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________________ ७० ने यह प्रतिज्ञा की कि जो भी तारा के भवन -द्वार पर जायेगा वह मेरी तलवार से मार दिया जायेगा । यह सुनकर सत्य सुग्रीव विराधित के माध्यम से राम के पास पहुंचा। राम ने उसकी सहायता का वचन दिया। कृत्रिम सुग्रीव के साथ राम, लक्ष्मण और सत्य सुग्रीव का युद्ध हुआ । कृत्रिम सुग्रीव ने सत्य सुग्रीव को घायल कर नगर में प्रवेश किया। फिर उसका युद्ध राम से हुआ । राम को देखकर ही उसकी वैताली विद्या लुप्त हो गई और वह यथार्थं सहसगति के रूप में आ गया और राम के साथ युद्ध करने लगा । राम ने अन्ततः उसका वध कर दिया । सुग्रीव को तारा मिल गई और वह उसके साथ रमण करने लगा । रमण करते करते 'सात दिन में सीता को खोज निकालूंगा' यह प्रतिज्ञा भी वह भूल गया । लक्ष्मण ने जाकर उसको उसकी प्रतिज्ञा का स्मरण कराया । इसके पूर्व सुग्रीव से खर-दूषण का युद्ध हुआ था और सुग्रीव पाताललका चला गया था । बाद में वह राम के पास सहायतार्थ आया था। जाम्बूनद ने उसकी सहायता की थी (19–21)। इस प्रकार परदुःख हारक राम के कारण सुग्रीव को अपनी पत्नी से पुनर्मिलन हुआ। राम ने विट सुग्रीव को मारकर सत्य सुग्रीव का दुःख हरण किया । परदारारमण का वैसा ही फल होता हैं जैसा विट सुग्रीव को मिला । ताराहरण इसी रूप में प्रसिद्ध है । पवनवेग को वैदिक पुराणों में प्रसिद्ध ताराहरण अयुक्त प्रतीत हुआ । वानर उनका हरण करें यह तथ्यसंगत नहीं लगता ( 22 ) । I संधि ९. नवम मनोवेग ने पवनवेग से कहा कि इसी तरह की कुछ ओर वेतुकी पौराणिक कथायें तुम्हें बताता हूँ । यह कहकर उसने श्वेताम्बर वेष धारणकर पटना नगर के छठे द्वार से प्रवेश किया और भेरी बजाकर सिंहासन पर बैठ गया । ब्राह्मण वाद करने आये और उससे नाम, गुरु, देश आदि के विषय में पूर्ववत् पुछने लगे और मनोवेग ने पूर्ववत् ही उत्तर दिया । ब्राह्मणों के आग्रह करने पर मनोवेग ने अपनी कथा सुनाई । कविट्ठखादन] कथा हम लोग ग्वाले के लडके हैं। किसी भय से भयवीत होकर स्वयं ही यह तप ग्रहण किया है । हमारे पिता आभीर देश के मोट्टणु गांव के रहने वाले हैं और भेड़ों (गुटुरधेनु) को पालने का व्यवसाय करते हैं। एक दिन भेड़ों की रक्षा करने वाला नौकर ज्वरग्रस्त हो गया तो हमारे पिता ने हम दोनों भाइयों को वन में भेजा ( 1 ) । उस वन में एक सुंदर कवीठों से लदा कवीठ वृक्ष देखा । मैंने अपने भाई से कहा- तुम भेड़ों को देखो, मैं कवीठ खाकर आता हूँ और तुम्हें भी ले आऊंगा | भाई के चले जाने पर मैंने देखा कि कवीठ का पेड़ बहुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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