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________________ ७१ ऊंचा है। उस पर चढ़ना संभव नहीं है । तब मैंने अपने हाथ से शिर को काटकर पेड़ पर फेंक दिया। शिर ने कवीठ खाकर मेरी क्षुधा तृप्ति की और बहुत सारे फल दांतों को तोड़े बिना ही नीचे गिरा दिये । मेरी क्षुधा - पूर्ति देखकर शिर पेड़ पर से नीचे गिरकर मेरे शरीर में पुन: जुड़ गया। फिर मैं उन कवीठों को लेकर भाई को खोजने निकल पड़ा। वहां देखा तो भाई सो रहा था और भेड़ों का कुछ भी पता नहीं था ( 2 ) | भाई को जगाकर मैंने पूछा तो उसने कहा- मुझे भेड़ों के विषय में कुछ भी पता नहीं है । मैं तो यहां पेड़ के नीचे सो गया था। इसी बीच भेड़ें कहां गईं, नहीं मालूम । यह जानकर मैं बहुत भयभीत हो गया और भाई से कहा कि अब हम लोग घर कैसे जायेंगे बिना भेड़ों के । पिताजी कोवित होंगे और पीटेंगे | अतः अपने देश न जाकर श्वेताम्बर साधु का भेष धारण कर, शिर मुड़ाकर, कंबल और लाठी ( करदण्ड) लेकर आज हम आपके नगर में आये हैं । यह हमारा कुल परम्परागत धर्म है। इसमें पूरा सुख भी है । ब्राह्मणों ने कहातुम लोग तपस्वी का भेष धारण किये हो और असत्य बोलते हो ( 3 ) । रावण दस शिर कथा श्वेतपटधारी मनोवेग ने कहा- रावण ने त्रिलोकाधिपति शिव की विविध भावों से अर्चना की और अपने नौ मस्तक काटकर वर याचना की । फिर वीस हाथों से उसने दिव्यनाद हस्तक नामक संगीत पैदा किया। तब महादेव ने पार्वती की ओर से अपनी दृष्टि हटाकर उसकी ओर देखा और वरदान दिया । रावण ने उसी से अपने शिरों को अपने कंधों पर चिपका लिया ( 4 ) | रामायण में यह सब लिखा है या नहीं ? जब रावण के कटे हुए नौ शिर संघटित हो सकते हैं तो क्या मेरा एक शिर संघटित नहीं हो सकता ? यदि शिव में शिर जोड़ने की शक्ति होती तो तपस्वियों द्वारा काटा गया अपना लिंग नहीं जोड़ लेते ? यह सब मात्र भ्रम है ( 5 ) । दधिमुख और जरासन्ध कथा मनोवेग ने पुनः अन्य पुराणों की भी इसी तरह की वेतुकी बातों को स्पष्ट किया । उसने कहा - श्रीमित्रा नामक ब्राह्मणी के दधिमुख नामक पुत्र था । उनका केवल मस्तक था, हाथ-पैर नहीं था । वह श्रुति-वेद का ज्ञाता और धर्म का आचरणक था । एक दिन अगस्त्य मुनि को आया हुआ देखकर उसने उनसे विनम्र अनुरोध किया कि हे मुनिवर, आप कृपया मेरे घर भोजन कीजिए | अगस्त्य मुनि ने कहा- तुम्हारा घर कहां है ? घरवाला वही कहलाता है जिसमें महिला हो । तुम्हारे पिता का घर तुम्हारा घर नहीं है । अतः कुमारावस्था में दान नहीं दिया जा सकता है । तब दधिमुख ने अपने माता-पिता से कहा कि वे उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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