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________________ करते । जिस और उसका अंग घुमता उसी ओर ब्रह्मा का ध्यान चला जाता। तिलोत्तमा ने ब्रह्मा की दृष्टि को आसक्त जानकर क्रमशः दक्षिण, उत्तर और पीठ पीछे नृत्य करके उसके मन को चारों तरफ घुमाया, पर लज्जावश गर्दन को चारों ओर नहीं घुमा सके (13-15)। फिर विवश होकर ब्रह्मा ने हजार वर्ष की तमस्या का फल व्यय करके प्रत्येक दिशा में एक एक नया मुंह बनाकर उसके रूप को निरखने लगे । उनको अत्यधिक आसक्त जानकर आकाश में उड़कर वह नृत्य करने लगी। तब ब्रह्मा ने पांच सौ वर्ष की तपस्था का फल ध्यय करके पांचवां गधे का मुह बनाया और तिलोत्तमा को आकाश में देखने लगे । परन्तु न वे तिलोत्तमा को देख सके और न तप ही पूरा कर सके। राग के वश होकर वे दोनों ओर से वंचित रह गये । तिलोत्तमा अपना कर्तव्य पूरा कर स्वर्ग चली गई ।।16।। इधर ब्रह्मा तिलोत्तमा को खोजने लगे । मदन से उनका मन और तन जर्जरित हो गया। मार्ग-मार्ग में उन्होंने उसकी खोज की। उनकी यह कामकावस्था देख कर देव उपहास करने लगे । क्रोधित होकर ब्रह्मा ने गधे के पंचम मुख से उनको खाना प्रारंभ कर दिया । देवगण महादेव के पास दौड़े और महादेव ने आकर ब्रह्मा का वह पांचवां शिर काट लिया। ब्रह्मा ने क्रोधित होकर महादेव को यह अभिशाप दिया कि तुमने जो ब्रह्महत्या की है इसके कारण तम्हारे हाथ से यह शिर कभी नहीं गिरेगा। महादेव मे सचिन्तित होकर क्रोध शान्त करने का आग्रह किया। ब्रह्मा ने तब कहा- मेरे इस मस्तक को विष्णु भगवान जब रक्त से सिंचन करेंगे तभी यह शिर तुम्हारे हाथ से गिरेगा। इसके लिए तुम्हें कपालव्रत धारण करना पड़ेगा। यह सुनकर महादेव विष्णु के पास गये। इधर ब्रह्मा ने एक मृगवन में प्रवेश किया जहां उन्होंने ऋतुवती रीछनी के साथ रमण किया ।।17।। उस रोछनी से गुणसंपन्न जांबव नामक पुत्र हुआ । मण्डपकौशिक ने सोचा कि इस प्रकार के कामातुर ब्रह्मा के पास भी कन्या को कैसे छोड़ा जाये ? इसी प्रकार गौतम ऋषि की स्त्री को कामातुर होकर इन्द्र ने उपभोगा । यह जानकर गौतम ऋषि ने इन्द्र को सहस्रभग होने का अभिशाप दिया । देवों की प्रार्थना पर फिर यह अभिशाप अनुग्रह स्वरूप सहस्राक्ष हो जाने के रूप में बदल दिया। इस प्रकार निष्काम देव इस लोक में दिखाई नहीं देते। हां. यमराज अवश्य धर्म परायण हैं। इसलिए उनके पास कन्या को छोड़ा जा सकता है । 1180 यह सोचकर मण्डपकौशिक ने छाया को यमराज के पास छोड़ दिया और तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ा । इधर यमराज भी कामवाण से विद्ध हो गया। उसने छाया को स्त्री बना लिया और हरी जाने के भय से उसे उदरस्थ कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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