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________________ १०७ और परस्मैपद का भद भी यहां समाप्त हो गया है। आज्ञार्थक और विध्यर्थक रूप समान हैं। कर्मणि-प्रयोग के भी रूप मिलते हैं। धातुओं में अधिक वैविध्य दिखाई नहीं देता। कहीं-कहीं तो बिना धातुओं के ही काम चला लिया गया है। इसलिए संक्षिप्तीकरण की दृष्टि से धम्मपरिक्खा ग्रन्थ बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान काल एकवचन बहुवचन प्र. पु. : भणमि, भंजमि, होमि गच्छामो, पेच्छामो द्वि. पु. : होसि, मुणहि तृ. पु. : अस्थि, हसइ, गच्छइ, उप्पज्जति, दीसंति, रमंति होइ, हवेइ, बोल्लइ भूतकाल तृ. पु. : आसि, अब्भसियउ भविष्यत काल तृ. पु. : उप्पज्जेसइ, भमेसइ, होसइ, करेसइ आज्ञार्थ द्वि. पु. । जाणाहि, भणु, करउ विध्यर्थ द्वि. पु. : देहि, देहु, पेक्खु, भणहि, करहु तृ. पु : चलंतु, सहंतु, जियंतु, होउ कर्मणि प्रयोग भणिज्जइ, दिज्जइ, किज्जइ, वुच्चइ, अच्छिज्ज इ कृदन्त वर्तमान कृदन्त- जाणंत, पइसंत, सोहमाण भूतकृदन्त - गय, गयउ, हुअ, जणिय, जंपिउ, कंपिउ, पभणिउ हेत्वर्थ कृदन्त - गंतु, गंतूण, गहिऊण, भगिऊण पूर्व कृदन्त - आयण्णिवि, अणुमण्णिवि, करिवि, पेक्खवि, पइसिवि, मेल्लिवि, मुत्तूण, पणवेप्पिणु, करेविणु, उड्डेविणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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