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मेरे गाल को फाड़कर उसमें से रक्त मिश्रित चांवल निकाले और उन्हें कोडे कहकर सारी महिलाओं को दिखाया । व्यर्थ ही मैंने यह दुःख सहन किया। सासू ने वैद्यराज को धोतो-जोड़ा देकर बहुविध सम्मान किया और वास्तविकता जानने पर लोगों ने मेरा बड़ा उपहास किया। तभी से मेरा नाम 'गलस्फोट' पड़ गया।
इन चारों मों की कथायें सुनकर नगरवासियों ने कहा कि अब तुम लोग उसी साध के पास जाकर अपनी मूर्खता को शुद्ध करो ।।19॥
इस प्रकार चार मूों की कथा कही गई । मनोवेग ने कहा- हे ब्राह्मणो! ये दस प्रकार के मूर्ख बताये गये। इनमें से एक भी प्रकार का मर्ख तुम लोगों में हो तो मुझे बताओ । मुझे अभी भी कहने का साहस नहीं हो रहा है । आप लोग प्रायः कदाग्रही होंगे तथा जिस वक्ता के पास कोई विशेष वेश न हो, पगडी, चोरी, पुस्तक अथवा धोती-जोड़ा न हो, जनानुरंजनकारी भेष न हो, पावड़ी (खडाऊ) न हो, उस वक्ता का कोई भी अभिवचन आप प्रामाणिक नहीं मानते । तब ब्राह्मणों ने कहा-हे भद्र ! भयभीत न होओ। हम लोगों में ऐसा कोई भी मुर्ख नही है। तुम निश्चिन्त होकर अपनी बात युक्ति पूर्वक कहो। तब मनोवेग ने कहा-मैं जो कुछ कहूँ, उस पर निष्पक्ष होकर विचार कीजिएगा। मणि मुकुटांकित हरि (विष्णु) में अपनी आस्था है या नहीं ? विप्रों ने कहाचराचर जगद्व्यापी विष्णु भगवान को कौन नहीं मानता ? तब मनोवेग ने कहा- यदि आपका विष्णु ऐसा है तो नन्द गोकुल में गवालिया होकर गायों को क्यों चराता था ? तथा ग्वालिनियों के साथ रतिक्रीडा क्यों करता था ? ॥20॥ ___मनोवेग ने आगे कहा- पाण्डवों की ओर से दुर्योधन के पास चूत कार्य करने के लिए वे क्यों गये ? वामन रूप धारण कर बलि राजा से पृथ्वी की याचना क्यों की ? रामावतार में कायी के समान सीता के विरह में संतप्त क्यों हए ? यदि ऐसे कार्य विराग रूप ही करते है तो हम जैसे दरिद्र पुत्रों का काष्ठ बेचने में क्या दोष है ? मनोवेग के इन सयुक्तिक वचनों को सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- हमारा विष्णु तो ऐसा ही है । पुराणों में उसका ऐसा ही वर्णन मिलता है । तूने हमारे लिए चिन्तन का एक सूत्र दिया है। दर्पण के बिना नेत्र रहते हुए भी रूप नहीं देखा जाता। यदि वह सरागी है तो विरागी कैसे हो सकता है ? यदि सर्वव्यापी है तो इष्ट वियोग कैसे हो सकता है ? सर्वज्ञ होकर वृक्ष-वृक्ष से खबर पूछना कैसे लग सकता है ? अल्प जीवों के समान दुःखित होकर उसने मत्स्य, कच्छप, शूकर, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण वगैरह अवतार किस कारण धारण किये हैं ? वे जन्म-मरण के दुःख निरंजन होकर कैसे सहते हैं ? ।।2111
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