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________________ के बिना उसे मेरा स्वादिष्ट भोजन भी ध्यर्थ लग रहा हैं। कुरंगी के पास तो कुछ था ही नहीं। उसने क्रोधित होकर पतले गोबर में कुछ गेहूं चने के दाने डालकर, व्यंजन के रूप में उसे दे दिया (14) । आसक्त बहुधान्यक उसे पाकर कृतकृत्य-सा हो गया और बडा स्वादिष्ट मानकर उसे खा गया । रक्त पुरुष क्या नहीं कर सकता ? महिलायें सर्पगति जैसी कुटिला होती है। रक्त पुरुष उनके कार्यों को नहीं समझ पाता। बहुधान्यक अपने दोष-अपराध की और सोचता रहा (15) । पूछने पर ब्राह्मण ने बताया- इस कुरंगीने अपनी सारी संपत्ति अपने जारों में लुटा दी । बहुधान्यक ने यह बात कुरंगी से जाकर कह दी । कुरंगी ने भट्ट पर अपने शीलापहरण का दोष लगाकर उसके विषय में भला-बुरा कहा । बहुधान्यक ने उसकी बात सही मानकर उसे निकाल दिया । स्त्री में आसक्त पुरुष स्त्री के दोष नहीं जान पाता और अपने ही हितचिन्तक के विरुद्ध हो जाता है । (15-16)। २. द्विष्ट मूढ कथा मनोवेग ने दूसरी द्विष्ट मूढ कथा कही-सौराष्ट्र देश के कोटि नगर में बडे संपन्न दो व्यक्ति थे- स्कन्ध और वक्र। इनमें वक्र अत्यन्त कुटिलगामी और दुखदायी था। दोनों में परस्पर विरोध था। एक बार वक्र को कोई असाध्य रोग हो गया । तब उसके पुत्र ने संसार की असारता समझाते हुए सरल प्रकृति बनकर धर्म-धारण करने का आग्रह किया। वक्र ने उसपर ध्यान नहीं दिया। बलिक कालानुरूप जानकर उसने अपने पुत्र से कहा (16)-हे वत्स, मैने स्कन्ध के विनाश का पूरा प्रयत्न किया पर उसमें सफल नहीं हो पाया। अब तुम इस काम को पूरा करना । ऐसा प्रयत्न करना जिससे इसका समूल विनाश हो जाये। उपाय यह है कि मेरे मर जाने पर तुम मेरे मृत शव को स्कन्ध के खेत में लकडियों के सहारे खंडा कर देना और अपनी गाय-भैस उसके खेत में छोड देना। यह देखकर वह मेरे उपर आक्रमण करेगा ! यह सब तुम छिपे हुए देखते रहना । जैसे ही वह आक्रमण करे, तुम जोर से चिल्लाना कि वक्र ने मेरे पिता को मार डाला । राजा यह जानकर स्कन्ध को मृत्यु दण्ड दे देगा। यह कहकर वक्र मर गया । पुत्र ने गलत होते हुए भी अपने पिता को आज्ञा का पालन किया। वक्र ने फलस्वरूप नरक दुःख पाये । द्विष्ट पुरुष अपनी हानि सोचे बिना ही दूसरे को दु.ख देने में प्रसन्नता का अनुभव करता है (17)। ३. मनो मूढ कथा मनोवेग ने कहा- कंठोष्ठ नाम का एक नगर था। वहां एक वेदपाठी भूतमति ब्राह्मण रहता था। उसकी बाल्यावस्था शास्त्राभ्यास में ही निकल गई। पचास वर्ष की अवस्था हो जाने पर कुटुम्बियों ने उसका विवाह एक तरुणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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