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________________ (२७) करते तो तुरन्त लगभग वैसी हो कथायें पुराणों से निकालकर उपस्थित कर देता है । हरिषेण काव्यात्मक वर्णन के चक्कर में न पड़कर विवरणात्मक शैली को अपनाते हैं । इसलिए वे अमितगति के समान न परम्परागत स्त्रियों की अधिक निन्दा करते हैं, न मित्रता के अधिक गुण गाते हैं, न संसार के दोष बताते हुए अधिक समय तक रुकते हैं और न धन की महिमा का गुणगान करते हैं । वे तो द्रतगति से पौराणिक कथाओं को कहते हुए आगे बढ़ते जाते हैं उन्होंने सप्तम सन्धि में लोक स्वरूप का, आठवीं संधि में रामकथा का तथा ग्यारहवीं मन्धि में रात्रिभोजन-विरमण आदि कथाओं का विशेष विवेचन किया है जिसे अमितगति ने संक्षेप में ही उल्लेख मात्र कर निपटा दिया है। संधिगत विषय के अध्ययन से हरिषेण की एक यह विशेषता दृष्टव्य है कि उन्होंने सन्धि-- विभाजन का जो वैज्ञानिक तरीका अपनाया है वह अमित गति के परिच्छेद विभाजन में दिखाई नहीं देता। अमितगति तो कथा को बीच में ही छोड़ कर परिच्छेद परिवर्तन कर देते हैं पर हरिषेण ने ऐसा नहीं किया। दोनों धर्मपरीक्षाओं की भाव और भाषा की दृष्टि से भी तुलना की जा सकती है। जहां उन्होंने पारम्परिक शैली को अपनाया है। हरिषेण की धम्मपरिक्खा अमितगति को धर्मपरीक्षा 1) तं अवराहं खमसु वराह यत्त्वां धर्ममिव त्यक्त्वा तो हसिऊणं मरुवेयेणं । तत्र भद्र चिरं स्थित । भणिओ मित्तो तं परघुत्तो क्षमितव्यं ममाशेषं माया णेहिय अप्पाणे हिय (10.19) दुविनीतस्य तत्त्वया ॥ उक्तं पवनवेगेन हसित्वा शुद्धचेतसा। को धूर्तो भुवने धुर्ते वक्ष्यते न वशंवदैः ।। 2) हा हा कुमार पच्चक्ख मार (2.3) जातः तामो द्विधा ननमित्थं भावन्त काश्चन (3.61) 3) इय दुण्णि वि दुग्गय-तणय-तणं तं जगाद खचराङगजस्ततो गिण्हेविण लक्कड-भारमिणं ।। भद्र निर्धनशरीरभूरहं। आइय गुरु पूर णिएवि मए आगतोऽस्मि तणकाष्ठविक्रयं वायउ ण उ जायए वायमए ।। 2.5 कर्तुमत्र नगरे गरीयसि ।। 3.85 4) णिद्ध ण जाणेविण जारए हिं पत्युरागमनमवेत्य विटौधः तप्पिय आगमणासंकिएहिं । सा विलुण्टय सकलानि धनानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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