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________________ (२८) मुक्की झड ति झाडे वि केम मुच्यते स्म बदरी दय्युवर्तपरिपक्क पंथि थिय वोरि जेम। स्तस्कररिव फलानि पथि स्था । णिय-पिय-आगमणु मुणंतियाए सा विबुध्य दयितागमकालं किउ पवसिय- पिय-तिय-वेसु ताए ।।211 कल्पितोत्तमसतीजनवेषा। तिष्ठतिस्म भवने अपमाणा वञ्चना हि सहजा वनितानाम् ।। 8.44-85 5) भणिउ तेण भो णिसुणाहि गहवइ चौरीव स्वार्थतनिष्ठा छाया इव दुगेज्झ महिला-मई । 2.15 वहि ज्वालेव तापिका। छायेव दुर्ग्रहा योषा सन्ध्येव क्षणरागिणी ।। 5.59 6) भणिउ ताय संसारे असारए तं निजगाद तदीयतनूज को वि ण कासु वि दुह गम्यारए। स्तात विधेहि विशुद्ध मनास्त्वम् । मुय-मणुएं सहु अत्थु ण गच्छइ कंचन धर्ममपाकृतदोष सयणु मसाणु जाम अणुगच्छइ । यो विदधाति परत्र सुखानि । धम्माहम्मु णवर अणुलग्गउ पुत्र कलत्रधनादिषु मध्ये गच्छइ जीवहु सुह-दुह-संगउ । कोऽपि न याति समं परलोके । इय जाणेवि ताय दाणुल्लउ कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं चितिज्जई सुपत्ते अइभल्लउ । कर्त मलं सुखदुःख शतानि ।। इट्ठ-देउ णिय-मणि झाइज्जइ कोऽपि परो न निजोऽस्ति दुरन्ते सुह-गइ-गमणु जेण पाविज्जइ । जन्मवने भ्रमतां बहुमागें । -2.16 इत्थमवेत्य विमुच्य कुबुद्धि तात हितं कुरु किचन कार्यम् ।। मोहपास्य सुहृत्तनुजादौ देहि थनं द्विजसाधुजनेभ्यः । संस्मर कंचन देवमभीष्टं येन पति लभसे सुखदात्रीम ॥ 5.82-85 7) 3.9 8. 22-34 अमितगति की धर्मपरीक्षा का आधारभूत कोई प्राकृत अथवा अपभ्रंश में लिखा ग्रन्थ अवश्य होना चाहिए । अन्यथा दो माह में इतना बड़ा ग्रन्थ कैसे बन सकता था। Mironow ने भी अपने अध्ययन में इस संभावना को पुष्ट किया है। चौहार (7.63), संकराट मठ (8.10) जैसे शब्द किसी प्राकृत ग्रन्थ से ही गृहीत हो सकते हैं । इसी तरह योषा की व्युत्पत्ति जष्, जोष से खोजने की भी क्या आवश्यकता थी-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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