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________________ शब्दों को आज भी कोई नहीं पा सकता है। गोग्रहकथा वर्णन में-च उमुह एव च गोग्गह कहाए । इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि चतुर्मुख महाकवि स्वयंभू से भी पूर्ववर्ती होना चाहिए । कहा जाता है कि उनकी तीन प्रमख कृतियां अपभ्रंश भाषा में लिखी गई हैं - पउमचरिउ, रिट्ठणे मिचरिउ तथा पंचमीचरिउ । धवल कवि ने हरिवंशपुराण में उनके एक और ग्रन्थ का उल्लेख किया है-'हरि पाण्डवानां कथा' । दुर्भाग्यवश महाकवि का अभी तक कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है । कवि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है । हरिषेण ने उनके मुख में सरस्वती का निवास बताकर उनका सम्मान किया है। स्वयंभूदेव स्वयंभूदेव के पिता का नाम मारुतदेव और माता का नाम पद्मिनी था । उनकी तीन पत्नियां थीं- आदित्यदेवी, अमृताम्बा और सुअब्वा। इन तीनों ने कवि के ग्रन्थों को लिखने में काफी सहायता की थी। कवि के पिता भी कवि थे। उनके लड़के त्रिभुवन स्वयंभू भी अपने पिता के समान ही प्रतिभा संपन्न महाकवि थे। उन्होंने भी अपने पिता के ग्रन्थों को पूर्ण करने में अपनी प्रतिभा का उपयोग किया था। कवि मलतः कौशल प्रदेश के थे। बाद में उन्हें राष्ट्रकुट राजा ध्रुव का मन्त्री मान्यखेट ले गया था । हरिषेण ने उन्हें लोकालोक में विश्रुत माना है। महाकवि ने पउमचरिउ ओर रिट्ठणेमिचरिउ में जिन पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख किया है उनमें रविषेणाचार्य सबसे बाद के हैं। रविषेण ने पदमचरित की रचना वि. सं. 734 में की अतः स्वयंभू की पूर्व कालावधि वि. की लगभग 8 वीं शती होगी। इसी तरह महाकवि पुष्पदन्त ने स्वयंभू का उल्लेख अपने महापुराण में किया है। महापुराण की रचना वि. सं. 1016 में हुई थी। अतएव स्वयंभू की उत्तरकालावधि वि. सं. 1016 है । जयकीर्ति और असग ने स्वयंभ का उल्लेख किया है। अतः कवि का समय नवमी शताब्दी होना चाहिए। महाकवि की तीन विशाल रचनायें उपलब्ध है- प उमचरिउ, रिट्ठणे मिचरिउ, और स्वयंभू छन्द । इनके अतिरिक्त तीन और ग्रन्थ उनके नाम पर उल्लिखित है-सोद्धयचरिउ, पंचमिचरिउ और स्वयंभूव्याकरण । कवि के सभी ग्रन्थ भाषा, विषय और शैली की दृष्टि से अनुपम हैं। रामकथा को नदी मानकर उसे उन्होंने बहुत सरस बना दिया है। पुष्पदन्त महाकवि पुष्पदन्त भी स्वयंभू के समान मूलतः ब्राह्मण थे पर जैनधर्म की विशेषता देख कर वे जैनधर्मपरायण हो गये थे। उनके पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। वे बड़े स्वाभिमानी और स्पष्टवक्ता थे । महापुराण के अन्त में दी गई प्रशस्ति से उनके व्यक्तित्व की एक झलक मिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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