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________________ १०८ इस प्रकार धम्मपरिक्खा की अपभ्रंश भाषा का विश्लेषण करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस पर एक ओर संस्कृत का प्रभाव है तो दूसरी ओर शौरसेनी प्राकृत का। इसे शौरसेनी किंवा नागर अपभ्रंश भी कहा जा सकता है। इसमें देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कुछ उदुर जैसे शब्द ऐसे भी हैं जो मराठी में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं । यह हम जानते हैं कि हरिषेण ने अपना ग्रन्थ अचलपुर में लिखा था और अचलपुर आज परतवाड़ा(अमरावती) के पास महाराष्ट्र में है। मध्यकाल में, विशेषतः 9 वीं से 12 वीं शती तक अचलपुर जैन संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र इसी के समीप अवस्थित है। अत: मराठी के विकास की दृष्टि से धम्मपरिक्खा की भाषा पर विचार किया जा सकता है । आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश के भेदों का वर्णन तो नहीं किया है पर उनके वैकल्पिक नियमों से उनकी विविधता अवश्य सूचित होती है। पश्चिमी सम्प्रदाय के हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने प्राय: शौरसेनी को अपभ्रंश का आधार माना है । आभीरों का आधिपत्य पश्चिम प्रदेश में रहा है और पश्चिमी अपभ्रंश का आधार शौरसेनी रहा है। हरिषेण ने भी आभीर देश का वर्णन किया है (2.7) । पूर्वीय वर्ग के प्राचीनतम वैयाकरण वररुचि ने भी अपभ्रंश के भेदों का कोई उल्लेख नहीं किया पर क्रमदीश्वर और पुरुषोत्तमदेव के अनुसार नागर अपभ्रंश का प्रयोग क्षेत्र पश्चिमी प्रदेश रहा है। रामशर्मतर्कवागीश (16 वीं शती) ने 27 प्रकार की अपभ्रंशों में नागर अपभ्रंश को मूल माना है । इस प्रकार नागर और शौरसेनी अपभ्रंण का बड़ा सामीप्य सम्बन्ध है। लगभग समूचा अपभ्रंश साहित्य इसी भाषा में लिखा गया है। छंद योजना धम्मपरिक्खा की रचना प्रमुख रूप से पज्झटिका समवृत्त मात्रिक छन्दों में हुई है। पुष्पदन्त के समान हरिषेण ने भी कथा-वर्णन में इस समचतुष्पदी छन्द का सुन्दर प्रयोग किया है। इनके अतिरिक्त पादाकुलक, मदनावतार, स्रग्विणी, समानिका, मौक्तिकदाम, उपेन्द्रमात्रा, सोमराजी, अर्धमदनावतार, रासह, विद्युन्माला, तोटक, तथा दोधक आदि छन्दों का भी प्रयोग कडवकों में उपलब्ध होता है। इनमें अल्पमात्रिक छन्द कम है। समवृत्त वाणिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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