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धपरिक्खा धूर्ताख्यान की परम्परा में लिखित व्याय प्रदान काव्य है जिसमें शास्त्रार्थ के माध्यम से परपक्ष खण्डन और स्वपक्ष मण्डन किया गया है। पौराणिक कथाओं की तत्यधि समीक्षा और दीवेतुकी, अतिरंजित बातों को सबल - सयुक्ति नर्कों से निरर्थक सिद्ध करना इस काव्य का उद्देश्य रहा है।
इस महाकाव्य के रचयिता आचार्य हरिषेण दशवीं शताब्दी के महाकवि हैं। जिन्होंने ग्यारह संधियों में इसकी रचना की है। इसकी भाषा अपभ्रंश है । शैली मनोरंजक है । मनोवेग अपने अभिन्न मित्र पवनवेग को किस प्रकार सन्मार्ग पर लाता है और उसे मिध्यादृषियों से उन्मुक्त करता रु, इसका मुख्य विषय है अहिंसा और सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि में किसी के हृदय परिवर्तन करने का यह एक अनुपम उदाहरण है। यहां किसी के विचार का अपमान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विकास के लिए उसकी स्वानुभूतिक मीमांसा है ।
परीक्षा प्रधान काव्यों की परंपरा में रचित (वि.सं २०४४) इस ग्रन्थ का संपादन प्राचीन प्रतियों के आधार पर विस्तृत भावानुवाद और व्याकरणिक विवेचन के साथ बार हो रहा है। प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए भी
काव्य के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित करने का श्रेय आचार्य हरिषेण को दिया जा सकता है। इस में शान्तरस प्रधान है तथा प्रसाद शैली में रूपक, उपमा, उत्पेक्षा आदि अलंकारों का आकर्षक प्रयोग हुआ है।
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