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________________ विमानों में वैमानिक देव रहते हैं (6-8) । ये विमान सुवर्ण भित्तियों से युक्त, नाना मणि-मालाओं से सहित, चन्द्रकांत और सूर्यकांत मणियों से भाषित, विविध घटिकाओं से संयुक्त, कुसुममालाओं से युक्त, गोपुर, उपवनों सहित, अकृत्रिम जिनचैत्यालय से परिपूर्ण है (9) । पृथ्वीतल' पर असंख्य जिनभवन हैं। पंचमेरु, उनके चार वन (पाण्डु, सौमनस, नन्दन और भद्र शाल) हैं, शाल्मली जम्बू, वृक्षादि हैं, गजदन्त गिरी हैं, चारों दिशाओं में कुलपर्वत हैं, मानुषोनर पर्वतस्थ जिनालय हैं, नदीश्वद्वीपस्थ जिनालय हैं (10) । नारकियों के पटलों के अनुसार उनकी आयु और ऊँचाई है। नारकियों की उत्कृष्ट आयु क्रम से पहले में एक सागर, दूसरे में तीन सागर, तीसरे में सात सागर, चौथे में दस सागर, पांचवें में सत्रह सागर, छठे में बावीस सागर और सातवें में तेतीस सागर है। व्यन्तर देव द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, गली, बाग, वन आदि स्थानों में रहते हैं (11-18)। इस संधि में देवों, मनुष्यों और नारकियों की आयु, ऊंचाई, भवन आदि का वर्णन मिलता है । इसे त्रिलोक प्रशस्ति आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है। ७. सप्तम संधि उपकार निमित्त से त्रिलोक का वर्णन कर मनोवेग ने पवनवेग से कहामित्र, अभी तुम्हें पुराणों की कुछ और कथायें बताता हूँ। यह कहकर ऋषिवेष को छोड़कर और तपस्वी वेष को धारणकर उन्होंने पटना नगर में उत्तर दिशा की ओर से प्रवेश किया। वहां ब्रह्मशाला में पहुँचकर भेरी बजा दी और सिंहासन पर बैठ गया। भेरी की आवाज सुनकर वादशील ब्राह्मण एकत्रित हो गये और कहने लगे- तुम कहां से आये हो और किस विषय पर वाद करना चाहते हो ? मनोवेग ने कहा- हम लोग भ्रमण करते हुए पिछले गांव से आये हैं । व्याकरणशास्त्र वगैरह कुछ भी नहीं जानते । ब्रह्मण ने कहाउपहास मत कीजिए । सही बताइये- कहां से आये हो, कहां जा रहे हो, तुम्हारे गुरु का नाम क्या है, माता-पिता कौन है ? मनोवेग ने कहा- यदि आप विचारवन्त हैं तो सुनिये, मैं कह रहा हूँ ॥1॥ वृहत्कुमारिका कथा साकेत नगर में बृहत्कुमारिका नामक मेरी माता को मेरे नाना ने मेरे पिता को दी। विवाह के समय बजे हुए वाद्यों की आवाज सुनकर एक हाथी उस स्तंभ को तोड़कर भाग निकला। उससे घबड़ाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। वर भी भागा। भागते समय उसके धक्के से वधु नीचे गिर पड़ी और बेहोश हो गई। लोगों के आक्षेप के भय से मेरा पिता कहीं भाग गया और अभी तक नहीं आया। लगभग डेढ माह बाद पिता के स्पर्श मात्र से उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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