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(३२)
9) हरिषेण DP. 7.6 में
अष्टौ वर्षाण्युदीक्षेत ब्राह्मणी पतितं पति ।
अप्रसूता च चत्वारि परतोऽन्यं समाचरेत् ।। अमितगति DP. 14.39 में इस प्रकार है
प्रतीक्षेताष्ट वर्षाणि प्रसूता वनिता सती ।
अप्रसूतात्र चत्वारि प्रोषिते सति भरि ।। 10) हरिषेण DP. 7.8 में
पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सिकम् ।
आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥' अमितगति DP 14.49 में इसे इसी रूप में उधृत कर दिया है। (11) हरिषेण DP. 7.8 में
मानवं व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतम ।
अप्रमाणं तु यो ब्रूयात स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ अमित गति DP 14.50 में इस प्रकार मिलता है
मनव्यासवशिष्ठानां वचनं वेदसंयुतम् ।
अप्रामाण्यतः पुंसो ब्रह्महत्या दुरुत्तरा ॥ (12) हरिषेण DP. 8.6 में
गतानुगतिको लोको न लोक: पारमाथिकः ।
पश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ।। अमितगति DP 15 64 में इस प्रकार मिलता है
दष्ट्वानुसारिभिर्लोकः परमार्थविचारिभिः ।
तथा स्वं हार्यते कार्य तथा मे ताम्रभाजनम् ।। (13) हरिषेण DP. 9.25 में
प्राणाघातान्निवृत्तिः परध नहरणे संयमः सत्यवाक्यं काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम । तृष्णास्रोतोविभङगो गुरुषु च विनति : सर्वसत्त्वानुकम्पा
सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनपहतमति: श्रेयसामेष पन्थाः ॥' अमितगति ने इसी रूप में इन्हें ग्रहण नहीं किया है। 1. यशस्तिलकचम्पू, भाग 2, P. 119 पर उद्धृत; मनुस्मृति, 12.110-11
यशस्तिलकचम्पू, भाग 2, P. 99 तथा सुभाषितरत्न भाण्डागार, P. 282 (श्लोक 1056) पर कुछ परिवर्तन के साथ ये श्लोक उद्धत हुए हैं। भर्तहरि नीतिशतक, 54
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