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________________ ८६ ने वैदिक पुराणगत अतिरंजित तत्वों को व्यावहारिक स्तर पर खड़े होकर नकार दिया है और उन्हें मानवीय तत्वों के आधार पर मोड़ दिया है । इतना अवश्य है कि महापुरुषों की व्यक्तित्व-शृंखला से जुड़कर इन कथाओं ने विद्याधरी कथाओं के रूप में अतिरंजित तत्त्वों को किसी सीमा तक बनाये भी रखा है। इस अस्वाभाविकता को दूर करने के लिए आचार्यों ने पूर्वोपार्जित कर्मों के फल को प्रदर्शित किया है। पौराणिक आख्यान महाकाव्यों के साथ ही प्रेमाख्यानक काव्यों की भी इसी से मिलती-जुलती एक लम्बी शृंखला जैन साहित्य में मिलती है। __ लगभग सारी पौराणिक कथाओं का आकलन रामायण और महाभारत के आख्यानकों में समाहित हो जाते हैं। रामायण को पद्मचरित तथा महाभारत को हरिवंश अथवा पाण्डव पुराण के रूप में व्याख्यायित किया गया है । त्रेसठ महाशलाका पुरुष तथा विशिष्ट जैन नायक-नायिकाओं के चरित भी इन्हीं पौराणिक कथाओं की सीमा में आ जाते हैं। महाभारत के पात्रों में हरिवंश कुलोत्पन्न बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्ण तथा उनके समकालीन पाण्डव और कौरवों का वर्णन है तथा रामायण के पात्र उनसे पूर्ववर्ती बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के काल में हुए हैं। महाभारत कथा की अपेक्षा रामकथा में परिवर्तन जैन परम्परा में अधिक हुआ है। अतः उस पर कुछ विशेष चर्चा आवश्यकता है। दधिमख और जरासन्ध कथा (9.6-10) दधिमुख नामक एक ब्राह्मण पुत्र (या नागवंशी) था। उसका केवल मस्तक था, हाथ-पैर नहीं थे । अगस्त्य मुनि के आग्रह पर उसने किसी तरह निर्धन कन्या से विवाह किया। वह कन्या उसको छीके पर रखकर भिक्षा मांगने लगी। जरा नाम की राक्षसी ने उस मस्तक के दोनों खण्ड़ों को जोड दिया जिससे उसका नाम जरासन्ध हो गया। (भाग. 9.22-8; 10.50-21: 71-3; 72-42; चण्डकौशिक मुनि द्वारा कृपा पूर्वक दिये गये फल का माताओं द्वारा भक्षण किये जाने पर पर उसका जन्म हुआ था (महा. सभा. 17.29) । बृहद्रथ ने आम दिया जिसे चण्डकौशिक ने आधा-आधा अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फलतः दोनों ने आधे-आधे बालक को जन्म दिया। दोनों ने उन्हें चौराहे पर फिकवा दिया। उन्हीं दोनों को जरा राक्षसी ने जोड़ दिया (महा. सभापर्व, 14.29-70)। 1. इन सभी के उद्धरणों के लिये देखिए- महाभारत की नामानुक्रमणिका, गोखपूर, सं. 2016; पौराणिक कोश, वाराणसी; भारतीय मिथक कोश, डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति, दिल्ली, 1986; वैदिक कोश-सूर्यकान्त, वाराणसी, 19631 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003672
Book TitleDhammaparikkha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Research Institute of Indology Nagpur
Publication Year1990
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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