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________________ अर्जुन कुन्ती से तथा नकुल और सहदेव माद्री से उत्पन्न हुए । आदित्यज कर्ण के साथ सौ पुत्र प्रतिनारायण जरासिन्धु के अनुयायी थे तथा पंच-पाण्डव नारायण श्रीकृष्ण की सेवा में रहते थे । दुर्योधनादि को पराजित कर पाण्डवों ने अपना राज्य वापिस लिया (4)। चिरकाल तक राज्य करने के बाद उन्होंने जैनदीक्षा ग्रहण कर ली । सुख-दुःख मान-अपमान और शत्रु-मित्र से समभावी होकर शान्त चित्त से बावीस परीषहों को और भयंकर उपसर्गों को सहते हुए शत्रंजय पर्वत से युधिष्ठिर. भीम और अर्जुन ने मोक्ष प्राप्त किया तथा नकुल और सहदेव सर्वार्थ सिद्धि पहुंचे । वे भी दूसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेंगे । इस प्रकार कर्ण की उत्पत्ति-कथा उपलब्ध होती है। वह सूर्य का पुत्र नहीं है। यदि धातु रहित देवों के द्वारा स्त्रियां नर को उत्पन्न करती हैं तो पाषाण के द्वारा पृथ्वी में धान्यादिक उत्पन्न होना चाहिए । संसार में सभी प्रकार के संबंध होते हैं, अघटित संबंध नहीं होते । स्त्री का संविभाग अविश्वसनीय है। योजनगन्धा धीवरी का पुत्र व्यास दूसरा होगा और सत्यवतो पुत्र व्यास दूसरा होगा । नाम साम्य के कारण लोगों ने अलीक को अपना लिया (5)। महाभारत कथा समीक्षा महाभारत में व्यास ऋषि ने कदाचित् यह सोचा होगा कि विरुद्धार्थ प्रतिपादन करने वाला उनका बनाया असंबद्ध शास्त्र महाभारत भी प्रसिद्ध हो जायेगा। ऐसा सोच कर व्यासजी ने गंगा के किनारे अपना ताम्रपत्र बाल पूज में गाडकर स्नानार्थ गंगाजी में उतर गये । उनका अनुकरण कर बहत लोग इसी तरह बालपूञ्ज बनाकर गंगास्नान करने लगे। गंगास्नान से वापिस आने पर व्यासजी ने असख्य बालुकापुञ्ज देखे और अपना ताम्रभाजन नहीं खोज सके । समस्त लोक को मूढ समझकर उन्होंने श्लोक पढ़ा कि जो लोग परमार्थ का विचार न कर दूसरों का अनुकरण करते हैं वे मेरे ताम्रभजन की तरह अपना कार्य नष्ट कर लेते हैं। इस मिथ्याज्ञानी संसार में शायद ही कोई विचारवान होगा । अतः मेरा यह विरुद्ध शास्त्र भी लोक में आदरणीय हो जायेगा। यह सोचकर व्यास जी बड़े प्रसन्न हुए (6) । यह कहकर मनोवेग ने हंसकर पुनः कहा पवनवेग से कि इसी प्रकार की कुछ और पौराणिक कथायें सुनाता हूँ। यह कहकर मनावेग ने रक्ताम्बर भेष धारणकर पंचम द्वार से पटना में प्रवेश किया और वादशाला में जाकर भेरो बजाकर स्वर्णासन पर बैठ गया । ब्राह्मण के आने पर उसने वही पूर्ववत् अज्ञानता बताई। उनके आग्रह पर उसी प्रकार पुनः मनोवेग ने अपनी बात कही (7)। शृगाल कथा हम दोनों पूर्व देशवर्ती विक्रमपुर के उपासक है, भगवान बुद्ध के भक्त हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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