SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३ विप्रों ने आगे ने कहा- हे भद्र ! पुराणों की कथाओं पर जैसा - जैसा विचार करते हैं, वे वैसी वैसी तथ्यहीन सिद्ध होती जाती हैं । मनोवेग ने कहाजिसका चित्त त्रिभुवन को जीतने वाली रमणियों के विभ्रम से पूर्णतः मुक्त है उसके स्वरूप को सम्यक् रूप से पहचानो । सभी देव उसे प्रणाम करते हैं । जिस काम के वशीभूत हो शंकर ने पार्वती को अर्धांगिनी बनाया, विष्णु ने गोपियों का उपभोग किया, ब्रह्मा ने तपश्चरण छोड़कर तिलोत्तमा के नृत्य को देखने के लिए चतुर्मुख बनाये इन्द्र को सहस्त्रभग बनना पड़ा, यमराज ने छाया का उपभोग कर उसे अपने पेट में रखा, अग्निदेव को वृक्षों और शिलाओं में प्रवेश करना पड़ा ऐसे कामदेव को जिसने जीत लिया है और सुरासुरों द्वारा पूजित है, उस अष्टदेव की वन्दना करो । उसकी वन्दना से ही व्यक्ति मोक्ष पा सकता है। मित्र के निमित्त मनोवेग ने ये कथायें कही | 23 | ५. पंचम संधि शिश्नश्छेदन कथा मनोवेग ने पुनः पवनवेग से कहा- हे मित्र, तुमने अभी रुद्रादि देवों के गुणों का आख्यान सुना । ये सभी साधारण देव हैं । अणिमा, महिमा, लघिमा आदि अष्ट ऋद्धियां देवों में होती है। उनमें लघिमा ऋद्धि ही इन देवों में पाई जाती है । ब्रह्मा महादेव के बनकर गये थे । वहां पाणिग्रहण कराते समय पार्वती के इतने कामपीड़ित हो गये कि उनका शुक्रपात हो गया और वे उपहास के कारण वन गये । महादेव ने नृत्य करते समय ऋषियों की कन्याओं के साथ आलिंगन आदि कामुक क्रियायें की जिन्हें देखकर ऋषियों ने उनका शिश्नश्छेदन कर दिया और अभिशाप स्वरूप योनि लिंग के रूप में शिवमूर्ति की स्थापना हुई, जिसकी पूजा नहीं की जाती । शिव के ही रुद्र, महादेव, शंभु, शंकर हैं । अहल्या ने इन्द्र को, छाया ने यमराज और अग्नि को, कामवासना में प्रवृत्त किया । इस प्रकार लोक में और भी नाम की निम्नकोटि की विवाह में पुरोहित करस्पर्श मात्र से वे आपूर हैं। पवनवेग ने कहा- परदाराओं का उपयोग करने में क्या इन्हें लज्जा नहीं आई ? इनका देवत्व तो यों ही चला गया । खर शिरश्छेदन कथा Jain Education International आदि विविध रूप कुन्ती ने सूर्य को देव हैं जो कामुकता मनोवेग ने गधे के शिरश्छेदन की कथा को स्पष्ट करते हुए कहा- ग्यारह रुद्रों में से अंतिम रूद्र सात्यकी मुनि के अंग से उत्पन्न ज्येष्ठा नाम की आर्थिक के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। मुनि होने पर उग्र तपस्या के प्रभाव से वह अनेक प्रकार की विद्याओं का स्वामी हो गया। उसे 500 बड़ी विद्याएँ और 700 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy