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________________ ७३ हुए शिर का जुड़ना संभव क्यों नहीं ? अंगद, जरासंध आदि कथाओं में कहां तक प्रामाणिकता हो सकती है ? तुम्हारी बात सही और मेरी बात गलत, ऐसा क्यों ? ब्राह्मणों ने कहा- यह मान भी लिया जाये, पर यह कैसे हो सकता है कि तेरा शिर (मुण्ड ) वृक्ष पर फल खाये और नीचे तेरा पेट भर जाये? मनोवेग ने कहा- इस लोक में विप्र श्राद्ध के समय भोजन करते हैं और परलोक में अशरीरी पिता, पितामहादि की तृप्ति होती है तो मेरा शरीर मुण्ड के अधिक निकट रहते मेरी तृप्ति और उदर पूर्ति क्यों नहीं हो सकती ? कविट्ठखादन भी कैसे असत्य कहा जा सकता है ? रावण आदि की कथायें भी इसी तरह असंबद्ध प्रलापमात्र हैं ( 11 ) । श्वेतपटधारी मनोवेग की ये बातें सुनकर विप्रगण गंभीरता पूर्वक उनपर विचार करने लगे । निरुत्तर भी हो गये और सोचने लगे- सुशास्त्र, सुधर्म और सुलिंग (सुदेव) मोक्ष के कारण हैं। जहां स्वभावतः विरोध हो वहां इनमें मेल कैसे हो सकता है ? जहां सुधर्म होता है वहां कर्म नहीं रहता, जहां अहिंसा होती है वहां हिंसा भाव नहीं होगा । अठारह दोषों से मुक्त अपरिग्रही सुदेव सम्यग्ज्ञानधारी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । जिन्हें स्व और पर का भेदविज्ञान नहीं होता तथा सुदेव, सुशास्त्र, सुगुरु उपलब्ध नहीं होते उन्हें सांसारिक दुःखों से मुक्ति नहीं मिल पाती ( 12 ) | यह निश्चित जानकर व्यक्ति कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को छोड़ देता है, उनकी भक्ति से दूर हो जाता है । नरकतिर्यंच गति के दुःख भी उससे छूट जाते हैं । जहां जिनदेव और जिनगुरु तथा जिनशास्त्र हैं वहां व्यक्ति मोक्ष पा लेता है । मोक्ष का लक्ष्य बनाये बिना रक्तवस्त्र पहिनना, जटाजूट धारण करना, मासोपवास करना, चंद्रायण व्रत रखता, दण्ड धारण करना, शिर मुंडन करना आदि सब कुछ मात्र शरीर को प्रताड़ना देना है । सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती (13)। पुराणों में इसी तरह की और भी बेतुकी बाते हैं । सौधर्म स्वर्ग के निर्दोष इन्द्र को दूषित बता दिया जबकि इन्द्र नामका कोई विद्याधर दूषित हुआ था । जो सौधर्म स्वामी इन्द्र सत्तावीस कोटि देवों द्वारा पूजित है, सभी सुर-असुर जिसकी सेवा करते हैं वह अहल्या से दूषित कैसे हो सकता है ? और फिर देव और मनुष्यनी का संबन्ध कभी नहीं हो सकता । सहस्रयोनि की बात कहना भी विचित्र लगता है । कुन्ती द्वारा कर्ण को सूर्य के संपर्क से पैदा करना आदि कथन भी इसी प्रकार असत्यता से भरे हुए हैं ( 14 ) । इक्ष्वाकुवंशीय प्रतिवासुदेव जरासंध अतुल तेजधारक था, वालि भी चरमदेही थे जिनका राम द्वारा वध बताया गया। एक समय कैलाश पर्वत पर वालि मुनि ध्यानस्थ थे । वहीं से रावण का विमान निकला और वह अटक गया। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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