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________________ ૭૪ कारण रावण विद्याबल से कैलास पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंकने के लिए तत्पर हुआ । वालिमुनि ने अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया जिससे दुःखी होकर रावण रो पड़ा। ऐसे वालिमुनि तथा रावण के विषय में व्यास ऋषि ने काफी ऊटपटांग लिख दिया है ( 16 ) | भय से कंपित हो गई। उसने रावण की यह अवस्था देखकर मंदोदरि अपने पति रावण की ओर से क्षमायाचना की। रावण की मानकषाय का यह फल था । वाली चरमशरीरी था । उसके विषय में सुग्रीव की पत्नी की ओर कुदृष्टि रखने जैसी बात को जोड़ देना निश्चित रूप से असत्य कथन है । रावण बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय हुआ और रुद्र चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के समय हुआ । इन दोनों का सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ( 17 ) ? धर्म का महत्त्व क्या है ? उत्तम क्षमा से इसी तरह हरि और हर में भी भेद नहीं किया । यदि हिंसा से ही स्वर्गमोक्ष मिलता है तो लोग दुःख सहन क्यों करेंगे ? यदि वृक्ष के नीचे ही फल मिल जाता है तो वृक्ष पर चढ़ने की आवश्यकता ही धर्म होता है । मार्दव से अभिमान का दमन होता है, आर्जव से कुटिलता, सत्य से हितभाषी दिखनेवाला असत्य कथन, शौच से लोभकषाय, संयम से जीवरक्षा, सम्यक् तप से निरर्थक आतपन, त्याग से आरंभ, आकिंचन से शरीर मोह, ब्रह्मचर्य से कामवासना शान्त होती है । इस प्रकार जिनमुनियों के संसर्ग से निर्मल दस धर्मों की उत्पत्ति होती | अतः व्यक्ति को हिंसा आदि भावों से दूर रहना चाहिए ( 8 - 20 ) 1 बारह भावनाओं का अनुचितन शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए आवश्यक है । यह जीव नव मास तक गर्भ में रहा और फिर इसी प्रकार जन्म-मरण की प्रक्रिया में दौड़ता रहा । अनेक बार स्वर्ग में पहुंचा, क्षीरसमुद्रजल लाकर अभिषेक किया, समवशरण में गया फिर भी मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाया। सुर-तर जिनके पंचकल्याणक करते हैं, चौतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य जिनके होते हैं, जो त्रिभुवन के नेत्र हैं, निर्मल मणि रत्न हैं, अज्ञानान्धकार के विनाशक है, षड्रिपुओं को जिन्होंने दूर कर दिया है ऐसे जिनेन्द्र देव की उपासना शाश्वत सुखदायी हैं ( 21-25) ) | १०. दसम संधि कुलकर व्यवस्था पुनः उपवन पहुंचकर मनोवेग ने मित्र पवनवेग से प्रश्न किया-धर्म क्या है ? मनोवेग ने उत्तर दिया- सुनो। इस भरतक्षेत्र में दो काल होते हैंउत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । प्रत्येक काल के छः भेदे होते हैं- सुखमा- सुखमा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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