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________________ प्रथम रूप विमल सूरि के पउमचरिय में मिलता है जिसका अनुकरण रविषेण, स्वयम्भू, शीलाचार्य, भद्रेश्वर, हेमचन्द, धनेश्वर, देवविजय और मेघविजय ने किया है और द्वितीय रूप मिलता है गुणभद्र के उत्तरपुराण में जिसका अनुसरण पुष्पदन्त और कृष्णदास ने किया है। इन दोनों रूपों की संक्षिप्त कथा क्रमशः इस प्रकार है । इनमें प्रथग रूप इस प्रकार है __ श्रीलंका के राजा रत्नश्रवा के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम थे। रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण तथा पुत्री का नाम था चन्द्रनखा। ये सभी राक्षसवंश के थे। राक्षस नहीं थे, विद्याधर जाति के मानव थे। इन्द्र, वरुण आदि देवता भी यहां विद्याधर ही बताये गये हैं। रावण का सम्बन्ध मन्दोदरि से और चन्द्रनखा का सम्बन्ध खरदूषण से होता है। चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा के साथ हनुमान विवाहे जाते हैं। इन सभी को जैन धर्म का पालन करनेवाला बताया गया है। रावण की मृत्यु दशरथ व जनक की सन्तान के हाथ होगी यह जानकर विभीषण दोनों को मारने आता है। इधर नारद दशरथ और जनक दोनों को सचेत कर देते हैं। फलस्वरूप वे अपने पुतले महल में छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। विभीषण उन्हें सही मानकर मारकर चला जाता है । दशरथ कैकेयी के स्वयम्बर में जाते हैं और उसे अपनी पत्नी बनाते हैं। बाद में होने वाले युद्ध में कैकेयी दशरथ की भरपूर सहायता करती है। इसलिए दशरथ उसे एक वरदान देते हैं । जनक के भामण्डल नाम का पुत्र और सीता नाम की पूत्री होती है। चन्द्रगति नाम का विद्याधर भी मण्डल को हर ले जाता है। यवक होने पर नारद सीता के प्रति मोह उत्पन्न कराता है । चन्द्रगति जनक से भी मण्डल के लिए सीता की याचना करता है। जनक इसके पूर्व ही उनके यज्ञ की रक्षा करने वाले दशरथ पुत्र राम को सीता देने का संकल्प कर च के थे। इस असमंजस को दूर करने के लिए चन्द्रगति एक धनुष देकर सीता स्वयम्बर का आयोजन कराता है । उसमें राम धनुष चढ़ाकर सीता का वरण करते ह। साथ ही सीता और भामण्डल का बहिन-भाई के रूप में मिलन होता है। दशरथ और भरत को दीक्षित होता जानकर दोनों से संयोग बनाये रखने की दृष्टि से कैकेयी दशरथ से वर प्रदान के उपलक्ष्य में भरत को राज्य देने के लिए कहती है। राम भरत को समझाकर उसे राज्याभिषिक्त करते हैं और स्वयं लक्ष्मण तथा सीता के साथ वनवास के लिए प्रस्थान करते हैं। अपराजिता और सुमित्रा का पुत्र-वियोगजन्य दुःख देखकर कैकेयी सन्तप्त हो जाती है और राम को लौटाने का प्रयत्न करती है । परन्तु राम प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं। इसी वनवास में अनेक राजाओं का मान मर्दन करते हुए वे दण्डकारण्य पहुंच जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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