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________________ इस प्रकार बुध हरिषेण कृत धम्मपरिक्खा की ग्यारहवीं संधि यहां समाप्त हो जाती है। ५. कथावस्तु का महाकाव्यत्व भाषा और शैली हरिषेण ने अपनी धम्मपरिक्खा ग्यारह सन्धियों में पूरी की है। प्रत्येक संधि में लगभग सत्रह से सत्तावीस कडवक हैं और कुल कडवक है 238 - 1-20, II - 24, III - 22, JV - 24, v - 20, VI – 19, VII - 18, VIII - 22, IX - 25, X - 17, और XI - 27. इन कड़वकों का कुल ग्रन्थ श्लोक प्रमाण है 2070. इनमें पौराणिक आख्यानों की समीक्षा करने का मूल उद्देश्य आदि से अन्त तक रहता है । इस दृष्टि से सारी सन्धियां विषय की अपेक्षा से पारस्परिक गुथी हुई हैं। उनमें नायक कोई एक ही व्यक्तित्व भले ही न हो पर अन्तर्कथाओं में विभिन्न नायकों के व्यक्तित्व को स्पष्ट अवश्य किया गया है । ये नायक पौराणिक क्षेत्र में विश्रुत हैं। काव्य में शान्त रस है, छन्दों में वैविध्य है, चतुर्पुरुषार्थों की यथास्थान भूमिका है, सज्जन-दुर्जत प्रशंसा है, प्राकृतिक चित्रण है । इन सारी दृष्टियों से धम्मपरिक्खा को महाकाव्य की श्रेणी में बैठाने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा है। महाकाव्य की पारंपरिक परिभाषा के सांचे में एकाध बिन्दु पर भले ही हमारा निष्कर्ष मेल न खाता हो पर समग्र दृष्टि से देखे जाने पर प्रस्तुत ग्रन्थ को महाकाव्य की संज्ञा दी जा सकती है। विजयार्धपर्वत, (1.3), वैजयन्ती नगरी (1.4), अवन्ति देश (1.9), उज्जगिनी नगरी (1.10-11), पाटलिपुत्र वर्णन (1.18), मनोवेग और पवनवेग का रूप वर्णन (2.2-3) जिनेन्द्र गुणों की विशेषतायें (5.18-20), मेवाड़ वर्णन (11.1) आदि प्रसंगों में सुन्दर काव्यत्व दिखाई देता है । धम्मपरिक्खा की भाषा परिमार्जित और शैली प्रभावक है। जिस विषय को एक श्लोक में अमितगति ने कहा है उसी को हरिषेण ने एक पद में कह दिया है । कवि की यह संक्षिप्त शैली कही दूभर नहीं हुई बल्कि उसने अनावश्यक विस्तार को कम किया है । लोक प्रचलित शब्दों और मुहावरों का प्रयोग करके काव्य में और भी सरसता ला दी है। इसलिए यह काव्य 'मनोहर' बन गया है । सुरबिन्दु (45), एवं (4.6), गुरुचरणारविन्द (2-23) जैसे कुछ संस्कृत शब्द भी यथावत् इस महाकाव्य में प्रयुक्त हुए है। धम्मपरिक्खा की रचना प्रमुख रूप से सोलह मात्रिक पज्झटिका (पद्धडिया) छदों में हुई है। बीच-बीच में भुजंगप्रयात, रजओ आदि छन्दों का भी प्रयोग हुआ है । समवृत्त मात्रिक और वाणिक छन्दों ने काव्य में और भी सरसता ला दी है । घत्ता के साथ ही कहीं-कहीं ध्रुवक भी मिल जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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