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________________ आदि जैसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की गई है। धर्मपरीक्षा भी इसी प्रकार का ग्रन्थ है जिसमें जैनेतर, विशेषतः वैदिक दर्शन, का तार्किक ढंग से परीक्षण किया गया है। धर्मपरीक्षा को पृष्ठभूमि में वाद कथा का भाव रहा है जैसे समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र आदि आचार्यों ने बड़ी विद्वत्ता के साथ अपने ग्रन्थों में अपनाया है । कुन्दकुन्द, पम्प, रन्न आदि ने जैनेतर दर्शनों का वर्णन किया है पर किसी के विरोध में कुछ भी नहीं कहा है। परंतु उत्तरकाल में उन्हें इस परम्परा को तोड देना पड़ा। जैनधर्म के राजाओं को आश्रय मिलना बन्द हो गया। वीरशैवों और लिंगायतों ने भी जैनधर्म को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी। फलतः धीरे-धीरे वाद साहित्य की रचना होने लगी। उदाहरण: नयसेन के धर्मामत (सन् 1112) में सम्यग्दर्शन के अंगों पर प्रस्तुत कथाओं में जैनाचार का पालन करनेवाले जैनेतरों को भ्रष्ट होते हुए बताया है। ब्रह्मशैव ने त्रैलोक्यचूड़ामणि स्तोत्र में वृक्ष, समुद्र, नदी, सूर्य आदि की पूजा का खण्डन किया है और समयपरीक्षे में अन्धविश्वासों का खण्डन करते हए दशावतार, स्वयम्भू आदि को आलोचना की है। इसी तरह वृत्तविलास (सन 1360) ने चम्पूशैली में लिखी धर्मपरीक्षा में वैदिक आख्यानों की तीव्र भर्त्सना की है। यह संस्कृत धर्मपरीक्षा का अनुवाद-सा है। शास्त्रसार में मिथ्यावाद का खण्डन कर सम्यक्त्व की स्थापना की गई है। संस्कृत और प्राकृत में इस प्रकार के अनेक ग्रन्य मिलते हैं । धर्मरीक्षा भी इसी पृष्ठभूमि पर लिखी कथा है जिसमें जै नेतर दार्शनिक सिद्धान्तों और उपासना पद्धतियों पर तीव्र प्रहार किया गया है। धूर्ताख्यान की पृष्ठभूमि पर रची गई धर्मपरीक्षा निःसन्देह एक प्रभावक रचना सिद्ध हुई है। ३. धर्मपरीक्षा का उद्देश्य हरिषेण की धर्मपरीक्षा का उद्देश्य है मिथ्यात्व भाव को स्पष्ट करना (मिच्छत्तभाव अवगण्णहि, 11.26) । मिथ्यात्व से यहां तात्पर्य है, ऐसे सिद्धान्त जिनसे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे सिद्धान्तों का सयक्तिक और स्वानुभूतिक खण्डन कर सम्यकत्व की स्थापना की जाती है। व्यक्ति मिथ्या मार्ग को छोड़ दे और सम्यक् मार्ग को ग्रहण कर ले यही आचार्यो का मुख्य उद्देश्य रहा है। वहां किसी धर्म के अपमान करने का कोई भाव नहीं है। अमितगति ने अपने मन्तव्य को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है- मैंने इस ग्रन्थ में जैनेतर मतों का जो भी खण्डन किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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