SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिया । एक दिन पवनदेव ने अग्निदेव से कहा कि आजकल यमराज रतिसुख में लीन हैं, एक सुन्दर स्त्री के साथ । अग्निदेव ने कहा- भद्र ! कैसे उसे प्राप्त किया जा सकता है ? पवनदेव ने कहा- तुम विषय वासना से दग्ध हो रहे हो और अंगुलि पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हो । अस्तु, एक मार्ग है। यमराज नित्यकर्म करने के लिए छाया को एक प्रहर मात्र के लिए अपने उदर से बाहर निकालता है। अग्निदेव के लिए इतना समय पर्याप्त था। वह समय देखकर छाया के पास तब गया जब यमराज ने विशुद्ध होने के लिए गंगाजी में प्रवेश किया ।। 19 ।। अग्निदेव प्रच्छन्न रूप से सुन्दर शरीर धारण कर वहां पहुंच गये जहां छाया को छोड़कर यमराज स्नान करने गये थे। यमराज के आने के पूर्व तक उसके साथ उसने खूब रमण किया । छाया ने फिर कहा कि मेरे पति यमराज के आने का समय हो गया है। यदि उसने तुम्हें देख लिया तो वह तुम्हें मार डालेगा और मेरी नासिका काट डालेगा। परन्तु कामातुर अग्निदेव वहां से नहीं गया । छाया ने तब उसे अपने उदर में रख लिया । यमराज ने भो आकर छाया को उदरस्थ कर लिया। अब छाया और अग्निदेव दोनों यमराज के पेट में बन्द हो गये । इधर अग्नि के बिना संसार में भोजन बनाना, प्रदीप जलाना आदि सभी कार्य रुक गये । सुरगण विकल हो गये। तब इन्द्र ने पवनदेव से कहा- तुम अग्निदेव को खोजो। उसने कहा- सर्वत्र खोज लिया, पर वे मिले नहीं ।। 20 ।। एक स्थान शेष है। वहां उसे यदि पा लिया तो आपको सूचित करूंगा। यह कहकर उसने सभी देवों को भोजन पर आमन्त्रित किया। सभी को तो एक-एक आसन दिया पर यमराज को तीन आसन दिये। सभी को एक भाग परोसा पर यमराज को तीन भाग परोसा। यह देखकर यमराज ने पूछा- ऐसा क्यों ? पवनदेव ने कहा- पहले तुम छाया को उगलो । छाया के बाहर निकलने पर छाया से अग्निदेव को उगलवाया। यह देखकर यमराज क्रोधित होकर अनिदेव के पीछे दौड़े । अग्निदेव दौड़ते-दौड़ते वृक्षों और शिलाओं में छिप गये । आज भी बुद्धिमानों एवं प्रयोग के बिना वह प्रगट नहीं होता ॥ 21 ॥ ___मनोवेग ने कहा-हे विप्रो! क्या आपके पुराणों में यह कथा इसी प्रकार मिलती है ? विप्रों ने इसे स्वीकार किया। मनोवेग ने कहा- जो अपने उदर में स्थित पत्नी के उदर में बैठे अग्निदेव को नहीं जान सका उसका देवत्व और अग्नि का देवत्व कहां गया? जिस प्रकार इस छोटे-से दोष के कारण इन देवों का देवत्व नहीं जाता उसी प्रकार मषकों द्वारा मेरे मार्जार को कर्णच्छिन्नता से बड़े गुणों को कैसे उपेक्षित किया जा सकता है ? विप्रों ने इस कथन की प्रशंसा की ।। 22 ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy