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________________ नरकों में अत्यन्त दुःख पाते है । कितने ही नाटकी जीव लोह के कड़ाहों में रखे गरम तेल में फेंके जाते हैं, कितने ही प्रज्वलित अग्नि में पका दिये जाते हैं। असि-पत्र वन से चक्र, वाण, तोमर आदि विविध तीक्ष्ण अस्त्र मारकियों के शिर पर गिरते हैं। परस्त्री में असक्त रहने वाले जीवों के शरीरों में अतिशय तप्त लोहमयी युवती की मूर्ति को दृढ़ता से लगाते हैं। कितने ही नारकी करोंत से फाड़े जाते हैं और भयंकर भालों से वेधे जाते हैं। इस प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छिन्न नारकियों का शरीर फिर से मिल जाता है । उनका अकाल मरण नहीं होता ।।1-211 __ असुर, नाग आदि के भेद से भवनवासी देव दस प्रकार के होते हैं । ये सभी देव स्वर्णकान्ति से संपन्न सुगन्धित निश्वास से युक्त, चन्द्रसदश महाकान्ति वाले नित्य ही कुमार रहते हैं । रोग और जरा से मुक्त, अनुपम बल-वीर्य से परिपूर्ण, अणिमा आदि अष्ट ऋद्धियों से युक्त, विविध आभूषण में सज्जित ये देव आहारक और अनाहारक दोनों प्रकार के होते हैं (3) । रत्नप्रभा नरक से च्युत होकर भवनवासी देव हजार योजन ऊपर निवास करते हैं । भवनवासी देवों में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख, नागकुमार के चौर सी लाख, सुपर्ण कुमार के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधि कुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार और अग्निकुमार के 76-76 लाख तथा वायुकुमार देवों के 96 लाख भवन हैं। इन दस कुलों के सभी भवनों का सम्मिलित योग 77210003 है (3-4)। इसके बाद व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच । इनके असंख्य प्रमाण भवन है । तियंच लोक, मध्यलोक, द्वीप, समुद्र, मानुसोत्तर पर्वत, अढाई द्वीप, स्वयंभूरमण आदि स्थानों पर उनका निवास रहता है (5)। वैमानिक देवों के सोलह भेद हैं- सौधर्य, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इन स्वर्गों में दो प्रकार के पटल है-कल्प और कल्पातीत । कल्प कोई बारह मानता है और कोई सोलह । हरिषेण सोलह कल्प मानते हैं, ग्रेवेयक, अनुदिश और अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं । ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और शतार को छोड़कर शेष बारह कल्प हैं । इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पांच अनु तर विमान हैं । ये सभी विमान क्रमश: ऊपर ऊपर हैं। सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्मब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, सतार-सहस्रार इन छह युगलों के बारह स्वर्गों में, आनत प्राणत, अरण-अच्युत स्वर्गों में, नव अनुदिश विमानों और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थ सिद्धि इन पांच अनुत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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