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________________ ३५ से स्वर्ग और मनुज भव मिलता है और धर्म से ही शरीर निरोग होता है | |14|| धर्म के प्रभाव से व्यक्ति उत्तुंग कंचन - विनिर्मित भवनों में निवास करता है, धर्म से स्वच्छ चामर धारण करता है, धर्म से विविध मणिकुण्डल धारण करता है, महापुरुषों से स्नेह पाता है, धर्म से सर्वत्र पूजा होती है, धर्म के बिना उसे कुछ भी नहीं मिलता। और तो क्या, जो कुछ भी सुख है, वह धर्म का ही फल है ॥15॥ अवसर पाकर मनोवेग विद्याधर ने मुनिवर से पूछा- उसका परम मित्र पवनवेग अत्यन्त मिथ्यादृष्टि है । वह कभी सम्यक्त्व प्राप्त कर सकेगा या नहीं ? मुनिवर ने उत्तर दिया- देवों की प्रिय नगरी पटना ( पुष्पनगर) में उसे ले जाकर परस्पर प्रमाणों से विरोधित अन्य मतों को प्रत्यक्षतः दिखलाकर जैन सिद्धान्तों को यदि तुम समझाओगे तो वह सम्यग्दष्टि हो जायेगा और कर्मबन्ध को विनष्ट करने में सक्षम होगा। यह सुनकर मनोवेग मुनिवर की चरणवन्दनाकर शीघ्र ही विमान में बैठकर घर की ओर चल पड़ा ( 16 ) 1 जिस विमान पर बैठकर मनोवेग गया उस विमान को पवनवेग ने देख लिया। देखते ही उसने मनोवेग से कहा - मित्र ! तुम मुझे छोड़कर कहां चले गये थे ? मैंने तुम्हें क्रीड़ास्थल, पर्वत, सरोवर, प्रांगण, जिनमंदिर आदि सभी स्थानों पर देखा, पर तुम दिखाई नहीं दिये । जब मैं इस ओर आया तो तुम आते हुए दिखाई दे गये । तुम्हारे वियोग में मैं इधर-उधर भटकता रहा । मनोवेग ने तब कहा - मित्र इस प्रकार कुपित मत होओ। मैं मध्यलोकवर्ती जिन - चैत्यालयों के दर्शन करने गया, उनकी भक्ति पूर्वक वन्दना की । भरतक्षेत्र में मैंने भ्रमण करते हुए स्वर्गनगरी के समान सुन्दर पाटलिपुत्र देखा जहां चतुर्वेदों की ध्वनियां सुनकर पक्षी द्विप जाते हैं ( 17 ) । उस पाटलिपुत्र में गंगा नदी के किनारे कमंडलु और त्रिदण्डि को धारण किए हुए कुछ मुण्डित सन्यासी दिखाई दिये । वे हरि हरि हरि का उच्चारण करते हुए स्नान करने में व्यस्त थे । वे ब्रह्मशाला में बैठकर वाद, जल्प, वितण्डा किया करते हैं, विष्णुपुराण, भागवतपुराण आदि की व्याख्या करते हैं, वैशेषिक, मीमांसा आदि शास्त्रों का उपदेश करते रहते हैं, कहीं-कहीं ग्रहज्योतिषी ओर कपिलमतानुयायी भी दिखाई देते हैं, अग्निहोत्रादि कर्म करते हुए श्रोत्रिय ब्राह्मण अनेक प्रकार से दाक्षिणाग्नि में हवन करते हैं, कोई षट्कर्म में लीन हैं अन्य ब्रह्मचारी हैं, और | हे मित्र ! वहां जाकर मैंने कोई अक्षमाला लिये हुए कमलासन पर आसीन जो कुछ भी देखा उसे तुम्हें कह दिया । फिर भी पूरा वर्णन करना संभव नहीं है ( 18 ) । इतनी देर तक अनुपस्थित रहा । अतः इस अविनयी का अपराध क्षमा करो। मनोवेग के ये वचन सुनकर पवनवेग ने हंसकर कहा- मित्रवर ! इन कौतुकों को मुझे भी दिखाओ । मझे उन्हें देखने की बड़ी उत्कंठा है । जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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