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________________ विद्याधर वंशोत्पत्ति कथा इसके बाद लेखक ने राक्षस वंशादि के विषय में कुछ विस्तार से कहा है। प्रथम जिनेश्वर को प्रणामकर भरत ने राज्य संचालन का प्रारंभ कर दिया। भगवान आदिनाथ भी देश-देशान्तर भ्रमण करते रहे। कच्छ, महाकच्छ आदि देशों के राजा उनकी स्तुति करने आते रहे। उन्होंने भगवान से उपदेश आदि देने की प्रार्थना की। लोगों के आने से कोलाहल उत्पन्न हुआ जिससे धरणेन्द्र का आसन कंपित हो गया। वह समझ गया कि यह भगवज्जिनेन्द्र के आने का संकेत है । धरणेन्द्र अपने विद्याबल से सुन्दर रूप धारणकर भगवान के पास पहुंचा । सुर, नर, विद्याधरों ने भगवान की पूजा की । इक्ष्वाकुवंश की उत्पत्ति भ. आदिनाथ से ही हुई । वहां नमि, विनमि को धरणेन्द्र ने विद्यायें दी । इन दोनों के वंश में उत्पन्न पुरुष विद्याधारी होने के कारण विद्याधर कहलाये। इसमें विद्युदृढ, दृढ रथ आदि संकडों विद्याधर हुए (12)। राक्षस वंशोत्पत्ति कथा इसके बाद ऋषभदेव का युग समाप्त हुआ और अजितनाथ का युग आया । अजितनाथ के ही पुत्र सगर चक्रवर्ती थे। इक्ष्वाकुवंश के समाप्त होने पर उससे राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई। भरतक्षेत्र के विजयाध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है। उसमें पूर्णधन नामक विद्याधर राजा था। उसने विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचन से उसकी कन्या उत्पल मती मांगी पर उसने वह कन्या सगर को दे दी । सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन को विद्याधरों का अधिपति बना दिया। सहस्र यन ने पूर्णमेघ को मार डाला और उसके पत्र मेघवाहन को निष्कासित कर दिया। मेघ वाहन भयवीत होकर अजितनाथ के समवशरण में पहुंचा। इन्द्र ने मेध वाहन से उसके भय का कारण पूछा। मेघवाहन ने कहा-सगर का सहयोग लेकर सहस्रनयन ने मेरे वंश का उन्म लन कर दिया है और इसी भय से मैं हंस-विमान से उडकर यहां आया है। इस बीच मेघवाहन का पीछा करते हुए सहस्रनयन भी समवशरण में पहुंच गया अहंकार के साथ । परन्तु भ. का प्रभामण्डल देखकर उसका अहंकार चूर-चूर हा गया। उसने अजितनाथ को प्रणाम किया। सहस्रनयन और मेववाहन दोनों पारस्परिक वैरभाव को छोडकर भगवान के चरणों में बैठ गये । तब गणधर ने भगवान से इन दोनों के वैर का कारण पूछते हुए उनके भवान्तरों को जानने की इच्छा व्यक्त की । अपने भवान्तर जानकर मेंघवाहन और सहस्रनयन दोनों परस्पर मित्र बन गये। राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम भी मेव वाहन से स्नेह करने लगे (3-14)। राक्षसेन्द्र भीम और सुभीम ने स्नेहवंश मेघवाहन को श्रीफल जैसे आकार वाली श्रीलंका का राज्य सौंप दिया। यह श्रीलंका तीस योजन लंबी और छः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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