२ मुक्कु २.११ मुचुकुंदहि १.१२ मुद्दिय ८.३ मुडिस ८.१ मुंडमुंडा ९.३ मुणइ ५.३ मुणिचंद १०.१३ मुणिज्जइ १०.१ मुत्ताहल ४.२३ मुत्तूण १.१७ सुन्य १०.९ मूलगुण १०.१४ मूसह ४.४ मेढियमणु ९.३ मेल्लिउ ७.७ मेवाड ११.१, २६ महालए १.४ मोक्खफरु ९.१७ मोक्खसिला ६.६ ९.१ मोपिया १.८ मोतिहारसुत्ति २.१० मोल्लु ३.१० मोसेवकेण ७.९ मंगालउ २.७ मंडवको सिउ ४.७ मंचयतले ३.१७ मंजीरसरा ६.३ मंदिर सिहर १.४ मंदोयरि ७.१८, ९.१७ मंदोरिया ७.१२ मंडपकोसिउ ४.७ मंडुएं ४.६ रइसुह ४.१५ रक्खस- चिंधी ८.१२, १७ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ . रक्खसधय ८.१५ रत्तभिक्खु ८.८ रत्तमूढकहा २.९ रस्तुप्पल ४.२३ रत्तंवर जडधारणाइ ९.१३ रत्तंवरु ८.८ रजओ छंद ३.११ रयणवत्थु ३.४ रयणायराउ ४.६, ११ रयणप्पहणारहए ६.४ रमणभाव २.१८ रहणेउर ११.४ राम रावणकहा ८.१०, ९.४, १५ रमियावसाणे ४.२० रामायण २.६ रामसुयमहविहि ५.१३ रावणु ७.१३ रासयछंदु ५.१६ रासहरिसि ४.१६ रासहसिरु ५.७ रिच्छि ४.१७ रािका ३ १५ रिसहजिण १०.२, ११ रिसिपत्ती ५.१ रुइसंघहिं ४.२३ रुक्खु ३.१ रुद्दाइगुण ५.१ रुसेविण ५.३ रुहिर ३.१७ रंगावलि ८.६ रंजेवि ४.१४ रंधेसमि ३.१७ लइज्जइ २.१७ लक्कडभार २.५ लक्खट्ठावीस ६.७ लक्खण ८.१० लच्छिणाहु ३.२२ लच्छि फलु १०.४ लद्धहो ३.१० लहु ४.२ लायण्णउ १११८ लिंगग्गइ ५.५ लिगग्गहणउ ३.२० लयगल सिरई ९.५ लुयाविय ८.३ लोयटिदि ६.१ लंकपट्टठ्ठ ८.१५ लयडु ४.१२ वइजयंतो १.४, ६.६ वहसाणरु ९.१०, ४.२२ वक्करु २.२३ वक्खाणहि ७.७ वच्छाहरणइ ११.२२ वज्जरह ३.१३ वज्जिज्जइ ४.१५ वट्टइ २.१८ वटुत्तगु ९.१८ वडरुक्खे ५.१५ वणदहणु ३.९ वणियवरो ३.११ वणीसरु ३४ वत्तस ४.१७ वयण ४.१० वलिवंधणकारणु ४.२ वल्लिगेहे १.१७ ववहरिय ३.१७ वहत्तरि ६.४ वाईसरि ७.१५ वाउवेग १.६ वाणरदीउ ८.१६ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणारसि ५.७ वामणरूत्रेणं ३.२१ वायसाल ८.७ वारह वरिउ ३.६ वावरु ३.९ वासुएव ४.१, ८.४, १०.९ वालि ८.१०, ९.१५-१७ वालिखील ५.१ बावीस परीसह ८.५ वावीजलो १.१७ विउससिरोमणि १.१३ विक्कमपुरि ८.८ विक्खायउ ७.१ विक्किणेवि ३.१० विघट्ट ३.१५ विच्छरिय ११६ विचित्तु ८. १ विज्जहि ३.१ विज्जावल ८.१० - ११ विज्जाहर ८.१६ विज्जुकुमारयाहं ६.१२ विज्जाणुवाउ विज्जाहर ८.१६, १८ विज्जासमूह ५.७ विज्जूमाला ९.९ विद्धंसिय ९.५ विदुरु ८.१ विदुम पोमराय ६.७ विणि १०.२ विहु २.२२, ५.१५, १६ विष्णाविउ २.११, ३.९ विडिय ५.३ विष्फुरिय ४.१७ विप्पच्छकम्मगुणा २.२२ विमभरि १.१९ १४ विमलकित्ति ८.१७ त्रिम्हहु ६.१ विमाणवत्थु १.१७ विक्खणु ८.७ विक्खणेण ८.१९ बियाणएण ७.६ वियारिज्जंतउ ४.२ विद्यावि २.१५ विरावणु ९.१५ विवज्जिउ / विवज्जिय ४.१; ६.४ वित्राउ ३.१३ विविधमे २.५ विवाह महोच्छओ ११.९ विसालउ ३.१२ विडइ ८.२२ विइए ८.१६ वीउ सधि २.२४ वीस ९.१७ वृव्वु आउ ६. १८ वुद्ध १०.१० बुड्ढी देवी ९.९ बुड्ढु २.१८ इंदियाण ६.१६ वेब्वाइ ९.१६ वेत्तासण ६.७ वेड्ढ महीहर ७.२, ८.११ वेय वय ५.१६ वेयाल ११.६ वोदो ३.१६ वोल्लह ५.३ वोल्लाविय४.९ वोल्लाति ३.१८ वोलिज्जइ १.१९, ७.१८ कुदास गहवइ २.१६ वंदियगरिट्ठ १०.५ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंभण १०.६ बंभसाल १.१८, २०३, ७.१ भसुतु ७.५ भरज्ज ९.१९ वंभंडु_६.१८ भयारि १.१८ भहो ४.१२ हाइहु ५.१ सक्कर ३.१ सच्छंदो ४.१७ सच्छाउ १.६ सज्जनचित्ताइ ११.२ सजलकुंभु २.१८ सत्त ४.२ सत्तावीस ९.२५ सत्थविज्ज ३.१९ सत्यवाउ ९.१ सत्तइहो ८.१७ सत्तट्ठहिं ६.१२ सत्तंगरज्जु ३.७ सद्दहइ ५.९ सहिटि ६.१५ सट्ठि १३ सद्दण्णु ९.११ सप्पा १.१४ सम्मत्त राइउ १.१६ सम्मत्तरयण ४.७ सम्मासण्ण ४. १८ समाहि १.९ समुपाइऊ गं ९.४ सयणमणु ७.२ सयलभाव ४.५ सयंभव १.१ सरायवयणु ४.११ सलक्खणाए ४.११ १५.० सव्वण्णु ३.२२ सव्वत्थसिद्धि ८.५ सम्भावपयासण ५. २० ससिकिरणें ८.१९ सहएव ८.४ सहजाहरण ११.२१ सहसु ६.४ सहसकूट ११.२ सहस जोणि ९.१४ साकेयन यरम्मि ७.२ सामंतश्चक्खु १.५ सारगुण ४.६ सायर सिलातरण ७.२ सायरु ३.४ सालम्मलि ६. १० सावय १०.४ सावयवय १०.१४ सासुरयहो ३.१७ साहेविणु ३.१९ साहीणई ८.९ fear ९.७ सिक्खावय १.७, १०.१५ सिढिलाइ ४.१४ सिद्ध सेण १.१; ११.२४ सिद्धिहो ४.१५ सियचामरा १.१५ सियाल ८.८ सिरकट्ठा २.२ सिरिकंठु ८.१५-१६ सिरिपाल ११.३ सिरिफल ८.१५ सिरिचित्तकूडु ११.२ सिरिमत्तओ ९.६ सिरिमाण हो ९.५ सिरिसिद्धणिवासु ६.१९ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह ४.७ सोलहमुट्ठि कहाणउ २.६, ४.७ सोरठि देस २.१६ सोहगरूव ६.३ संतणु ८.१ संतुट्ठचित्तु ११.१६ संपडिउ ४.१५ सफुल्लइ ५.१९ संलिहिय ४ १५ सुंदरि २.४, १२ सिहिउण्हंतु ७.८ मिहिणभार ४.२३ सिहिणोवरि ११.२१ सीमंतिणिकुल १.२ सीय ८.१० सुक्कज्झाणु ८.५ सुकज्जवणु ५.१ सुक्करसु ७.११ सुकुमालियाए ७.१२ सुग्गीव ८.१०, ९.१७, १८, १९ सुग्गीवाइ ८.११ सुगओ १०.११ सुद्धखरमहीण ६.१५ सुद्धोयणाइ ९.१.३, १०.१० सुबुद्धि २.१६ सुभीम ८.१४ सुरयगाहि ६.१७ सुलोयण ८.१३ सुवण्णदीव ११.१३ सुसाहिउ ११.२७ सुहभायणु ३.५ सुहज्झाण ३.५ सुहसत्थत्थ ९.६ सुहिक्खु ७.