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(२९)
यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता । विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ॥ यतश्छादयते दोषस्ततः स्त्री कथ्यते बुधः । विलीयते यतश्चित्तमेतस्यां विलया ततः ॥
अमितगति की धर्मपरीक्षा जिस प्रकार मात्र दो माह में तैयार हो गई थी उसी प्रकार उनकी संस्कृत आराधना और संस्कृत पंचसंग्रह ग्रन्थ भो लगभग चार-चार माह में रच लिये गये थे जो क्रमशः शिवार्य की प्राकृत भगवती आराधना और प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत संक्षिप्त अनुवाद मात्र है । यह उनके संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार का फल था और आशुकवि होने का प्रमाण भी । धम्मपरिक्खा के प्रारंभ में भी उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि उनके पूर्व कवि जयराम ने धर्मपरीक्षा को गाथा छन्द में निबद्ध किया था और उसी को उन्होंने पद्धडिया छन्द में लिखा है । जयराम का ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है। इसलिए उसके विषय में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा पर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि अमितगति ने प्राकृत में लिखे जयराम के ग्रन्थ को भी अपना आधार बनाया होगा । इसके समर्थन में एक और प्रमाण रखा जाता है कि अमितगति ने धर्मपरीक्षा में हट्ट (3.6), जे मति (5:39, 7.5 ) . ग्रहिल ( 13.23), कचार (15.23), जैसे प्राकृत शब्दों को समाहित किया है जबकि हरिषेण ने ऐसे स्थलों में क्रमश: 1.17, 2.24 ( णउ भुंजइ), 2.18, 5.14, 8.1 asari में इन शब्दों का उपयोग नहीं किया है ।
इससे यह लगता है कि अमितगति के समय जयराम की धम्मपरिक्खा और कदाचित् हरिषेण की भी धम्मपरिक्खा रही होनी चाहिए | अमितगति ने जिस नगरी को प्रियापुरी (1.48 ) और संगालो कहा है, हरिषेण ने उन्हें क्रमशः विजयापुरी (विजयाउरी ) ( 18 ) तथा मंगालो ( 27 ) शब्द दिये हैं । हरिषेण ने जयराम का उल्लेख बहुत स्पष्ट शब्दों में कर दिया है जबकि अमितगति ने ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया । अतः जब तक जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्खा उपलब्ध नहीं होती तब तक यह अनुमान मात्र लगाया जा सकता है कि अमितगति ओर हरिषेण, दोनों ने उसे अपना आधार बनाया है । पर चूंकि हरिषेण की अपभ्रंश धम्म रिक्खा उपलब्ध हैं अतः यह अनुमान लगाना अनुचित नहीं होगा कि अमितगति के समक्ष यह ग्रन्थ भी रहा होगा । पूर्वोक्त परिच्छेदगत विभाजित विषय सामग्री से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि आमतगति ने हरिषेण के विषय को विस्तार मात्र दिया है ।
साधारणतः यह नियम रहा है कि पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते समय मूल उद्धरण उपस्थित किये जाने चाहिए। हरिषेण ने तथोक्तं कहकर इस परम्परा का पालन किया है पर अमितगति ने उन्हें अपनी इच्छानुसार परिवर्तित रूप में ग्रन्थ के मूल रूप में समाहित कर दिया है । उदाहरणार्थ
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