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________________ छन्दों में से भुजंगप्रयात को ही कवि ने अधिक पसन्द किया है पर उसे भी उन्होंने द्विपदी जैसा बना दिया है । अपभ्रंश के प्रबंध काव्यों में प्रायः कडवकबद्ध छन्दों का प्रयोग मिलता है । कुछ कवियों ने वर्णनों के अनुसार छदों को भी चित्रण में सजीवता लाने के लिए परिवर्तित किया है। हरिषेण ने भी इस रचनाशैली को अपनाया है। उन्होंने चतुष्पदी षट्पदी छन्दों का द्विपदी के समान भी प्रयोग किया है । समान मात्राओं वाले चार चरणों से एक छन्द बनता है। पर अन्य अपभ्रंश कविया के समान हरिषेण ने भी प्रयोग करते समय इस नियम का ध्यान नहीं रखा । उनकी पज्झटिका में दो चरणात्मक इकाइयों में भी समानता नहीं है । कहींकहीं दो छन्दों को मिलाकर तीसरा छन्द बना दिया गया है । घत्ता (सन्ध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रवा ध्रवकं घत्ता व, छंदो. 6.1) का तो प्रयोग समूचे ग्रन्थ में हुआ है। कवि ने चरणों के विषय में कोई नियम नहीं रखा । कडवक छोटे भी हैं और बड़े भी हैं। उनके चरणों में कोई एकरूपता नहीं है । पर प्रायः घत्ता के साथ ही कडवक पूरा होता है । संधि के प्रारंभ में भी घत्ता के रहने का उल्लेख हेमचंद्र ने किया है (कविदर्पण, 2.1.) हरिषेण ने इस सिद्धान्त का पालन किसी सीमा तक किया है । हरिषेण की धम्मपरिक्खा के प्रस्तुत अध्ययन से इतना तो निश्चित हो जाता है कि इस प्रबन्ध काव्य ने परीक्षात्मक शैली में व्यंग्य का मिश्रण कर एक नई विधा का विकास किया था। पौराणिक मिथक परंपरा पर गहरी चोट करते हुए तत्वविनिश्चय के लिए बेदाग वातावरण तैयार करने भी भूमिका को निर्मित करने का श्रेय भी हरिषेण को ही जाता है। जैनधर्म हठात् धर्मान्तरण के पक्ष में कभी नहीं रहा। उसकी दृष्टि में बिना हृदय-परिवर्तन हुए धर्मान्तरण का कोई तात्पर्य नहीं है। जैन सांस्कृतिक इतिहास में जितने भी धर्मान्तरण हुए हैं, वे सभी हृदयपरिवर्तन के आधार पर ही हुए हैं। इस दृष्टि से भी धम्मपरिक्खा के महत्त्व को आंका जा सकता है। धम्मपरिक्खा का प्रस्तुत संस्करण प्रथम बार प्रकाशित हो रहा है । इसकी पाण्डुलिपियां जुटाने और प्रतिलिपि करने में हमारे अभिन्न मित्र प्रो. माधव रणदिवे, भूतपूर्व पालि-प्राकृत विभाग प्रमुख, शिवाजी आर्टस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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