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________________ वत्स आदि देशों पर कुशलता पूर्वक आधिपत्य किया। अवन्ती राजा चण्डप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से वत्सनरेश उदयन ने विवाह किया था। पंचम-चतुर्थ शती ई. पू. में अवन्ती जनपद मौर्य साम्राज्य में संमिलित था और उज्जयिनी मगध साम्राज्य के पश्चिम प्रान्त की राजधानी थी। मध्यकाल में यह नगरी मालवा प्रदेश की राजधानी बन गई। इस नगरी से जैन संस्कृति का गहरा संबन्ध रहा है। हरिषेण ने जितशत्रु को अवन्ती का सम्राट् बनाया है और उसी के पुत्र परम जिनभक्त मनोवेग को धम्मपरिक्खा का नायक बताया है। नायक इस अर्थ में कि अपने अभिन्न मित्र पवनवेग को सम्यक्त्व मार्ग पर लाने के लिए वह प्रारंभ से अंत तक प्रयत्न करता है । इसी अवन्ती प्रदेश की उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती वन में मनोवेग ध्यानस्थ जैन मुनि से पवनवेग को धर्मान्तरित करने का मार्ग जान-समझ लेता है और फिर दोनों मित्र तदनुसार पाटलिपुत्र पहुंचते हैं। इस घटना के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि जितशत्रु (अजातशत्रु) का राज्य मगध और अवन्ती पर समान रूप से था। सारी कथा पाटलिपुत्र के इर्दगिर्द घूमती रहती है। दोनों प्रदेशों में जैन संस्कृति समृद्ध रूप में प्रतिष्ठित ज्ञात होती है। मनोवेग और पवनवेग दोनों पाटलिपुत्र की चारों दिशाओं में स्थित वादशालाओं में जाकर वैदिक-पौराणिक आख्यानों की समीक्षा और परीक्षा करते हैं । इसी दौरान मनोवेग मलयदेश, आभीरदेश, रेवा नदी, सौराष्ट्र प्रदेश, मथुरा, अंग, चंपापुरी, चोल द्वीप, साकेत आदि प्रदेशों और नगरों का वर्णन करता है और पाटलिपुत्र में ही पवनवेग का हृदय परिवर्तन कर मनोवेग अपने उद्देश्य को पूरा कर लेता है। इसी संदर्भ में आचार्य ने जैन तत्वदर्शन को प्रस्तुत किया है। १०. जैन धर्म-दर्शन आप्तस्वरूप धम्मपरिक्खा का मूल उद्देश्य आप्त-स्वरूप की मीमांसा करना रहा है। पौराणिक आख्यानों के आधार पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, पाराशर आदि महादेवों और ऋषियों की विषय वासनाओं की समीक्षा कर उन्हें आप्त स्वरूप की सीमा से बाहर कर दिया है। आप्त का अर्थ है- निर्दोष, परम विशुद्ध, केवलज्ञानी वीतराग परमात्मा । हरिषण ने कामवासना आदि से मुक्त देव को 1. आप्तेनोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिनः । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार, 5; नियमसार, 1-5; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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