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________________ से हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने आहारविधि पूर्वक उन्हें इक्षुरस का भोजन कराया। उस समय भरत चक्रवर्ती ने रत्नत्रय से युक्त उत्तम श्रावकों को ब्राह्मण वर्ण के रूप में स्थापित किया । परन्तु कालान्तर में वे अपने कुलधर्म को भूल गये और पाखण्डमय आचरण करने लगे । अश्वमेध, नरमेध, राजसूय आदि यज्ञ करने लगे । सारस, मेरुण्ड आदि पक्षियों को मारकर भक्षण करने लगे, रोहित मच्छ आदि को भी मारकर खाने लगे। गोमेध, पशुमेध, पशुहोम आदि हिंसक कार्यों में प्रवृत्त हो गये । अभक्ष्य भक्षण मद्यपान, परदारासेवन आदि जैसे गहित कार्य करने लगे। वेद अक्षुण्ण प्रमाण हैं, अविनाशी हैं यह मानने लगे । वासुदेव कृष्ण के शव को छः माह तक भ्रातृमोह के कारण छ: माह तक रखे रहे, इसलिए कंकालव्रत प्रारंभ हो गया । इसी प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ की तीर्थ में शुद्धोदन राजा हुए। उन्होंने भी अशुद्धाहार लेना प्रारंभ कर दिया। मछली, मांस आदि भक्षण करना भी उन्होंने विहित मान लिया। फिर जिन शासन से पृथक् होकर उन्होंने बौद्धधर्म की स्थापना की (4-10)। पवनवेग का हृदय परिवर्तन ___इस प्रकार धर्मपथ पाकर और मिथ्यात्व का वर्णन सुनकर पवनवेग ने मनोवेग से कहा- मित्रवर, अभी तक मैं अन्धकार में था। अब मुझे विवेक रखना होगा। तुम मेरे परममित्र हो, परमस्वामी हो, बंधु हो, गुरु हो, मेरा मिथ्यात्व तुमने दूर कर दिया है, दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति तुम्हारे कारण हुई है, मैं अब जैन धर्म ग्रहण करना चाहता हूँ। वे लोग धन्य हैं जो जिनेन्द्र के गुणों का श्रवण करते हैं, जिनधर्म का पालन करते हैं और विमल चित्त में परोपकार के भाव को लिये रहते हैं। यह सोचकर उन्होंने उज्जयिनी नगरी में केवलज्ञानी मुनि के पास पहुंचने का निश्चय किया (12) । यह निश्चय कर दिव्याभूषणों से युक्त वे दोनों दिव्य विमान से निर्मल ज्ञानी मुनिचंद्र (जिनमति?) के पास पहुंचे। उन्हें प्रणामकर वे उनके पास बैठ गये । मनोवेग ने मुनिराज से कहा- यह हमारा परममित्र पवनवेग है । पाटलिपुत्र में वेद-पुराणों की सत्य-असत्य कथाओं को सुनकर मिथ्यात्व की ओर से इसका मन विरक्त हो गया है और इसने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया है। अब इसे ऐसा उपदेश दीजिए जिससे यह व्रताभरण से भूषित हो जाये (13) । मुनिवर ने उसके निवेदन पर पवनवेग को श्रावकवतों का वर्णन किया। श्रावकव्रत हे पवनवेग, तुम अब श्रावकवतों को ग्रहण करो। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पंचाणुव्रतों का पालन करो। पंच उदम्बर फलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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