३ सेणावइ ९.२२ सेयंवर ९.१ सेसभुयंगो ७.३ सोच्छंद १.३ सोमप्पहो ८.१ सोमुलच्छी ६.६ सोमसमिद्धिए ११.२७ सोयाण लुण्हेण ४.१७ हक्कारिउ २.१० हक्कारेवि ७९ हणुमंत १.८ हयास २.२३ हर ५.३ हरि ४.१, ११.२६ हरिणाहिउ ६.१८ हरिमेहर णंदणु ३.६ हरिसेण ४.२४, ११.२६.२७ हरियंदण ४.१२ हरिहर ९.१८ हरो ९.४ हवेसमि २.२ हसिऊणं १.१९ हारियउ ३.१६ हिंडंतीए ९.९ हिंतालतालताली २.१ हुयासण ५.४ हेयाहेयहँ ३.५ - - - - - - - - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international संपादक डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' जन्म १ जनवरी, १९३९, बम्हौरी (छतरपुर), म.प्र. शिक्षा : एम.ए. (संस्कृत, पालि तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृतिपुरातत्त्व), माहित्याचार्य, शास्त्राचार्य (प्राकृत-जैनदर्शन), साहित्यरत्न, पी-एच.डी. (श्रीलंका), डी.लिट्. (पालि-प्राकृत), डी.लिट्. (संस्कृत). नियुक्ति : नागपुर विश्वविद्यालय (अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग) में १९६५ से कार्यरत १९८३-८५ तक राजस्थान वि. वि. में प्रोफेसर एवं निदेशक जैव विद्या अध्ययन; रीडर, बौध्द अध्ययन विभाग, दिल्ली वि. वि. (१९७८); मानद निदेशक, सन्मति विद्यापीठ एवं पालिशोध संस्थान | प्रकाशित पुस्तकें : Jernism in Buddhist Literature. बौध्द संस्कृति का इतिहास, चतुःशतकम्, पातिमोक्ख, बौध्द मनोविज्ञान, जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास, भारतीय संस्कृति बौध्द धर्माचे योगदान, चंदप्पहचरिउ, यशोधरचरितम् Jainism, महावीर और उनका चिन्तन आदि लगभग पच्चीस पुस्तकें तथा सम्मान : केन्द्रीय भारत सरकार, शास्त्रि परिषद, UGC नेशनल फेलोशिए, रिसर्च फेलोशिप, कामनवेल्थ फेलोशिप (श्रीलका) अस्पादन : रत्नत्रय, जैन मिलन सु आनन्ददीप. विदेश अनेक बार अमेरिका एवं यूरोपीय देशोंका भ्रमण व विश् -संमेलनों तथा विश्वविद्यालयों में जैरबौद्धधर्म पर भाषण, संगोष्ठी चेयरमेन. महसंपादक प्रो. माधव रणदिवे, भूतपूर्व पालिप्राकृत विभाग प्रमुख, ● शिवाजी आर्टस कॉलेज, सातारा (महाराष्ट्र). For Private & ersonal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिउरविदिकउन्सुतणुमय उहारिसेगमणुयजम्मिनुहि नशतंकरतअविवाणियारिसा कबुखिरयाणिसविाष्पयन सशवमुहमुहथियतावसरासः SANMATI RESEARCH INSTITUTE OF INDOLOGY (SANMATI VIDYAPEETH), NAGPUR. मुखपृष्ठ मुद्रक : मे, मधुकर आर्टस्, धंतोली, नागपूर-१२ ,