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(१०)
ii) प्रति B
यह पूरी पाण्डुलिपि काली स्याही में लिखी गई है । इसका नं. है 1009/ 1887-91. यह पाण्डुलिपि प्रथम पाण्डुलिपि से अपेक्षाकृत पुरानी दिखती है । इसके पन्नों के किनारे कुछ टूट से गये हैं और कागज भी कुछ पुराना अधिक दिखाई देने लगा है । इसमें कुल पन्ने 138 हैं। अंतिम पन्ना कुछ टूट गया है
और चौथा पन्ना गुम गया है । स्याही ठीक है, अक्षर सुन्दर और सुवाच्य हैं । प्रत्येक पन्ने में आठ या नौ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में लगभग 28 से 32 अक्षर है। हांशियों में जहां कहीं कुछ टिप्पण भी मिल जाते हैं संस्कृत में ।
इस पाण्डुलिपि के पन्ना 138 A पर निम्नलिखित प्रशस्ति मिलती है
'संवत् 1595 वर्षे पोषधमासे शक्लपक्षे पंचमी तिथौ व मंगलवारे मघानक्षत्रे चि. (१) कुलनामजोगो ॥ अथ कसय। मोजाबाद वास्तव्ये राजाधिराज क व या ह क व र कर्मचंदराज्यप्र वर्तमाने ।
इसके बाद अंतिम पृष्ठ पर किसी दूसरी की हस्तलिपि में लिखा है- श्री. मूलसंघे भट्टारक श्री पद्मनंदि, तत्पट्टे म. शुभचंद्र, तत्पट्टे भ . जिनचंद्र, तत्प? भ. प्रभाचंद्र, मण्डलाचार्य भ . रत्नकीति, तत्शिष्य मण्डलाचार्य त्रिभुवनकीति तदाम्नाये खण्डेलवालाश्रये अजमेरागोत्रे सं. सूजू तत्पुत्र टेहक, भार्या लाजी तयोः पुत्र छीतर भार्या सुना इ. रक्षायां ज्ञानावर्णी कर्मक्षयं निमित्तं लिखाप्य ॥ मुनि देवनंदि योग्य दातव्यं ॥ शुभं भूयात् ।। छ । छ । छ ।। ___लगता है, यह प्रति सं. 1595 के पूर्व की होगी। बाद में प्रशस्तिभाग किसी
और ने जोड़ दिया है । इसकी अपेक्षा प्रथम पाण्डुलिपि अधिक शुद्ध है । इसलिए हमने उसी को आदर्श प्रति माना है। २. पाठ-संपादन पद्धति
1- इन दोनों प्रतियों के माध्यम से प्रस्तुत संपादन को पूरा किया गया है । दोनों का अध्ययन करने से यह भी तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि वे एक दूसरी पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि नहीं है, बल्कि स्वतन्त्र पाण्डुलिपियों से उनकी प्रतिलिपियां की गई हैं। हमने प्रति A को आदर्श प्रति माना है और उसे पूरा और स्पष्ट करने के लिए प्रति B का सहारा लिया है। इनकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं -
2. आदि और मध्य न को ण । जैसे णवर, घणवाहणु आदि. 3. ब को व । जैसें वित्थारें, वोल्लिएण आदि । प्रति A में जहां कहीं ब ____ अवश्य मिलता है पर उसे भी व कर दिया गया है। 4. णाई को णाइ।
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