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________________ जाती है। अभिमानमेरु, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय और काव्यपिसल्ल जैसे उपाधि नामों से भी कवि के व्यक्तित्व का पता चलता है। वे राष्ट्रकट के अंतिम सम्राट कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत द्वारा सम्मानित थे । भरत ही उन्हें विदर्भ से मान्यखेट ले गये और उन्हीं की प्रेरणा से मान्यखेट में महापुराण की रचना हुई थी। हरिषेण ने उनकी मानवीयता तथा विद्वत्ता का ससम्मान उल्लेख किया है। ___ महाकवि पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय रहे हैं। धवला और जयधवला ग्रन्थों का भी उन्होंने उल्लेख किया है। जयधदलाटीका वीरसेन ने अमोघ वर्ष प्रथम वि. सं. 894 (A. D. 837) के आसपास की थी। हरिषेण के शिष्य जयसेन ने वि. सं. 1044 में उनका उल्लेख किया है। अतः महाकवि का समय वि. सं. 894 और 1044 के बीच तो होना ही चाहिए । धनपाल में पाइयलच्छी नाममाला में वि. सं. 1629 में मालव नरेन्द्र द्वारा की गई मान्यखेट की लूट का उल्लेख है। पुष्पदन्त ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। लगता है इस लूट को उन्होंने स्वयं देखा है और वे उसके बाद भी मान्यखेट में रहे हैं । अतः महाकवि का समय ई. सन की दसवीं शताब्दी होना चाहिए । पुष्पदन्त की तीन रचनायें उपलब्ध हैं- महापुराण, णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ । ये तीनों ग्रन्थ रस, अलंकार और प्रकृतिचित्रण की दृष्टि से बेजोड़ हैं। उपमा और रूपक की शैली से कवि की विदग्धता का पता चलता है। देशी भाषा के शब्दों का बड़ा सुन्दर प्रयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। बुध सिद्धसेन हरिषेण ने बुध सिद्धसेन का उल्लेख (I1-25) इस प्रकार से किया है जैसे वे उनके गुरु रहे होंधत्ता- सिद्धसेण-पय बंदहिं दुक्किउ णिदहिं जिण हरिषेण णवंता। तहि थिय ते खग-सहयर कय धम्मावर विविह-सुहई पावंता ॥ धम्मपरिक्खा के प्रारम्भ में भी उन्होंने बुध सिद्धसेन के 'प्रसाद' का उल्लेख किया है। हरिषेण के अतिरिक्त अन्यत्र बुध सिद्धसेन का उल्लेख देखने में नहीं आया। जयराम हरिषेण ने लिखा है कि जिस धम्मपरिक्खा को कवि जयराम ने गाथा प्रबंध में लिखा था उसी को उन्होंने पद्धडिया छन्द में लिखा दिया है। इससे ऐसा लगता है कि 'धम्मपरिक्खा' का प्रारम्भ जयराम ने किया था। परन्तु यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। अतः इसके विषय में कुछ भी कहना संभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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