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________________ (३१) अतिगति की DP में इससे मिलता-जुलता कोई श्लोक दिखाई नहीं दिया । 5) हरिषेण के DP. 5.12 में - अङ्गुल्या कः कपाटं प्रहरति कुटिले माधवः किं वसन्तो नो चक्री किं कुलालो न हि धरणिधरः किं द्विजिव्हः फणीन्द्रः । नाहं घोराहिमर्दी किमसि खगपतिर्नो हरिः किं कपीश : इत्येवं गोपवध्वा चतुरमभिहितः मातु वश्चक्रपाणिः ॥ 6 ) हरिषेण की DP. 5.9 मेंतथा चोक्तं तेन अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद्भवेत् । यथा वानरसंगीत तथा सा प्लवते शिला ॥ अतिगति DP में यह इस प्रकार में मिलता है-तथा वानरसंगीतं त्वयादशि वने विभो । तरन्ती सलिले दृष्टा सा शिलापि मया तथा । अश्रद्धेयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितं । जानाः पण्डितैर्नूनं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणोः ।। 12.72-3. 7 ) हरिषेण DP 5.17 में - भो भो भुजंगतरुपल्लवलोलजिव्हे बन्धूकपुष्पदलसन्निभलोहिताक्षे । पृच्छामि ते पवनभोजनकोमलाङ्गी काचित्त्वया शरदचन्द्रमुखी न दृष्टा ॥ अमितगति ने इसे छोड़ दिया है 8) हरिषेण DP. 7.5 में अद्भिर्वाचापि दत्ता या यदि पूर्ववरो मृतः । सा चेदक्षतयोनिः स्यात्पुनः संस्कारमर्हति ॥ " अमितगति DP 14.38 में कुछ परिवर्तन के साथ यह छन्द इस प्रकार हैएकदा परिणीतापि विपन्ने देवयोगतः । भर्तर्यक्षतयोनिः स्त्री पुनः संस्कारमर्हति ॥ 1. सुभाषितरत्नभाण्डागार (दशावतार, P. 38, श्लोक 166 ), बम्बई, 1891 में यह श्लोक कुछ परिवर्तन के साथ उद्धृत है । 2. वशिष्ठ स्मृति, 17.64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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