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________________ ९२ 4. रावण के दश मुंह नहीं थे किन्तु उसके हारमें उसी को दश आकृतियां दिखाई दी थीं। इसीलिए दशानन नाम पड़ा । 5. दशरथ के साथ कोई देवासुरों का संग्राम नहीं हुआ। वह संग्राम तो कैकेयी स्वयम्बर के बाद उसमें पराजित राजकुमारों से हुआ था । 6. सीता की उत्पत्ति न पृथ्वी से हुई, ने किसी कमल से और न अग्नि अथवा किसी ऋषि से । वह तो शुद्ध वीर्यं रजजात कन्या थी । 7. हनुमान ने कोई पर्वत नहीं उठाया था । वे तो विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सक को घायल लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए ले आये थे । 8. ये मात्र अन्धविश्वास और भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली कथायें हैं fe कुम्भकर्ण छह माह सोता था और करोड़ों महिष खाता था । कूर्म ने यदि पृथ्वी को धारण किया तो उस समय उसके स्वयं का आधार क्या रहा होगा ? राम यदि त्रिभुवन भर माप करके भी अधिक होते हैं तो रावण सीता को कहां ले जा सकता है ? रावण का पुत्र इन्द्रजित अपने पिता से किस प्रकार अवस्था में बड़ा रहा ? विभीषण आज भी कैसे जीवित है ? इस प्रकार के और भी अनेक प्रश्न हैं । वस्तुतः ये कथायें निराधार हैं । सच बात तो यह है कि इस प्रकार की कथाओं का आकलन वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों धाराओं में मिलता है । यह सब शायद भक्तिवश ही होता रहा होगा | २. मानव चरित्र जैनाचार्यों ने स्त्री-पुरुष के चरित्र को परिस्थितियों के अनुसार निखारने का प्रयत्न किया है । उदारता दशरथ को अपयश से बचाने के लिए राम स्वेच्छा से वनवास जाने की इच्छा व्यक्त करते हैं। भरत के लिए भी जिन दीक्षा धारण न कर प्रजा पालन करने के लिए आदेश देते हैं । विद्या साधन में मग्न रावण को विभीषण के सुझाने पर भी डिगाते नहीं । अग्नि परीक्षा के बाद क्षमायाचना करते हैं । वालि-वध का प्रसंग उपस्थित ही नहीं होने देते । लक्ष्मण भरत वगैरह को नष्ट करने के लिए कहते हैं परन्तु राम ऐसा न करने के लिए लक्ष्मण को समझाते हैं । विन्ध्य के पार जलशून्य प्रदेश में एक ब्राह्मण ने सीता से राम मादि सभी के गृह प्रवेश के समय भला-बुरा कहा । लक्ष्मण जब उसे मारने तैयार हो जाते हैं तब राम कहते हैं कि श्रमण ब्राह्मण आदि हन्तव्य नहीं हैं समजा व बह्मणा वि गो पसु इत्थी या वालया वुड्ढा । जइ विहु कुणन्ति दोसं तह विय ए ए न हन्तब्वा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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