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________________ ... रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा आदि से संकुलित यह शरीर नव द्वारों से अपवित्र वस्तुओं को दूर फेंकता है। उस अपवित्र शरीर को यह परमेश्वर क्यों धारण करता है ? सर्वज्ञ होने पर भी वह क्यों पूछता है ? दानवों को उत्पन्न कर फिर उसे क्यों मारता है? यदि वह तृप्त है तो भोजन क्यों करता है ? यदि अमर है तो अवतार क्यों लेता है ? यदि भय और क्रोध से विरहित है तो शस्त्र क्यों धारण करता है ? ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में आने लगे हैं । अतः हे भद्र ! तुमने हमको जीत लिया है। अब तू जयलाभ रूप आभूषण को पहनकर भूषित हो जाओ। हम भी विरागी देव को खोज करते हैं ? इस प्रकार मनोवेग विप्रगण को निरुत्तर कर उस वादशाला से बाहर आ गया 112211 ४. चतुर्थ संधि मनोवेग ने पुनः पवनवेग से कहा- हे मित्र, अभी तुमने लौकिक सामान्य देव को सुना अब संशय विनाशक अनुक्रम का स्वरूप बताते हुए हरि सर्वज्ञ के विषय में कहता हूँ । पवनवेग ! इस भारतवर्ष में छ: काल यथाक्रम से हुए हैंसुखमसुखमा, सुखमा, सुखमदुःखमा, दुःख मसुखमा, दुःखमा और दुःखमदुःखमा । चतुर्थकाल दुःखमसुखमा में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव, इस तरह 63 शलाका पुरुष होते हैं। उनमें कोई मोक्ष जाते हैं और कोई नरक दुःख का अनुभव करते हैं। महापुरुषों में नारायणों में से कंसासुर और चाणूरमल्ल के शत्रु वासुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण हुए। उन्हें पुराणों में जन्म-मृत्यु विवजित कहा है और साथ ही उनके दस अवतारों (मत्स्य, कूर्म, शूकर, नरसिंह, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की) की भी चर्चा आई है। इस परस्पर-विपरीत चर्चा में यह भी कहा गया है कि जो अक्षराक्षर विनिर्मुक्त, अभयरूप, सत्य संकल्प विष्णु का ध्यान करता है वह सांसारिक दुःखों से मुक्त हो जाता है ।। 1 ।। बलिबन्धन (अकम्पनाचार्य मुनि) कथा मित्र, तुम्हें बलि-बन्धन की कथा सुनाता हूँ । एक समय बलि नामक दुष्ट ब्राह्मण मंत्री ने मुनियों को मारने की इच्छा से सात दिन का राज्य मांगा और भयंकर उपसर्ग किये । उस अकम्पन मुनिसंघ के इस उपसर्ग को दूर करने के लिए ऋद्धिधारी विष्णुकुमार मुनि ने वामन का रूप धारण कर बलि राजा से तीन पांव जमीन मांगकर उसे बांध लिया और मुनि उपसर्ग दूर कर दिया । इस कथा को मूढ लोगों ने कुछ और ही रूप दे दिया। उसी को विष्णु मानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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