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________________ प्रकार से आपने वन में वानर-नृत्य देखा उसी प्रकार से मैंने जल पर तैरती शिला देखी थी। अत: विद्वानों को प्रत्यक्ष देखा हुआ भी अश्रद्धेय वचन कभी भी नहीं कहना चाहिए । विप्रगणों, आप लोग भी साक्षी बिना मुझ अकेले की कही बात पर विश्वास नहीं करेंगे ।। 9॥ कमण्डलु और गज कथा विप्रों ने कहा- सयुक्तिक बात पर हम विश्वास करेंगे। तुम अपने विषय में कहो । मनोवेग ने कहा- मैं श्रीपुर के जिनवरदत्त का पुत्र हूँ। पिता ने मुझे ऋषि के पास पढ़ने के लिए भेजा। एक दिन उन्होंने मुझे कमण्डलु में जल लाने के लिए भेजा । मैं बीच में ही समवयस्कों के साथ खेलने लगा। देर हो जाने से गुरुजी के भय के कारण मैं दूसरे नगर में भाग गया। एक नगर के पास उन्मत्त हाथी को अपने सामने आते देखा । भय से मैं कंपित हो उठा। मैंने कमण्डलु को भिण्डी के वृक्ष पर रख दिया और स्वयं उसकी टोंटी से भीतर प्रवेश कर छिप गया। हाथी भी मेरा पीछा करते हुए कमण्डलु में पहुंच गया और कोपाविष्ट होकर सूड़ से मेरी धोती खींचकर फाड़ने लगा। यह देख शीघ्र ही मैं कमण्डलु के मुंह से बाहर निकल गया। मुझे निकलता देखकर वह भी उसी मार्ग से बाहर निकला । परन्तु उसकी पूंछ का एक बाल उसमें अटक गया और वह वहीं गिर पड़ा। यह देखकर मैंने उससे कहा- पापी, तू यहीं मर । यह कहकर मैं निर्भय होकर निर्वस्त्र ही नगर में पहुंचा। वहां जिनमंदिर में रुक गया। "मुझे वस्त्र कौन देगा" यह सोचकर दिगम्बर ही बना रहा। नगर-नगर घूमते हुए आज मैं यहां पहुंचा हूँ (10-11)। यह सुनकर विप्रगण हंसने लगे और कहने लगे कि तुं स्वयंभू सत्यव्रती है और इस प्रकार असत्य भाषण कर रहा है । भिण्डी वृक्ष पर कमण्डलु का रखा जाना और उसमें हाथी का प्रवेश होना आदि सब कुछ असंभव है। मनोवेग ने साश्चर्य कहा- दूसरे के दोष देखना सरल होता है। क्या तुम्हारे मत में इस प्रकार का असत्य और असंभव भाषण नहीं है ? विप्रगण ने कहा- यदि ऐसा है तो कहिए । हम उसे स्वीकार करेंगे । तुम निर्भय होकर कहो ।। 12 ।। पौराणिक कथाओं पर प्रश्नचिन्ह एक बार युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के समय कहा था- क्या कोई ऐसा पुरुष है जो पाताल में से फणीन्द्र को ले आये ? तब अर्जुन ने कहा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं सप्तर्षियों के साथ फणीश्वर को ला सकता हूँ। तत्पश्चात् अर्जुन ने गाण्डीव धनुष के द्वारा तीक्ष्ण बाणों से पृथ्वी को भेदकर रसातल में जाकर दस करोड़ सेना सहित शेषनाग और सप्तषियों को ले आया। मनोवेग ने कहा- हे विप्रो, आपके पुराणों में यह उपलब्ध है या नहीं ? वित्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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