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अध्येता हैं। यहां से कोई भी विद्वान वाद जीतकर वापिस नहीं गया । तुम दिव्य मणि और आभूषणों से विभूषित हो अवश्य, पर या तो तुम्हें वायुरोग है, या तुम पिशाच पीडित हो, या कामदग्ध हो । ये वचन सुनकर मनोवेग ने कहाआप लोग व्यर्थ ही क्रोध कर रहे हैं। हम लोग तो इस सिंहासन पर कोतुकवश बैठ गये हैं । भेरी वादन भी यों ही कर दिया है। हम लोग तो तृणकाष्ठ बेचने वाले हैं । तुम्हारे पुराण और रामायण ग्रन्थों में हम जैसे बहुत लोग हैं ।। 4-6 ।।
षोडश मुट्ठि न्याय
विचार रहित मूढजन
विप्रों ने कहा- यदि पुराण में तुम्हें ऐसे पुरुष मिले हों तो बताओ, हम अवश्य विश्वास करेंगे । मनोवेग ने कहा- हम बता तो सकते हैं. पर भय लगता है । आप लोगों में कोई विचारवान् नहीं दिखाई देता । सत्य कथित को भी असत्य बुद्धि से 'सोलह मुक्की न्याय' की रचना करते हैं । विप्रगण ने कहा- यह 'सोलह मुक्की न्याय' क्या है ? मनोवेग ने कहा- सुनो मैं बताता हूँ - मलय देश में सुखरूप संगाल नामक एक ग्राम है । उसमें मधुकर नामक एक गृहपति रहता था। पिता के प्रति रोष के कारण वह घर से बाहर निकल गया और आभीर देश में पहुंच गया । वहां उसने आश्चर्यपूर्वक विभाग की हुई चनों की अनेक राशियां देखीं । ग्रामपति के पूछने पर उसने कहाआश्चर्य इसलिए कि जैसे यहा चनों की राशियां हैं वैसे ही हमारे यहां मिरचों की राशियां हैं । ग्रामपति ने सोचा हमारे यहां मिरचें नहीं मिलतीं है इसका यह उपहास कर रहा है । इसलिए इसे दण्ड दिया जाना चाहिए। यह सोचकर उसने मधुकर को अपने सेवकों से मस्तक पर आठ मुक्के लगवाये । सत्य वादन का यह फल जानकर वह वापिस अपने नगर संगाल पहुंचा। वहाँ उसने मिर्च की राशियां देखीं और कहा कि जैसे यहां मिरचों के ढेर हैं वैसे ही आभीर देश में मैंने चनों के ढेर देखे हैं । इस कथन को उपहास मानकर यहां भी उसे आठ मुक्के खाने पड़े । तभी से यह " षोडश मुट्ठि न्याय" प्रसिद्ध हो गया । इसका तात्पर्य है कि बिना प्रमाण के सत्य नहीं बोलना चाहिए । जो बोलता है वह असत्यभाषी की तरह दण्ड पाता है । इसी प्रकार मूर्खों के बीच सत्यवादी भी नहीं होना चाहिए। आप से सत्य कहा भी जायेगा तो आप लोग विश्वास नहीं करेंगे ॥ 7-8 ॥
दस मूर्खो की कथा
ब्राह्मणों ने कहा- आभीर देश वालों के समान हम लोग मूर्ख नहीं हैं । तुम निश्चिन्त होकर अपनी बात कहो । मनोवेग ने कहा- रक्त, द्विष्ट, मनोमूढ, व्युग्राही, पित्तदूषित आम्र, क्षीर, अगुरु, चन्दन और वालिश ( मूर्ख) ये
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